गुरुवार, 20 मार्च 2014

छत्तीसगढ़ की सीमा घेरेगी पड़ोसी राज्यों की फोर्स

छत्तीसगढ़ सीमा में नक्सलियों की घुसपैठ को नाकाम करने के लिए पड़ोसी राज्यों की पुलिस से मदद ली जा रही है। हाल ही में आंध्रप्रदेश, ओडिशा, उप्र, बिहार और झारखंड के पुलिस अधिकारियों के साथ राज्य के अफसरों की बार्डर मीटिंग में लोकसभा चुनाव में आतंक फैलाने के लिए नक्सलियों की घुसपैठ को नाकाम करने की फूलप्रूफ रणनीति तय की गई। अफसरों का कहना है कि शांतिपूर्ण ढंग से संपन्ना हुए विधानसभा चुनाव की तर्ज पर लोकसभा चुनाव में भी अर्धसैनिक बलों की मदद से राज्य पुलिस बल नक्सलगढ़ के जंगलों की घेराबंदी करेगी। इससे नक्सलियों को जंगल से बाहर निकलने का मौका नहीं मिलेगा और वे कोई भी वारदात नहीं कर पाएंगे। राज्य के सीमावर्ती ओडिशा, आंध्रप्रदेश, महाराष्ट्र, मप्र, उप्र, बिहार और झारखंड सीमा को सील किया जाएगा। वहां पर पड़ोसी राज्यों की फोर्स की मौजूदगी से नक्सलियों के भागने के रास्ते बंद कर दिए जाएंगे। नक्सलियों के खिलाफ उच्च स्तरीय अभियान चलाकर पड़ोसी राज्य की फोर्स के साथ सूचनाओं का आदान-प्रदान किया जाएगा।
पुलिस मुख्यालय के सूत्रों ने बताया कि छत्तीसगढ़ में लोकसभा चुनाव तीन चरणों में होने है। बस्तर में पहले चरण तथा दूसरे चरण में कांकेर, राजनांदगांव और महासमुंद में चुनाव होंगे। बस्तर, कांकेर की सीमाएं ओडिशा से लगी हुई हैं। इन क्षेत्रों में फोर्स कड़ी निगरानी रखेगी। सीआरपीएफ और जिला पुलिस बल के सहयोग से चुनाव से पहले सर्च अभियान चलाया जाएगा। पुलिस मुख्यालय में ओडिशा के पुलिस अफसरों के साथ हुई बैठक में यह तय किया गया कि नक्सलियों के छिपने तथा कई अन्य स्थानों की जानकारी निरंतर देते रहेंगे। गौरतलब है कि मुख्य निर्वाचन आयोग के निर्देश पर आंध्रप्रदेश, मप्र, बिहार, उप्र तथा झारखंड के अफसरों के साथ प्रदेश के सीमावर्ती रेंज के अफसरों की बैठक भी हो चुकी है। बैठक में नक्सलियों के घुसपैठ को सख्ती से रोकने की रणनीति तय की गई।
सुरक्षा व्यवस्था कड़ी, फोर्स अलर्ट
लोकसभा चुनाव में सुरक्षा व्यवस्था के लिए बनाए गए नोडल अधिकारी आईजी जीपी सिंह ने 'नईदुनिया' को बताया कि चुनाव शांतिपूर्ण ढंग से संपन्न कराने की पूरी तैयारी कर ली गई है। चुनाव कराने आए केंद्रीय अर्धसैनिक बलों के जवानों को क्षेत्र की भौगोलिक स्थिति के बारे में जानकारी दी जा रही है, ताकि उन्हें ऑपरेशन के दौरान कोई दिक्कत न हो। सीमा पर नक्सलियों की घुसपैठ, अवैध हथियार तथा शराब आदि की तस्करी रोकने फोर्स को हाईअलर्ट रहने को कहा गया है। फोर्स की संख्या कितनी होगी फिलहाल सुरक्षा की दृष्टि से इसका खुलासा करने से अफसर इंकार कर रहे है।
दुर्गम इलाकों में हेलीकॉप्टर से जाएगा मतदान दल पुलिस सूत्रों ने बताया कि बस्तर व राजनांदगांव क्षेत्र के कुछ ऐसे दुर्गम इलाके हैं, जहां मतदान दलों को इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीन के साथ मतदान केंद्रों तक सुरक्षित पहुंचाना चुनौती भरा काम है। यहां पर लगातार नक्सली गतिविधियां होती रहती हैं। मतदान को प्रभावित करने के लिए नक्सली मतदान दलों को निशाना बनाकर इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीन को नुकसान पहुंचाने की कोशिश कर सकते हैं। ऐसे हालात में मतदान दलों को वायुसेना के हेलीकॉप्टर से पूरी सुरक्षा व्यवस्था के साथ वहां पर पहुंचाया जाएगा।

आखिर फजीहत कराकर ही माने 'लालÓ

लगभग 24 घंटे तक चले हाई वोल्टेज पोलिटिकल ड्रामे में अपनी फजीहत कराने के बाद 20 मार्च की शाम को भाजपा के 'लौह पुरुषÓ लालकृष्ण आडवाणी ने अपना 'बालÓ हठ छोड़ कर संसदीय बोर्ड के फैसले के अनुरूप गुजरात के गांधीनगर से ही चुनाव लडऩे पर रजामंदी दे दी। लेकिन जिस तरह भोपाल से चुनाव लडऩे पर अड़े आडवाणी को गांधीनगर सीट से चुनाव लडऩे के लिए मजबुर किया गया इस एपीसोड से यह तो जाहिर हो गया कि अब भाजपा में लालकृष्ण केवल शोपीस बनकर रह गए हैं। इस बात को आडवाणी भी भली भांति समझते हैं,लेकिन पीएम बनने की चाह में वे अपनी फजीहत करवा बैठते हैं। एक तरफ जहां भाजपा के बड़े नेता और कार्यकर्ता प्रधानमंत्री पद के लिए मोदी का नाम लिए थक नहीं रहे वहीं दूसरी तरफ भाजपा के आडवाणी इसे पचा नहीं पा रहे इसलिए उन्हें जब भी मौका मिलता है अपने दर्द को सबके सामने लाने से पीछे नहीं हटते। गौरतलब है कि 19 मार्च को जारी भाजपा की लोकसभा लिस्ट में आडवाणी को लोकसभा चुनाव लडऩे के लिए गांधीनगर से उम्मीदवार बनाया गया था। लेकिन गांधीनगर से पांच बार संसद के लिए चुने जा चुके आडवाणी इस बार गुजरात से चुनाव लडऩे को तैयार नहीं थे। आडवाणी इस बार नरेंद्र मोदी के गुजरात की जगह शिवराज सिंह चौहान के मध्य प्रदेश से लोकसभा की नैया पार करना चाहते थे। आडवाणी के गांधीनगर से चुनाव न लडऩे पर राजनीतिक गलियारों में इस बात की चर्चा थी कि आडवाणी को अपनी ही पार्टी की गुजरात इकाई पर भरोसा नहीं है। कहा जा रहा था कि मोदी के पीएम उम्मीदवार बनने के समय चूंकि आडवाणी ने विरोध किया था, इसलिए मुमकिन है आडवाणी को गांधीनगर में भीतरघात का सामना करना पड़े। इस कारण आडवाणी किसी तरह का राजनीतिक जोखिम नहीं उठाना चाहते थे। प्रधानमंत्री पद की चाह भी भाजपा की तरफ से पीएम इन वेटिंग रहे आडवाणी भोपाल से चुनाव लडऩे की जिद पर शायद इसलिए भी अड़े थे, क्योंकि उन्हें लगता था कि अगर एनडीए लोकसभा चुनाव में बहुमत हासिल करती है और अगर मोदी के नाम सहमति नहीं बनी तो मध्य प्रदेश से जीतने वाले सभी सांसद आडवाणी के पीछे चट्टान की तरह खड़े होकर उनका साथ दे सकते हैं। इसलिए आडवाणी किसी भी सूरत में लोकसभा चुनाव जीतना चाहते हैं। राजनीतिक विश£ेषकों का मानना कि भले ही मोदी पीएम पद के उम्मीदवार हैं, लेकिन अगर भाजपा 170-180 सीटों पर अटकी तो आडवाणी की लॉटरी निकल सकती है। ऐसा इसलिए क्योंकि मोदी से दूरी बनाकर रखने वाली पार्टियां आडवाणी के नाम पर सहमत हो सकती हैं। संघ के कड़े रूख के बाद पड़े नरम संसदीय बोर्ड द्वारा आडवाणी को गांधीनगर सीट से लड़ाने के एलान के तुरंत बाद सुषमा स्वराज और नितिन गडकरी उन्हें मनाने पहुंचे थे। सुषमा और गडकरी ने करीब एक घंटे आडवाणी के घर पर उनसे बातचीत की थी। लेकिन, आडवाणी ने साफ कर दिया कि वह भोपाल से ही चुनाव लड़ेंगे। आडवाणी ने भाजपा आलाकमान से कहा कि उन्हें अपनी सीट चुनने का अधिकार चाहिए। वह खुद तय करना चाहते हैं कि उन्हें किस सीट से लडऩा है। जब आडवाणी गांधी नगर की वजाय भोपाल से चुनाव लडऩे की जिद पर अड़ रहे तो भाजपा के पीएम उम्मीदवार नरेंद्र मोदी ने 19 मार्च को दिल्ली में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के झंडेवालान कार्यालय में संघ प्रमुख मोहन भागवत से मुलाकात की थी। समझा जाता है कि दो घंटे तक चली इस बैठक में गांधीनगर से भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी की उम्मीदवारी एवं अन्य मुद्दों पर चर्चा की गई थी। मोदी चुनाव समिति की बैठक के बाद सीधे संघ कार्यालय गए थे। उसके बाद आडवाणी को संघ ने सख्त चेतावनी दी थी। संघ ने कहा कि, 'लडऩा है तो गांधीनगर से लड़ें वरना घर बैठेंÓ। संघ ने आडवाणी से साफ कह दिया कि सभी नेताओं को भाजपा संसदीय बोर्ड का फैसला मानना चाहिए, संसदीय बोर्ड ने आडवाणी को गांधीनगर से टिकट दिया है। उसके बाद भी चौबीस घंटे में लगातार आडवाणी को मनाने की कोशिशें होती रहीं। संघ ने पुन:हस्तक्षेप किया, लेकिन परदे से। भाजपा नेताओं को संघ ने सलाह दी कि आडवाणी को हर स्तर पर समझाने की कोशिश होनी चाहिए पर पार्टी हित सबसे ऊपर है। इसके बाद खुद मोदी ने उनसे मुलाकात की। राजनाथ भी कभी खुद तो कभी दूसरे वरिष्ठ नेताओं के जरिए उन्हें समझाते रहे। उसके बाद का खाका तैयार था। आखिरकार आडवाणी की मंशा के अनुरूप ही राजनाथ ने बयान जारी कर कहा कि अपने चुनाव क्षेत्र का फैसला खुद आडवाणी लें। 20 मार्च की शाम होते-होते आडवाणी मान चुके थे। तब तक उनकी इतनी किरकिरी हो चुकी थी कि उन्हें भाजपा का विभिषण तक कहा जाने लगा। 'लौह पुरुषÓ का दुविधाग्रस्त मौन अपनी 'लौह पुरुषÓ वाली छवि के बल पर अटल बिहारी बाजपेयी के साथ मिलकर भाजपा को इस मुकाम तक पहुंचाने वाले आडवाणी की पीएम बनने की लालसा है। लेकिन जिस तरह से उनकी इच्छा को दबाकर पार्टी ने नरेंद्र मोदी को पीएम का उम्मीदवार घोषित किया है उससे वह आहत हैं। इस दुविधाग्रस्त स्थिति में जब भी मौका मिलता है वे मौन धारण कर लेते हैं,जिससे पार्टी के रणनीतिकार दुविधा में फंस जाते हैं। हालांकि आडवाणी का एक बार फिर मौन टूटने के बाद पिछले छह-सात महीने में भाजपा दूसरी बार थोड़ा डगमगा कर फिर संभली है। एक तरह से गोवा घटनाक्रम-दो का भी अंत हो गया। गोवा कार्यकारिणी में नरेंद्र मोदी का कद बढ़ाने के बाद भाजपा के अंदर शुरू हुए घटनाक्रम की तर्ज पर ही आडवाणी ने 20 मार्च को भी लड़ाई खत्म कर दी। बहरहाल, आडवाणी को मना तो लिया गया लेकिन यह संकेत भी दे दिया गया कि चुनाव की दहलीज पर खड़ी पार्टी कोई भी फैसला किसी के दबाव में नहीं करेगी। आडवाणी का बाल हठ देख पार्टी के बड़े नेता मीडिया के सामने सफाई दे-देकर थक गए हैं। राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि आडवाणी अगर इसी तरह से बाल हठ करते रहे तो वह दिन दूर नहीं जब उनका भी हाल मशहूर वकील राम जेठमलानी जैसा हो जाएगा। हारे लालकृष्ण की भावुक सफाई 24 घंटे के ड्रामे के दौरान जब संगठन ने आडवाणी की बात नहीं मानी तो आखिरकार उन्होंने अपनी जिद छोड़ते हुए भाव विव्हल होकर एक बयान में कहा कि वह पार्टी नेताओं के रुख से भावुक हो गए हैं। पूरे संसदीय बोर्ड और चुनाव समिति ने मेरे लिए गांधीनगर सीट चुनी है, जबकि पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने गांधीनगर या भोपाल में कोई भी सीट चुनने का विकल्प मेरे लिए छोड़ दिया है। मैं खुद गांधीनगर से भावनात्मक रूप से जुड़ा रहा हूं। लिहाजा, मैंने इस बार भी गांधीनगर से चुनाव लडऩे का मन बनाया है। उन्होंने कहा कि पार्टी के सहयोगियों ने सीट चुनने का फैसला मेरे ऊपर छोड़ा था। अपने सहयोगियों की बातों ने मेरे दिल को छू लिया है। मैं हमेशा से गांधीनगर से जुड़ा रहा हूं। 1991 से मैं यहां से चुनाव लड़ता रहा हूं। इस बार भी मैं यहीं से चुनाव लड़ूंगा। मैं गुजरात और मध्य प्रदेश भाजपा यूनिट को धन्यवाद देता हूं।Ó इसके अतिरिक्त आडवाणी ने भोपाल के मौजूदा सांसद कैलाश जोशी, मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज चौहान, राज्य भाजपा अध्यक्ष नरेंद्र सिंह तोमर और राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह का भी धन्यवाद किया। भोपाल में होर्डिग से फजीहत आडवाणी के चुनाव क्षेत्र को लेकर जिस दिन दिल्ली में संसदीय बोर्ड और चुनाव समिति मंथन करने वाली थी उस दिन यानी 19 मार्च की सुबह उनके भोपाल से लोकसभा चुनाव लडऩे की चर्चा के साथ ही जिला भाजपा की तरफ से रोशनपुरा, कमला पार्क और वीआईपी रोड पर उनके स्वागत में होर्डिंग लग गए। भाजपा के भीतर चर्चा थी कि आलोक शर्मा के विरोधी कुछ नेताओं ने यह होर्डिंग लगाए हैं। शाम होते-होते इनमें से दो होर्डिंग हट गए। कांग्रेस ने इस पर प्रतिक्रिया दी कि यह 'होर्डिंग वारÓ भाजपा के भीतर मची खींचतान और गुटबाजी का नतीजा है। भाजपा ने इसे कार्यकर्ताओं का उत्साह बताया। उधर, जिला भाजपा अध्यक्ष आलोक शर्मा ने कहा कि कुछ उत्साही कार्यकर्ताओं ने यह होर्डिंग लगा दिए थे। शिवराज से लाल को बड़ी आस नरेंद्र मोदी को इस मुकाम तक पहुंचाने में लालकृष्ण आडवाणी का अहम रोल रहा है। लेकिन जबसे मोदी का कद उनसे बड़ा हुआ है उन्होंने मप्र के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की तरफदारी शरू कर दी है। गौरतलब है कि कुछ दिन पहले आडवाणी ने ग्वालियर में एक कार्यक्रम में परोक्ष रूप से शिवराज को मोदी से बेहतर सीएम बता दिया था। उन्होंने कहा था कि मोदी ने तो पहले से स्वस्थ राज्य को उत्कृष्ट बनाया है, जबकि शिवराज ने बीमारू राज्य को विकास प्रदेश में बदल दिया। आडवाणी ने शिवराज को वाजपेयी जैसा नेता भी करार दिया था। भाजपा के एक बड़े नेता की तरफ से दिए गए इस से यह समझा जाने लगा कि पार्टी में सब कुछ सही नहीं चल रहा। जानकार इसके पीछे की जो वजह मान रहे हैं वह उनका पार्टी द्वारा लगातार उपेक्षित किया जाना है। इस समय आडवाणी अपनी बात पार्टी में पुरजोर तरीके से नहीं रख पा रहे हैं। पार्टी के बड़े नेता से लेकर तमाम कार्यकर्ता तक यह मानकर चल रहे हैं कि आडवाणी का वक्त समाप्त हो गया है और अब दौर मोदी जैसे लोकप्रिय नेता का आ चुका है। वैसे आडवाणी अपनी घटती वरीयता के पीछे मोदी को ही वजह मानते हैं। तभी तो एक तरफ पूरी पार्टी मोदी की सुर में सुर में मिला रही है वहीं आडवाणी अपना अलग ही राग अलाप रहे हैं। संघ के एक वरिष्ठ नेता कहते हैं कि लाल को शिवराज में अपने मान-सम्मान की आस दिख रही है। इसलिए वह शिवराज को मोदी से बेहतर बताने का कोई भी मौका नहीं चुकते हैं।

गजब का खेल बीजेपी के सारे समीकरण फेल

बीजेपी के सबसे सीनियर नेता और फाउंडर मेंबर लालकृष्ण आडवाणी के साथ जिस तरह का व्यवहार हो रहा है, उसने भी निश्चित रूप से कई पुराने भाजपाइयों को ठेस पहुंचाई होगी। जब तक उन्होंने गांधीनगर से चुनाव लड़ने की इच्छा जताई, किसी ने उन्हें कोई आश्वासन नहीं दिया, और जैसे ही वे भोपाल को गले लगाने को तैयार दिखने लगे, पार्टी ने उन्हें गांधीनगर का टिकट दे दिया। क्या गजब का खेल है, इस चुनाव में तो, सारे समीकरण फेल हैं। जगदम्बिका पाल, राम कृपाल यादव, मनोज तिवारी.. आप जानते हैं इन तीनों में कॉमन क्या है? ये तीनों ही बीजेपी की धुर विरोधी रही पार्टियों के सदस्य थे और मनोज तिवारी को छोड़ दिया जाए, तो बाकी दो तो अपनी-अपनी पार्टियों के प्रमुख नेताओं में शामिल थे। इन्होंने आज पार्टी छोड़ी, अगली दो-चार रातों में पुरानी विचारधारा से पीछा छुड़ाया, और तुरंत ही भगवा विचारधारा में रंग गए। है न कमाल की बात! और इससे भी ज्यादा कमाल तो बीजेपी के थिंक टैंक ने दिखाया। इन साहब लोगों को तुरंत ही अपने उन कार्यकर्ताओं पर तरजीह देते हुए लोकसभा चुनाव लड़ने के लिए टिकट थमा दिया, जो सालों से पार्टी की विचारधारा अपने कंधों पर ढोते रहे हैं। जगदम्बिका पाल का तो व्यापक विरोध हुआ था। बीजेपी कार्यकर्ता साफ कह रहे थे कि अगर पाल को टिकट दिया गया, तो वे पार्टी ही छोड़ देंगे। फिर भी इन सारे विरोधों को दरकिनार करते हुए बीजेपी की संसदीय बोर्ड ने पाल को टिकट दे दिया। अब आप ही बताइए, उन कार्यकर्ताओं के दिलों पर क्या गुजरेगी जिन्होंने सालों अपने खून-पसीने से पार्टी की विचारधारा को सींचा। जिन कार्यकर्ताओं को इन्हीं जगदम्बिका पाल ने न जाने कितने ही मौकों पर गरियाया होगा, उन्हीं कार्यकर्ताओं से आप इनके पक्ष में जय-जयकार करवाने की उम्मीद कैसे कर सकते हैं। कोई भी स्वाभिमानी व्यक्ति ऐसा नहीं करेगा। दशकों तक कांग्रेसी विचारधारा के झंडाबरदार रहे पाल भी एकाएक चंद दिनों में भगवा विचारधारा में कैसे रंग गए, यह भी सोचने वाली बात है। इतनी तेजी से तो गिरगिट भी अपना रंग नहीं बदलता होगा। रामकृपाल यादव भी लालू प्रसाद यादव के पुराने साथी रहे हैं। उन्होंने भी टिकट न मिलने से नाराज होकर पार्टी छोड़ी, बीजेपी में शामिल हुए, और बीजेपी ने भी अपने समर्पित कार्यकर्ताओं की छाती पर मूंग दलते हुए उन्हें पार्टी का टिकट थमा दिया। जो रामकृपाल सालों तक राजनाथ, जोशी और मोदी को गालियां देते रहे, उन्हें पार्टी में शामिल कर टिकट दे दिया गया, और जो कार्यकर्ता इन्हीं नेताओं की जय-जयकार करते रहे, उन्हें बस जयकारा लगाने लायक ही समझा गया। क्या त्याग, सेवा और समर्पण की बीजेपी में कोई कीमत नहीं? क्या इसी के दम पर बीजेपी बार-बार खुद को पार्टी विद डिफरेंस कहती है? नेता पहले भी अपनी पार्टी बदलते रहे हैं, इससे मुझे क्या किसी को भी कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए। लेकिन चुनाव के मौसम में, जब पार्टी भी मान रही हो कि बीजेपी की लहर है, जनता कांग्रेसनीत सरकार को उखाड़ फेंकने के लिए बेचैन है, तो इन दलबदलुओं को अपने कार्यकर्ताओं के उपर लाद देना कहीं न कहीं ये दिखा देता है कि आप कमजोर हैं। यह कौन सी लहर है जो आपको अपनी ही पार्टी के कार्यकर्ताओं की क्षमता पर भी विश्वास नहीं करने देती कि वे भी चुनाव जीत सकते हैं। इन नेताओं को यदि पार्टी की विचारधारा में इतना ही भरोसा था, तो अभी क्यों आए? पाल अगर साल-दो साल पहले कांग्रेस छोड़कर आते, कहते कि सरकार के घोटालों और जनता के प्रति सरकार की उपेक्षा देखकर वे बीजेपी में आए, तो उनका सेवाभाव समझ में आता। पार्टी के कार्यकर्ताओं को भी कोई दिक्कत नहीं होती, लेकिन पाल के ही शब्दों में कांग्रेस ने उन्हें उनका हक नहीं दिया, उनसे जूनियर लोगों को मंत्री बनाया गया, इसकी तकलीफ उनको थी और इसीलिए उन्होंने पार्टी छोड़ दी। और बीजेपी ने भी उनको हाथों-हाथ लिया और टिकट थमा दिया, कमाल है न!
हरियाणा, पंजाब, यूपी और बिहार..
इन सारे राज्यों में इतने पैराट्रूपर्स को बीजेपी ने टिकट दिया है, कि आम जनता और कार्यकर्ता समझ ही नहीं पा रहे हैं कि अब क्या करें। इन्हीं के अत्याचार और उपेक्षा से तो तंग होकर उन्होंने कांग्रसनीत सरकार को उखाड़ फेंकने का निश्चय किया था, अब फिर यही लोग, उस पार्टी की तरफ से आ गए हैं, जिसे जनता विकल्प समझ रही थी। निश्चित रूप से बीजेपी की लहर देश में थी, अभी भी है। बीजेपी के नेता जैसा कि दावा करते रहे हैं, यह लहर सुनामी तो बनेगी जरूर, पर इसमें बीजेपी डूबेगी या कांग्रेस, अब यह देखने वाली बात होगी। और जहां तक मेरी बात है, मुझे तो लग रहा है कि मोदी के अश्वमेघ के घोड़े को उन्हीं की पार्टी के कुछ नेता रोकन में लगे हैं। फिलहाल आप इस चुनावी सीजन का मजा लीजिए, और वोट जरूर दीजिएगा, क्योंकि वही आपकी असली ताकत है।
गांधीनगर से लड़ें वरना घर बैठें
गांधीनगर के बजाय भोपाल से लड़ने को लेकर अड़े लालकृष्ण आडवाणी को बीजेपी के कई बड़े नेता मनाने में लगे हैं। पार्टी के पीएम कैंडिडेट नरेंद्र मोदी खुद आडवाणी के घर पहुंचे और करीब एक घंटे तक वहां रहे। मोदी के निकलने के बाद सुषमा स्वराज भी आडवाणी के घर पहुंचीं। वह वहां मौजूद थीं, इसी दौरान वेंकैया नायडू भी वहां पहुंचे और उनके बाद अरुण जेटली ने आडवाणी को मनाने की कोशिश की। शाम को पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह के दिल्ली पहुंचने के बाद इस विवाद के पटाक्षेप होने की उम्मीद है। इस बीच संघ ने साफ 'संदेश' दे दिया था कि अगर आडवाणी पार्टी द्वारा तय की गई सीट पर नहीं लड़ना चाहते हैं, तो रहने दें। पार्टी नेतृत्व और संघ के रुख को देखते हुए भोपाल में आनन-फानन में वे होर्डिंग्स हटा लिए गए जो वहां आडवाणी की दावेदारी का स्वागत करते हुए लगाए गए थे। अंग्रेजी अखबार टेलिग्राफ के मुताबिक, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने आडवाणी को सख्त चेतावनी दी है। रिपोर्ट के मुताबिक संघ ने कहा है, 'सभी नेताओं को बीजेपी संसदीय बोर्ड का फैसला मानना चाहिए। लड़ना है तो गांधीनगर से लड़ें वरना घर बैठें।'इससे पहले मोदी ने संकट को सुलझाने के लिए बुधवार की रात संघ प्रमुख मोहन भागवत से मुलाकात की थी, जबकि सुषमा स्वराज और नितिन गडकरी ने भी आडवाणी से मुलाकात की थी। बाद में गडकरी और सुषमा पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह से मिलने पहुंचे। मोदी से तनावपूर्ण संबंध के अलावा आडवाणी की नाराजगी के कई कारण बताए जा रहें हैं। आडवाणी के कट्टर समर्थक और अहमदाबाद (पूर्व) से मौजूदा सांसद हरिन पाठक के टिकट कटने की चर्चा है। इसके अलावा जसवंत सिंह को भी अभी तक टिकट नहीं मिला है। वह बाड़मेर से चुनाव लड़ना चाहते हैं, लेकिन बताया जाता है कि राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे उन्हें लड़ाने के पक्ष में नहीं हैं। भोपाल से लड़ने के दांव को आडवाणी की अपने नजदीकियों को टिकट दिलाने के लिए मोदी पर दबाव की रणनीति के रूप में भी देखा जा रहा है। माना जा रहा है कि हरिन पाठक को अहमदाबाद (पूर्व) से टिकट देने की घोषणा अब हो जाएगी। सूत्रों के मुताबिक, कुछ ही दिन पहले अपने संसदीय क्षेत्र गांधीनगर से ही चुनाव लड़ने की सार्वजनिक इच्छा जता चुके आडवाणी अब शायद इससे खफा है कि उनकी सीट घोषित होने में देर क्यों लगी, जबकि पार्टी के दूसरे बड़े नेताओं को लेकर संशय पहले ही खत्म हो गया था। सूत्रों के मुताबिक पहली चार लिस्टों में भी नाम की घोषणा न होने से वह आहत थे। इसी बीच भोपाल से उनको लड़ने का अनुरोध आया और यह बढ़ता गया, तो पार्टी के गलियारों में आडवाणी समर्थकों ने पूछ लिया कि जब सब अपनी पसंद की सीट पर लड़ रहे हैं, तो वह अपनी पसंद की भोपाल सीट पर क्यों नहीं लड़ सकते? इशारा मोदी की पसंद की वाराणसी, राजनाथ सिंह की पसंद की लखनऊ और ऐसी ही अन्य सीटों और नेताओं की तरफ था। सूत्रों ने बताया कि आडवाणी को इस बात का भी कष्ट है कि गुजरात बीजेपी यूनिट ने उनका विरोध किया था, लेकिन मुख्यमंत्री मोदी के हस्तक्षेप के बाद प्रदेश समिति ने गांधीनगर से उनके नाम की सिफारिश की। गुजरात में आडवाणी के करीबी एक बीजेपी लीडर ने कहा कि उनको अहसास है कि गुजरात में पार्टी काडर उन्हें हो सकता है कि पूरा सपॉर्ट न दे। 2009 के कैंपेन में भी उन्हें ज्यादा सपोर्ट नहीं मिला था। बीजेपी लीडर ने कहा कि इसे देखते हुए आडवाणी ने मध्य प्रदेश के सीएम शिवराज सिंह चौहान का न्योता स्वीकार करने का फैसला किया था। बीजेपी की केंद्रीय चुनाव समिति के एक सदस्य ने बताया कि मोदी बैठक में कहते रहे कि आडवाणी को किसी भी कीमत पर गांधीनगर से लड़ने के लिए मनाया जाना चाहिए। दरअसल, गुजरात से उनके चले जाने से मोदी पर बुरा असर पड़ा होता। इससे विरोधियों को पूरे कैंपेन के दौरान निशाना साधने के लिए हथियार मिल जाएगा कि मोदी पार्टी के सबसे सीनियर लीडर को अपने राज्य में जगह नहीं दे सके। दूसरा डर यह था कि आडवाणी अगर भोपाल से चुनाव लड़ते हैं तो कहीं गुजरात के विकास की तुलना वह फिर से मध्य प्रदेश से न कर दें।

बाबूलाल गौर फिर जगी आस

भोपाल। गुजरात की स्थानीय इकाई ने गांधीनगर और अहमदाबाद ईस्ट से लालकृष्ण आडवाणी को प्रत्याशी बनाने की मांग उठाई थी। बुधवार को नई दिल्ली में दिनभर चले मंथन के बाद आडवाणी को गांधीनगर से टिकट दिया गया है। हालांकि आडवाणी भोपाल को लेकर अड़े हुए हैं। वे बदलते राजनीतिक परिदृश्य से आहत हैंं। कृष्ण भयभीत हैं कि इस राजनीतिक महाभारत में उन्हें पराजित कराने का षड्यंत्र रचा जा रहा है। लिहाजा उन्होंने अपनी परंपरागत सीट गांधीनगर को छोड़कर राजा भोज की नगरी और शिव-राज के प्रभावशाली क्षेत्र भोपाल से चुनाव लडऩा मुनासिब समझा, लेकिन ऐसा फिलहाल संभव नहीं हो पाया। भोपाल से बाबूलाल गौर अपनी बहू कृष्णा गौर के लिए टिकट मांग रहे हैं। उनका कहना है कि, उन्हें पार्टी ने आश्वस्त किया है कि टिकट उनकी बहू को ही मिलेगा। हालांकि बाद में गौर ने बयान दिया है कि अगर भोपाल से आडवाणी चुनाव लड़े, तो वे कृष्णा गौर का नाम वापस ले लेंगे। उधर, जिला भाजपा अध्यक्ष आलोक शर्मा भी टिकट की आस लगाए बैठे थे। मोदी ने आडवाणी को खुद फोन करके गांधीनगर से ही चुनाव लडऩे का आग्रह किया था, लेकिन वे मौन रहे! ऐसा कहा जा रहा है कि आडवाणी के इस फैसले से मोदी भी आहत हुए थे। हालांकि आडवाणी को भोपाल से चुनाव लडऩे के लिए पहले से ही न्यौता दिया जा चुका था।
तो क्या फिर से कैलाश जोशी
यह लोकसभा चुनाव देश ही नहीं; मप्र की राजनीति में भी एक नया अध्याय लिखने जा रहा है। मप्र के पूर्व मुख्यमंत्री और भोपाल से दो बार के सांसद कैलाश जोशी इस बार भी टिकट की आस में थे, लेकिन आडवाणी के लिए उन्हें राजनीतिक संन्यास पर विवश कर दिया गया। अब जबकि आडवाणी की भोपाल से चुनाव लडऩे की इच्छा अधूरी-सी दिखाई पड़ रही है, स्थानीय नेतृत्व द्वारा जोशी को फिर से मनाने की कोशिशें शुरू हो गई हैं। गुरुवार को प्रदेश भाजपा अध्यक्ष नरेंद्र सिंह तोमर ने मुख्यमंत्री शिवराज सिंह के साथ आधे घंटे चर्चा की। ऐसा माना जा रहा है कि यदि आडवाणी को मना लिया गया, तो कैलाश जोशी को भोपाल से टिकट दिया जा सकता है।
आडवाणी के आने से मप्र भाजपा को नफा-नुकसान
भाजपा के नेताओं की मानें, तो यदि आडवाणी मप्र से अपनी राजनीति करते, तो यहां भाजपा के स्थानीय नेतृत्व में बड़ा बदलाव आता। इससे नफा-नुकसान दोनों होते। फायदा यह होता कि, मप्र का केंद्र की राजनीति में खासा दखल बढ़ जाता। वहीं नुकसान यह होता कि, मप्र से दो बड़े नेता होने यानी सुषमा स्वराज(विदिशा से उम्मीदवार और वर्तमान सांसद) और दूसरे आडवाणी, ऐसे में स्थानीय नेतृत्व को उतनी तवज्जो नहीं मिलती।
महाकुंभ से चल रहे मनाने के प्रयास...
25 सितंबर, 2013 को भोपाल में भाजपा ने राजनीतिक महाकुंभ का आयोजन किया था। इस आयोजन में लाखों कार्यकर्ताओं के बीच भाजपा का शीर्ष नेतृत्व मौजूद था। राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह, नरेंद्र मोदी और लालकृष्ण आडवाणी। नरेंद्र मोदी को पीएम पद का उम्मीदवार तय किया जा चुका था, इसलिए आडवाणी रूखे मन से कार्यक्रम में पहुंचे। यहां भी मोदी ने आडवाणी के पैर छूकर उन्हें मनाने का प्रयास किया था। दरअसल, आडवाणी को उम्मीद थी कि अगर भाजपा की सरकार बनी, तो प्रधानमंत्री उन्हें ही बनाया जाएगा, लेकिन मौजूदा राजनीतिक परिदृश्य में ऐसा संभव होता नजर नहीं आया। अब फिर से आडवाणी को मनाने के प्रयास हो रहे हैं।

मंगलवार, 18 मार्च 2014

अपनों से जासूसी करा रहे राहुल-मोदी

कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी और भाजपा की ओर से पीएम पद के प्रत्याशी नरेन्द्र मोदी सिर्फ अपनी-अपनी पार्टी के फीडबैक से संतुष्ट नहीं होते। जमीनी स्थिति का पता करने के लिए उन लोगों ने अपने "जासूस" छोड़ रखे हैं। यह दरअसल क्रॉसचेक करने और समस्या गंभीर होने से पहले ही उसका समाधान करने के लिए है।
मोदी हमेशा एडवांस
इसमें मोदी आगे चलते हैं। अभी दिसंबर में जब सभी लोग पांच राज्यों के विस चुनावों के परिणाम की बाट जोह रहे थे, मोदी की टीम मप्र, छग़, राजस्थान समेत विभिन्न राज्यों में लोस चुनाव को लेकर आकलन करने में लगी थी। इसमें भाजपा नेतृत्व या संगठन की भूमिका नहीं थी। बल्कि पार्टी ने संभावित प्रत्याशियों और जमीनी स्थिति वगैरह को लेकर सर्वेक्षण वगैरह बाद में शुरू किए। इसी कारण माना जाता है, मोदी एडवांस चलते हैं। मोदी अपने जुटाए आंकड़ों को पार्टी की तरफ से आए फीडबैक से मिलाते जरूर हैं। उनकी टीम इस आधार पर ही कोई रिपोर्ट उनके सामने पेश करती है। माना जाता है पिछले साल हुए विस चुनावों की रणनीति में इस आधार पर कई बदलाव हुए और शायद एक कारण है कि भाजपा के हक में नतीजे अनुमान से कहीं बेहतर रहे।
मोदी ठकुरसुहाती या चेहरा देखकर मनमाफिक बात करने वालों से बचकर रहते हैं। वे जमीनी कार्यकर्ताओं के साथ-साथ प्रोफेशनल्स से भी यह काम कराते हैं। कई बार तो यह होता है सर्वेक्षण करने वाले को पता नहीं होता वह किस व्यक्ति के लिए काम कर रहा क्योंकि यह मार्केटिंग सर्वे एजेंसियों के जरिये भी कराया जाता है। मतलब यह संभवतः आपके यहां टूथपेस्ट या वाशिंग मशीन को लेकर सर्वे करने आया व्यक्ति कई तरह के सवाल पूछे और इसमें से कुछ डाटा का उपयोग मोदी की टीम करे।
राहुल भी...लेकिन यह परेशानी
राहुल भी यह रास्ता अख्तियार तो करते हैं, लेकिन दिक्कत है, राहुल के लिए सर्वेक्षण या अध्ययन करने वाले लोगों में अधिकतर कांग्रेस से जुड़े लोग रहते हैं और वे पहचान छिपाने या गुपचुप जुटाने में पिछड़ जाते हैं। राहुल जिन लोगों को इस तरह का काम असाइन करते हैं, वे लोग सीधे उन्हें ही रिपोर्ट करते हैं। इनकी रिपोर्ट के आधार पर टिकट भी तय होते हैं।

शनिवार, 15 मार्च 2014

जो टिकट दे उसी के हो लिए नेताजी

एमपी के दलबदलुओं ने टिकट के लिए विचारधारा रखी ताक पर
भोपाल। मध्य प्रदेश में लोग इतनी तेजी से पार्टियां बदल रहे हैं कि विचारधारा कोई मुद्दा ही नहीं रह गया है। खुद को कम्युनिस्ट विचारों का बताने वाले डॉ. भागीरथ प्रसाद भाजपा में जा चुके हैं, भाजपा के सांसद रहे लक्ष्मण सिंह कांग्रेस में लौटने के बाद फिर भाजपा को सांप्रदायिक बताने लगे हैं। विधानसभा में कांग्रेस के उपनेता रहे चौधरी राकेश सिंह अब भाजपा के बचाव में खड़े हो गए हैं। दिग्विजय सिंह के करीबी माने जाने वाले गोविंद सिंह के बारे में खबरें तेज हैं कि वे भाजपा में जाने का प्रयास कर रहे हैं और 8 मार्च को उन्होंने अरुण जेटली से मुलाकात की थी।
कांग्रेस नेता दिग्विजय सिंह को अर्जुन सिंह की परंपरा का माना जाता है जो सेकुलरिज्म के मुद्दे पर हिंदुत्ववादियों पर कड़े हमले करते रहे हैं। लेकिन उनके भाई लक्ष्मण सिंह राजगढ़ सीट से भाजपा के सांसद रहे और अब फिर कांग्रेस में हैं। उन्होंने अब भाजपा की सांप्रदायिकता के खिलाफ मोर्चा खोला है। डॉ. भागीरथ प्रसाद ने तो कांग्रेस का टिकट पाने के बाद भाजपा का दामन थाम लिया। नेता प्रतिपक्ष सत्यदेव कटारे का कहना है, ‘डॉ. भागीरथ प्रसाद से मैंने पूछा था कि आपके भाजपा में जाने की चर्चाएं चल रही हैं, फिर टिकट की बात करें या न करें? उन्होंने कहा था कि मैं कम्युनिस्ट हूं, भाजपा में जाने का सवाल ही नहीं उठता। वे दो दिन पहले तक कांग्रेस कार्यकर्ताओं की बैठक में आने की हामी भर रहे थे।’ उनकी पत्नी मेहरुन्निसा परवेज कांग्रेस सरकारों के समय कई महत्वपूर्ण पदों पर रहीं और भाजपा की कट्टर आलोचक रही हैं। अब वे नरेंद्र मोदी का बचाव करते दिखाई देंगे।
होशंगाबाद के सांसद उदय प्रताप कभी सुरेश पचौरी के निकट थे। विधानसभा चुनावों के ठीक पहले वह भाजपा में चले गए। भाजपा में जाने के बाद सबसे पहला काम उन्होंने सुरेश पचौरी और कांग्रेस पर हमला करने का किया। उनके सामने भी विचारधारा का कोई संकट नहीं है। अब वे होशंगाबाद से भाजपा का टिकट हासिल करने के प्रयास में हैं। चौधरी राकेश सिंह विधानसभा में कांग्रेस के उपनेता हुआ करते थे। वे विधानसभा चुनावों के पहले ही कांग्रेस छोड़कर भाजपा में चले गए और कांग्रेस को खबर तक नहीं हुई। उनके भाई मुकेश चतुर्वेदी अब भाजपा के टिकट पर विधायक हैं। चौधरी राकेश सिंह अब मुरैना से भाजपा के टिकट पर चुनाव लड़ने की तैयारी कर रहे हैं। वह दिग्विजय धड़े का नाम लिए बिना कहते हैं कि एक खास समूह पार्टी पर काबिज हो गया था और निष्ठावान कांग्रेसियों की उपेक्षा कर रहा था। कांग्रेस में अब एक नया नाम गोविंद सिंह का चल रहा है। दिग्विजय के करीबी गोविंद सिंह के भाजपा में जाने की खबरें गर्म हैं। कहा जा रहा है कि गोविंद सिंह ने 8 मार्च को अरुण जेटली से मुलाकात की थी लेकिन भाजपा के अंदरूनी खेमों से विरोध के कारण उनका कांग्रेस में प्रवेश लटक गया है।

ताकत दिखाने को तैयार बाहुबली

बृजभूषण से लेकर बृजेश और बजरंगी तक ठोकेंगे ताल, रिजवान-अतीक, मुख्तार और डीपी बढ़ाएंगे सियासी पारा, कई सूरमा जेल से ही संसद की यात्रा करने की तैयारी में
हत्या, लूट, बलवा जैसे तमाम गंभीर आपराधिक मामलों से घिरे कई बाहुबली एक बार फिर लोकसभा चुुनाव के समर में दस्तक देने की तैयारी में हैं। सिद्धांतों की बात करने वाले कई दल इन्हें अपने पाले में खींचने को बेताब हैं। सबकी नजर सीटें बढ़ाने की जुगत पर है। वहीं कई बाहुबली ऐसे भी हैं जो बड़े दलों से मौका न मिलने पर क्षेत्रीय दलों के सहारे संसद में फिर दस्तक देना चाहते हैं। इन सूरमाओं की हसरतें और उनकी हसरतों को परवाज कहां से मिल रही है, पेश है यह रिपोर्ट...
श्रावस्ती में अतीक और रिजवान की भिड़ंत ः नेपाल की सीमा से सटे तराई की श्रावस्ती लोकसभा सीट सूबे की सबसे हॉट सीट में शामिल हो गई है। वजह, यहां से दो बाहुबली आमने-सामने ताल ठोकने को तैयार हैं। इलाहाबाद की फूलपूर सीट से संसद का सफर कर चुके बाहुबली अतीक अहमद को सपा ने यहां से उतारा है तो बलरामपुर से सांसद रहे रिजवान जहीर उनसे किसी मायने में उन्नीस नहीं माने जाते। गोंडा से बसपा से टिकट नहीं मिला तो रिजवान श्रावस्ती पहुंच गए अतीक को चुनौती देने। सपा और बसपा में रह चुके रिजवान इस बार पीस पार्टी से गरजेंगे। भाजपा की लाइन में बृजभूषण ः राम मंदिर आंदोलन से तिहाड़ तक की यात्रा करने वाले बाहुबली बृजभूषण शरण सिंह भाजपा और सपा से होते हुए फिर भाजपा की लाइन में हैं। हर दल को उनमें जिताऊ कैंडिडेट की छवि नजर आती है। यही वजह है कि भाजपा ने उन्हें गोंडा से संसद पहुंचाने के बाद बलरामपुर के लिए बिना संकोच आजमाया तो सपा ने भी उन्हें कैसरगंज जैसी सीट पर उतारने में कोई संकोच नहीं किया। वह अब तक अलग-अलग तीनों सीटों पर लड़े और जीते हैं। बृजभूषण को भाजपा इस बार कहां से आजमाएगी, इस पर रहस्य बना हुआ है।
बसपा ने रीता जोशी का घर जलाने वाले को खोजा मित्रसेन की काट
हत्या और लूटपाट जैसे तमाम गंभीर आरोपों में जेल की यात्रा कर चुके मित्रसेन यादव फैजाबाद लोकसभा सीट पर फिर अपनी ताकत दिखाने को तैयार हैं। वह सपा की साइकिल पर बैठकर फिर संसद पहुंचना चाहते हैं। यादव बसपा में भी रह चुके हैं। इस बुजुर्ग बाहुबली की धमक की काट के लिए बसपा ने कांग्रेस की तत्कालीन प्रदेश अध्यक्ष रीता बहुगुणा जोशी का घर जलाने के आरोपी पूर्व एमएलसी जितेंद्र सिंह उर्फ बबलू को उतारा है।
मुख्तार का तो पूरा कुनबा ही मैदान में
अवध की इन सीटों के साथ ही कई माफिया पूर्वांचल की सीटों पर दस्तक देने वाले हैं। इनमें पूर्व भाजपा विधायक कृष्णानंद राय हत्याकांड सहित तमाम मामलों के आरोपी विधायक मुख्तार अंसारी मऊ से तो उनके भाई अफजाल अंसारी बलिया से ताल ठोक रहे हैं। मुख्तार ने भाजपा के पीएम पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी के वाराणसी से चुनाव लड़ने की दशा में खुद वाराणसी से ताल ठोकने का ऐलान कर रखा है। जेल से चुनाव मैदान में उतरने जा रहे मुख्तार ने फिलहाल वाराणसी से अपनी बीवी अफशा अंसारी का नाम घोषित कराया है।
डीपी यादव, बृजेश सिंह, मुन्ना बजरंगी भी जुगत में
किसी जमाने में पश्चिमी यूपी के बड़े शराब कारोबारी रहे डीपी यादव गाजीपुर से चुनाव लड़ने जा रहे हैं। मुख्तार से लेकर डीपी यादव तक , कौमी एकता दल वाले गठबंधन के जरिये संसद में अपनी आवाज बुलंद करना चाहते हैं। मुख्तार कौमी एकता दल के संस्थापक नेताओं में शामिल हैं। पूर्वांचल के चुनावी समर में माफिया-बाहुबलियों की चर्चा हो तो मुन्ना बजरंगी और बृजेश सिंह के बिना पूरी नहीं हो सकती। बजरंगी जौनपुर से तो बृजेश सिंह चंदौली से निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में भाग्य आजमाने की तैयारी कर रहे हैं। वहीं बृजेश की पत्नी और बसपा एमएलसी अन्नपूर्णा सिंह और भतीजा सुशील सिंह भी लाइन में हैं। अन्नपूर्णा बीएसपी तो सुशील भाजपा से टिकट की जुगत भिड़ा रहे हैं। कहा यही जा रहा है कि इन तीनों में से कोई न कोई लोकसभा चुनाव की जंग में चंदौली में चुनौती जरूर पेश करेगा। कुल मिलाकर यह बाहुबली परिवार पूरी कोशिश कर रहा है कि चंदौली से कम से कम एक चेहरे की धमक जरूर सुनाई दे।
रमाकांत भी तैयार
आजमगढ़ से दबंग छवि के रमाकांत यादव भाजपा के सांसद हैं। सपा और भाजपा से वह कई बार लोकसभा पहुंच चुके हैं। इस बार फिर वह अपने बाहुबल का एहसास कराने को तैयार हैं।

शुक्रवार, 14 मार्च 2014

राजनीति में दस फीसदी भी नहीं ‘आधी आबादी’

देश के 4896 एमपी और एमएलए में सिर्फ 418 महिलाएं
हर साल अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस पर भारत में महिलाओं की हर क्षेत्र में भागीदारी की बात कही जाती है। सालों से कुछ राजनैतिक पार्टियां ‘आधी आबादी’ को राजनीति में आधा हिस्सा देने की बात कहती रही हैं, लेकिन हकीकत कुछ और ही है। भारत में महिलाओं की स्थिति और नीति नियामक संस्थाओं में उनके प्रतिनिधित्व का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि देश में कुल 4896 सांसदों और विधायकों में महिला प्रतिनिधियों की संख्या मात्र 418 है, यानी सिर्फ नौ फीसदी। भारत निर्वाचन आयोग के आंकडों के अनुसार, सांसदों की श्रेणी में वर्तमान लोकसभा के 543 सदस्यों में 59 महिला सदस्य (11 फीसदी) और राज्यसभा में दस फीसदी यानी 23 महिला सदस्य हैं। ऊपरी सदन के कुल 233 सदस्यों में 23 महिलाएं हैं। राज्य विधानसभाओं पर नजर डालें तो पश्चिम बंगाल में 294 विधायकों में 34 महिलाएं, बिहार में 243 में से 34 और आंध्र प्रदेश में 294 में से 34 महिला विधायक हैं। इन राज्यों में महिला प्रतिनिधियों का आंकडा दूसरे राज्यों से अधिक है। इसके बाद उत्तर प्रदेश और राजस्थान का स्थान आता है, जहां क्रमश: 403 में से 32 और 200 में से 28 महिला विधायक हैं। जम्मू कश्मीर, मणिपुर, त्रिपुरा और मेघालय में महिला प्रतिनिधियों की संख्या सबसे कम है।
विश्व में भारत 111वें नंबर पर
संसद में महिला प्रतिनिधियों की संख्या के आधार पर राष्ट्रों का रैंक तय करने वाली एक अंतरराष्ट्रीय संस्था द्वारा तैयार की गई सूची में 189 देशों में भारत का 111वां स्थान है। संसदों के अंतरराष्ट्रीय संगठन अंतर संसदीय संघ (आईपीयू) ने अपने वार्षिक विश्लेषण में कहा है कि दुनियाभर में अधिक संख्या में महिलाओं को संसद के लिए चुना गया है और यदि मौजूदा चलन जारी रहता है तो एक पीढ़ी से भी कम समय में लैंगिक समानता के लक्ष्य को हासिल किया जा सकता है। आईपीयू ने संसद में महिलाओं की संख्या के आधार पर देशों की रैंकिंग की है। निचले सदन लोकसभा में 62 महिलाओं की मौजूदगी के साथ भारत को 111वें नंबर पर रखा गया है, जो कुल 545 सांसदों का लगभग 11 फीसदी है। ऊपरी सदन में 245 सांसदों में 28 महिलाएं हैं।
रवांडा सबसे आगे
आईपीयू महासचिव एंडर्स जानसन ने बताया कि 189 देशों की सूची में रवांडा शीर्ष पर है, जहां उसके निचले सदन में 60 फीसदी महिलाएं हैं। रिपोर्ट में बताया गया है कि संसद तक महिलाओं की पहुंच कई कारणों से होती है, जिसमें आरक्षण मुख्य माध्यम है।
होता है भेदभाव
संयुक्त राष्ट्र महिला मामलों की कार्यकारी निदेशक फुमजिले मलाम्बो नागकुका ने लैंगिक भेदभाव के खिलाफ संघर्ष जारी रखने की प्रतिबद्धता जताई। उन्होंने कहा, ‘दुनियाभर में, महिलाओं को भेदभाव, हिंसा, पार्टियों के ढांचे, गरीबी और धन की कमी के चलते संसदों से दूर रखा जाता है।’ ये आंकडे राष्ट्रीय संसदों द्वारा एक जनवरी 2014 तक उपलब्ध कराई गई सूचना पर आधारित हैं।
अमेरिका और कनाडा की स्थिति इस सूची में क्रमश: 83वें और 54वें नंबर पर है। हालांकि चीन में दो फीसदी का इजाफा दर्ज किया गया है। दक्षिण एशिया में नेपाल में महिला सांसदों का प्रतिशत सर्वाधिक है, लेकिन इसके बावजूद यह 30 फीसदी से नीचे है। इस सूची में शीर्ष दस देशों में चार अफ्रीका महाद्वीप से हैं।

चोरों की दुनिया में भी कमीशन और प्रमोशन

कमाई में कमीशन का इंतजाम सिर्फ साहबों और ठेकेदारों में ही नहीं होता है। चोरों की दुनिया में भी कमीशन का अलिखित नियम है। प्रमोशन भी सिर्फ सरकारी और कारपारेट वर्ल्ड में नहीं होते, बल्कि इन चोरों को भी वक्त-वक्त पर इनकी परफारमेंस के हिसाब से प्रमोशन होते रहता है। मामूली वर्कर यानी कि सामान्य चोर चोरी करते-करते कभी ठेकेदार बन सकता है और परफारमेंस ज्यादा अच्छी और लगातार रही, तो उसे चोरों का मुखिया भी बनाया जा सकता है।
पिछले दिनों गोरखपुर जीआरपी ने सात चोरों को गिरफ्तार किया था। ये सभी ट्रेनों में अटैची और पर्स जैसी चीजों की चोरी करते थे। जीआरपी ने इनके पास से 47 हजार रुपये नगद और करीब ढाई लाख रुपये का सामान बरामद किया। महराजगंज जिले का जयप्रकाश, बिहार के सीवान का मोहन, बिहार के ही पिंकू, रंजित कुमार, विजय कुमार, चंद्रभान प्रसाद और कमबेभ को चोरी के आरोप में मुकदमा दर्ज कर जेल भेज दिया गया। उस वक्त तक तो ये सामान्य सी जानकारी मिली कि ये चोर किन-किन वारदातों में शामिल रहे और इनका रेकॉर्ड कैसा रहा है, लेकिन जब इनसे अलग-अलग बात की गई तो ट्रेनों में चोरी करने वालों की दुनिया का सच सामने आ गया। इनकी बातों से पता चला कि ट्रेनों में चोरी करने वाले तो बस कठपुतली भर हैं। इनकी डोर किन्हीं और हाथों में हैं। हर एक चोर को कुल कमाई में से बमुश्किल 10 फीसदी ही मिल पाता है।
टारगेट पूरा किया तो प्रमोशन
चोरी के इस धंधे में प्रमोशन भी होता है। यदि किसी ठेकेदार ने लगातार बिना किसी बाधा के टारगेट को पूरा कराया तो उसे मुखिया भी बना दिया जाता है। यदि किसी चोर ने लगातार अच्छा काम किया तो उसे ठेकेदार भी बनाया जा सकता है।
चोरी माल का 60% हिस्सा ‘वर्करों’ को
ट्रेन में चोरी, अटैची लिफ्टिंग करने वाले चोरों को वर्कर कहा जाता है। ठेकेदार जब किसी मुखिया को टारगेट के बारे में बताता है तो मुखिया उस टारगेट से चोरी करने अपने वर्करों यानी कि चोरों को भेजता है। किसी भी दशा में सात से ज्यादा वर्कर एक वारदात में नहीं होते हैं। काम यानी कि चोरी होने के बाद कुल माल का 60 फीसदी हिस्सा वर्करों में बांट दिया जाता है। इस तरह से हर वर्कर के हिस्से में करीब 10 प्रतिशत रकम आती है।
ठेकेदार को मिलता है पांच प्रतिशत
मुखिया के बाद होता है ठेकेदार। यह किसी गैंग का नहीं होता है। ठेकेदार का काम सिर्फ इतना है कि वह किसी गैंग के मुखिया को ट्रेन में सवार टारगेट के बारे में जानकारी देता है। ठेकेदार बताता है कि फलां व्यक्ति के पास मोटा माल है। वह चोरी की वारदात के समय तक ट्रेन में टारगेट को वाच करता रहता है। इसके बदले में उसे कुल चोरी के माल का पांच फीसदी हिस्सा दिया जाता है।
मुखिया की इजाजत के बिना चोरी नहीं :
ट्रेनों में चोरी करने वालों के अलग-अलग गैंग हैं। हर गैंग का एक मुखिया होता है और हर मुखिया का अपना रेल रूट है। दूसरे गैंग का मुखिया उस रेल रूट पर चोरी नहीं कराता है। गैंग का मुखिया अपने गैंग के चोरों को पुलिस से बचाता है। उनके खाने पीने और उनकी दिक्कतों में उन्हें मदद देता है। उसका गैंग जब कोई चोरी करता है, तो उसमें से 30 फीसदी हिस्सा मुखिया को मिलता है।

शौकीनों को रिझाएगा शराब का गिफ्ट पैक

होली पर जॉनी वॉकर की 'ब्लू लेबलÓ से लेकर मैकडॉवेल तक की बोतलों के गिफ्ट पैक शराब की दुकानों पर उपलब्ध हैं। लोगों को आकर्षित करने के लिए फेमस ब्रांड्स ने खूबसूरत पैकिंग में बोतलों के गिफ्ट पैक बाजार में उतारे हैं। लोग ज्यादा से ज्यादा शराब दोस्तों और रिश्तेदारों को गिफ्ट करें, इसके लिए कोई ब्रांड बोतल के साथ खूबसूरत ग्लास और ड्राइ फ्रूट्स दे रहा तो कोई की रिंग। सामान्य ब्रांड (मैकडावेल, इंपीरियल ब्लू) के गिफ्ट पैक 490 से 500 रुपये तो 100 पाइपर और जानी वॉकर 'रेड लेबलÓ जैसे मीडियम ब्रांड्स के गिफ्ट पैक 1355 से 1600 रुपये के मिल रहे हैं। ऊंचे ब्रांड्स में जानी वॉकर, ब्लैक लेबल और ब्लू के गिफ्ट पैक 3300 से लेकर 14,500 रुपये की रेंज में हैं।
बढ़ा शराब गिफ्ट का चलन
शराब असोसिएशन के महामंत्री कन्हैया लाल वर्मा बताते हैं कि शराब गिफ्ट करने की परंपरा पुरानी है पर तीन साल से इसका चलन काफी बढ़ा है। पहले शराब गिफ्ट करना उच्चस्तरीय परिवारों तक सीमित था पर पिछले दो साल में इसका चलन मध्यम वर्ग में भी बढ़ा है।
दो महीने की बिक्री दो दिन में
वैसे तो होली की परेवा को ड्राई-डे होने के चलते शराब की दुकानें बंद रहती हैं लेकिन इसके दो दिन पहले ही इतनी शराब बिक जाती है, जितनी दो महीने में नहीं बिक पाती। शराब असोसिएशन के अध्यक्ष एसपी सिंह बताते हैं कि इस दौरान हुई बिक्री से ही सालभर की लाइसेंस फीस निकल आती है। पिछले साल के आंकड़ों पर गौर करें तो होली की परेवा 27 मार्च को थी पर 25 और 26 को ही शहर में एक लाख दस हजार देशी शराब की बोतल, दो लाख अंग्रेजी शराब और ढाई लाख के करीब बीयर की बोतल बिक गई थीं। अगर इसे हटा दें तो तो शराब की इतनी बिक्री फरवरी और मार्च 2013 में नहीं हुई थी।
आबकारी विभाग की चुनौती
प्रमुख सचिव आबकारी राहुल भटनागर त्योहार पर अवैध शराब की बिक्री को किसी चुनौती से कम नहीं मानते हैं। उनका कहना है कि होली के मद्देनजर शराब की अवैध बिक्री पर रोक लगाने के लिए सभी जिला आबकारी अधिकारियों को जरूरी दिशा-निर्देश दिए हैं।
कैंटीन में भी बढ़ गई डिमांड
होली पर कैंटीन में भी शराब लेने वालों की भीड़ साफ देखी जा सकती है। पीआरओ मध्य कमान ग्रुप कैप्टन बीबी पांडेय बताते हैं कि इस दौरान जो ड्रिंक नहीं करते, वो भी अपने कोटे का इस्तेमाल कर दोस्तों और रिश्तेदारों को गिफ्ट के तौर पर शराब देते हैं।
नाम कीमत
आफ्टर डार्क 404 रुपये रॉयल चैलेंज 363 रुपये
ओल्ड स्मगलर 863 रुपये
वाइट एंड मैके 860 रुपये
100 पाइपर 913 रुपये
द जैनीवेट 2708 रुपय

एमपी साल भर का सैंटा क्लॉज

एमपी के फंड से नए प्रोजेक्ट बन सकते हैं, लेकिन रिपेयर वर्क नहीं
लोकसभा चुनाव की प्रक्रिया शुरू हो गई है। सांसद के फंड से कौन कौन से काम हो सकते हैं, कहां वे अपना फंड इस्तेमाल कर सकते हैं या कहां नहीं कर सकते। अधिकतर वोटरों की इसकी जानकारी नहीं है। कई बार फंड को लेकर भी लोगों में बड़ा कंफ्यूजन रहता है। फंड को लेकर केंद्र सरकार की ओर से गाइड लाइंस भी जारी की गई हैं। सांसद अपने एरिया में किसी भी एजेंसी से कोई भी नया काम करा सकता है, लेकिन मेनटेनेंस और रिपेयर का काम सांसद के फंड से नहीं किया जा सकता है। केवल नए काम ही सांसद के फंड से कराए जा सकते हैं। सांसद फंड अवैध कॉलोनियों में नहीं लगाया जा सकता।
फंड के लिए गाइड लाइंस
सांसद फंड का इस्तेमाल अपने लोकसभा क्षेत्र में कहीं भी कर सकता है, जबकि राज्य सभा और लोकसभा में मनोनीत सदस्य पूरे देश में कहीं भी काम करा सकते हैं। सांसद को फंड का 15 फीसदी हिस्सा अनुसूचित जातियों के रिहायशी क्षेत्र और 7.5 फीसदी हिस्सा (37.5 लाख) अनुसूचित जनजाति इलाकों में खर्च करना जरूरी है।
5 करोड़ का फंड
सांसद भी लोगों के बीच रहता है और उनकी समस्याओं को सुनता है, इसलिए 1993 और 1994 में सांसद फंड की शुरूआत हुई। तब सांसद फंड केवल 5 लाख रुपये था। 1995-96 में यह फंड बढ़ाकर 1 करोड़ कर दिया गया। 1999-98 में 2 करोड़ और 2011-12 से इसे बढ़ाकर 5 करोड़ रुपये कर दिया गया। फंड के खर्च, निगरानी व विभागों के बीच तालमेल करने के लिए एक नोडल ऑफिसर की अपॉइंटमेंट की गई है।
पार्क से ब्रिज तक
इंटरनैशनल बॉर्डर से 8 किलोमीटर के भीतर के दायरे में किसी भी नदी से सिंचाई व बाढ़ नियंत्रण की स्कीम के लिए भी सांसद फंड का इस्तेमाल किया जा सकता है। रेलवे हॉल्ट, पार्क, बारातघर, रेलवे अंडर ब्रिज, नई सड़क, जैसे काम भी सांसद फंड से कराए जा सकते हैं।
सबके काम का फंड
एमपी फंड के इस्तेमाल के लिए मिनिमम राशि 1 लाख से कम नहीं होनी चाहिए। विकलांग व्यक्तियों की सहायता के लिए एमपी फंड से 10 लाख रुपये तक मिल सकते हैं, लेकिन यह फंड उनके लिए तीन पहियों की साइकल (बैटरी चलित या मैनुअल) या कृत्रिम अंगों के लिए ही खर्च की जा सकती है। स्कूल, कॉलेजों और लाइब्रेरी में किताबें खरीदने के लिए 22 लाख तक की राशि एमपी फंड से इस्तेमाल हो सकती है। सरकारी व सरकारी सहायता प्राप्त एजुकेशन इंस्टिट्यूटों के लिए भी एमपी फंड खर्च किया जा सकता है।
आरटीआई का साथ
सांसद द्वारा तय किया गया कोई भी काम उसकी सहमति के बिना नहीं बदला जाएगा। अगर नोडल ऑफिसर को लगता है कि यह काम नहीं हो सकता तो उसे सांसद, केंद्र सरकार और राज्य सरकार को प्रस्ताव की तारीख के 45 दिन के अंदर यह बात बतानी होगी। अगर तय प्रस्तावों से ज्यादा प्रस्ताव कामों के आ जाते हैं तो पहले आओ पहले पाओ के नियम के तहत काम किए जाएंगे। एमपी फंड के इस्तेमाल की जानकारी आरटीआई के जरिए भी मांगी जा सकती है।
डिजास्टर में हेल्प
अगर प्राकृतिक आपदा आ जाती है जैसे तूफान, बाढ़, बादल फटना, भूकंप, ओला, हिमस्खलन, कीट हमला, भूस्खलन, तूफान, फायर, रेडियालॉजी खतरा होने पर एमपी अपने फंड से हर साल 10 लाख रुपये तक दे सकता है। देश के किसी भी हिस्से में गंभीर आपदा आने पर सांसद फंड से अधिकतम 50 लाख रुपये तक दे सकता है। एमपी फंड को इस्तेमाल करने के लिए ग्रामीण इलाकों में पंचायती राज संस्थाएं, शहर में नगर निगम, नगर पालिका जैसी एजेंसियां काम करती हैं।
कब मिलता है फंड
3 महीने तक सांसद को कोई भी राशि नहीं मिलती है। 9 महीने तक सालाना आवंटन की 50 फीसदी राशि मिलती है। 9 महीने के बाद सालाना आवंटन की 100 फीसदी राशि जारी की जाती है

सीबीआई की वेबसाइट पर फर्जी नौकरियां

वेबसाइट हैक, हैकरों ने 9 हजार से ज्यादा पोस्टों के लिए मंगाया आवेदन
हैकरों ने हर पोस्ट के लिए एक निर्धारित फीस भी कर दी थी तय
सीबीआई की बेवसाइट हैक होने का सनसनीखेज मामला सामने आया है। हैकरों ने इस वेबसाइट पर इंस्पेक्टर और सब इंस्पेक्टर रैंक के अलावा अन्य रैंक की 9870 पोस्ट के लिए ऑनलाइन आवेदन मांगा। हर पोस्ट के लिए एक निर्धारित फीस भी रखी हुई थी। हैकरों ने फीस जमा करने के लिए आईडीबीआई बैंक का अकाउंट नंबर दिया हुआ था। इन सभी पोस्टों पर आवेदन करने की लास्ट डेट 31 मार्च रखी थी। सीबीआई को जब वेबसाइट हैक की जानकारी मिली तो इस मामले में तुरंत एफआईआर दर्ज कर जांच शुरू कर दी गई।
सूत्रों से मिली जानकारी के अनुसार हैकरों ने सीबीआई की वेबसाइट हैक करने के बाद उस ऊपर अलग-अलग पोस्टों पर भर्ती का विज्ञापन डानलोड़ कर दिया। विज्ञापन में इंस्पेक्टर, सब इंस्पेक्टर, एएसआई, हेड कॉन्स्टेबल, कॉन्स्टेबल, फाइनैंशियल एडवाइजर, फोटोग्राफर, कुक, धोबी और टेलर आदि की पोस्टे शामिल हैं। हैकरों ने हजारों लोगों को चूना लगाने की फुलप्रूफ तैयारी की हुई थी। सभी पोस्टों के लिए एक निर्धारित फीस तय की गई थी। सीबीआई में हॉयर रैंक पर स्टाफ सलेक्शन बोर्ड भर्ती करता है। इंस्पेक्टर की 1905 पोस्ट पर आवेदन करने वाले आवेदक को 1550 रुपये की फीस जमा करानी थी। एसआई की 1419 पोस्टों के लिए 1250 रुपये, हेड कॉन्स्टेबल की 1269 पोस्ट के लिए 850 रुपये, सिपाही की 1703 पोस्ट के लिए 550 रुपये फाइनैंशियल सलाहकार की 950 पोस्ट के लिए 1250 रुपये, एएसआई की एक हजार से ज्यादा पोस्ट के लिए 850 रुपये की फीस रखी गई थी। अन्य सभी पोस्टों के लिए 250 रुपये से लेकर 450 रुपये की फीस रखी गई थी। हैकरों ने इन पोस्टों पर भर्ती की प्रक्रिया को दो चरणों में बांटा था। पहले चरण में उम्मीदवारों के सर्टिफिकेट आदि की जांच होनी थी। दूसरे राउंड में अलग-अलग पोस्ट पर आवेदन करने वाले उम्मीदवारों का इंटरव्यू, स्किल टेस्ट, उम्मीदवारों का मेडिकल और फिजिकल टेस्ट आदि होना था। वेबसाइट पर दिए गए विज्ञापन को देखकर कोई भी धोखा खा सकता था। सीबीआई को जब अपनी वेबसाइट हैक होने के बारे में पता चला तो सीबीआई ने धोखाधड़ी के आपराधिक षडयंत्र के अलावा आईटी एक्ट की धारा-66डी के तहत मामला तो दर्ज कर लिया,लेकिन अभी तक सीबीआई हैकरों का पता नहीं लगा पाई।

यूथ के लिए फोकस किया सोशल साइट्स पर

इस बार के लोकसभा इलेक्शन में वोट डालने को लेकर दस करोड़ से ज्यादा एफटीवी यानी फर्स्ट टाइम वोटर्स उत्साहित हैं। इनमें ज्यादातर सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर एक्टिव है। कई यूजर तो फेसबुक और ट्विटर पर पॉलिटिकल बातें और आपस में डिबेट भी कर रहे हैं। बहुत से वोटर्स ने अपनी फेसबुक टाइमलाइन में पॉलिटिक्स से रिलेटेड मैटर पोस्ट कर रखे हैं। जिस तरह सोशल मीडिया पर पॉलिटिकल पार्टियों की एक्टिविटीज दिखाई दे रही है, उससे साफ है कि चुनावों में इसका खासा उपयोग होने वाला है। पार्टियां अपनी योजनाओं की जानकारी देने के साथ ही अन्य पार्टियों पर हमला करने के लिए सोशल साइट्स को प्लेटफॉर्म बना चुकी हैं। इससे साफ है कि इस चुनाव में सोशल नेटवर्किंग साइट्स का प्रभाव देखने को मिलेगा। सभी पार्टियों के आईटी सेल मध्यप्रदेश में सोशल मीडिया पर नजर रखने और समय-समय पर लोगों का ध्यान आकर्षित करने के लिए दोनों बड़ी पार्टियों भारतीय जनता पार्टी और कांग्र्रेस खूब मेहनत कर रही है। इसके लिए भोपाल में अलग से आईटी सेल बनाए गए हैं, जिसमें बैठे कई टेक्निकल एक्सपर्ट सोशल साइट्स पर चल रही बातों पर ध्यान लगाए हुए हैं। जरूरत पड़ने पर हाथो-हाथ अपने व्यू भी रख रहे हैं। यहीं नहीं फेसबुक और वॉट्सएप पर कई ऐसे गु्रप बना लिए गए हैं, जिससे हजारों लोगों को जोड़ा जा रहा है। फेसबुक पर कई तरह की ऐसी सामग्री पोस्ट की जा रही है, जिससे हर वर्ग के यूजर का ध्यान जा रहा है। फेसबुक पेज पर सभी पार्टियां अपने मुद्दे भुनाने के लिए अन्य पार्टियों पर सोशल वार भी कर रही है, जिसका जवाब देने के लिए कांग्रेस पार्टी ने तो कांग्रेस एमपी वार रूम मीडिया नाम से बनाकर रखा है। यूथ वोटर पर ही ध्यान सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर यूथ की संख्या ज्यादा है, इसलिए सभी पार्टियां इन्हें अपने गु्रप और पेज से जोड़ने के लिए कई तरह के प्रयास कर ही है। सभी अपने पेज पर ज्यादा लोगों की संख्या दिखाना चाहते हैं इसलिए कई यूजर को पेज से जुड़ने के लिए आगे बढ़कर निमंत्रण दिया जा रहा है। दलों ने अपने छात्र संगठनों के नेताओं को भी कहा है कि ज्यादा से ज्यादा स्टूडेंट्स को पार्टी के सोशल नेटवर्किंग साइट्स से जोड़े। हालांकि कई यूजर पॉलिटिक्स पेज पर इसलिए जुड़ना नहीं चाहते है, क्योंकि बार-बार की पोस्ट से वे डिस्टर्ब होते हैं। नोटिफिकेशन को देखने में उनका समय खराब होता है। सांसद के फेसबुक पर जगह नहीं पार्टियों में कई नेता ऐसे है, जिनकी फेसबुक प्रोफाइल में फ्रेंड्स की संख्या हजारों में पहुंच गई है। एक लिमिट के बाद यूजर फ्रेंड रिसिव नहीं कर सकते। इंदौर की सांसद सुमित्रा महाजन की फेसबुक प्रोफाइल पर यूजर को जोड़ने की लिमिट खत्म हो गई हैं। ताई के नाम से फेसबुक पर एक पेज भी बना है, लेकिन इससे जुड़ने वाले यूजर की संख्या मात्र 481 है। इनकी पोस्ट पर वार कांग्रेस की ओर से इस बार के लोकसभा उम्मीदवार सत्यनारायण पटेल की फेसबुक प्रोफाइल पर भी 4769 यूजर जुड़े है। एक तरह से इनके अकाउंट में भी नए यूजर जुड़ने के चांस कम ही है। इनके प्रोफाइल सामने वाली पार्टी के उम्मीदवार पर वार करने वाली पोस्ट भी दिखाई दे रही है। सत्यनारायण पटेल के नाम से फेसबुक पर एक पेज भी बना हुआ है। ये खासकर लोकसभा चुनाव की तैयारी के लिए बनाया गया है। इस पेज को 972 यूजर ने लाइक किया है। सोशल मीडिया में चुनाव इस बार लोकसभा इलेक्शन में 80 करोड़ से ज्यादा वोटर्स हैं। खास बात यह है कि पहली बार वोट का अधिकार प्राप्त करने वालों की संख्या 10 करोड़ से अधिक है। देश में 9 करोड़ से कहीं ज्यादा लोग सोशल मीडिया पर एक्टिव हैं। ऐसे में एक्सपर्ट्स मानते हैं कि ये 9 करोड़ लोग इस इलेक्शन में बड़ा रोल निभा सकते हैं। सर्वे के अनुसार, एक तिहाई से ज्यादा सोशल मीडिया यूजर्स 5 लाख से कम पॉपुलेशन वाली सिटीज में रहते हैं, जबकि 25 परसेंट से ज्यादा सोशल मीडिया यूजर्स 2 लाख से कम पॉपुलेशन वाले शहरों के हैं। ऐसा माना जा रहा है कि सोशल मीडिया पर एक्टिव यूजर्स न केवल खुद बड़ी भूमिका निभाएंगे, बल्कि वे अपने आसपास के वोटरों को भी प्रभावित कर सकते हैं। - सोशल मीडिया पर साथियों, दोस्तों की सिफारिशें काफी प्रभावित होती हैं। ह्यश्रष्द्बड्डद्यठ्ठश्रद्वद्बष्ह्य.ठ्ठह्ल के मुताबिक, 90 फीसद कंज्यूमर इन पर भरोसा करते हैं। ये सिफारिशें वोटर्स के फैसले को प्रभावित कर सकती हैं। - एक्सपर्ट के अनुसार एक सोशल साइट्स यूजर अपने घर में कम से कम तीन लोगों को प्रभावित कर सकता है। एक स्टडी के अनुसार 2009 लोकसभा इलेक्शन में कांग्रेस के खाते में गई 75 सीटें ऐसी हैं, जिनका फ्यूचर सोशल मीडिया के असर से अछूता नहीं रह सकता। इसी प्रकार से बीजेपी के कब्जे वाली 44 सीटें सोशल मीडिया की मुट्ठी में हैं। यह भी माना जा रहा है कि इलेक्शन से ठीक 48 घंटे पहले जब चुनाव प्रचार पर रोक लग जाएगी, तब सोशल मीडिया बड़ी भूमिका निभाएगा। यही कारण है कि कांग्रेस और भाजपा ने सोशल मीडिया के लिए भारी-भरकम टीम जुटा रखी है। भाजपा के पीएम उम्मीदवार नरेंद्र मोदी खुद ट्विटर पर एक्टिव हैं और करीब 9 भाषाओं में ट्वीट करते हैं। इतना ही नहीं, मोदी ने बेंगलुरु से आईटी के एक्सपर्ट अपनी टीम में बुलाए हैं, जिन्हें लाखों का पैकेज दिया जा रहा है। एक्सपर्ट्स के अनुसार सोशल साइट्स पर एक्टिव यूथ और वोटर्स को ध्यान में रखकर आजकल ज्यादातर पॉलिटिकल पार्टीज सोशल साइट्स के जरिए लोगों से जुड़ने का प्रयास कर रही हैं, वहीं वोटर्स भी पॉलिटिक्स और इलेक्शंस से अपडेट रहने के लिए डिजिटल वर्ल्ड का ज्यादा सहारा ले रहे हैं। फेसबुक का असर 2014 लोकसभा इलेक्शन में टोटल 543 सीटों में से कम से कम 160 का फ्यूचर सोशल मीडिया से तय होगा। आईआरआईएस ज्ञान फाउंडेशन और इंडियन इंटरनेट एंड मोबाइल एसोसिएशन द्वारा कराई गई इस स्टडी की मानें तो सोशल मीडिया के जरिए सीटों पर सबसे ज्यादा महाराष्ट्र की पॉलिटिक्स में पड़ेगा। महाराष्ट्र की 21 लोकसभा सीटें सोशल मीडिया के प्रभाव में हैं, जबकि गुजरात की 17, उत्तर प्रदेश में 14, कर्नाटक में 12, तमिलनाडु में 12, आंध्र प्रदेश में 11, केरल में 10 और एमपी की 9 सीट पर सोशल मीडिया फैक्टर असर दिखा सकता है। इस स्टडी में 67 सीटों की अत्यधिक प्रभाव वाली, जबकि शेष सीटों की कम प्रभाव वाली सीटों के रूप में पहचान की गई है। सबसे अधिक प्रभाव वाली सीट से आशय उन सीटों से है, जहां पिछले लोकसभा इलेक्शन में विजयी उम्मीदवार के जीत क ा अंतर फे सबुक क ा प्रयोग करने वालों से कम है या जिन सीटों पर फेसबुक का प्रयोग करने वालों की संख्या कुल वोटर्स की संख्या का 10 फीसद है। एक स्टडी यह भी सोशल बिजनेस इंटेलिजेंस कंपनी सिंप्लीफाई 360 का दावा है कि इंडिया में 24 फीसद वोटर्स सोशल मीडिया पर हैं। भारत में 31 फीसद ट्विटर यूजर्स ने माइक्रोब्लॉगिंग वेबसाइट पर पॉलिटिकल पर ट्वीट पढ़ा है। 2009 में कांग्रेस को कुल पड़े मतों में से 28.6 फीसद वोट मिले थे। ऐसे में 24 फीसद वोटर्स की सोशल मीडिया पर मौजूदगी आने वाले लोकसभा चुनाव में पासा पलटने के लिए काफी है। लोकसभा चुनाव तैयारी के लिए पार्टी का आईटी सेल काम कर रहा है। यह हर पल सोशल साइट्स पर होने वाली एक्टिविटीज को देख रहा है और समय-समय पर पार्टी की ओर से जानकारी या बयान जारी कर रहा ह। अन्य पार्टियों द्वारा लगाए जाने वाले इल्जाम का जवाब भी हाथो-हाथ दिया जा रहा है। - नरेंद्र सलूजा, प्रवक्ता, मध्यप्रदेश कांग्रेस कमेटी पार्टी का खुद का आईटी सेल सोशल नेटवर्किंग वेबसाइट्स पर एक्टिव है। जरूरत पड़ने पर कई तरह की जानकारी डाली जा रही है, जिससे वोटर सहीं फैसला ले सके। अन्य पार्टी को जवाब देने के लिए आईटी सेल तैयार रहता है। - अलोक दुबे, संभागीय प्रवक्ता, मध्यप्रदेश भाजपा