गुरुवार, 20 अक्तूबर 2011

भावी प्रधानमंत्री अपराधियों की मोटर साइकिल पर



विनोद उपाध्याय

राजनीति में अपनी पैठ बनाने के लिए नेता किस हद तक जा सकते हैं इसके नजारे हम रोज देखते और सुनते है। ऐसा ही नजारा पिछले दिनों राजस्थान के गोपालगढ़ में देखने को मिला,जहां देश के भावी प्रधानमंत्री राहुल गांधी एक अपराधी की मोटर साइकिल पर सवार होकर 6 किलोमीटर घूमे।
दरअसल गोपालगढ़ में पिछले दिनों हुए एक गोलीकांड में राजनीति की रोटी सेंकने का सिलसिला चल रहा था। कांग्रेस ने इस बहती गंगा में हाथ धोने के लिए राहुल गांधी को बुला लिया। भाजपा ने आरोप लगाया है कि कांग्रेस के महासचिव राहुल गांधी ने जिन दो लोगों की मोटर साइकिल पर बैठकर गोपालगढ़ और आसपास के गांवों का दौरा किया था, उन दोनों के खिलाफ क्षेत्र के थानों में कई मामले दर्ज है। पार्टी ने यह भी आरोप लगाया कि राहुल ने एक समुदाय के लोगों के मिलकर दोनों समुदाय के लोगों के बीच वैमनस्य के बीज बो दिए हैं। भाजपा के प्रदेशाध्यक्ष अरुण चतुर्वेदी और प्रदेश उपाध्यक्ष डॉ. दिगंबर सिंह ने बताया कि राहुल पहाड़ी तहसील के पथराली गांव पहुंचे, उस समय उनके आगे बिल्ला उर्फ आशू पुत्र इस्माइल मोटर साइकिल चला रहा था। बिल्ला के खिलाफ पहाड़ी थाने में कई मामले दर्ज हैं। राहुल गांधी पथराली में सरफराज उर्फ शरफू पुत्र हिम्मत के घर गए। चतुर्वेदी और डॉ. सिंह ने आरोप लगाया कि शरफू मेवात इलाके में टटलू गैंग का सरगना है और उसके खिलाफ कई मुकदमे दर्ज हैं। एक मामले में उसके खिलाफ स्टेंडिंग वारंट भी जारी है, फिर भी शरफू बेखौफ सरेआम घूम रहा है। पथराली में एक मृतक के घर सांत्वना देने पहुंचे राहुल गांधी के साथ बिल्ला और शरफू दोनों थे।
राहुल बिल्ला की मोटर साइकिल पर और उनका निजी सहायक शरफू की मोटर साइकिल पर बैठकर गोपालगढ़ में गए थे। गोपालगढ़ में मस्जिद देखने के बाद जाते समय राहुल ने बिल्ला से गले लगाया और कोई काम होने पर दिल्ली आने का न्यौता भी दिया। इस यात्रा के बाद इन दोनों ने क्षेत्र में दहशत फैलाना शुरू कर दिया है। उन्होंने आरोप लगाया कि दोनों अपराधी कामां विधायक जाहिदा के कृपापात्र हैं। चतुर्वेदी ने यह भी आरोप लगाया कि राहुल की यात्रा के बाद दोनों समुदाय में वैमनस्य बढ़ा है। उन्होंने कहा कि राहुल गांधी की यात्रा के बाद ही सीबीआई की टीम जांच के लिए आई है, इससे भी जांच पर शक होता है। उन्होंने चेतावनी दी कि जांच में अगर एकतरफा कार्रवाई की तो भाजपा आंदोलन करेगी। उन्होंने कहा कि राहुल गांधी के इस गुपचुप दौरे ने यह भी साबित कर दिया है कि दिल्ली के नेताओं को राज्य सरकार पर भरोसा नहीं है।
उधर स्थानीय विधायक अनीता सिंह ने कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी के गोपालगढ़ दौरा को महज दिखावटी व राजनीति से प्रेरित बताया है। विधायक सिंह ने कहा कि मेवात क्षेत्र में राहुल का दौरा न यूपी चुनावों की राजनीति से प्रेरित है। उन्होंने एक पक्ष के लोगों से मिलकर कांग्रेस की पुरानी तुष्टिकरण वाली नीति को उजागर किया है। गोपालगढ़ कस्बे में फायरिंग के बाद राज्य सरकार द्वारा एसपी व कलेक्टर को निलंबन करना सांप्रदायिक ताकतों को बढ़ावा देना है। इससे मेवात क्षेत्र में दोनों पक्षों के बीच तनाव बढ़ेगा। जिससे शांति व्यवस्था कायम होने में समय लगेगा। विधायक अनीता सिंह ने कहा कि राहुल को मेवात क्षेत्र में शांति कायम करने के लिए दोनों पक्षों के लोगों से मिलना था। तभी घटना की सही स्थिति उन्हें मिल पाती।
उल्लेखनीय है कि 14 सितंबर को गोपालगढ़ फायरिंग में मारे गए लोगों और घायलों के परिजनों से मुलाकात करने कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी 9 अक्टूबर की सुबह करीब नौ बजे अचानक गोपालगढ़ पहुंचे थे। उनके साथ केंद्रीय गृह राज्य मंत्री जितेंद्र सिंह भी थे। कहा तो यह भी जा रहा है कि राहुल के इस दौरे की जानकारी न सरकार को थी न प्रशासन को। राहुल करीब दो घंटे तक मोटरसाइकिल पर बैठकर गोपालगढ़ के अलावा पिथोली, परसोली व मालिगा गांवों में घूमे। उधर प्रत्यक्षदर्शियों का कहना है कि 8 अक्टूबर की दोपहर राहुल गांधी की टीम के तीन व्यक्ति गांव पथराली पहुंचे थे। इनकी गाडिय़ों पर नंबर प्लेट नहीं थीं। तीनों लोग गांव के बिल्ला नामक युवक से मिले और गांव व घटना के बारे में जानकारी ली।
बिल्ला के अनुसार तीनों व्यक्तियों में से एक ने अपना नाम चंदर खां बताया और दूसरे ने यादव। तीसरे ने अपने बारे में कोई जानकारी नहीं दी थी। इन तीनों व्यक्तियों ने बिल्ला से गोपालगढ़ फायरिंग में मारे गए लोगों के घर ले जाने की बात कही। तीनों से पीडि़तों के घर देखे। गांव के कुछ अन्य लोगों से भी घटना की जानकारी की। इसके बाद बिल्ला से कहा कि 9 अक्टूबर सुबह उनके साहब आएंगे। मदद करना। बिल्ला ने स्वीकृति दी। 8 अक्टूबर की सुबह सात बजे बिल्ला को चंदर ने फोन किया और कहा कि तिलक पुरी आ जाए। बिल्ला तिलक पुरी से थोड़ी दूर ही था कि गाडिय़ों के काफिले ने उसे रोक लिया। टूरिस्ट गाड़ी से राहुल गांधी को उतरते देख बिल्ला भी हैरान रह गया। राहुल बिना देर किए बिल्ला की मोटरसाइकिल पर बैठ गए और मोबाइल स्विच ऑफ करा दिया। इसके बाद बिल्ला से कहा गया कि 8 अक्टूबर को जहां गए थे, वहीं ले चलें। यह स्थान तिलक पुरी से एक किलोमीटर दूरी पर था। यहां से दो किलोमीटर दूर गांव पथराली, इतनी ही दूरी पर मालीकी तथा एक किलोमीटर दूर पिपरौली गांव पहुंचे। यहां से राहुल कार से गोपालगढ़ गए। इस तरह राहुल ने 6 किलोमीटर का सफर मोटरसाइकिल से तय किया। राहुल के गोपालगढ़ दौरे को लेकर प्रदेश में राजनीतिक चर्चाओं का दौर तेज हो गया है। प्रदेश कांग्रेस और सरकार के रहनुमाओं की नजरें अब राहुल के रुख पर टिकी हैं। उधर भाजपा इस मामले को तूल देने की कोशिश कर रही है। अब देखना यह है कि शह मात के इस खेल में कौन बाजी मारता है।

टीम भूरिया में टसन



विनोद उपाध्याय

मध्य प्रदेश में दो साल पहले की सत्ता का संग्राम शुरू हो गया है। प्रदेश में पहली बार करीब 8 साल तक सत्ता से दूर रहने के कारण कांग्रेस में सत्ता हथियाने की ललक देखी जा रही है। लेकिन प्रदेश में भाजपा की स्थापित सरकार को हटाने का सपना देख रही कांग्रेस आलाकमान ने छह महीने के इंतजार के बाद प्रदेश अध्यक्ष कांतिलाल भूरिया को जो टीम दी है उसको लेकर बवाल मचा हुआ है। आलम यह है कि जिन नेताओं को भाजपा से लडऩा था वे अपने में ही जूझ रहे हैं।
कागज ही नहीं धरातल पर भी कांग्रेस से कई गुना मजबूत भाजपा से मुकाबला करने कांतिलाल भूरिया को जो टीम मिली है उसमें 11 उपाध्यक्ष, 16 महामंत्री और 48 सचिव बनाए गए हैं। कहा जा रहा है कि मध्य प्रदेश कांग्रेस कमेटी में पहली बार कांतिलाल भूरिया ने बरसों पुरानी चली आ रही परिपाटी को बदलने की हिम्मत जुटाकर ज्यादातर युवाओं को अपनी टीम का हिस्सा बनाया है, जिनमें कुछ तो काम के हैं, लेकिन इनमें से अधिकांश नाम कांगे्रसियों के लिए संभवत: एकदम नए हैं। चूंकि भूरिया को काम इन्हीं से चलाना पड़ेगा, लिहाजा उन्हें इन्हीं चेहरों को काम वाला बनाना पड़ेगा। मिशन-2013 के लिए भूरिया को कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह, केंद्रीय मंत्री द्वय कमलनाथ, ज्योतिरादित्य सिंधिया, वरिष्ठ नेता सुरेश पचौरी जैसे नेताओं को साथ रखना अनिवार्य होगा। यानी यवाओं के नाम पर भले ही भूरिया को नई टीम सौंप दी गई है लेकिन काम दिग्गजों को ही करना होगा। लेकिन कार्यकारिणी में अपने समर्थकों की उपेक्षा होने के कारण ये नेता भूरिया का साथ देंगे या नहीं यह शोध का विषय है।
कांग्रेस की कार्यकारिणी घोषित होने के बाद अनेक पार्टीजनों में पैदा असंतोष दूर होने का नाम नहीं ले रहा है। केंद्रीय नेताओं को चि_ियां लिखी जा रही हैं और राजधानी भोपाल में पर्चेबाजी हो रही है। कई तरह के सवाल उठाए जा रहे हैं। अपनी वरिष्ठता के मुताबिक पद नहीं मिलने से नाराज कुछ पदाधिकारी कांग्रेस दफ्तर में फटक तक नहीं रहे। उन्हें दिलासा दिया जा रहा है कि सूची में जल्द संशोधन होगा। हालांकि प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष कांतिलाल भूरिया की तरफ से इस तरह के कोई संकेत नहीं दिए जा रहे हैं। भूरिया छह माह पहले अप्रैल में प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष मनोनीत किए गए थे। उनकी टीम बनते-बनते छह माह का वक्त लग गया। उम्मीद की जा रही थी कि गुटीय न सही मगर क्षेत्रीयता और वरिष्ठता के लिहाज से पदाधिकारियों की सूची संतुलित होगी, मगर ऐसा नहीं हो पाया। पदाधिकारियों, विशेष आमंत्रित सदस्यों और अन्य समितियों में समायोजित किए गए कुछ चेहरे तो ऐसे हैं, जो वर्षो से घर बैठे थे। ऐसा लगता है कि उन्हें झाड़-फूंक के पद दे दिया गया है।
प्रदेश में अन्य कांग्रेसी नेता भूरिया का साथ दे या न दे दिग्विजय सिंह का उन्हें भरपूर सहयोग मिलेगा। इस बात का संकेत इससे भी मिलता है कि नवगठित प्रदेश कांग्रेस कार्यकारिणी में अधिकतर दिग्विजय समर्थकों का ही दबदबा है। एक तरफ जहां पार्टी के तीन प्रमुख पदों पर दिग्विजय समर्थकों का कब्जा है वहीं नवगठित कार्यकारिणी में उनके समर्थकों की भरमार है। वहीं जिला इकाइयां भी दिग्विजय सिंह समर्थकों की मु_ी में हैं। राज्य के अन्य प्रमुख नेता केंद्रीय मंत्री कमलनाथ, ज्योतिरादित्य सिंधिया अपने समर्थकों को अहम जिम्मेदारी दिलाने में कामयाब नहीं हो पाए हैं। असंतोष की आवाज प्रदेश अध्यक्ष कांतिलाल भूरिया के जिले और नेता प्रतिपक्ष अजय सिंह के करीबी लोगों से आई है। सचिव बनाए गए रतलाम के राजेंद्र सिंह गेहलोत ने पद लेने से इंकार कर दिया है। भूरिया रतलाम के सांसद हैं। प्रदेश कांग्रेस सेवादल के अध्यक्ष और कांग्रेस कमेटी के सचिव रहे गेहलोत को भूरिया ने महासचिव बनाने का वादा किया था, लेकिन दिल्ली से जो सूची आयी उसमें गेहलोत सचिव बनाए गए। इससे दुखी गेहलोत ने भूरिया को फोन कर सचिव का पद लेने से इंकार कर दिया है। यही हाल सचिव बने महेंद्र सिंह चौहान का है। वे नेता प्रतिपक्ष सिंह के करीबी हैं। उन्हें भी महासचिव या उपाध्यक्ष बनने की आस थी, लेकिन वे भी इस पद को लेने से मान कर रहे हैं। उनके साथ छात्र राजनीति करने वाले कई नेता महासचिव और उपाध्यक्ष बनाए गए जबकि चौहान को सचिव बना कर संतुष्ट करने का प्रयास किया गया।
नए पदाधिकारियों में से कुछ नाम ऐसे हैं, जिनकी पहचान का संकट मीडिया में ही नहीं, पार्टी में भी है। मसलन भोपाल की तनिमा दत्ता को महासचिव बनाया गया है। उन्हें भोपाल जिला कांग्रेस में कोई पहचानता नहीं है। प्रबंध समिति के साथ उन्हें प्रवक्ता भी बनाया गया है। बताया जाता है कि वे युवक कांग्रेस नेता रहे अश्विनी श्रीवास्तव की नजदीकी रिश्तेदार हैं। उन्हें कैप्टन जयपाल सिंह ने भूरिया से मिलवाया था। दत्ता तो महासचिव बन गई, लेकिन गृहमंत्री रहे कैप्टन को कुछ नहीं मिला है। मगर अब तक प्रदेश कार्यालय में संगठन का कागजी काम देखते रहे केप्टन जयपाल सिंह की क्या भूमिका रहेगी, यह स्पष्ट नहीं किया गया है। वह अब तक महामंत्री का दायित्व निभा रहे थे। अंग्रेजी ज्ञान अच्छा होने के कारण पूर्व प्रदेशाध्यक्ष सुरेश पचौरी ने भी उन्हें अपनी टीम में बरकरार रखा था। बल्कि उनकी गिनती पचौरी के निकटतम सिपहसालारों में होने लगी थी। उन्हें तत्कालीन अध्यक्ष सुभाष यादव ने प्रदेश कांग्रेस दफ्तर में जगह दी थी। इसी तरह भूरिया के नजदीकी शांतिलाल पडिय़ार का नाम भी नहीं है। पडिय़ार अब तक प्रभारी महामंत्री की भूमिका में काम कर रहे थे। भूरिया ने अपने दौरों का काम देखने के लिए भोपाल के जिस संजय दुबे को कांग्रेस दफ्तर में टेबिल कुर्सी मुहैया कराई थी, वह भी सूची से नदारद हैं। देखा जाए तो भूरिया की कोर टीम में से सिर्फ प्रमोद गुगालिया ही एकमात्र ऐसे शख्स हैं, जिन्हें प्रवक्ता बनने में कामयाबी मिल सकी है। यह अलग बता है कि भूरिया ने अध्यक्ष बनते ही उनको मीडिया प्रभारी बनाया था। बहरहाल ऐसा क्यों हुआ, इसके कारण तलाशे जा रहे हैं।
भोपाल में केरोसिन का कारोबार करने वाले अब्दुल रज्जाक और निजामुद्दीन अंसारी चांद को सचिव बनाया गया है। रज्जाक के बारे में कहा जाता है कि वे भूरिया को चेहरा दिखाने का कोई मौका नहीं छोड़ते थे, यहां तक कि भूरिया की यात्राओं के दौरान वे साथ रहने की गरज से रेल या प्लेन का टिकट लेने से भी नहीं हिचकते थे। चांद और ईश्वर सिंह चौहान पिछले चुनावों में कांग्रेस की खिलाफत कर चुके हैं। यही स्थिति एक अन्य महामंत्री जीएम राईन भूरे पहलवान को लेकर है। नई सूची में पदाधिकारी बने एक नेता ने कहा, आपकी तरह हमारे लिए भी ये दोनों नाम खोज का विषय हैं। प्रदेश सचिव बने रज्जी जॉन और जैरी पॉल के मामले में भी ऐसी ही स्थिति है। कांग्रेसी ही सवाल कर रहे हैं कि कौन हैं ये लोग? प्रभारी महासचिव और मुख्य प्रवक्ता रह चुके मानक की 2009 लोकसभा चुनाव के बाद कार्यालय में वापसी हुई है।
उधर उज्जैन से सासद प्रेमचंद गुड्डïू ने भूरिया के खिलाफ मोर्चा खोल दिया है। भूरिया से नाराज कई नेता गुड्डïू से जुड़ गए हैं। भूरिया के प्रदेश कार्यकारिणी बनाने के बाद गुपचुप बैठकों के दौर तो शुरू हो गए थे। मगर अब जल्दी ही खुलकर बगावत के आसार बन रहे हैं। कभी कमलनाथ के खिलाफ मोर्चा खोलने वाले गुड्डïू के घर कमलनाथ समर्थक भी पहुंच रहे हैं। गुड्डïू ने भी नाराज काग्रेसियों से बात करना शुरू कर दिया है। मालवा-निमाड़ के सभी दिग्गज भूरिया के फैसले से नाराज तो थे, मगर विरोध करने की पहल से बच रहे थे। मगर खुद के समर्थकों को दरकिनार करने के बाद गुड्डïू ने भूरिया विरोध की कमान संभाल ली है। बताया जा रहा है कि कमलनाथ के विरोध के कारण जो सज्जन सिंह वर्मा कभी गुडू से खार खाते थे वो भी गुड्डïू के साथ जा खड़े हुए हैं। कांग्रेस नेता पंकज संघवी, विधायक अश्र्विन जोशी भी गुड्डïू के साथ भूरिया विरोध की तैयारियों में जुट गये हैं। वहीं महेश जोशी, शोभा ओझा, सत्यनारायण पटेल की भी गुड्डïू से इस सम्बन्ध में बात हुई है। गुड्डïू सिंधिया खेमे के विरोधी माने जाते हैं। मगर जिन सिंधिया समर्थकों को घर बैठा दिया गया है वो भी गुड्डïू से हाथ मिलाने के लिये तैयार हैं। माना जा रहा है कि आने वाला वक्त भूरिया और प्रदेश काग्रेस के लिए सुकून भरा नहीं होगा।

सबसे ज्यादा हैरानी बुंदेलखंड की स्थिति को लेकर है। कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी ने बुंदेलखंड के पिछड़ेपन को दूर करने केंद्र सरकार से अड़तीस सौ करोड़ रुपये का विशेष पैकेज तो दिला दिया, मगर जब पार्टी संगठन में इलाके को प्रतिनिधित्व देने का मौका आया तो धेला नहीं मिला। प्रदेश पदाधिकारियों की 75 लोगों की सूची में से सिर्फ पांच नाम बुंदेलखंड से हैं। यदि प्रवक्ता को भी जोड़ लिया जाए तो यह संख्या छह हो जाती है। इसमें भी वरिष्ठता का ख्याल नहीं रखा गया। बुंदेलखंड में छह जिले हैं। मगर सभी को तरजीह देने के बजाए दमोह और सागर से पांच नाम ले लिये गए। दमोह की हटा तहसील से दो लोगों को शामिल किया गया है। दिग्विजय सिंह के मंत्रिमंडल में रहे राजा पटेरिया को प्रवक्ता जैसा मामूली पद दिया गया, जबकि उनसे बहुत जूनियर मनीषा दुबे महामंत्री बना दी गई। दोनों ही ब्राह्मंाण हैं। सागर जिले की बात करें तो बीना के अरुणोदय चौबे उपाध्यक्ष और राजेन्द्र सिंह ठाकुर सचिव बनाए गए हैं।
तीन लोकसभा और 23 विधानसभा क्षेत्र वाले इस इलाके में जातीय समीकरणों का हमेशा महत्व रहा है। मगर कांग्रेस की सूची में इसका भी ख्याल नहीं किया गया। वोटों में भागीदारी के लिहाज से देखें तो लगभग 30 प्रतिशत अनुसूचित जाति, 28 प्रतिशत ओबीसी, पांच फीसदी ब्राह्मंाण, पांच प्रतिशत ठाकुर, चार प्रतिशत मुस्लिम सहित अन्य अल्पसंख्यक, 15 प्रतिशत आदिवासी और बारह प्रतिशत वैश्य समाज है। मगर दलित, आदिवासी, ओबीसी और वैश्य कांग्रेस की सूची में जगह बनाने में कामयाब नहीं हो सके।
सूत्रों का कहना है कि बुंदेलखंड में कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी की दिलचस्पी के कारण इलाके के कांग्रेसी इस उम्मीद में हैं कि इस विसंगति की तरफ उनका ध्यान जाएगा तो सूची में सुधार जरूर होगा। जानकारों का कहना है कि इसके पूर्व सुरेश पचौरी के कार्यकाल में बुंदेलखंड से ग्यारह पदाधिकारी थे। भूरिया तो पुराने आंकड़े को ही बरकरार नहीं रख पाए। बहरहाल, कांग्रेसजन किसी तरह राहुल के पास वस्तुस्थिति पहुंचाने में लगे हैं ताकि इस पिछड़े इलाके की भलाई के लिए उन्होंने प्रधानमंत्री से विशेष पैकेज दिलवाने में जो भावना दिखाई, उसकी एक झलक कांग्रेस की लिस्ट में भी दिखाई पड़े।
प्रदेश कांग्रेस कमेटी को लेकर भले ही कांग्रेसी हल्ला मचा रहे हो, लेकिन कप्तान भूरिया तो गदगद हैं और वे गर्व से कह रहे है कि इससे अच्छी कार्यकारिणी नहीं बन सकती थी। कांतिलाल भूरिया से जब उनकी टीम को लेकर बात की, तो कहने लगे कि आम कांग्रेसी खुश है। मैंने सबको जगह देने की कोशिश की है। पहली 33 फीसदी महिलाओं को पद दिए हैं। जब उनसे कहा कि टीम का तो विरोध हो रहा है? तो वे बोले - किस बात का विरोध? सभी नेताओं से बात की थी। बड़े नेताओं से नाम लिए थे, जो पंद्रह-बीस साल से काम कर रहे हैं, उनको भी भाव दिया है, सीनियर नेताओं को अनुभव के लिए साथ में रखा। युवाओं को दौडऩे के लिए बनाया। उन महिला नेत्रियों को मौका दिया, जो पहले से महिला कांग्रेस में काम कर रही थी। पार्षद, विधायक और जिला पंचायत प्रतिनिधि रही।
नए चेहरों के पास अनुभव की कमी है, तो अनुभवियों के पास कोई अधिकृत पद नहीं है, ऐसी स्थिति में अब प्रदेश अध्यक्ष और नेता प्रतिपक्ष पर ये लोग दवाब बढ़ा सकते हैं। जानकारों का कहना है कि कांगे्रस ने बरसों बाद उन कांगे्रसियों की भी सुध ली है, जो हासिए पर थे। युवा कंधों पर बूढ़ी कांगे्रस का भार मिशन-2013 में कांगे्रस को कितनी मजबूती दे पाता है, यह तो आने वाला वक्त बताएगा, मगर सबसे खास यह होगा कि कांगे्रस अध्यक्ष भूरिया को अब इन्हीं नए और गैरअनुभवी चेहरों के अनुभव को बढ़ाते हुए इस चुनावी रणभूमि में जंग के लिए उतरना होगा।

बुधवार, 19 अक्तूबर 2011

प्रधानमंत्री पद को लेकर भाजपा में रार



विनोद उपाध्याय

घोटालों से घिरी कांग्रेसनीत यूपीए सरकार के फिर सत्ता में नहीं आने की धारणा के बीच भाजपा में प्रधानमंत्री पद के लिए घमासान शुरू हो गया है। पार्टी को लग रहा है कि इस बार उसे उत्तर भारत के कांग्रेस प्रभावित क्षेत्रों में अच्छी सफलता हासिल होगी। भले ही वह अकेले अपने दम पर सरकार न बना पाए, मगर भाजपानीत एनडीए तो सत्ता में आ ही जाएगा। जाहिर तौर पर भाजपा सबसे बड़ा दल होगा, लिहाजा उसी का नेता प्रधानमंत्री पद पर काबिज हो जाएगा। इस अनुमान के आधार पर भाजपा नेताओं में प्रधानमंत्री पद पाने की होड़-सी लग गई है और पार्टी गाइड लाइन को दरकिनार कर नेता स्वयंभू प्रधानमंत्री बनने के जतन में जुट गए हंै।
राजनीतिक संकेतों और भाजपा के सूत्रों की मानें तो पार्टी में प्रधानमंत्री पद के दावेदार नेताओं में लालकृष्ण आडवानी,सुषमा स्वराज, अरुण जेटली, नरेन्द्र मोदी, राजनाथ सिंह, नितिन गडकरी, यशवंत सिन्हा और मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के अलावा जद(यू) से नितीश कुमार अपने-अपने तरीके से दावा पेश कर रहे हैं।
इस दृश्य को देखकर एक बात तो साफ झलक रही है कि अटल बिहारी वाजपेयी के राजनीतिक अवसान के बाद आज भाजपा ऐसे मोड़ पर खड़ी है जहां कोई किसी का माई-बाप नहीं है। 31 साल की युवा भाजपा जिसका उदय भारतीय राजनीति में दक्षिणपंथ की ओर ऐतिहासिक मोड़ माना गया, जिसे पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी की जोड़ी ने करीब छह साल तक सत्ता के शिखर पर बैठाया आज उसके प्रौढ़ और बुजुर्ग नेताओं में इतना सामथ्र्य नहीं रहा की वे एक-दूसरे को एकता के बंधन में बांध सके और संघ की धार भी भोथर हो गई है। जिसका परिणाम यह हो रहा है कि नेता अपनी डफली अपना राग अलाप रहे हैं और पार्टी रसातल की ओर जा रही है।
लोकसभा चुनाव 2014 में होना है पर भाजपा के अंदर प्रधानमंत्री पद के लिए घमासान छिड़ गया है। यहां एक नहीं कई प्रधानमंत्री पद के दावेदार हैं। जिससे पूछो वही कह बैठता है मेरे में क्या कमी है। हालांकि कुछ वरिष्ठ नेता अपने को इस दौर से बाहर रखे हुए हैं पर कुछ ने खुलकर अपनी दावेदारी पेश कर दी है। पार्टी में कुछ माह पूर्व तक लोकसभा में विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज और राज्यसभा में विपक्ष के नेता अरुण जेटली के बीच ही प्रधानमंत्री पद को लेकर प्रतिस्पर्धा चल रही थी, मगर अब दावेदारों की लंबी फौज सामने आने लगी हैं। गुजरात में लगातार दो बार सरकार बनाने में कामयाब रहे नरेन्द्र मोदी ने गुजरात दंगों से जुड़े एक मामले में उच्चतम न्यायालय के निर्देश को अपनी जीत के रूप में प्रचारित कर अपनी छवि धोने की खातिर शांति और सद्भावना के लिए तीन दिवसीय उपवास किया। उसी दौरान अमेरिकी कांग्रेस की रिसर्च रिपोर्ट में उनकी तारीफ करते हुए ऐसा माहौल बना दिया कि अगले आम चुनाव में प्रधानमंत्री पद का मुकाबला मोदी और राहुल गांधी के बीच हो सकता है। इससे मोदी का हौंसला और बढ़ गया और शांति और साम्प्रदायिक सद्भाव के लिए तीन दिन के उपवास के माध्यम से राष्ट्रीय स्तर पर अपनी छवि बदल कर सर्वमान्य नेता बनने का प्रयास किया। जाहिर तौर पर इससे सुषमा स्वराज व जेटली को तकलीफ हुई होगी। वे ही क्यों पिछले चुनाव में प्रधानमंत्री पद के दावेदार के रूप में पेश किए गए आडवाणी तक को तकलीफ हुई और उन्होंने न केवल रथयात्रा की घोषणा की बल्कि अपने प्रिय नेता नरेन्द्र मोदी के कट्टर विरोधी बिहार के मुख्यमंत्री नितीश कुमार की अगुआई में जयप्रकाश नारायण की तथाकथित जन्मस्थली सिताब दियरा से अपनी रथ यात्रा भी शुरू कर दी है।
आडवाणी ने रथ यात्रा तो शुरू कर दी है लेकिन उस पर सवाल खड़े होने लगे हैं। सबसे पहला यह की आडवाणी अपनी यात्राओं को रथयात्रा ही नाम क्यों देते हैं? रथ आवाम से नहीं जोड़ता है। जनता से दूर ले जाता है। रथ सामंती प्रतीक है। हमारी परम्परा में रावण रथी है। और रघुवीर विरथ। रथ लोक से काटता है, फिर भी लालकृष्ण आडवाणी बिना घोड़ों के रथ पर सवार हैं। पार्टी, मित्रों और संघ परिवार की इच्छा के खिलाफ आडवाणी की रथयात्रा निकल चुकी है। आडवाणी 'आदि रथयात्रीÓ हैं। उनकी यात्रा के निहितार्थ सब जानते हैं। आखिर क्यों वे संघ और भाजपा के कई अपमानजनक शर्तों के बावजूद रथ पर सवार हो रहे हैं? कौन सी मजबूरी है कि प्रधानमंत्री पद की आमरण उम्मीदवारी छोडऩे को वे तैयार नहीं हैं? देश इक्कीसवीं सदी के उस मुकाम पर है। जहां से राजनीति के सूत्र युवाओं के हाथ जा रहे हैं। देश में 72 करोड़ 99 लाख मतदाताओं में से 50 प्रतिशत युवा हैं। राहुल गांधी मुकाबले में हैं। युवा आगे देख रहा है और रथ पीछे ले जाता है। इसलिए आडवाणी की रथयात्रा युवा वर्ग को लुभाती नहीं है। शायद इसी सोच से संघ और भाजपा अपना नेता बदलना चाहते हैं। वे दूसरी पीढ़ी को सत्ता सौंपना चाहते हैं। राजनीति के प्रतीक बदलना चाहते हैं। रथ, राम, अयोध्या और उग्र हिन्दुत्व से परे नए प्रतीक। ताकि भाजपा एक ऐसा उदार राजनैतिक दल बने जिसमें युवा वर्ग अपना भविष्य देख सके। ऐसे नए वैचारिक उपकरण बने जिससे युवा मतदाताओं के तार सीधे जुड़ सके। इसलिए संघ का जोर दूसरी पीढ़ी की ओर है, पर आडवाणी की प्रधानमंत्री पद की चाह रास्ते की अड़चन। आडवाणी की दुर्दशा देखिए। भाजपा के भीतर जो गडकरी, जेटली, वेंकैया, सुषमा स्वराज और नरेन्द्र मोदी इस रथयात्रा के खिलाफ खड़े थे, वे सब आडवाणी द्वारा गढ़े गए हैं। पार्टी में आडवाणी ने उन्हें बड़ा बनाया है। पर उस सवाल पर जंग खाए लौह पुरुष पार्टी में अकेला पड़ गया है।
दरअसल आडवाणी दो परिवारों के बीच पिस रहे हैं। एक-उनका अपना परिवार है। जो उन्हें प्रधानमंत्री देखना चाहता है। उसकी दलीलें हैं, कि मोरारजी भाई तो 83 की उम्र में प्रधानमंत्री बने थे। फिर दादा की सेहत अच्छी है। दिमाग दुरुस्त है। पार्टी में सबसे ज्यादा योगदान है। दूसरा है संघ परिवार। जो किसी भी कीमत पर आडवाणी को अब भाजपा की मुख्यधारा में रहने देना नहीं चाहता। वह जल्दी में है दूसरी पीढ़ी के लिए। इन दो परिवारों के बीच मुश्किल हैं। फिर क्या करें लौहपुरुष? एक सम्मानजनक रास्ता है। वे उस पर क्यों नहीं जाना चाहते? अगर आडवाणी गांधी, लोहिया, जयप्रकाश या अन्ना से नहीं सीख सकते, तो उन्हें कम से कम सोनिया गांधी से ही सीखना चाहिए। कैसे कुर्सी की दौड़ से अलग रह कर राजनीति में हस्तक्षेप किया जा सकता है। कांग्रेस अध्यक्षा सोनिया गांधी पार्टी को आगे बढ़ाने के लिए दिन-रात अथक परिश्रम कर रही हैं। क्या भाजपा के लिए आडवाणी के मन में ऐसी भावना नहीं जाग सकती?
पहले आरएसएस के संकेतों, इशारों और अब साफ-साफ कहने के बावजूद आडवाणी राजनीति से हटने को तैयार नहीं हैं। देश ने पिछले आम चुनावों में नेता के तौर पर उन्हें खारिज किया है। इसलिए संघ पिछले दो साल से आडवाणी के राजनैतिक सन्यास की घोषणा सुनना चाहता है। आडवाणी उस रास्ते जा भी रहे थे। पर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की हिलती कुर्सी देख। वे लौट आए। उनकी लालसा जगी। उन्हें लगा भाजपा में सामूहिक नेतृत्व पर बात नहीं बन रही है। वहां प्रधानमंत्री पद के लिए आधा दर्जन से ज्यादा उम्मीदवार हैं। ऐसे में रथयात्रा के जरिए वे दोबारा सत्ता में आने के लिए दावेदारी कर सकते हैं। पर उनकी इस योजना की हवा इस बार विपक्ष ने नहीं अपनों ने ही निकाल दी। यही वजह है 11 अक्टूबर से निकली उनकी रथयात्रा इस बार कोई माहौल पैदा नहीं कर पा रही है। पार्टी के बड़े नेताओं और मुख्यमंत्रियों ने हाथ खींच लिए थे। पार्टी का यह रुख देख आडवाणी ने रथयात्रा नितीश कुमार के हवाले कर दी। वरना हर कोई जानता है कि जयप्रकाश नारायण की जन्मस्थली सिताब दियारा बिहार में नहीं उत्तर प्रदेश के बलिया जिले में है। सिताब दियारा का जेपी का मकान स्मारक और कुटुम्ब के लोग आज भी उत्तर प्रदेश के बलिया जिले में रहते हैं। घाघरा के कटाव से गांव का सीमांत बिहार के सारण जिले में जरूर पड़ता है। पर सिताब दियारा रेवन्यू गांव यूपी का है। यूपी में फिजा नहीं बन सकती। इस दौरान यूपी में राजनाथ सिंह, कलराज मिश्र दोनों अपनी-अपनी यात्राएं लेकर यहां निकल रहे हैं, सो उत्तर प्रदेश में पार्टी ने हाथ खड़े किए। इसलिए रथयात्रा अब नितीश कुमार के हवाले हुई। इस शर्त के साथ कि यात्रा में लगने वाले नारे, पोस्टर में ऐसा कोई जिक्र और उल्लेख नहीं होगा जो रथयात्री को प्रधानमंत्री पद का दावेदार बताए।
लालकृष्ण आडवाणी ने निश्चिततौर पर भाजपा को सत्ता की राजनीति के सर्वश्रेष्ठ दिन दिखाए हैं। जनसंघ से भाजपा तक उनका योगदान बेजोड़ रहा है। उनकी पहली रथयात्रा ने पूरे देश में रामजन्मभूमि आंदोलन के लिए एक उफान पैदा किया था। उस लिहाज से वे पार्टी के केंद्र में रहे। आडवाणी की खुद की यात्रा भी कम रोचक नहीं है। पहले वे अटल बिहारी वाजपेयी के सहायक रहे। फिर उनके समकक्ष हुए। बाद में प्रतिद्वंदी बने। हालांकि पार्टी के भीतर उनकी कभी सर्वमान्य नेता की हैसियत नहीं रही। यह संयोग है कि अटल बिहारी वाजपेयी के प्रतिद्वंदी बनने के बावजूद आडवाणी तभी तक ताकतवर थे। जब तक वे अटल बिहारी वाजपेयी की छाया में थे। उससे निकलते ही वे न सिर्फ प्रभावहीन हुए। पार्टी के क्षत्रपों ने उनका विरोध शुरू कर दिया। उन्हे लगा कि प्रधानमंत्री बनने के लिए अटल जैसा उदार चेहरा चाहिए। अपने चेहरे को उदार बनाने के लिए उन्होंने जिन्ना का सहारा ले लिया। बस यहीं से शुरू हुई गड़बड़। जिन्ना प्रकरण के बाद संघ ने उनकी नाक में नकेल डाली। बीजेपी के नए नेतृत्व ने उन्हें लगभग धकिया कर नेतृत्व की दौड़ से बाहर किया। पर कमजोर होते मनमोहन सिंह और भ्रष्टाचार के आरोपों से साख खोती सरकार ने उनकी सारी उम्मीदें जगा दी। अब देखना यह है की आडवाणी की मंशा पर विपक्ष पानी फेरता है या अपने?
प्रधानमंत्री पद के एक अन्य दावेदार गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी का जनाधार अन्य नेताओं के मुकाबले अधिक है, लेकिन उन्हें कट्टरपंथी माना जाता है, इस कारण राजग के घटक दल उनके नाम पर सहमति नहीं देंगे। आज की तारीख में भाजपा में अगर कोई जन नेता है तो अटल बिहारी वाजपेयी के अलावा नरेंद्र मोदी का ही नाम लिया जा सकता है। वाजपेयी के अलावा मोदी की ही सभाओं में लाखों की भीड़ होती है और वे वाजपेयी की तरह सहज वक्ता नहीं हैं लेकिन भीड़ को बांध कर रखना उन्हें अच्छी तरह आता है। मुहावरे वे गढ़ लेते हैं, जहां जरूरत होती है, वहां वही भाषा बोलते हैं और अच्छे-अच्छे खलनायकों को हिट करने वाली और दर्शकों को मुग्ध करने वाली जो बात होती है, वह मोदी में भी है कि वे अपने किसी कर्म, अकर्म या कुकर्म पर शर्मिंदा नजर नहीं आते। नरेंद्र मोदी गोधरा के खलनायक हैं मगर संघ परिवार, भाजपा और कुल मिला कर हिंदुओं के बीच भले आदमी माने जाते हैं। लेकिन मोदी गोधरा कांड की काली छाया से अभी तक उबर नहीं पाए हैं।
पिछली चुनावी विफलताओं से भाजपा ने सबक सीखा है। सबक यह है कि अगले चुनाव में भाजपा की ओर से प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में किसी नेता को पेश नहीं किया जायेगा। प्रधानमंत्री पद के लिए नरेंद्र मोदी के नाम की चर्चा तो बुद्धि विलास या फिर एक खास वर्ग में डर पैदा करने की अनावश्यक कोशिश के अलावा और कुछ भी नहीं लगती है। नरेंद्र मोदी व्यक्तिश: प्रधानमंत्री पद के योग्य हैं या नहीं, इस सवाल को छोड़ भी दिया जाए तो भी सवाल यह उठता ही है कि उन्हें प्रधानमंत्री आखिर बना कौन रहा है? क्या उनकी पार्टी में आज इस सवाल पर एकमत कौन कहे, सर्वानुमति भी है? सबसे बड़ा सवाल यह भी है कि आरएसएस आखिर चाहता क्या है? यदि आरएसएस मोदी को प्रधानमंत्री पद पर देखना भी चाहे तो उसके लिए भाजपा को खुद अकेले अपने बल पर लोकसभा में बहुमत लाना होगा? आज के राजनीतिक माहौल को देखते हुए ऐसा बहुमत कहीं से संभव नहीं लगता है। यहां मान कर चला जा रहा है कि भाजपा के कतिपय सहयोगी दल नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री के पद पर देखना नहीं चाहेंगे। फिर भी इस पद को लेकर मोदी के नाम की चर्चा क्यों इतनी अधिक हो रही है, आश्चर्य होता है।
आडवाणी और मोदी की वनिस्वत सुषमा व जेटली अलबत्ता कुछ साफ-सुथरे हैं, मगर उनकी ताकत कुछ खास नहीं। सुषमा स्वराज फिलहाल चुप हैं, क्योंकि वे जानती हैं कि अकेले भाजपा के दम पर तो सरकार बनेगी नहीं, और अन्य दलों का सहयोग लेना ही होगा। ऐसे में मोदी की तुलना में उनको पसंद किया जाएगा। रहा सवाल जेटली का तो वे भी गुटबाजी को आधार बना कर मौका पडऩे पर यकायक आगे आने का फिराक में हैं। इसी प्रकार जहां तक राजनाथ सिंह के नाम का सवाल है तो यह उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों पर निर्भर करता है। यदि भाजपा का प्रदर्शन अच्छा रहा तो निश्चितरूप से उनकी दावेदारी मजबूत होगी। आडवाणी के अतिरिक्त पूर्व पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह भी उत्तर प्रदेश में रथयात्रा के माध्यम से आगे निकलने की कोशिश कर रहे हैं। इन सबके अतिरिक्त सुनने में यह भी आ रहा है कि पार्टी अध्यक्ष नितिन गडकरी भी गुपचुप तैयारी कर रहे हैं। वे लोकसभा चुनाव नागपुर से लडऩा चाहते हैं और मौका पडऩे पर खुलकर दावा पेश कर देंगे। हालांकि कुछ वरिष्ठ नेता अपने को इस दौर से बाहर रखे हुए हैं पर कुछ ने खुलकर अपनी दावेदारी पेश कर दी है इसमें झारखंड से सांसद और पूर्व वित्त मंत्री यशवंत सिन्हा का भी नाम शामिल हैं। भाजपा के वरिष्ठ नेता यशवंत सिन्हा ने कहा है कि पार्टी में उनके सहित कई नेता प्रधानमंत्री पद की उम्मीदवारी के योग्य हैं लेकिन लोकसभा चुनावों के करीब आने पर ही यह फैसला किया जाएगा कि प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार किसे बनाया जाए किसे नहीं। उन्होंने स्वयं को भी प्रधानमंत्री पद दावेदार बताते हुए कहा कि मेरी क्षमता पर किसी को संदेह नहीं होना चाहिए। सिन्हा ने भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी और गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी में से किसे प्रधानमंत्री बनाया जाएगा इस आशय की अटकलों और इन दोनों नेताओं के बीच मतभेद की रिपोर्टों को कम महत्व देने की कोशिश की। पूर्व केंद्रीय मंत्री ने कहा कि यह केवल मीडिया की देन है और भाजपा में कोई इस बारे में बात नहीं कर रहा है।
इन सबके इतर एक नेता जो दबे और सधे कदमों से प्रधानमंत्री की कुर्सी की ओर बढ़ रहा है वह हैं मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान। शिवराज संघ और भाजपा दोनों की आंखों के नूर हैं। भाजपा का केन्द्रीय नेतृत्व शिवराज को तराश कर उन्हें अगला अटल बिहारी बनाने में जुट गया है। केन्द्रीय नेतृत्व को यह बात भलीभांति मालूम है कि क्षेत्रीय नेताओं में शिवराज ही ऐसे नेता हैं जिन्होंने केन्द्र और राज्य में विभिन्न पदों पर लंबे समय तक काम किया है। शिवराज की अभी तक की सफल राजनीतिक यात्रा पर गौर करें तो हम पाते हैं कि उनमें एक कुशल राजनेता के सभी गुण हैं। शिवराज की इसी खूबी को भाजपा भुनाने की तैयारी कर रही है। संघ और भाजपा की मंशा भांपकर शिवराज सिंह चौहान ने भी यात्राओं के इस माहौल में बेटी बचाओ अभियान के तहत यात्राओं का दौर शुरू कर दिया है। शिवराज की कार्यप्रणाली को देखे तो हम पाते हैं की आम आदमी के दिल में पैठ बनाने की अदा उनसे अधिक किसी अन्य नेता में नहीं है। आम जनता की दुखती नस की पहचान उन्हें खूब है। संघ और भाजपा संगठन इस बात को भलीभांति जानता है और मौका मिला तो वह शिवराज की सेक्यूलर छवि को भुनाने का कोई अवसर नहीं छोड़ेगा। जानकारों की मानें तो यह सब दो साल बाद की राजनीतिक परिस्थितियों को ध्यान में रख किया जा रहा है। राष्ट्रीय फलक पर गौर करें तो भाजपा के पास ऐसे चेहरों की कमी दिखाई पड़ती है जो भीड़ खींचने का माद्दा रखते हों और जिनकी छवि भी अच्छी हो। न काहू से दोस्ती न काहू से बैर की नीति पर चलने वाले शिवराज इस कसौटी पर फिट बैठते हैं। उन्हें चुनौती गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी और हाल ही में पार्टी की सदस्य बनी उमा भारती से मिल सकती है। लेकिन दोनों हिंदूवादी चेहरे हैं जिनसे गठबंधन के इस दौर में कई सहयोगियों को दिक्कत हो सकती है,इसलिए शिवराज जैसे मध्यमार्गी नेता पार्टी के लिए फायदेमंद रह सकते हैं।
रामनामी ओढ़कर राजनीति के मैदान में उतरी भारतीय जनता पार्टी अपनी साम्प्रदायिक छवि से आजिज आ चुकी है इसलिए वह अब अपनी छवि बदलने में लगी हुई है लेकिन उसे दमदार सेक्युलर चेहरा नहीं मिल पा रहा है। भाजपा में लालकृष्ण आडवाणी, नितिन गडकरी, मुरली मनोहर जोशी, अरुण जेटली, सुषमा स्वराज, राजनाथ सिंह, नरेन्द्र मोदी आदि जितने कद्दावर नेता हैं इन सबकी साम्प्रदायिक छवि है। जब भाजपा हिन्दू पार्टी थी। जब हिंदुओं को भाजपा ने आंदोलित किया था। तब दलित, फारवर्ड, जाट, किसान आदि सभी जातियों या वर्गों ने अपनी पहचान हिन्दू मानी थी। तब जब आडवाणी ने राम रथयात्रा की थी। उस रियलिटी को भाजपा लीडरशिप ने आज इस दलील से खारिज किया हुआ है कि काठ की हांडी बार-बार नहीं चढ़ा करती। आज का समाज, आज का नौजवान और आज का हिन्दू अयोध्या पुराण से आगे बढ़ चुका है। इसलिए जरूरत आज वाजपेयी बनने की है। पार्टियों को पटाने की है और 2014 के लिए एलांयस के जुगाड़ की है। ऐसे में गठबंधन की मजबूरियां सामने आती हैं तो पार्टी मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को प्रधानमंत्री पद के लिए आगे कर सकती है।
अगर एनडीए गठबंधन की बात करें तो बिहार के मुख्यमंत्री नितीश कुमार का नाम प्रधानमंत्री के लिए सामने आता है। जिस नितीश कुमार के बारे में इस पद को लेकर आये दिन अटकलबाजी होती रहती है, उस मुख्यमंत्री ने हाल में यह साफ-साफ कह दिया कि बिहार की सेवा ही देश की सबसे बड़ी सेवा है। मैं प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार नहीं हूं। मैं ऐसी चर्चा करने वालों से हाथ जोड़ कर कहता हूं कि मुझ पर रहम कीजिए और मुझे बिहार की सेवा करने दीजिए जिसके लिए जनता ने मुझे आदेश दिया है।
भाजपा नेताओं की प्रधानमंत्री पद की इस दौड़ के परिपे्रक्ष्य में अगर हम देखें तो आज देश का जो राजनीतिक माहौल है,उसमें मोटे राजनीतिक तौर पर इस देश के मतदाता तीन हिस्सों में बंटे हुए हैं। मुख्यत: तीन राजनीतिक शक्तियां हैं-कांग्रेस गठबंधन, राजग और अन्ना-स्वामी रामदेव टीमें। यदि अन्ना-राम देव टीम के साथ राजग का कोई ढीला ढाला चुनावी तालमेल हुआ तो उस समूह की सीधी टक्कर कांग्रेस यानी यूपीए होगी। मान लिया कि ऐसा हो गया और राजग-अन्ना टीम को लोकसभा में बहुमत मिल गया। तो फिर क्या होगा?
अगले चुनाव में यदि अन्ना खेमे को सफलता मिलती है तो अभी यह भी अनिश्चित है कि उस खेमे की ओर से कौन नेता प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनेगा। यह भी तय नहीं है कि अन्ना-रामदेव खेमों का राजग से किस तरह का और कितना तालमेल हो पायेगा। कांग्रेस की ओर से चुनाव पूर्व प्रधानमंत्री या फिर अगले चुनाव के बाद प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार की बात तय करने में सबसे कम समय लगने वाला है। उस दल में किसी आंतरिक या बाह्य विवाद की कोई संभावना/गुंजाइश ही नहीं है। क्योंकि पार्टी पर सोनिया गांधी की पूरी पकड़ अभी भी बरकरार है।
यह बात भी मार्के की है कि कांग्रेस को छोड़कर किसी भी दल ने इस पद के लिए अपने उम्मीदवार की घोषणा अब तक तो नहीं की है, यहां तक कि कोई संकेत भी नहीं है। हां, प्रणव मुखर्जी ने हालिया बयान में राहुल गांधी की ओर इशारा जरूर किया है। पर वह तो एक मानी हुई बात रही है। दरअसल आज भ्रष्टाचार ही इस देश का सबसे बड़ा मुद्दा है। यदि अगले चुनाव से पहले इस बीच देश के जनजीवन में इससे भी बड़ी अन्य कोई घटना नहीं हो जाए या कोई अन्य मुद्दा नहीं उछल जाए तो अगला लोकसभा चुनाव इसी भ्रष्टाचार के मुद्दे के इर्द-गिर्द ही लड़ा जायेगा। भ्रष्टाचार विरोधी अभियान के नायक अन्ना हजारे खुद प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार हैं ही नहीं। वे तो चुनाव भी नहीं लड़ेंगे। हां, किसी न किसी रूप में अगले चुनाव को वह प्रभावित जरूर करेंगे जिस तरह जेपी ने 1977 में किया था। लेकिन देश की मुख्य विपक्षी पार्टी में जिस तरह प्रधानमंत्री पद को पाने को लेकर घमासान मचा हुआ है वह देश की राजनीति के लिए शुभ संकेत नहीं है। अगला प्रधान मंत्री कौन बनेगा? इस सवाल का जवाब बिलकुल भविष्य के गर्भ में है। क्योंकि तब जरूरी नहीं कि भाजपा का ही कोई नेता प्रधानमंत्री बने।

शुक्रवार, 9 सितंबर 2011

बेटियों को खुद बचाएगी मध्य प्रदेश सरकार



विनोद उपाध्याय
मध्य प्रदेश में जब से शिवराज सिंह चौहान मुख्यमंत्री बने हैं उन्होंने 'लाड़लीÓ को बचाने के लिए एक से बढ़कर एक अच्छी तरकीब तजवीज की है बावजूद इसके नतीजे अच्छे नहीं आ रहे हैं। इसलिए अब बेटियों को बचाने के लिए सरकार खुद मोर्चा संभालेगी। कन्यादान और लाड़ली लक्ष्मी योजना के बाद मुख्यमंत्री जनगणना 2011 के नतीजे आने के बाद अब बेटी बचाने के लिए नए सिरे से अभियान छेडऩे वाले हैं। गांव-गांव में बेटियों के मामा बनने के बाद मुख्यमंत्री बेटियों की तादाद बढ़ाने के लिए जनजागरण छेडऩा चाहते। प्रदेश भर में यह अभियान पांच अक्टूबर से शुरू होगा। आगामी दशहरे के बाद मुख्यमंत्री स्वयं सड़क मार्ग से क्षेत्रों का भ्रमण कर नागरिकों में बेटियों की रक्षा के लिए जन-जागृति अभियान चलाएंगे। यह देश में सामाजिक विषयों पर सरकार द्वारा प्रारंभ की जा रही अपने तरह की अनूठी पहल होगी।
उल्लेखनीय है कि प्रदेश में लगातार लिंग अनुपात गिरता जा रहा है जिसके लिए सरकार द्वारा निरंतर चिंता जतायी जा रही थी। प्रदेश में प्रति हजार लड़कों पर लड़कियों की संख्या सन 1991 में 941 , 2001 में 932 और साल 2011 में 912 रह गई है। इस चिंतनीय विषय को शिवराज सरकार ने गंभीरता से लिया है। इसके लिए सामाजिक न्याय मंत्री गोपाल भार्गव की अगुआई में एक कैबिनेट सब कमेटी बनाई गई है। कमेटी के एक सदस्य के अनुसार बेटी बचाओ अभियान के दौरान प्रत्येक मंत्री को अपने गृह और प्रभार के जिले में इस अभियान को प्रभावी संचालन की जिम्मेदारी सौंपी जाएगी। मुख्यमंत्री अपने सार्वजनिक कार्यक्रमों में कन्या पूजन करेंगे और मंत्रियों को भी ऐसा करने को कहा जाएगा। सब कमेटी में गोपाल भार्गव, अर्चना चिटनीस, नरोत्तम मिश्रा, उमाशंकर गुप्ता, लक्ष्मीकांत शर्मा, रंजना बघेल शामिल हैं। इस कैबिनेट सब कमेटी ने काम भी करना शुरू कर दिया है।
कैबिनेट सब कमेटी ने अपने अभियान के लिए एक खाका भी तैयार किया है। जिसमें प्रदेश सहित देश के अन्य राज्यों में शिशु लिंग अनुपात को दर्शाया गया है, साथ ही उसमें यह भी बताया गया है कि प्रदेश के किन-किन जिलों में लिंगानुपात कितना-कितना है। गर्भधारण से पहले और जन्म से पहले निदान तकनीक अधिनियम 1994, गर्भधारण से पहले और बाद लिंग के चयन को प्रतिबंधित करता है। इसका उद्देश्य अल्ट्रासाउण्ड जैसी तकनीक का ऐसी स्थितियों में दुरुपयोग रोकना है, जहां लड़कियों को समाप्त करने के विशेष उद्देश्य से भ्रूण के लिंग के बारे में सूचनाएं प्राप्त की जाती हैं। गैर-चिकित्सीय कारणों से भ्रूण का लिंग परीक्षण करना गैर-कानूनी है। पहली बार अपराध साबित होने पर कानून में 3 साल तक के कारावास और 10,000 रूपए तक जुर्माने का प्रावधान है। इसके क्रियान्वन में कानून के सामने कठिनाइयां आती हैं, और अभी तक कुछ को ही अपराधी सिद्ध किया जा सका है। भू्रण हत्या के मामले में तरह-तरह की विसंगतियां हैं जिसके कारण इसको अपराध साबित करना कठिन हो जाता है, क्योंकि यह चिकित्सा सेवा देने वालों और अभिभावकों के बीच मौन सहमति से बंद दरवाजों के पीछे होता है।
जहां तक मध्य प्रदेश का सवाल है तो कैबिनेट सब कमेटी की बैठक में बेटी बचाओ अभियान पर जो प्रजेन्टेशन दिया गया है उसके अनुसार प्रदेश में पीसी एण्ड पीएनडीटी एक्ट के अंतर्गत भ्रूण लिंग परीक्षण एवं कन्या भ्रूण हत्या में संलिप्त सेवा प्रदाताओं की सूचना देने वाले को उस प्रकरण में चालान प्रस्तुत होने पर 25,000 रुपए, चार्जेज फ्रेम होने पर 25,000 रुपए एवं प्रकरण में दोषी को सजा होने पर 50,000 रुपए की राशि यानी कुल 100,000 रुपए की राशि देने का प्रावधान है।
राज्य सरकार द्वारा चलाए जाने वाले बेटी बचाओ अभियान में भाजपा भी सक्रिय भागीदारी करेगी। इसके लिए पार्टी गांव-गांव तक इस अभियान को लेकर अलख जगाएगी। इसके साथ ही सरकार ने अपनी नीतियों ओर रीतियों पर निगरानी रखने के लिए समय समय पर इंपैक्ट अध्ययन कराने का भी निर्णय लिया है, ताकि विभिन्न योजनाओं की दिशा और दशा का समय रहते पता चल सके। मुख्यमंत्री श्री चौहान का कहना है कि स्त्री-पुरूष अनुपात में गिरावट अत्यंत चिंताजनक है। पुरुषों की तुलना में स्त्रियों की संख्या में कमी अनेक सामाजिक समस्याओं का कारण होती है। इसलिये यह जरूरी है कि समय रहते इस विषय पर जन मानस को विकसित किया जाए। उन्होंने मुख्यमंत्री, मंत्री और निजी निगमों द्वारा आंगनवाडिय़ों को गोद देने के लिए अभियान चलाने के निर्देश दिए।
इसके साथ ही सरकार ने अपनी नीतियों ओर रीतियों पर निगरानी रखने समय समय पर इंपैक्ट अध्यान कराने का भी निर्णय लिया है। ताकि विभिन्न योजनाओं की दिशा और दशा का समय रहते पता चल सके। मुख्यमंत्री श्री चौहान का कहना है कि स्त्री-पुरूष अनुपात में गिरावट अत्यंत चिंताजनक है। पुरूषों की तुलना में स्त्रियों की संख्या में कमी अनेक सामाजिक समस्याओं का कारण होती है। इसलिये यह जरूरी है कि समय रहते इस विषय पर जन मानस को विकसित किया जाए। श्री चौहान ने कहा कि बालिका बचाओ अभियान के तहत जन-जागृति के सभी आवश्यक कार्य किए जाए।
वहीं प्रदेश भाजपा अध्यक्ष प्रभात झा ने बिटिया बचाओ अभियान की सफलता सुनिश्चित करने के लिए दलगत राजनीति से ऊपर उठकर समाज के सभी वर्ग का आव्हान किया है कि वे सामाजिक सरोकार से जुड़े शिवराज सरकार के इस महत्वाकांक्षी कार्यक्रम को सफल बनाने में अपना योगदान दें। वे कहते हैं कि भारत में राजनीति सभी दल करते हैं, करना भी चाहिए, लेकिन राजनीति के माध्यम से सामाजिक और रचनात्मक काम करना आज सपना सा हो गया है। इस सपने को साकार करने की पहल भाजपा और उसकी सरकार के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने की है। नारी को सृष्टि कहा गया है। वो निर्मात्री है, जननी है और इसे जगत ने स्वीकार किया है। लिंगानुपात में यदि नारी की संख्या कम हो जाए तो सृष्टि का चलना असंभव हो जाएगा। सरकारें आएंगी और जाएंगी, लेकिन आने वाली पीढ़ी नेताओं और नेतृत्वकर्ताओं से यह सवाल पूछेगी कि तुमने हमारे भविष्य के लिए क्या किया? क्या चार हजार नौजवान लड़के इस कारण से कुंवारे रहें कि लड़कियों की संख्या कम हो गई है? क्या यह किसी सरकार के लिए काला अध्याय नहीं होगा और जब सरकार इसे समझ ले और उसके बाद उसे श्वेत अध्याय में प्रारंभ न करे तो क्या यह राष्ट्रीय अपराध नहीं कहलाएगा? हमारा दायित्व है कि समाज और सरकार के बीच ऐतिहासिक संबंध होना चाहिए। समाज सरकार का निर्माण करता है, सरकार से समाज का निर्माण नहीं होता। सरकार की श्रेष्ठता से समाज में सरकार की स्वीकार्यता बढ़ती है।
उल्लेखनीय है कि राज्य में बालिका विकास के लिए 70 हजार आंगनवाड़ी काम कर रही हैं। महीने के पहले मंगलवार को गोद भराई होती है जिसमें गर्भवती महिलाओं को आयरन की गोलियां और सेहत दुरुस्त रखने की सलाह दी जाती है। दूसरे मंगलवार को अन्नप्राशन होता है जिसमें बेटी के 6 महीने पूरे होने पर पहली बार खाना खिलाया जाता है। इसके बाद तीसरे मंगलवार को बेटी का जन्मदिन मनाया जाता है और महीने के आखिरी मंगलवार को किशोरी बालिका दिवस जिसमें आंगनवाड़ी कार्यकर्ता लड़कियों को सेहत औऱ पढ़ाई-लिखाई के गुर सिखाती हैं।
राज्य में बेटियों को बढ़ावा देने के लिए सरकार कई योजनाएं चला रही है। बिटिया को लखपति बनाने के लिए लाड़ली लक्ष्मी योजना बनाई गई है। मध्य प्रदेश में सरकारी योजनाओं में महिलाओं के लिए अलग से बजट है। लड़कियों को बचाने के लिए सरकार ने स्टिंग ऑपरेशन को भी वैध करार दिया है और भ्रूण हत्या की सूचना देने पर एक लाख रुपए इनाम देने की भी घोषणा की है। इसमें कोई शक नहीं कि सरकार ने लड़कियों को बचाने के लिए कड़े कदम उठाए हैं लेकिन जब तक भ्रूण हत्याओं पर पूरी तरह से रोक नहीं लगेगी तब सरकार का यह मिशन अधूरा ही रहेगा। इस बात को सरकार ने नजदीक से महसूस किया है और जो क्रांतिकारी कदम उठाया है उसके दूरगामी परिणाम सामने आएंगे। सरकार का यह प्रयास तब तक सफल नहीं हो पाएगा जब तक हर एक व्यक्ति इस अभियान में अपना सहयोग नहीं देता है।

शनिवार, 3 सितंबर 2011

संघ में 'मिशन भागवत की छटपटाहट ...!


विनोद उपाध्याय
संघ प्रमुख मोहन भागवत ने पद संभालते ही क्रांतिकारी निर्णय लिये एक राष्टï्रीय स्तर पर पहली बार भाजपा में नागपुर के छोटे से कार्यकर्ता नितिन गडकरी को अध्यक्ष पद दिलवा कर। दूसरा अपने घर (भाजपा) से दूर चली गई उमा भारती की पार्टी में वापसी करवाई और अब तीसरा नरेन्द्र मोदी को अगला प्रधानमंत्री बनवाना चाहते हैं। बेशक! भागवत को सफल होने देंगे। उज्जैन की चिंतन बैठक में यही चिंता हुई कि कैसे मिशन भागवत पूरा हो -
राष्टï्रीय स्वयं सेवक संघ की मुश्किल ये है कि न तो यह पूर्ण अराजनैतिक संगठन बन पाया और न ही समाज से सीधे जुड़ पाया। 1925 से लेकर आज तक कभी जनता पार्टी कभी जनसंघ और अब भाजपा का रिमोट कंट्रोल ही बना रहा। संघ के सुप्रीमो से लेकर नीचे तक के कार्यकर्ता सत्ता की मलाई से परहेज तो नहीं करते हैं, मगर स्वीकारने में जरूर शर्माते हैं।
बात चाहे मध्यप्रदेश की करें या देश की जहां भी भाजपा की सरकार रही है संघ ने उअपना एजेंडा मनवाने की ही कोशिश की, फिर चाहे इसमें सिद्घांतों की बलि ही क्यों न ले ली गई हो। इन दिनों संघ परिवार में बिलकुल ठीक-ठाक नहीं चल रहा है। संघ के प्रमुख डॉ. मनमोहन राव भागवत अपने मिशन में जुटे हुए हैैं। तो उनके मातहत सुरेश सोनी, भैया जी जोशी, मदनदास देवी, राम माधव अपने-अपने एजेंडे पर काम कर रहे हैं। यानी संघ में संगठन नहीं दिख रहा। इस बिखराव की चिंता में डूबे संघ परिवार ने पिछले दिनों इंदौर उज्जैन (मध्यप्रदेश की धार्मिक राजधानी) को अपनी चिंतन बैठक के लिए चुना। बाबा महाकाल के दरबार में भस्म आरती के बहाने अपनों पर लगे बदनामी के दाग धोने की कोशिशें कीं।
चिंतन बैठक पूरी तरह चिंता बैठक बनी रही, भाजपा के आला नेताओं में से अधिकांश नदारद रहे। जो थे वे भी अनमने मन से बैठक में दिखे, कारण ये कि संघ में मोहन भागवत ने आते ही दिग्गजों को किनारे करने की मुहिम छेड़ी थी, जिसके चलते लालकृष्ण आडवाणी, अरूण जेटली, सुषमा स्वराज, मुरली मनोहर जोशी, राजनाथ सिंह, वेंकैया नायडू, अनंत कुमार, सरीखे नेताओं के बीच नए नवेले और छोटे कद के कार्यकर्ता नितिन गडकरी को राष्टï्रीय अध्यक्ष जैसा बड़ा पद दिलवा दिया। यही नहीं इन तमाम बड़े नेताओं को नियंत्रित करने का काम अपने संगठन के सुरेश सोनी को सौंप दिया। सोनी ने दिल्ली में कम रूचि दिखाई और मध्यप्रदेश को टारगेट कर यही रम गए। भोपाल में प्रभात झा को अध्यक्ष बनवा कर भाजपा और संघ के बीच की दूरियां कम करने की जगह और बढ़ा दी।
यही कारण हैै कि गुजरात, छत्तीसगढ़, झारखंड, उत्तरांचल में सबसे ज्यादा भाजपा की बदनामी मध्यप्रदेश में ही हो रही है। यानी मिशन 2014 की दिशा में मोहन भागवत का अभियान दम तोड़ता दिख रहा है। भाजपा संघ में तालमेल नहीं है। पार्टी के नेता राष्टï्रीय अध्यक्ष व प्रदेश अध्यक्ष के पद पर संघ की ओर से थोपे गए निर्णय को हजम नहीं कर पा रहे हैं। यही वजह है कि चिंतन बैठक में राष्टï्रीय मुद्दों पर काम चिंता जताई गई। अपने कुनबे की हालत पर ज्यादा दुख जताया गया। अन्ना हजारे के जन आंदोलन के आगे भी संघ बौना दिख रहा है, क्योंकि अभी तक चाहे जेपी आंदोलन हो या, राममंदिर का जन आंदोलन संघ के स्वयं सेवकों ने बढ़-चढ़कर भाग लिया। भागवत के फार्मूले को संघ अपना नहीं पा रहा है। संगठन चाहे संघ का हो या भाजपा का बिखराव दोनों में तेजी से आ रहा है, मगर मजबूरी में एक दूसरे का साथ दे रहे हैं। यही वजह है कि भाजपा शासित राज्य गुजरात को छोड़कर कहीं भी अच्छी स्थिति में नहीं है। संध की इस बैठक में पूरे 5 दिन चिंतन-मनन हुआ, अगले लोकसभा चुनाव 2014 की भावी रणनीति के प्रस्ताव पर चर्चा हुई। मंदिर निर्माण में संघ की भूमिका पर विस्तार से प्रकाश डाला गया। केन्द्र की यूपीए सरकार में भ्रष्टïाचार पर खुलकर चर्चा हुई, अन्ना हजारे के आंदोलन को समथर्थन देने पर भी बात चली, और अंत में आडवाणी के स्थान पर नरेन्द्र मोदी को पीएम प्रोजेक्ट करने पर मंथन हुआ।
पहले नितिन गडकरी को भाजपा का राष्टï्रीय अध्यक्ष बनवाकर और अब नरेन्द्र मोदी को देश का अगला प्रधानमंत्री बनवा कर मिशन भागवत पूरा हो जाएगा? या इस मिशन की सफलता के लिए जो छटपटाहट अभी हैै आगे भी ऐसी ही देखी जाएगी कह पाना मुश्किल है। फिलहाल चिंता बैठकों से संघ को बाहर निकलना जरूरी है, तब वह तय कर पाएगा कि इसे सत्ता की मलाई खाना है या देश की भलाई में जुटना है।
कभी संघ की मुख्यधारा में रह कर बड़े-बड़े फैसलों में अहम भूमिका निभाने वाले गोविन्दाचार्य कहते हैं कि देश में जन आंदोलनों के उभरते नये दौर में आरएसएस कहां है? रामदेव का सत्याग्रह हो या फिर अन्ना हजारे का भ्रष्टाचार के खिलाफ शुरू की गई मुहिम, राजनीतिक या सामाजिक तौर पर आरएसएस की क्या भूमिका है? गोविन्दाचार्य की बातों में दम तो दिखता है।
देश में आज सिर्फ भ्रष्टाचार ही नहीं, सांप्रदायिकता भी एक बड़ी समस्या के तौर पर परेशानी का सबब है। सामाजिक-आर्थिक चुनौतियां भी देश के सामने मुंह बाए खड़ी हैं। ऐसे वक्त में संघ निश्चित रूप से अपनी उपस्थिति दिखाने के लिए प्रयासरत है। उज्जैन में संघ और उससे जुड़े संगठनों ने एक जगह आकर इस बारे में विचार विमर्श भी किया लेकिन क्या संघ की स्थिति ऐसी है कि वह इन चुनैतियों को अपने लिए अवसर में तब्दील कर पाएगा? संघ के लिए तो यह सिद्ध करना भी कठिन हो गया है कि वह समाज का संगठन है, न कि समाज में संगठन है।
सन् 1925 में शुरु हुआ संघ आज राष्ट्र-जीवन के सभी क्षेत्रों में प्रभावी है। धर्म, अर्थ, राजनीति, कृषि, मजदूर आदि क्षेत्रों में संघ का व्यापक हस्तक्षेप जाहिर है। लेकिन यह सवाल पूछा जाने लगा है कि क्या देश के सामने खड़ी चुनौतियों के लिए संघ की शक्ति निर्णायक है? अमरनाथ श्राईन बोर्ड मामले में आम जनता का आंदोलन और भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना हजारे के आंदोलन ने संघ को सोचने पर मजबूर कर दिया है। क्या कारण है कि पिछले कई वर्षों से अयोध्या-मंदिर जैसा आंदोलन खड़ा नहीं हो पा रहा। संघ उन कारणों की पड़ताल करना चाहता है कि उसके संगठन किसी भी मुद्दे पर जन-आंदोलन क्यों नहीं खड़ा कर पा रहे। सभी क्षेत्रों में बड़े-बड़े संगठन विकसित करने के बावजूद ये संगठन आमजनता का संगठन क्यों नहीं बन पा रहे हैं। तमाम समविचारी संगठन जननेता क्यों नहीं पैदा कर पा रहे।
समविचारी संगठनों के आपसी हित न टकराएं यह भी जरूरी है। पिछले दिनों भारतीय किसान संघ और भारतीय जनता पार्टी, भारतीय मजदूर संघ और लघु उद्योग भारती तथा भाजपा सरकार से स्वदेशी जागरण मंच और अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् के हितों का टकराव बार-बार सामने आता रहा है। संघ के लिए उसके समविचारी संगठनों में चेहरा, चाल और चरित्र की चिंता भी स्वाभाविक है। संघ के वरिष्ठ अधिकारी और सरसंघचालक रहे बाला साहब देवरस कई बार अपने बौद्धिकों में यह बताते थे कि फिसलकर गिरने की संभावना कहीं भी हो सकती है, लेकिन बाथरूम में यह अधिक रहती है। राजनीति का क्षेत्र बाथरूम के समान ही फिसलनवाला हो गया है। वहां अधिक लोग फिसलकर गिरते हैं। इसलिए वहां कार्य करने वाले स्वयंसेवकों को स्वयं न फिसलने की अधिक दृढ़ता रखनी चाहिए। जहां सत्ता है, धन है, प्रभुता है वहां-वहां फिसलने की संभावना अधिक होती है। संघ को पता है कि समय के साथ फिसलन वाले क्षेत्र का लगातार विस्तार हो रहा है। सिर्फ भाजपा ही नहीं, कई और संगठनों में सत्ता, धन और प्रभुता बढ़ी है। इसलिए कार्यकर्ताओं में सावधानी पहले से ज्यादा जरूरी हो गई है। संघ और संघ से इतर संगठनों में स्वयंसेवक का स्वयंसेवकत्व स्थिर रखना भी चुनौतीपूर्ण है। इसके लिए जो तंत्र विकसित किया गया है उसके सतत अभ्यास के लिए संघ का जोर है। यह समन्वय बैठक इस अभ्यास प्रक्रिया को पुख्ता करता है।
यह आम धारणा है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ कई संगठनों का पितृ या मातृ संगठन है। इन संगठनों के विस्तार के साथ-साथ इनके गुणात्मक विकास की जिम्मेदारी भी अंतत: आरएसएस की ही है। हितों के आपसी टकराव की स्थिति में संगठनों के साथ बीच-बचाव का काम भी संघ का ही है। संघ यह सब काम बखूबी करता भी रहा है। संघ लाखों स्वयंसेवकों, हजारों कार्यकर्ताओं, सैंकड़ों प्रचारकों और दर्जनों संगठनों के बीच व्यक्तित्व निर्माण से लेकर उनके बीच समन्वय का काम वर्षों से करता रहा है। उज्जैन में हुई पांच दिवसीय बैठक संघ की समन्वय बैठक अर्थात् समविचारी संगठनों की बैठक थी। यह संघ की प्रतिनिधि-सभा बैठक और कार्यकारी-मंडल बैठक से सर्वथा भिन्न थी। कयासबाज इस बैठक से कई कयास निकालेंगे। लेकिन संघ को निकट से जानने वाले जानते हैं कि संघ ऐसी बड़ी बैठकों में व्यक्ति के बारे में नहीं विषयों के बारे में चर्चा करता है। इतना तो पक्का है कि संघ ने इस समन्वय बैठक में न तो किसी पदाधिकारी के दायित्वों में किसी भी फेरबदल के बारे में चर्चा की होगी और न ही गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री उम्मीदवार के रूप में प्रोजेक्ट करने की कोई रणनीति बनाई होगी। इसीलिए मीडिया के कयासों पर संघ ने न तो कोई टिप्पणी की और न ही खबरों का खंडन किया।
इस समन्वय बैठक के औपचारिक समापन के बाद आरएसएस के सरकार्यवाह सुरेश जोशी और प्रचार प्रमुख मनमोहन वैद्य ने पत्रकारों से चर्चा में साफ-साफ कहा कि एक ही उद्देष्य से प्रेरित राष्ट्र एवं समाज जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में कार्यरत संगठन के प्रमुख कार्यकर्ता 3-4 वर्षों के अंतराल से परस्पर अनुभवों का आदान-प्रदान और विचार-विमर्ष के उद्देष्य से एकत्रित होते हैं। उज्जैन में यह समन्वय बैठक वर्तमान सामाजिक परिस्थिति पर भी चिंतन हुआ है। संघ ने परंपरानुसार मुद्दों और संगठनात्मक विषयों पर चर्चा की। देश की राजनैतिक-सामाजिक परिस्थितियों के मद्देनजर भ्रष्टाचार, कालाधन, सांप्रदायिक एवं लक्षित हिंसा विधेयक प्रमुख मुद्दों के रूप में चिन्हित हुआ। इन स्थितियों में संगठनों ने अपनी ताकत और व्यापकता के साथ अपनी कमियों के बारे में भी अन्त:निरीक्षण किया, यह आत्मनिरीक्षण अधिक महत्वपूर्ण है। अपनी कमियों और दोषों की पहचान एक कठिन काम है। निश्चित ही इस समन्वय बैठक में इस कठिन कार्य को भी अंजाम दिया गया होगा।
मुद्दा चाहे कोई भी हो, कालेधन की वापसी, भ्रष्टाचार की समाप्ति या सांप्रदायिक एवं लक्षित हिंसा नियंत्रण अधिनियम का विरोध, सभी संगठन मिलकर चलें और समाज को साथ लेकर चलें यह आवष्यक है। मुद्दों पर चिंता सिर्फ संघ या समविचारी संगठन ही न करें, चिंता सामाजिक स्तर पर होनी चाहिए। आंदोलन और अभियान महज खानापुरी मात्र कार्यक्रम बनकर न रह जाये। संघ की मूल चिंता यही है कि आंदोलन चाहे अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् का हो या भारतीय किसान संघ का या फिर विश्व हिन्दू परिषद् का उसे सिर्फ संगठन का नहीं समाज का आंदोलन बनना चाहिए। संगठन चाहे जितना बड़ा हो जाये अगर वह जनांदोलन खड़ा नहीं कर पाता तो उसका प्रभाव निर्णायक नहीं होगा।

बुधवार, 10 अगस्त 2011

मध्य प्रदेश में भाजपा के लिए घातक न बन जाएं उसी के मोहरे...?



मध्यप्रदेश में विधानसभा चुनाव में अभी लगभग ढाई साल का समय शेष है, लेकिन मिशन-2013 के लिए सत्तारुढ भाजपा सहित प्रमुख विपक्षी दल कांग्रेस ने अपनी अपनी बिसात बिछानी शुरु कर दी है और प्रदेश में चुनावी समर की तैयारी होने लगी है। अभी तक हर मोर्चे पर कांगे्रस की कमजोरी को देखकर लगातार तीसरी बार सत्ता का सपना देख रही भाजपा के लिए उसके ही मोहरें घातक सिद्ध हो सकते हैं।
ये मोहरें वे हैं जिन्होंने अपनी पार्टी,नीति,रीति,चरित्र और चेहरे को त्याग कर 2008 के विधानसभा चुनाव से पूर्व भाजपा में आए और जिनके दमखम और सहयोग से भाजपा सत्ता में आ गई लेकिन सत्ता में आने के बाद भाजपा के रहनूमा इन्हें भूल गए। उसके बाद भी कई नेता बड़े अरमान के साथ भाजपा में आए लेकिन उन्हें भी कोई तव्वजो नहीं दी गई,जिसके कारण वे प्रवासी नेता और कार्यकर्ता अपने आपको ठगा महसूस करने लगे हैं, क्योंकि जो नेता उनकी पूछ-परख करते थे, वे किनारा करने लगे। ऐसे में कुछ नेता तो घर बैठ गए और कुछ अभी भी आस लगाए बैठे हैं।
चुनाव तक भाजपा में शामिल होने वाले हर नेता तथा कार्यकर्ताओं के मान-सम्मान का पूरा ध्यान दिया गया। उन्हें चुनाव में महत्वपूर्ण जिम्मेदारी भी दी गई। प्रवासी भाजपाइयों की मेहनत का नतीजा ही था कि मुरैना संसदीय क्षेत्र से भाजपा नेता नरेन्द्र सिंह तोमर विजयी हुए। यह महज एक उदाहरण मात्र है। कई विधानसभा क्षेत्रों में भी प्रवासी भाजपाइयों की बदौलत ही भाजपा को जीत हासिल हुई। चुनाव में विजयश्री मिलने के बाद से पार्टी में लगातार प्रवासी भाजपाईयों की उपेक्षा होने लगी है। जिसके कारण ये नेता एक बार फिर से अपनी मूल पार्टी या किसी अन्य पार्टी में जाने की योजना बना रहे हैं।
गोंडवाना गणतंत्र पार्टी के नेताओं ने तो मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को एक पत्र लिखकर अपनी पीड़ा से अवगत कराया है। दरअसल, मामला संगठन से जुड़ा हुआ है, किन्तु मुख्यमंत्री श्री चौहान को पत्र इसलिए लिखा, क्योंकि उन्हें उन पर विश्वास था कि वे उनके साथ पूरा इंसाफ करेंगे। उनका विश्वास अब टूटता नजर आने लगा है। प्रवासी भाजपाइयों को न तो लालबत्ती मिली और न ही संगठन में उन्हें सम्मानजनक पद दिया गया। गोंडवाना गणतंत्र पार्टी से भाजपा में शामिल हुए पूर्व प्रवक्ता विष्णु शर्मा ने मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को लिखे पत्र में कहा है कि महाकौशल, विंध्य क्षेत्र और बुंदेलखंड में गोंडवाना गणतंत्र पार्टी का पर्याप्त जनाधार रहा है। गोंगपा के बिखराव के बाद उसके नेता और कार्यकर्ता अपनी नीति एवं आस्था के हिसाब से राजनीतिक दलों से जुड़ते गए। इसी कड़ी में गोंगपा के पांच-छह सौ से अधिक नेता और कार्यकर्ता भाजपा से भी जुड़े। इन नेताओं और कार्यकर्ताओं का वजूद सिवनी, मंडला, डिंडोरी, बालाघाट, छिंदवाड़ा, शहडोल, उमरिया, कटनी, जबलपुर, होशंगाबाद, नरसिंहपुर, सिंगरौली-सीधी, दमोह, सागर, टीकमगढ़, छतरपुर, पन्ना, भिंड, मुरैना, ग्वालियर, शिवपुरी और गुना जिले में है।
पत्र में श्री शर्मा ने लिखा है कि यदि आदिवासी समाज में पार्टी का दस प्रतिशत वोट बढ़ाना है, तो यह काम केवल गोंगपा से आए हुए कार्यकर्ता ही कर सकते हैं, क्योंकि उनकी आदिवासियों के बीच खासी पैठ है। उन्होंने पत्र में कहा है कि कांग्रेस ने अपने पुराने आदिवासी वोट बैंक की खातिर कद्दावर आदिवासी नेता कांतिलाल भूरिया को प्रदेशाध्यक्ष बनाया है। शर्मा ने मुख्यमंत्री चौहान से आग्रह किया है कि आगामी समय में आदिवासी समाज को कांग्रेस की ओर जाने से रोकना है, तो गोंगपा से भाजपा में आए कार्यकर्ताओं को मान-सम्मान प्रदान करें और उन्हें संगठन अथवा कोई और दायित्व सौंपे। गोंगपा के इस पूर्व प्रवक्ता ने पत्र में यह भी लिखा है कि आपने(शिवराज सिंह) जैसे हम्माल पंचायत, चर्मकार पंचायत, मजदूर पंचायत, किसान पंचायत बुलाई थी, ठीक उसी तरह से गोंगपा से भाजपा में आए कार्यकर्ताओं का सम्मेलन बुलाएं, ताकि उन्हें पार्टी में तवज्जो एवं तरजीह मिल सके। वे लिखते हैं कि भाजपा के नेताओं एवं पदाधिकारियों की फितरत बन गई है कि दूसरे दलों से आए नेताओं का चुनावी मोहरे के रूप में इस्तेमाल करें और जब काम निकल जाए, तब उन्हें हाशिए पर धकेल दें। आज भाजपा में यही हो रहा है। अब यह सभी नेता और कार्यकर्ता भाजपा में घुटन महसूस कर रहे हैं और वे किसी नए राजनीतिक आसरे की तलाश में हैं।
वैसे तो प्रवासी भाजपाइयों की लंबी फेहरिस्त है। इनमें कुछ बड़े नाम भी हैं जैसे- फूलसिंह बरैया, भुजबल अहिरवार, एनपी शर्मा, बालेन्दु शुक्ल, प्रेमनारायण ठाकुर, सतेन्दु तिवारी, अशोक गौतम, नवाब ठाकुर, रामस्वरूप यादव, अवधराज मसकुले, राजपाल सिंह, अतरसिंह राजपूत, केशव सिंह गुर्जर, दिलीप सिंह भूरिया, असलम शेर खां इत्यादि। इनमें से समता समाज पार्टी के फूल सिंह बरैया और भुजबल अहिरवार को भाजपा ने मुरैना संसदीय क्षेत्र और एनपी शर्मा को विदिशा लोकसभा सीट से चुनाव जीतने के लिए ही पार्टी में शामिल कराया था। शुरुआती दिनों में इन नेताओं की खूब पूछ-परख हुई, पर उसके बाद से उनकी लगातार उपेक्षा हो रही है। उपेक्षाओं के चलते फूल सिंह बरैया ने तो भाजपा से अलग होकर अपनी अलग पार्टी बहुजन संघर्ष दल का गठन कर लिया है।
फूल सिंह बरैया कहते हैं कि दूसरे दल से आए नेताओं पहचान की भाजपा में केवल चुनावी मोहरे के रूप में ही इस्तेमाल किया जाता है। भाजपा और कांग्रेस दोनों बड़ी पार्टियां नहीं चाहती हैं कि मध्यप्रदेश में कोई तीसरी राजनीतिक शक्ति का उदय हो। यही कारण है कि ये दोनों दल छोटे दलों को तोडऩे में जुट जाते हैं। यह पूछे जाने पर आप वरिष्ठ राजनेता हैं और भाजपा के झांसे में कैसे आ गए? वे जवाब देते हैं-मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और सांसद नरेन्द्र सिंह तोमर के बहकावे में आ गया था। पार्टी में आने के बाद मैं भाजपा नेताओं की हकीकत से वाकिफ हुआ। मुझे पार्टी की नीति निर्धारण के लिए बुलाई जाने वाली बैठकों में नहीं बुलाया जाता था। वैसे भी मेरा पूरा कुनबा (दलित) भाजपा में सेट नहीं हो पा रहा था, इसलिए मैंने भाजपा छोड़कर बहुजन संघर्ष दल का गठन किया। फिलहाल मैं अपने संगठन को मजबूत करने में जुटा हुआ हूं। श्री बरैया ने तो भाजपा से नाता तोड़ लिया, पर भुजबल अहिरवार और एनपी शर्मा जैसे वरिष्ठ हाशिये पर धकेल दिए गए हैं। भुजबल अहिरवार कहते हैं कि वे अभी भाजपा के साधारण कार्यकर्ता हैं। पार्टी की तरफ से आश्वासन मिला है। उसी का इंतजार कर रहा हूं। कांग्रेस के सहकारिता नेता एनपी शर्मा भी भाजपा में जाने के बाद राजनीति में गुम-से हो गए हैं। उपेक्षाओं के चलते ही उनका दिल भी भाजपा से ऊब गया है। इसके पहले आदिवासी नेता दिलीप सिंह भूरिया और अल्पसंख्यक नेता असलम शेर खां का भी भाजपा में जाने का अनुभव ठीक नहीं रहा है। अंतत: असलम शेर खां और दिलीप सिंह भूरिया ने भी उपेक्षाओं के चलते बहुत पहले भाजपा को अलविदा कह दिया था। यह बात अलग है कि दिलीप सिंह भूरिया का इस्तेमाल कर भाजपा ने कांग्रेस के गढ़ झाबुआ में सेंध लगा लिया है। कांग्रेस से भाजपा में आए प्रेमनारायण ठाकुर विधायक तो बन गए, किन्तु पार्टी में उनकी भी पूछ-परख नहीं हो रही है। कांग्रेस में आने के उनके मार्ग बंद है, इसलिए भाजपा में रहना उनकी विवशता है।
उधर बताया जाता है कि कांग्रेस ने उन नेताओं की लिस्ट बनानी शुरू कर दी है जो भाजपा में उपेक्षा का दंश झेल रहे हैं। मौका मिलते ही पार्टी इन नेताओं को आगामी चुनाव में विधायकी का प्रलोभन देकर कांग्रेस में बुला लेगी। अगर समय रहते भाजपा ने अपने मोहरें नहीं संभाले तो वे उसके लिए घातक सिद्ध हो सकते हैं।

आदिवासियों में असंतोष
भारतीय जनता पार्टी की सिंगरौली में हुई प्रदेश कार्यसमिति की बैठक में शिवराज सिंह चौहान के नेतृत्व में ही अगले चुनाव लड़़े जाने के संकल्प से आदिवासी नेतृत्व को तगड़़ा झटका लगा है। पार्टी के सिंगरौली मंथन ने ये साफ कर दिया है कि पार्टी के आदिवासी नेताओं को अभी मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुंचने के लिए लंबा इंतजार करना पड़़ेगा।
बैठक में आदिवासी वोट बैंक को पार्टी की ओर मोड़ऩे के लिए संगठन ने कई अभियान चलाने का ब्यौरा तो दे दिया लेकिन साथ ही ये भी स्पष्ट कर दिया कि केवल आरक्षित सीटों पर ही उनके दावों पर विचार किया जाएगा। आदिवासियों को लुभाने के लिए किसी आदिवासी नेता को उपमुख्यमंत्री की कुर्सी देने का भी फार्मूला नहीं बना। पार्टी के एक युवा आदिवासी नेता ने नाम न छापने की शर्त पर बताया कि मंडला में आयोजित नर्मदा कुंभ के बाद यदि पार्टी सिंगरौली में किसी आदिवासी नेता को उपमुख्यमंत्री के लिए प्रोजेक्ट करती तो शायद आदिवासी समाज के लोगों का पार्टी पर और ज्यादा विश्वास बढ़़ता। हालांकि उन्होंने संगठन के फैसले पर किसी तरह की टीका टिप्पणी करने से साफ मना करते हुए कहा कि इस संबंध में अंतिम निर्णय लेने का अधिकार हाईकमान को है। हम अपनी भावनाओं से उन्हें अवगत भी करा चुके हैं। बहरहाल, सिंगरौली मंथन से आदिवासी नेतृत्व का नेजा संभालने वाले इस तबके को करारा झटका लगा है।

बुधवार, 8 जून 2011

मध्य प्रदेश से बंधेगा सुषमा का बोरिया-बिस्तर

विनोद उपाध्याय
भाजपा की बड़ी दीदी यानी सुषमा स्वराज का वर्तमान रेड्डी बंधुओं के कारण विवादों में फंसा हुआ हैं। यह विवाद क्या गुल खिलाएगा यह तो कुछ दिनों में पता चल ही जाएगा लेकिन उनके लिए सबसे चिन्तादायक खबर यह है कि उनका भविष्य अधर में लटकने वाला है। भाजपा से प्रधानमंत्री पद की संभावित दावेदारों में से एक लोकसभा की नेता प्रतिपक्ष सुषमा स्वराज को भी इसका अभास हो गया है जिसके कारण वे आजकल इस खतरे की आशंका में जी रही हैं कि कहीं उनसे अति सुरक्षित निर्वाचन क्षेत्र छिन न जाए और उन्हें यह खतरा दिख रहा है उनकी ही पार्टी के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की धर्मपत्नी साधना सिंह से। सुषमा को यह डर ऐसे ही नहीं सता रहा है बल्कि अभी तक दूसरों के जनाधार पर चुनाव जीत कर राजनीति करने वाली सुषमा स्वराज को उनकी वर्तमान लोकसभा सीट विदिशा से बेदखल करने की तैयारी संगठन और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के कुछ कदावर पदाधिकारियों की पहल पर चल रही है।
यायावर राजनेता रहीं सुषमा स्वराज को लगभग ढाई दशक बाद विदिशा संसदीय क्षेत्र के रूप में एक सुरक्षित ठिकाना मिला है। हरियाणा विधानसभा से 1977 में शुरू हुआ उनका राजनीतिक सफर, अंबाला कैंट, करनाल, दिल्ली, बेल्लारी और उत्तराखंड होते हुए मप्र आकर विराम ले रहा है। श्रीमती स्वराज अब खुद को मध्यप्रदेश निवासी साबित करने के साथ हमेशा उस विदिशा से ही जुड़े रहना चाहती है, जो भाजपा के लिए देश में सर्वाधिक सुरक्षित दो संसदीय क्षेत्रों में से एक है।
शिवराज को विदिशा इतना प्यारा है कि उन्होंने मुख्यमंत्री बनने के बाद यहां से पार्टी की वरुण गांधी को लोकसभा भेजने की इच्छा को भी मान्य नहीं किया। वरुण की काट के तौर पर क्षेत्र की जनता ने मुख्यमंत्री की धर्मपत्नी साधना सिंह का नाम आगे बढ़ाया। समझौता मुख्यमंत्री के खास मित्र रामपाल सिंह के नाम पर हुआ, जिन्हें मंत्री पद से इस्तीफा दिला कर शिवराज ने लोकसभा भेजा तो केवल इसलिए कि विदिशा पर उनकी विरासत बरकरार है। उनके इसी विदिशा पर सुषमा की नजर गड़ गई। हरियाणा में दो बार विधायक रहीं सुषमा स्वराज अपने गृह प्रांत में लोकसभा का एक भी चुनाव नहीं जीत पाईं। उन्होंने करनाल से 1980, 1984 और 1989 में लगातार तीन लोकसभा चुनाव लड़े और तीनों में पराजय हाथ लगी। ओजस्वी वक्ता और महिला होने के नाते भाजपा को उनकी संसद में जरूरत थी तो उन्हें 1990 में राज्यसभा भेज दिया गया। इसके बाद हरियाणा के बजाए दिल्ली उनका मुकाम हो गया और उन्हें 1990 में राज्यसभा भेज दिया गया और उन्होंने 1996 तथा 1998 के चुनाव दक्षिण दिल्ली से लड़े। वे लगभग तीन माह दिल्ली की मुख्यमंत्री भी रहीं, लेकिन वहां के विधानसभा चुनाव में अपनी सरकार न बनवा पाईं।
सुषमा को उनका कद बढ़ाने वाली पराजय मिली सोनिया गांधी के हाथों। 1999 में भाजपा ने उन्हें कर्नाटक के बेल्लारी से श्रीमती गांधी के खिलाफ उतारा और इसके बाद वे भाजपा के लिए खासमखास हो गईं। श्रीमती स्वराज को पार्टी ने 2000 में उत्तराखंड से राज्यसभा भेजा। यह कार्यकाल पूरा होने के बाद उन्हें 2006 में मध्यप्रदेश से उच्च सदन पहुंचाया गया। मध्यप्रदेश से जुड़ाव ने उन्हें यहां स्थायी डेरा जमाने की प्रेरणा दी और सुषमा ने मप्र में लोकसभा सीट पर दावा जता दिया। अंदरखाने की बातें हैं कि मुख्यमंत्री उन्हें विदिशा नहीं देना चाहते थे, इसलिए भोपाल संसदीय क्षेत्र की पेशकश की गई। सुषमा को यह जम भी गया, लेकिन पूर्व मुख्यमंत्री और भोपाल के सांसद कैलाश जोशी का वीटो भारी साबित हुआ। हारकर शिवराज को विदिशा से अपने मित्र रामपाल सिंह को होशंगाबाद भेजना पड़ा, जहां रामपाल को पराजय नसीब हुई और विदिशा में सुषमा को विजय। अब कभी भोपाल में मुख्यमंत्री का आवास रहा शानदार बंगला सुषमा स्वराज का है। यहीं से वे विदिशा का अपना साम्राज्य संभालती है। वे कह भी चुकी हैं कि अब अंतिम समय तक विदिशा से उनका नाता बना रहेगा। बताते हैं कि सुषमा के विदिशा प्रेम ने शिवराज सिंह को हरकत में ला दिया है और सुषमा का यह विदिशा प्रेम ही साधना को राजनीति में सक्रिय होने का मुख्य कारण बन गया है। अपने पति द्वारा सहेज कर रखे गए संसदीय क्षेत्र से बेदखल होने की पीड़ा ने उन्हें राजनीति की मुख्य धारा में ला दिया। प्रदेश भाजपा के अनुकूल माहौल में उन्होंने महिला मोर्चा का उपाध्यक्ष पद लिया है और उनकी सक्रियता पहले से कही अधिक है। वे हर बुधवार विदिशा में बनवाए गए मंदिर जाती हैं तो वहां के लोगों की समस्याएं भी प्राथमिकता से हल करवाती हैं। कहना नहीं होगा कि विदिशा के लिए अब दो महिला नेत्रियां सक्रिय हैं, एक सांसद दूसरी सांसद बनने की संभावना को खारिज कर चुकी हैं, लेकिन उनकी लोकप्रियता और क्षेत्र के प्रति समर्पण इस बात की चुगली कर रहा है कि मौका मिला तो वे चुनाव जरूर लड़ेंगी। ऐसे में उनकी पहली प्राथमिकता विदिशा ही होगी। इसलिए अभी कहा नहीं जा सकती कि भाजपा के बड़े नेताओं का लांचिंग पैड रहा विदिशा अगली बार किसको संसद पहुंचाएगा।
बताते हैं कि अभी तक अपने आपको मध्य प्रदेश की राजनीति तक ही सीमित रखने का मन बना चुकी साधना सिंह को केंद्रिय राजनीति का सपना दिखा रही हैं महिला मोर्चा की राष्ट्रीय अध्यक्ष स्मृति ईरानी। भाजपा के सूत्र बताते हैं कि हमेशा अपने पति(शिवराज सिंह चौहान)के साथ साए की तरह रहने वाली साधना सिंह को राजनीति की पाठशाला के गुण-दाष सिखाने का जिम्मा भी स्मृति ईरानी ने उठा रखा है।
साधना सिंह के संभावित प्रयासों को भांप कर सुषमा स्वराज ने भी दिल्ली की अपनी व्यवस्तताओं में से विदिशा के लिए अधिक से अधिक समय निकालना शुरू कर दिया है। उनकी हरियाणवी टीम के लोग संसदीय क्षेत्र में घूम-घूम कर फीडबैक लेते रहते हैं। एक तरह से क्षेत्र की पूरी कमान ही श्रीमती स्वराज के इन खास लोगों के हाथों में है। स्थानीय नेतृत्व को किसी भी काम के लिए इन्हीं लोगों से संपर्क करना पड़ता है। श्रीमती स्वराज हर माह का एक सप्ताह विदिशा और भोपाल को देकर नब्ज टटोलती रहती है। क्षेत्र के लिए मोबाइल एंबुलेंस सहित कई सौगातें भी वे दे रही हैं।
उधर विदिशा को अपना घर बना चुके शिवराज सिंह चौहान और उनकी धर्मपत्नी साधना सिंह विदिशा से किसी भी कीमत पर दूरी नहीं बनाना चाहते हैं। उनके लिए यह क्षेत्र उतना ही खास है, जितना वर्तमान संसद के लिए है। शिवराज के प्रदेश भर में सक्रिय रहने को देखते हुए साधना सिंह ही विदिशा से संबंधित मामले देखती हैं। उनका गांव-गांव के कार्यकर्ताओं से नाता है और क्षेत्र में वेयर हाउस, मकान भी हैं।
क्षेत्र के एक पूर्व विधायक कहते हैं कि शिवराज सिंह समूचा संसदीय क्षेत्र पैदल ही नाप लेते थे। वे ऐसे सांसद थे, जिनका जनता से सीधा जुड़ाव था, अगर भैया को फुरसत नहीं मिलती थी तो भाभी (साधना सिंह) समस्याओं को हल करवा दिया करती थीं, मगर अब वो बात नहीं रही। इस लिए हम चाहते हैं कि भैया न सही भाभी तो अपने लोगों का प्रतिनिधित्व करें। वहीं शिवराज समर्थक संघ के एक नेता ने भी उन्हें चेताते हुए कहा है कि सुषमा की आदत है कि वह पहले उंगली पकड़ती हैं और मौका मिलते ही उस आदमी को धकेल कर उसकी जगह ले लेती हैं। वह कहते हैं कि हरियाणा की राजनीति से बेदखल होने के बाद जब सुषमा राजनीति करने दिल्ली पहुंची तो पहले उन्होंने वहां के दबंग नेता मदन लाल खुराना की उंगली पकडऩी चाही लेकिन खुराना ने सुषमा स्वराज को कोई विशेष महत्व नहीं दिया सो वे उनकी सरकार के मंत्री सज्जन सिंह वर्मा के साथ दिल्ली में अपनी पकड़ बनाने में जुट गईं। वर्मा के ही दम पर उन्होंने दक्षिण दिल्ली लोकसभा का चुनाव भी जीता। समय आने पर खुराना की जगह सज्जन सिंह वर्मा को फिट करा दिया और बाद में स्वयं उस पद पर (दिल्ली की मुख्यमंत्री) बैठ गईं। 1998 में दिल्ली विधानसभा का चुनाव सुषमा स्वराज के नेतृत्व में लड़ा गया, जिसमें सरस्वती पुत्री को 84 के दंगों के दागी नेताओं ने मिलकर धूल चटा दी। आश्चर्यजनक बात तो यह है कि भाजपा के टिकट वितरण में सबसे ज्यादा सुषमा स्वराज की ही चली थी और नतीजे आने पर दिल्ली से भाजपा का ऐसा सफाया हुआ कि आज तक उस सदमें से नहीं उभर पाई। ऐसे में मध्य प्रदेश में सत्ता और संगठन को इस विषय पर मंथन करने का अभी पर्याप्त समय है। अब देखना है की सुषमा स्वराज की खिलाफत में मध्य प्रदेश की राजनीति में उठा बवंडर शांत होता है या आंधी का रूप धारण करता है।

शिवराज भाजपा के मुख्यमंत्री नंबर वन

विनोद उपाध्याय

बीते साल जून में जब देश की आर्थिक राजधानी मुंबई में भाजपा शासित राज्यों के मुख्यमंत्रियों को लेकर सुराज सम्मेलन का आयोजन किया गया था तो सम्मेलन में हुए विचार-विमर्श के बाद यह बहस शुरू हुआ था कि अब कौन है भाजपा का मुख्यमंत्री नंबर वन? हालांकि पार्टी नेतृत्व ने इस सवाल पर कन्नी काटने में ही भलाई समझी। उस एक साल पहले शरू हुई बहस का जवाब मिला है उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में भाजपा की राष्ट्रीय कार्यसमिति की बैठक में। जहां पार्टी पदाधिकारियों ने मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और उनकी योजनाओं की भरपूर प्रशंसा कर इस बात का संकेत दे दिया की वे ही भाजपा के मुख्यमंत्री नंबर वन हैं।
वर्तमान समय में गुजरात (मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी),उत्तराखण्ड (मुख्यमंत्री रमेश पोखरियाल निशंक),मध्यप्रदेश (मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान), छत्तीसगढ़ (मुख्यमंत्री रमन सिंह),झारखण्ड (मुख्यमंत्री अर्जुन मुण्डा),कर्नाटक (मुख्यमंत्री येद्दियुरप्पा),हिमांचल प्रदेश (मुख्यमंत्री प्रेम कुमार धूमल)और बिहार (उप मुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी ) में भाजपा या उसकी समर्थित सरकार है। लेकिन जिस प्रकार मप्र की योजनाओं को राष्ट्रीय स्तर पर मान,सम्मान मिला और अनुसरण हुआ उतना और किसी राज्य की योजनाओं को नहीं मिला। भाजपा का राष्ट्रीय नेतृत्व मानता है कि मप्र भाजपा ने हमेशा देश को दिशा दी है। मध्यप्रदेश में शिवराजसिंह चौहान के नेतृत्व से प्रदेश की तस्वीर बदली है। मप्र में भय,भूख,भ्रष्टाचार से मुक्ति की सबसे पहले पहल हुई। सत्ता और संगठन का जितना बेहतर तालमेल यहां है वह और किसी राज्य में नजर नहीं आ रहा है।
उल्लेखनीय है कि भाजपा का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने के बाद नितिन गडकरी ने बीते साल जून में जब देश की आर्थिक राजधानी मुंबई में भाजपा शासित राज्यों के मुख्यमंत्रियों को लेकर सुराज सम्मेलन का आयोजन किया तो उसमें गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी मुख्य वक्ता बनाए गए। मोदी ने भाजपा के कई शीर्ष केंद्रीय नेताओं की मौजूदगी में भाजपा के मुख्यमंत्रियों को सुराज और सुशासन का पाठ पढ़ाया तो ऐसा लगा जैसे भाजपा को नंबर वन मुख्यमंत्री मिल गया। गडकरी के अध्यक्ष बनने के बाद हुए मुख्यमंत्रियों के इस सम्मेलन से पहले और बाद में देश के कई नामचीन उद्योगपतियों से लेकर बॉलीवुड के बादशाह अमिताभ बच्चन तक ने मोदी के नेतृत्व और शासन का बखान करने में कोई कसर बाकी नहीं छोड़ी थी। अनेक लोगों को मोदी में भविष्य का प्रधानमंत्री बनने की क्षमता नजर आई। लेकिन गुजरात में लगातार भाजपा की जीत के नायक रहे मोदी पर गोधरा कांड का ऐसा दाग लगा है जिससे उनका उबर पाना मुश्किल है। भाजपा आलाकमान जानता है कि गठबंधन राजनीति के इस दौर में मोदी की कट्टरवादी छवि दिल्ली की कुर्सी तक ले जाने में बाधा खड़ी करेगी इसलिए उसने शिवराज की विकासवादी छवि को अपने एजेंडे में शामिल किया है।
इसका पहला नजारा मिला गडकरी के भाजपा अध्यक्ष बनने के साल भर बाद ही पिछले दिनों जब दिल्ली में भाजपा के मुख्यमंत्रियों का दूसरा सम्मेलन हुआ। वहां मु़बई अधिवेशन की अपेक्षा बहुुत कुछ बदला-बदला सा था। मोदी सम्मेलन में न तो मुख्य वक्ता थे और न ही उनका पहले जैसे एकछत्र जलवा ही था। सम्मेलन की खास बात यह भी रही कि इसमें विकास, सुराज और सुशासन जैसे शब्दों के लिए केवल गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी का ही नाम नहीं लिया गया बल्कि मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को तो सबसे अधिक सराहना मिली। ऐसे में यह सवाल उठना भी लाजिमी था कि क्या विकास के नाम पर नरेंद्र मोदी के मुकाबले में भाजपा के दूसरे मुख्यमंत्रियों को खड़ा किया जा रहा है? हालांकि इस सवाल पर भाजपा का कोई भी नेता ऐसा कुछ नहीं बोला जो पार्टी के मुख्यमंत्रियों के बीच कलह का कारण बनता। पार्टी के प्रवक्ताओं से जब यह पूछा गया कि क्या इस बार भी नरेंद्र मोदी सम्मेलन में छाए रहे? तो उत्तर मिला-भाजपा के सभी मुख्यमंत्री अच्छा काम कर रहे हैं। इसलिए भाजपा के मुख्यमंत्रियों के सम्मेलन में जिस प्रकार की प्रशंसा मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की हुई है उससे तो यही लगता है कि राट्रीय स्तर पर भाजपा का चेहरा बनने से पहले मोदी को भाजपा के भीतर ही कड़ी चुनौती मिल मिल रही है। और लखनऊ में भाजपा की राष्ट्रीय कार्यसमिति की बैठक में तो लगभग इस बात का संकेत भी मिल गया है कि अब भाजपा को वह चेहरा मिल गया है जिसे आगे कर वह आगे की रणनीति बना सकती है। दरअसल, भाजपा का लक्ष्य 2014 में होने वाले लोकसभा चुनाव और उससे पहले होने वाले विधानसभा चुनावों के लिए अपना लक्ष्य तय करना है। पार्टी को अटल-आडवाणी के बाद एक ऐसे व्यक्ति की तलाश है जो राष्ट्रीय स्तर पर पार्टी का चेहरा बन सके। जिसके नाम जनता वोट दे और जो अपने काम और नाम से जनता को भाजपा को वोट देने के लिए प्रेरित कर सके।
भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी का तो कहना है कि भ्रष्टाचार उन्मूलन के लिए मध्य प्रदेश सरकार की योजनाओं का दूसरे राज्यों को भी अनुकरण करना चाहिए। वहीं, पार्टी के वरिष्ठ नेता लाल कृष्ण आडवाणी का कहना है कि मध्य प्रदेश में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के नेतृत्व में पार्टी संगठन और राज्य सरकार के बीच बेहतर तालमेल सराहनीय है अन्य भाजपा शासित राज्यों को भी इसका अनुकरण करना चाहिए। गडकरी बड़े विश्वास के साथ कहते हैं कि मध्य प्रदेश की सभी 29 सीटों पर विजयी होकर लाल किला का रास्ता यही से तैयार करना है।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के एक पदाधिकारी कहते हैं कि मप्र भाजपा में मुख्यमंत्री पद को लेकर मचे घमासान के बीच एक बार पूर्व मुख्यमंत्री सुंदरलाल पटवा ने लिखा था, मत चूको चौहान। छह माह के भीतर ही मुख्यमंत्री की कुर्सी पर आसीन होकर शिवराज सिंह चौहान ने अपने राजनैतिक गुरू की वाणी को सही साबित किया। तब से प्रदेश की राजनीति की पटरी पर आई शिवराज एक्सप्रेस धीरज के साथ बढ़ती ही जा रही है। भारी झंझावात के बीच जब उन्होंने कुर्सी संभाली थी तो कयास लग रहे थे कि शिवराज की राह में प्रशासनिक अनुभवहीनता आड़े आएगी। यह कयास गलत निकले। धीरे ही सही लेकिन उन्होंने प्रदेश में विकास और सुशासन की ऐसी लहर पैदा की केवल भाजपा शासित राज्य ही नहीं बल्कि देश के अन्य राज्यों के मुख्यमंत्रियों से आगे निकलकर राजनैतिक बिसात पर भी बाजी मार ली।

मध्य प्रदेश देश का पहला राज्य है, जिसने लोक सेवाओं में भ्रष्टाचार के उन्मूलन के लिए ठोस कदम उठाए हैं। सरकार ने न केवल विकास, बल्कि भ्रष्टाचार समाप्त करने पर भी खासा जोर दिया। इसके लिए विधानसभा में लोकसेवा प्रदाय की गारंटी अधिनियम, 2010 तथा मध्य प्रदेश विशेष न्यायालय अधिनियम, 2011 पारित किया। लोकसेवा प्रदाय की गारंटी अधिनियम के जरिये सरकारी कर्मचारियों, अधिकारी की जवाबदेही निश्चित की गई है। इसके अंतर्गत कर्मचारी या अधिकारी, यदि निश्चित समय पर अपना कार्य पूरा नहीं करते हैं तो उस पर जुर्माना लगाने का प्रावधान है। इसी तरह, विशेष न्यायालय अधिनियम में लोक सेवकों द्वारा भ्रष्ट तरीके से हासिल की गई सम्पत्ति जब्त करने का प्रावधान है।

वनवास से लौटी उमा फंसी चक्रव्यूह में

विनोद उपाध्याय
भाजपा की फायर ब्रांड नेत्री उमा भारती के छह साल के वनवास को समाप्त करने की घोषणा के साथ ही पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी ने उन्हें एक ऐसे चक्रव्यूह में डाल दिया है जिसे तोड़ पाना उनके लिए टेढ़ी खीर साबित होगा। उत्तर प्रदेश के चुनावी महाभारत में बसपा,सपा और कांग्रेस के चक्रव्यूह को तोडऩे के लिए भाजपा को उमा भारती के रूप में अभिमन्यू तो मिल गया है लेकिन सवाल यह खड़ा हो रहा है कि क्या उमा को उत्तर प्रदेश भाजपा के पांडव राजनाथ सिंह,कलराज मिश्र, लालजी टंडन, मुरली मनोहर जोशी और विनय कटियार का साथ मिल पाएगा या फिर वह भी महाभारत के अभिमन्यू की तरह चक्रव्यूह में फंस जाएंगी।
उल्लेखनीय है कि उत्तर प्रदेश की राजनीति में राजनाथ सिंह,कलराज मिश्र, लालजी टंडन, मुरली मनोहर जोशी और विनय कटियार भाजपा के पांडव माने जाते है, लेकिन ये बिखरे पड़े हैं। राजनाथ सिंह राष्ट्रीय राजनीति में जम चुके हैं। मुरली मनोहर जोशी,कलराज और लालजी टंडन भी खुद को राष्ट्रीय नेता ही मानते हैं। विनय कटियार अकेले ऐसे नेता हैं जो प्रदेश में सक्रिय है। ऐसे में उमा का साथ कौन देगा, कौन उनकी बात मानेगा, यह विचारणीय है। इसमें कोई शक नहीं कि उमा अपनी भूमिका अच्छी तरह से निभाएंगी, लेकिन युद्ध जीतने के लिए योद्धा भी ज़रूरी हैं, जो फिलहाल उत्तर प्रदेश में पार्टी के पास दिखाई नहीं देते। पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के बाद उत्तर प्रदेश में भाजपा के पास अब कोई ऐसा चेहरा नहीं है, जो उसे सत्ता में वापस ला सके। वैसे उत्तर प्रदेश में भाजपा के पास बड़े नामों एवं चेहरों की कमी नहीं है। मुख्तार अब्बास नकवी, मेनका गांधी एवं वरुण गांधी भी उत्तर प्रदेश से ही हैं, लेकिन इनमें वरुण को छोड़कर कोई आक्रामक नहीं दिखता।
उधर खबर यह भी सामने आ रही है कि उमा भारती की वाया उत्तर प्रदेश भाजपा में वापसी को क्षेत्रीय क्षत्रप पचा नहीं पा रहे हैं। उमा को उत्तर प्रदेश का प्रभार सौंपा गया है। यहां तक किसी को दिक्कत नहीं है, लेकिन उमा के उत्तर प्रदेश से ही चुनाव लडऩे की दशा में यहां के नेताओं को अपना वजूद खतरे में पड़ता दिखाई दे रहा है। यही वजह है कि वे उमा के भाजपा में आने पर खुलकर खुशी का इज़हार नहीं कर रहे हैं और न ही ग़म जता पा रहे हैं। उमा भारती के आने से ग़ैर भाजपाई दलों में खलबली ज़रूर है। विरोधी अभी से आरोप लगाने लगे हैं कि उत्तर प्रदेश में भाजपा का मिशन 2012 सांप्रदायिकता को उभारने वाला होगा।
भाजपा कार्यकर्ताओं के सामने एक सवाल यह भी है कि क्या उमा भारती अपने बड़े भाई कल्याण सिंह के खिलाफ़ मुखर हो सकेंगी। उमा वाकई ऐसा कर पाएंगी, यह कह पाना बहुत मुश्किल है। वजह पिछले विधानसभा और लोकसभा चुनाव हैं, जब कल्याण भाजपा में नहीं थे और उमा भाजपा की स्टार प्रचारक हुआ करती थीं। उस दौरान भी उमा ने कल्याण के खिलाफ़ बोलने से परहेज किया। अब कल्याण मुलायम सिंह यादव का साथ छोड़ चुके हैं। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में उनका अपना असर है, जहां भाजपा को अपनी पैठ बनानी है। ऐसे में उमा को कल्याण सिंह के खिलाफ़ आक्रामक होना पड़ेगा, यह वक्त की मजबूरी भी होगी।
भाजपा में उमा की वापसी के साथ ही यह भी कयास लगने लगे हैं कि उत्तर प्रदेश में होने वाले आगामी विधानसभा चुनाव में हिंदू-मुस्लिम मतों का ध्रुवीकरण कराने के हर हथकंडे का इस्तेमाल होगा। उमा भारती जिस राम मंदिर आंदोलन की देन हैं, वह हाईकोर्ट के ताजा निर्णय के बाद एक बार फिर से चर्चा में है। विवादित ढांचा ढहाए जाने के मामले में उमा भारती भी आरोपी हैं। इसका राजनीतिक लाभ उठाने से भाजपा तनिक भी परहेज नहीं करेगी। दिलचस्प बात यह है कि भड़काऊ भाषण देने की आदत के चलते ही उमा भारती राजनीति के शीर्ष पर पहुंचीं तो इसी वजह से उन्हें राजनीति में बुरे दिन भी देखने पड़ रहे हैं। मध्य प्रदेश की मुख्यमंत्री रहते हुए उन्हें वर्ष 2004 में इस्तीफा देना पड़ा था। वजह कर्नाटक के हुबली शहर में कऱीब 15 साल पहले सांप्रदायिक तनाव फैलाने के आरोप में उमा के खिलाफ म़ुकदमा कायम किया गया था। इस मामले में उन्हें अदालत के सामने पेश होना था। वे उस समय मुख्यमंत्री थीं, और वारंट के कारण उन्हें मुख्यमंत्री पद से त्यागपत्र देना पड़ा था। पार्टी ने वरिष्ठ नेता बाबूलाल गौर को कमान सौंप दी थी। इसके बाद पार्टी और उमा के बीच मतभेद बढ़ते गए और अंतत: पार्टी ने उमा को बाहर का रास्ता दिखा दिया। उसके बाद उमा भारती ने भारतीय जनशक्ति पार्टी बनाई लेकिन उन्हें अपेक्षित सफलता नहीं मिली। अब वे फिर पार्टी में वापस आ गई हैं।
उधर उमा भारती की वाया उत्तर प्रदेश भाजपा में वापसी से मध्य प्रदेश के नेताओं के माथे पर भी बल पड़ गए हैं। पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष प्रभात झा कहते हैं कि उमा का पार्टी में स्वागत है लेकिन उनका पार्टी में रहने या न रहने का कोई भी असर प्रदेश में नहीं पड़ेगा। यहां यह बात याद दिलाना जरूरी है कि उमा मध्य प्रदेश में ही पार्टी के लिए काम करना चाह रहीं थी लेकिन उनकी मध्य प्रदेश में वापसी में उन्हीं के शिष्य रहे नेता ही रोड़े अटका रहे थे। इसकी प्रमुख वजह उमा भारती का अक्खड़पन, उनकी तानाशाही है। भाजपा में रहते हुए उन्होंने जिस तरह से लालकृष्ण आडवाणी के खिलाफ़ तीखे शब्दों का इस्तेमाल किया, वह किसी से छिपा नहीं है। मध्य प्रदेश के नेताओं की उमा के सामने मुंह खोलने की हिम्मत नहीं होती थी। जिन बाबूलाल गौर ने उमा की चरण पादुका लेकर मुख्यमंत्री की कुर्सी हासिल की थी, वह भी आज अपनी इस नेता को नकारने लगे हैं। शिवराज सिंह चौहान को भी वह फूटी आंख नहीं सुहाती हैं। मध्य प्रदेश भाजपा के नेता डरते थे कि अगर उमा भारती भाजपा में आएंगी तो वह फिर से पुराना रवैया अख्तियार करेंगी। उमा की इस ख्याति से उत्तर प्रदेश भाजपा के नेता अपरिचित नहीं हैं। मध्य प्रदेश भाजपा में अगर कई गुट हैं तो उत्तर प्रदेश इस मामले में उसका बड़ा भाई है। गुटबाज़ी ने ही उत्तर प्रदेश में भाजपा को कहीं का नहीं छोड़ा है। ऐसे में उत्तर प्रदेश के नेता और कार्यकर्ता उमा भारती का नेतृत्व कहां तक स्वीकार करेंगे, यह सोचने वाली बात है। इन सबके बीच एक सवाल अहम है कि क्या उत्तर प्रदेश में भाजपा के नेताओं का संगठन नाकारा हो चुका है,जो उमा भारती मध्य प्रदेश में अपना राजनीतिक अस्तित्व नहीं बचा सकीं, उनसे भाजपा उत्तर प्रदेश में किसी करिश्मे की उम्मीद कैसे कर रही है। बहुजन समाज पार्टी, समाजवादी पार्टी और कांग्रेस को भी बैठे-बैठाए भाजपा ने एक मुद्दा थमा दिया है। देखना है कि चुनावी महाभारत में विरोधी दलों के चक्रव्यूह को उमा भारती कैसे तोड़़ेंगी।

बुधवार, 11 मई 2011

115 करोड़ के घोटाले की फांस में शिव राज

जुलाई में मप्र की भाजपा सरकार के खिलाफ कांग्रेस बोलेगी हल्लाबोल
मछली तालाब से कितना पानी पीती है क्या आप इसका पता लगा सकते हैं....? बिल्कु ल इसी तरह ये पता लगाना भी मुश्किल है कि सरकारी अमला खजाने से कितना धन लूटता है। इसी उधेड़बुन में मध्यप्रदेश के अधिकारी और नेता मिलकर लूट-खसोट में जुटे हुए हैं। खुद को किसान पुत्र कहने वाले शिवराज के राज में किसान भी इस लूट से अछूते नहीं हैं। एक साल पहले प्रदेश के 36 जिलों में कर्ज माफी के नाम पर 115 करोड़ की हेराफेरी का मामला सामने आया था। राज्य की सहकारी बैंकों व प्राथमिक सहकारी समितियों ने धडल्ले से अपात्रों से मिलीभगत करके यह घपला किया था। इस घपले में जिला सहकारी बैंकों के 299 अधिकारी, 395 कर्मचारी एवं प्राथमिक सहकारी समितियों के 1507 कर्मचारी दोषी पाए गए हैं किन्तु राज्य सरकार ने अभी तक केवल 10 कर्मचारियों को ही सेवा से पृथक करने की कार्यवाही की है। अब इस मामले को लेकर कांग्रेस सीबीआई जांच कराने की मांग की रही है तथा प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से भी शिकायत कर चुकी है। सूत्र बताते हैं कि इस रीण माफी घोटाले को भुनाने के लिए कांगे्रस ने कमर कस ली है और जुलाई में मप्र की भाजपा सरकार के खिलाफ एक बड़े आंदोलन की रणनीति तैयार की जा रही है। इस अभियान की जिम्मेदारी संभाली है नवनियुक्त प्रदेश अध्यक्ष कांतिलाल भूरिया ने।
उल्लेखनीय है कि केन्द्र सरकार ने मप्र के गरीब एवं बैंकों का कर्ज न पटा सकने वाले किसानों के ऋण माफ करने एवं उन्हें ऋण चुकाने में राहत देने की योजना के तहत राज्य सरकार को 914 करोड़ रुपए की राशि उपलब्ध कराई थी। इस राशि से जिला केन्द्रीय सहकारी बैंकों को उन किसानों के ऋण पूरी तरह माफ करने थे जिनके पास 5 एकड़ से कम भूमि है तथा वे 1997 से 2007 के बीच अपना कर्ज अदा नहीं कर सके हैं, इसके अलावा पांच एकड़ से अधिक भूमि वाले ऐसे किसानों के लिए भी केन्द्र सरकार ने ऋण राहत योजना प्रारंभ की थी जो पिछले दस वर्षों तक बैंकों का ऋण नहीं चुका सके थे। जिला केन्द्रीय सहकारी बैंकों को भारत सरकार के निर्देशों के अनुसार किसानों की ऋण माफी एवं ऋण राहत करना थी। ऋण राहत योजना में 5 एकड़ से बड़े किसानों को एकमुश्त राशि जमा करने पर 25 प्रतिशत ऋण से मुक्ति देने की योजना थी। लेकिन यह जानते हुए कि सहकारी बैंकों में बैठे नेता और दलाल घपले से बाज नहीं आएंगे, राज्य सहकारी बैंक ने यह राशि सभी जिलों सहकारी बैंकों को भेज दी। सहकारी बैंको ने भी बेहद लापरवाही का परिचय दिया और ऋण राहत एवं ऋण माफी के प्रकरण प्राथमिक सहकारी समितियों के माध्यम से तैयार कराए। इन समितियों में स्थाई कर्मचारियों की नियुक्ति नहीं होती। जिला सहकारी बैंकों के कर्मचारियों, अधिकारियों एवं समितियों ने सदस्यों ने मनमाने ढंग से जिस किसान का ले देकर कर्ज माफ कर दिया। केन्द्र सरकार ने निर्देश दिए थे कि केवल कृषि ऋण ही माफ किया जाएगा, लेकिन बैंकों एवं सहकारी समितियों ने मकान, मोटर सायकिल, चार पहिया वाहनों के ऋण भी माफ कर दिए।
मप्र विधानसभा में कांग्रेस के विधायक डा. गोविन्द सिंह ने 28 जुलाई 2009 को यह मामला विधानसभा में उठाया। इसके बाद 23 जुलाइ्र 2009 को विपक्षी सदस्यों ने इस मुद्दे पर ध्यानाकर्षण सूचना के तहत सरकार का ध्यान इस घपले की ओर आकर्षित किया। तब सहकरिता मंत्री ने घपले को स्वीकार करते हुए 31 दिसम्बर तक इसकी जांच कराने एवं दोषी अधिकारियों कर्मचारियों के विरुद्ध कार्यवाही करने का भरोसा दिलाया था। लेकिन इस घपले की जांच अभी तक पूरी नहीं हुई है।
10 मार्च 2010 को कांग्रेस के डा. गोविन्द सिंह ने प्रश्र के माध्यम से फिर से इस मामले को विधानसभा में उठाया तो सहकारिता मंत्री बिसेन ने चौंकाने वाली जानकारी दी। उन्होंने सदन में स्वीकार किया कि इस योजना में अभी तक की जांच में 114.81 करोड़ की अनियमितता हो चुकी है। उसके बाद इस वर्ष बजट सत्र के दौरान भी कांग्रेस ने इस मुददे को लेकर कई बार हंगामा किया लेकिन परिणाम सिफर रहा।
कांग्रेस का आरोप है कि केन्द्र की कर्ज माफी योजना के जरिए किसानों को मिलने वाली 200 करोड़ की राहत का किसानों के नाम पर अपहरण हो गया और इसकी भनक किसानों को लगी भी नहीं और प्रदेश के नेता और अफसर तो किसानों के कर्ज से मालामाल हो रहे हैं। यूपीए सरकार ने जब कर्ज माफी का ऐलान किया तो हरदा जिले के बघवार गांव में रहने वाले किसान गरीबदास को लगा पैसा ना सही कर्जे से मुक्ति ही सही कुछ तो फायदा होगा। आठ एकड़ जमीन के मालिक गरीबदास को सहकारी बैंक के पचास हजार रुपये चुकाने थे। कर्जा जस का तस है। ये अलग बात है कि कर्जा माफी की लिस्ट में गरीबदास के नाम से 32,090 रुपए माफ हो चुके हैं।
किसानों के कर्ज माफी की लिस्ट की तरह बैंक के गोलमाल की लिस्ट भी लंबी है। कमल सिंह पांच एकड़ के किसान हैं। नियम कायदे से इनका पूरा कर्जा माफ होना था। बेचारे दो साल में पच्चीस हजार रुपए बैंक में जमा कर चुके हैं। इनके नाम पर भी लिस्ट में 22,162 रुपए की माफ हुई। लेकिन फायदा कमल को नहीं मिला। दिलावर खान की कहानी चौंकाने वाली है। इनके वालिद का नाम नेक आलम है लेकिन लिस्ट में दिलावर का धर्म ही बदल गया। इनकी वल्दियत में रामसिंह का नाम लिखा है। जबकि दिलावर रामसिंह नाम का कोई शख्स हरदा जिले की टिमरनी तहसील के करताना गांव में रहता ही नहीं। इस नाम पर लिस्ट में 11,400 रुपए माफ कर दिए गए। कर्ज माफी के इस अपहरण से जुड़े दस्तावेज साबित करते हैं कि होशंगाबाद और हरदा जिलों में ही 13 करोड़ से ज्यादा के फर्जी कर्ज माफी क्लेम बनाए गए हैं। जब दो जिलों का ये हाल है तो पचास जिलों में क्या हुआ होगा आप अंदाजा लगा सकते हैं। गोंदा गांव में रहने वाले रामनारायण के तीन खाते हैं। इन खातों में दो लाख से ज्यादा की कर्ज माफी हो गई। लेकिन हरदा जिले के इस गरीब किसान को कर्ज माफी की भनक तक नहीं लगी। सहकारी बैंक से लगातार जल्दी ही कुछ करने का भरोसा दिलाया जा रहा है। गोंदा गांव के ही रेवाराम ने पिछले साल साठ हजार रुपए बैंक का कर्ज चुकाने के लिए जमा किए। इसके बाद भी इनके दो खातों पर डेढ़ लाख रुपए का कर्ज माफ हो गया। बगैर पढ़े-लिखे किसान सहकारी बैंकों के गोलमाल में फंसकर रह गए।
ज्यादातर मामलों में बैंकों ने ऐसे कर्जे भी माफ कर दिए जो खेती के लिए नहीं लिए गए थे। कई जगह तो खेती की आड़ में मोटर साइकिल, जीप और घरों के कर्ज माफ हो गए। सरकार ने विधानसभा में भी माना है कि 36 जिलों में हेराफेरी हुई। सींधी और सिंगरौली जिलों में तो बैंक के रिकॉर्ड ही गायब हो गए। भिंड जिले में गोलमाल के ही रिकॉर्ड मिले। जाहिर है कि सहकारी बैंक के मैनेजरों की जानकारी के बगैर ये हेराफेरी नामुमकिन है। बीजेपी के राज में ज्यादातर बैंकों में बीजेपी के ही नेता अध्यक्ष बनकर बैठे हैं। सबकी आंखे बंद थीं या फिर बंद होने का नाटक कर रही हैं।
आखिर को-ऑपरेटिव बैंक करोड़ों की हेराफेरी करते कैसे हैं। इसकी पड़ताल करने पर पता चला है कि किसानों को उनके खाते की न तो पासबुक दी जाती है, ना ही कर्जे के हिसाब-किताब के लिए ऋण पुस्तिका। नतीजा ये कि किसानों को न तो कर्ज का पता चलता है न कर्ज माफ का। लिस्ट में कई ऐसे फर्जी नाम भी हैं जिनका असल में कोई वजूद ही नहीं। गोंदा गांव में कर्ज माफी घोटाले की कहानी किसी का भी होश उड़ाने के लिए काफी है। हरदा जिले के इस गांव के किसानों को खबर ही नहीं लगी कि केन्द्र सरकार ने उनका कर्ज माफ किया। लिस्ट में तमाम नाम ऐसे हैं जो इस गांव में ढूंढ़े से भी नहीं मिले। लेकिन इनके नाम पर लिया कर्ज माफ हो चुका है।
हरिओम वल्द रामदास....माफ हुए....9707 रुपए
मंगलसिंह वल्द गुलाबसिंह....माफ हुए....5863 रुपए
विजय सिंह वल्द सूरत सिंह....माफ हुए...11017 रुपए
चमनसिंह वल्द गजराज सिंह....माफ हुए...37208 रुपए
देवीसिंह वल्द कल्लू सिंह....माफ हुए.....61687 रुपए
मंगल सिंह वल्द रामाधऱ....माफ हुए....57147 रुपए
अधार वल्द पूनाजी....माफ हुए....86593 रुपए
जगदीश वल्द बहादुर...माफ हुए...81051 रुपए
गोंदा के पड़ोस में सडोरा नाम का एक गांव ऐसा भी है जहां को ऑपरेटिव बैंक के एक भी खातेदार के पास पासबुक नहीं। गांव वाले बार-बार पासबुक मांगते हैं तो हर बार जवाब मिलता है बन रही हैं। जगदीश प्रसाद के खाते से कब 27,000 रुपए का लोन हो गया उसे पता ही नहीं चला। ना तो उसने कहीं दस्तखत किए ना ही कहीं अंगूठा लगाया। मगर जब नोटिस आया तो आंखें खुली रह गईं। गांव के ही किसान कमलकिशोर को भी एक अदद पासबुक की दरकार है जो अब तक नहीं मिली।
देर से ही सही कांग्रेस को भी केन्द्र की कर्जा माफी में हुआ घोटाला नजर आने लगा है। पार्टी में इस घोटाले की सीबीआई जांच कराने की मांग चल रही है। कांगे्रस प्रदेश अध्यक्ष भूरिया का कहना है कि किसान ऋण-पुस्तिका लेकर घूम रहा है पर उसका कर्जा माफ नहीं हो रहा है। भारत सरकार ने किसानों के कर्जमाफी के लिए करोड़ों रुपये राज्य सरकार को दिए पर उसमें से 114 करोड़ रुपये भाजपा नेताओं की जेब में चले गए। प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष सुरेश पचौरी कहते हैं कि 114 करोड़ रूपये के घोटाले की बात राज्य सरकार स्वयं विधानसभा में स्वीकार कर चुकी है। राज्य सरकार ने यह भी स्वीकार किया कि यह राशि और बढ़ सकती है। पचौरी कहते हैं कि वे इस संबंध में प्रधानमंत्री से बात कर चुके हैं। उधर पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह कहते हैं कि केन्द्र शासन द्वारा किसानों के हित में ऋण माफी की योजना प्रदेश में भ्रष्टाचार और घोटाले में फंस गई और पात्र एवं गरीब किसान ऋण माफी के लिए अभी से परेशान है। सरकार के संरक्षण में सहकारिता विभाग दोषी अधिकारियों एवं कर्मचारियों को बचाने की कोशिश कर रहा है और इसी कारण अभी तक केवल पन्ना जिले का ही प्रकरण आर्थिक अपराध अनुसंधान ब्यूरो को सौंपा जा सका है।
इस मामले का पर्दाफास करने वाले कांगे्रसी विधायक डा. गोविन्द सिंह कहते हैं कि यह मप्र के इतिहास में किसानों के नाम पर किया गया अभी तक का सबसे बड़ा घोटाला है। राज्य सरकार द्वारा दोषी अधिकारियों कर्मचारियों को बचाने के प्रयास किए जा रहे हैं, इससे उसकी नीयत पर भी शक हो रहा है।

एक नजर में
- योजना का नाम : कृषि ऋण माफी एवं
ऋण राहत योजना 2008
- कुल आंवटित राशि : 916 करोड़ रुपए
- सरकार द्वारा स्वीकार घपला : 114.81 करोड़
- कुल घपला : लगभग 200 करोड़
- दोषी अधिकारी : 218
- दोषी कर्मचारी : 395 बैंक के
- दोषी कर्मचारी : 1507 प्राथमिक सहकारी समिति के
- देाषी कर्मचारी सेवा से पृथक : मात्र 10 प्राथमिक समितियों के

मप्र भाजपा में बढ़ता स्त्रीवाद

भारतीय जनता पार्टी की नाम राशि धनू है। इस राशि का स्वामी गुरु है लेकिन मध्य प्रदेश के संदर्भ में इनदिनों इस पार्टी में कन्या(राशि) का प्रभाव बढ़ा है। जहां पार्टी की कमान कन्या राशि वाले प्रभात झा के हाथ में है वहीं कई कदावर मंत्रियों और नेताओं की पत्नियों और बहुओं ने उनका संरक्षण पाकर अपनी अलग राजनीतिक पहचान बनाते हुए महत्वपूर्ण पदों पर काबिज हैं। इसमें सबसे तेजी से जो नाम उभर कर सामने आया है वह है मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की पत्नी साधना सिंह का। इसकी शुरूआत तब हुई जब महिला सम्मेलन में भाग लेने आईं भाजपा महिला मोर्चा की राष्ट्रीय अध्यक्ष स्मृति ईरानी ने मीडिया के सामने ही साधना सिंह से कह दिया था कि भाभी, मैं आपको संगठन में खींच लूंगी, मुझे आपकी जरूरत है। यह सुनकर साधना सिंह के चेहरे पर जो मुस्कुराहट थिरकी थी, उसे देखने के बाद इस बात में रंचमात्र भी संशय नहीं रह गया था कि साधना सिंह जल्दी ही सक्रिय राजनीति में प्रवेश करने वाली हैं। 11 अक्टूबर 2010 को प्रदेश भाजपा महिला मोर्चा की अध्यक्ष नीता पटेरिया ने जब कार्यकारिणी घोषित करते हुए साधना सिंह को उपाध्यक्ष बनाया तो सक्रिय राजनीति में साधना सिंह का औपचारिक रूप से प्रवेश हो गया और इसके ठीक एक माह बाद साधना सिंह को होशंगाबाद जिले का प्रभारी बनाए जाने के साथ ही इन चर्चाओं ने भी जोर पकड़ लिया कि वे आगामी लोकसभा चुनावों में होशंगाबाद सीट से भाजपा उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़ सकती हैं।
वैसे साधना सिंह की राजनीतिक दिलचस्पी भी किसी से छुपी नहीं है। जब शिवराज विदिशा से सांसद थे तो कार्यकर्ताओं के बीच साधना सिंह पति के निर्वाचन क्षेत्र की चिंता करती थीं। मुख्यमंत्री बनने के बाद से की साधना सिंह का राजनीतिक ग्राफ लगातार ऊपर उठ रहा है। मुख्यमंत्री बनने के बाद जब शिवराज ने लोकसभा से इस्तीफा दिया तो उपचुनाव के लिए वरुण गांधी के साथ साधना सिंह का नाम भी उछला था लेकिन शिवराज सिंह ने अपने आलोचकों को ध्यान में रखते हुए अपने मित्र रामपाल सिंह को मौका दिया। जब 2009 में लोकसभा के आमचुनाव हुए तब भी कहा गया कि साधना सिंह को विदिशा से लोकसभा में भेजकर शिवराज अपना विकल्प सुरक्षित रखना चाहते हैं लेकिन इस बार लोकसभा की नेता प्रतिपक्ष सुषमा स्वराज पहुंच गईं। अब श्रीमती इस सीट को छोडऩे के मूड में नहीं है। वह भारी व्यस्तता के बावजूद जिस तरह से विदिशा संसदीय क्षेत्र को वक्त दे रही हैं, उससे साफ है कि सुषमा जी आगे भी अपनी संसदीय पारी विदिशा से ही जारी रखना चाहेंगी। ऐसे में साधना सिंह की निगाह होशंगाबाद संसदीय सीट पर है। यह सीट पिछले चुनाव में भाजपा के हाथ से छिनकर कांग्रेस के खाते में जा चुकी है। इस साल जनवरी में मुख्यमंत्री ने अपने गृह ग्राम जैत में स्वामी अवधेशानंद जी के प्रवचन कराए थे। इस हाई प्रोफाइल प्रवचन में सबसे ज्यादा फोकस होशंगाबाद क्षेत्र को ही किया गया था।
मुख्यमंत्री और पूर्व मुख्यमंत्री के साथ ही यदि मंत्रियों की ओर निगाह दौड़ाई जाए तो उसमें सबसे ज्यादा प्रभावी जल संसाधन विकास मंत्री जयंत मलैया की पत्नी सुधा मलैया का नाम आता है। सुधा मलैया की सक्रियता राजनीति से लेकर पत्रकारिता और पुरातत्व प्रेम से लेकर इंजीनियरिंग कॉलेज के संचालन तक कहीं भी देखी जा सकती है। भाजपा संगठन में कई ओहदों के साथ वह राष्टï्रीय महिला आयोग की भी सदस्य रह चुकी है। श्रीमती मलैया की इच्छा भी चुनाव लडऩे की रही है लेकिन जयंत मलैया की दमोह विधानसभा क्षेत्र में गहरी पैठ और लगातार चुनाव जीतने के कारण उन्हें अब तक मौका नहीं मिला है।
प्रदेश के तेजतर्रार नेता और उद्योग मंत्री कैलाश विजयवर्गीय की पत्नी आशा विजयवर्गीय अपने-अपने पति के राजनीतिक काम में सीधे कोई दखल नहीं देती, लेकिन वह घर पर मोर्चा संभालते हुए श्री विजयवर्गीय के समर्थकों और कार्यकर्ताओं का खुद ध्यान रखती है। उन्होंने सीधे राजनीति में आने के बजाए एक स्वयं सेवी संस्था आशा फाउंडेशन एसोसिएशन आफ सेल्फ हेल्प एक्शन के जरिये समाज सेवा का बीड़ा जरूर उठा रखा है। यह संस्था इंदौर में गरीबों के लिए काम करने वाली संस्थाओं को मदद करती है। खासियत यह है कि इसने सरकार से मदद के नाम पर फूटी कौड़ी भी नहीं ली, लेकिन जरूरतमंद बच्चों को कापी किताबों से लेकर गरीब लड़कियों के विवाह में मदद करने में आशा फाउंडेशन आगे है। जब इंदौर में भाजपा का तीन दिवसीय राष्ट्रीय सम्मेलन हुआ था तब हजारों लोगों के लिए मालवी भोज की जिम्मेदारी यानी कैटरिंग व्यवस्था उद्योगमंत्री की पत्नी आशा विजयवर्गीय ने बखूबी निभाई। मालवा के जायकेदार पकवान खा कर नेतागण उंगली चाटते दिखाई दए। दाल-बाफलों ने तो सबका मन हर लिया।
प्रदेश के आदिवासी कल्याण मंत्री कुंवर विजय शाह की पत्नी भावना शाह भी अपने पति के चुनाव क्षेत्र की देखभाल करते-करते खुद भी राजनीति में आ गई है। वह खंडवा की महापौर है और अपने पति से भी दो कदम आगे बढ़कर काम कर रही है। मध्यप्रदेश के खंडवा शहर की मेयर भावना शाह कुछ वर्ष पूर्व एक घरेलू महिला थीं। परिवार की राजनीतिक पृष्ठभूमि ने उन्हें समाज सेवा की तरफ मोड़ दिया। सामाजिक कार्यो में सक्रिय भागीदारी के कारण उन्हें मेयर का चुनाव लडऩे का मौका मिला। अब वह घर व शहर दोनों की जिम्मेदारी बड़े ही सलीके से संभाल रही है।
लोक स्वास्थ्य यांत्रिकी मंत्री गौरीशंकर बिसेन की पत्नी रेखा बिसेन की राजनीति में सक्रिय रह चुकी है। वह बालाघाट की जिला पंचायत अध्यक्ष भी रह चुकी है। बिसेन जब लोकसभा में थे तब वह विधानसभा चुनाव के लिए टिकट की दौड़ में भी रह चुकी है। अभी वह प्रदेश भाजपा महिला मोर्चे की कोषाध्यक्ष है।
बाबूलाल गौर की पत्नी और बेटे तो राजनीतिक फलक पर कभी सक्रिय नहीं दिखे लेकिन गौर के बेटे पुरुषोत्तम गौर की असामयिक मृत्यु के बाद उनकी पत्नी कृष्णा गौर राजनीति में जरूर सक्रिय हुईं। गौर ने मुख्यमंत्री रहते हुए उनको राज्य पर्यटन विकास निगम का अध्यक्ष बनाकर सबको चौंका दिया था पर विरोध के कारण उन्हें यह पद छोडऩा पड़ा। मुख्यमंत्री पद से हटने के बाद उन्होंने कृष्णा गौर को न सिर्फ भोपाल की महापौर का टिकट दिलाया बल्कि जिताया भी। आज कृष्ण गौर एक परिपक्व नेत्री के रूप में अपनी पहचान बना चुकी हैं।
लोक निर्माण मंत्री नागेन्द्र सिंह की पत्नी पद्यमावती सिंह राजनीति के सीधे तौर पर सक्रिय तो नहीं है लेकिन उनकी पुत्रवधु सिमरन सिंह नागौद नगर पंचायत अध्यक्ष है। ग्वालियर के वरिष्ठï भाजपा नेता नरेश गुप्ता अपने पुत्र को तो आगे नहीं बढ़ा सके लेकिन उन्होंने भी अपनी पुत्रवधु समीक्षा गुप्ता को ग्वालियर का महापौर बनवाया है। वित्त मंत्री राघवजी ने तमाम विरोध के बाद भी बेटी ज्योति शाह को नगरपालिका अध्यक्ष बनाने में सफल रहे।
प्रदेश भाजपा में पुरुष नेताओं से उलट ऐसी नेत्री भी रही हैं जिन्होंने अपने पति को या तो पीछे छोड़ा या उन्हें आगे बढ़ाया। भाजपा के पूर्व मंत्री ध्यानेंद्र सिंह की पत्नी माया सिंह तो अपने पति को भी राजनीति में पीछे छोड़ते हुए राज्यसभा के जरिए केंद्रीय राजनीति में पहुंच गईं जबकि पति पूर्व मंत्री से पूर्व विधायक की स्थिति में चले आए। इसके विपरीत पटवा काबीना में संसदीय सचिव रहीं रंजना बघेल ने शिवराज काबीना में महिला एवं बाल विकास विभाग की मंत्री का ओहदा पाया। उन्होंने अपने पति मुकाम सिंह किराड़े को विधायक बनवाकर ही दम लिया। रंजना ने उन्हें धार से 2009 के लोकसभा का टिकट दिलाया था लेकिन वह हार गए तो जमुना देवी के निधन के बाद उन्हें विधानसभा उपचुनाव का टिकट मिला।
कुछ ऐसे मंत्री भी हैं जिन्होंने अपनी पत्नियों को राजनीति से बिल्कुल दूर रखा है। इनमें सबसे पहला नाम है गोपाल भार्गव। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने पिछले साल करवा चौथ पर सारे मंत्रियों को अपनी पत्नियों के साथ मुख्यमंत्री निवास पर भोजन के लिए बुलाया था तो भार्गव सहित कुछ मंत्री अकेले ही वहां पहुंच गए थे। शिवराज ने उनको तब इस बात पर चटखारे भी लिए थे लेकिन सच तो यही है कि पिछले सात सालों में केवल एक मौका ही ऐसा आया जब भार्गव की पत्नी गढ़ाकोटा से भोपाल आईं और उनके सरकारी बंगले में रुकीं। नरोत्तम मिश्रा, राजेंद्र शुक्ल और पारस जैन आदि भी ऐसे मंत्री हैं जो पत्नियों को राजनीति के चमक-दमक भरे माहौल से दूर रखते हैं।
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मुख्यमंत्रियों की पत्नियों की राजनीतिक महत्वकांक्षा
मध्य प्रदेश की राजनीति में मुख्यमंत्रियों की पत्नियों की राजनीतिक महत्वकांक्षा किसी से छिपी नहीं है। इस प्रदेश का जो भी मुख्यमंत्री हुआ है यहां के राजनीतिक और प्रशासनीक वीथिका में उनकी पत्नी का प्रभावी हस्तक्षेप रहा है। मोतीलाल वोरा और दिग्विजय सिंह जरूर ऐसे अपवाद रहे हैं जिन्होंने अपनी पत्नी शांति वोरा और आशा सिंह को राजनीति के जंजाल से दूर रखा। जबकि श्यामाचरण शुक्ल के मुख्यमंत्रित्व काल में उनकी पत्नी पद्मिनी शुक्ल का दबदबा था। प्रकाशचंद्र सेठी के आने के बाद इस पर विराम लगा लेकिन अर्जुन सिंह के दौर में उनकी पत्नी सरोज सिंह का वजन होता था। एक ब्यूरोक्रेट ने तो उनके घरेलू नाम (बिट्टन) पर बाजार का नाम ही रख दिया था। बहुत कम लोगों को यह बात पता है कि नए भोपाल का मशहूर बिट्टन मार्केट सरोज सिंह के नाम पर ही है। यह नामकरण भी देश के ईमानदार प्रशासकों में शुमार हासिल एमएन बुच ने किया था। सुंदरलाल पटवा की पत्नी फूलकुंअर पटवा तो गाहे-बगाहे ही अपने पति के साथ किसी राजनीतिक कार्यक्रम में दिखीं लेकिन कैलाश जोशी की पत्नी तारा जोशी ने पूरी शिद्दत के साथ भाजपा की राजनीति में शिरकत की थी।

बुधवार, 20 अप्रैल 2011

जुगलबंदी वाले होंगे सत्ता से बाहर
एक तो करौला ऊपर से नीम चढ़ा वाली कहावत इन दिनों मध्य प्रदेश की शिवराज सरकार के मंत्रियों पर खरी उतर रही है। यानी पहले से ही विवादित (करैलानुमा) कुछ मंत्रियों को ऐसे अफसरों (नीमनुमा )का साथ मिल गया है जिससे सरकार की छवि दागदार हो रही है। इससे भाजपा में शुद्धिकरण के सारे प्रयास विफल हो रहे हैं। ऐसा भी नहीं की इसकी भनक सरकार और संगठन को नहीं है। अपने कदावर मंत्रियों की करतूते जानने के बाद भी सरकार मजबूर है लेकिन संगठन ने शुद्धिकरण के लिए किसी भी हद तक जाने का मन बना लिया है।
सत्ता पाते ही राम को धोखा देने वाले भाजपाईयों की लूटखसोट को लेकर अब पार्टी के सत्ता वाले प्रदेशों में चल रहे गफलत को लेकर पार्टी हाईकमान न केवल चिंतित है बल्कि कड़ाई बरतने का संकेत दिया है। बताया जाता है कि मध्यप्रदेश में इन दिनों मंत्रियों कि करतूतों को लेकर उच्च स्तर पर जबरदस्त बवाल मचा है। ्रसूत्र बताते हैं कि प्रदेश अध्यक्ष प्रभात झा, संगठन महामंत्री अरविन्द मेनन और मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की नई तिकड़ी इस मामले में परफार्मेंस और पार्टी के प्रति निष्ठा को आधार बनाकर बड़े निर्णय ले सकती है। भारत-श्रीलंका के बीच हुए क्रिकेट विश्व कप फाइनल के दौरान तीनों नेताओं की एक साथ उपस्थिति से अटकलों का बाजार गर्म है कि मंत्रिमंडल में फेरबदल कर या उनके विभाग बदल कर इन विवादित मंत्रियों को सबक सिखाया जा सकता है ताकि मंत्रियों और अधिकारियों की जुगलबंदी से निजात मिल सके। सत्ता और संगठन की बक्र दृष्टि जिन मंत्रियों पर पडऩे की संभावना व्यक्त की जा रही है उनमें रामकृष्ण कुसमरिया, राजेंद्र शुक्ला, रंजना बघेल,जगदीश देवड़ा,पारस जैन और करण सिंह वर्मा का नाम शामिल है।
शिवराज सिंह चौहान सरकार पर मंत्रियों के विभाग और की निजी स्थापना में पदस्थ अधिकारी भारी पड़ रहे हैं। मुख्यमंत्री ने खुद स्वीकार किया है कि उनकी कैबिनेट के तीन सहयोगियों के विशेष सहायकों के खिलाफ लोकायुक्त और ईओडब्ल्यू जांच कर रहा है। इस स्वीकारोक्ति के बाद भी ये अधिकारी मंत्रियों के खासमखास बने हुए हैं। सरकार के कामकाज में पारदर्शिता और स्वच्छता की वकालत के बीच मंत्रियों के निज सचिव, निज सहायक और विशेष सहायक जब-तब भ्रष्टाचार और अनियमितता को लेकर सुर्खियां बटोरते रहे हैं। इस मामले में दो मंत्रियों के विशेष सहायकों को मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को खुद पहल कर हटवाना भी पड़ा था। भाजपा संगठन की नजर भी इस मामले में कुछ विशेष सहायकों पर टेढ़ी थी, लेकिन अभी भी तीन मंत्रियों के विशेष सहायक ऐसे हैं जिनके खिलाफ गंभीर मामलों में लोकायुक्त और ईओडब्ल्यू में प्रकरण दर्ज है।
प्रदेश में दूसरी बार भाजपा की सरकार बनने के बाद मंत्रियों के निजी स्टाफ में पदस्थ होने वाले अधिकारियों एवं कर्मचारियों के बारे में संगठन ने गाइडलाइन जारी की थी। पचमढ़ी में हुए मंत्रियों के चिंतन शिविर में मंत्री स्टाफ को प्रशिक्षण देने का निर्णय लिया गया था, लेकिन उस पर अमल नहीं हो सका। अपने पीए की कारगुजारियों के कारण जो मंत्री सरकार के लिए संकट खड़ा कर रहे हैं उनमें रामकृष्ण कुसमरिया, राजेंद्र शुक्ला, जगदीश देवड़ा, रंजना बघेल के काम-काज की भी संगठन अपने स्तर पर जांच करा चुका है और इन मंत्रियों को सफाई देने के लिए प्रदेश अध्यक्ष के दरबार में जाना पड़ा। विवादित बयानों और अक्षम कार्यशैली के चलते कृषि मंत्री कुसमरिया पहले से ही किसान संघ के सीधे निशाने पर हैं।

विवादित जोडिय़ां———-
रामकृष्ण कुसमरिया और उमेश शर्मा-
अपनी बेबाक टिप्पणी के लिए बदनाम रामकृष्ण कुसमरिया और उमेश शर्मा की जोड़ी हमेशा विवादों में रहती है। बाबाजी के नाम से जाने वाले कुसमरिया अपने पीए के कारण बदनामी और तमाम आरोप झेल रहे हैं। उन पर पीए के माध्यम से वसूली के आरोप हैं। पशुपालन मंत्री रहते हुए मछली ठेके गलत तरीके से दिए, जिस पर विवाद हुआ। इसी वजह से उनसे विभाग छिना। पिछले दो साल से जैविक नीति का राग अलाप रहे हैं, लेकिन आज तक नीति का अता-पता नहीं। मंत्री से पहले जब सांसद थे, तब मिस्टर टेन परसेंट कहलाते थे। मंत्री के रूप में भी यही पहचान। अधिकारियों में नूरा-कुश्ती कराने में माहिर।
वहीं उनके पीए उमेश शर्मा मूलत डीएसपी हैं, लेकिन किसान कल्याण एवं कृषि विकास मंत्री रामकृष्ण कुसमरिया उन्हें अपना विशेष सहायक बनाए हुए हैं। कहा जाता है कि कृषि विभाग में शर्मा की मर्जी के बिना पत्ता तक नहीं खड़कता। उन्हें विशेष सहायक बनाने का मामला खासा चर्चित रहा था, लेकिन अंतत: कुसमरिया की जिद मानी गई। शर्मा के खिलाफ 18 जून 1010 को ईओडब्ल्यू में प्रकरण दर्ज हुआ।
राजेंद्र शुक्ल और रमेश पाल
खनिज मंत्री राजेंद्र शुक्ल और रमेश पाल की जोड़ी भी खुब चर्चा में हैं। मंत्री पर खनिज माफिया को संरक्षण देने का आरोप है। अपने गृह जिले रीवा के पड़ोसी जिले सतना में समर्थकों को खनिज लूट की खुली छूट दी। कटनी और अन्य स्थानों पर खनिज चोरी पर आंखें बंद किए हुए हैं। बताया जाता है को मंत्री को यह सब आईडिया उनके पीए रमेश पाल ने ही दिए हैं। ये महाशय एडीशनल कलेक्टर कटनी के पद पर पदस्थ थे। इससे पहले मंत्रालय में नगरीय प्रशासन विभाग के उपसचिव जैसे मलाईदार पद पर रहे हैं। मंत्री की निजी पदस्थापना के लिए सरकार ने बातें तो बड़ी-बड़ी की, लेकिन विभागीय जांच से घिरे होने के बावजूद पाल को मंत्री का विशेष सहायक बना दिया गया। अपर कलेक्टर स्तर के राज्य प्रशासनिक सेवा के अधिकारी रमेश पाल को भी खनिज एवं ऊर्जा राज्यमंत्री राजेंद्र शुक्ल तमाम आरोपों के बावजूद अपना विशेष सहायक बनाए हुए हैं। पाल के खिलाफ छह दिसंबर 2010 को लोकायुक्त संगठन और 18 अगस्त 2010 को ईओडब्ल्यू में प्रकरण दर्ज हुआ। कहा जाता है कि खनिज विभाग में कोई भी निर्णय उनकी सहमति के बिना नहीं होता।

रंजना बघेल और अरूण निगम
प्रदेश में भाजपा की सरकार बनते ही संगठन ने मंत्रियों के निज स्टाफ में पदस्थ होने वाले अधिकारियों के कार्यों की जांच कराने के बाद ही इन्हें रखने के निर्देश दिए थे। खासकर कुछ मंत्रियों के स्टाफ में संघ से जुडे कार्यकर्ताओं को भी निज सहायक एवं निज सचिव बनाया गया है, लेकिन महिला एवं बाल विकास राज्यमंत्री स्वतंत्र प्रभार श्रीमती रंजना बघेल एक ऐसे शिक्षक को पाल रही हैं जो कि भष्टाचार के मामले में गले-गले फंसे हुए हैं। वहीं रंजना बघेल पर कुपोषण के कलंक से परेशान सरकार ने पूरा भरोसा जताया,लेकिन धांधली के एक नहीं दर्जनों आरोप उन पर हैं। आरोप है कि विभाग को उनके पीए अरूण निगम चला रहे हैं। अधिकारियों की पोस्टिंग विभाग का सबसे अहम काम बना हुआ है। पोषण आहार सप्लाई के ठेके में भारी भ्रष्टाचार। अपने गृह जिले धार के ठेकेदारों को ही सर्वाधिक ठेके देने के आरोप उन पर हैं। कुपोषण के निपटने के तमाम प्रयास विफल हुए। अब अटल बाल आरोग्य मिशन में कुपोषण से निपटने के तरीकों से बजट खर्च करने की योजना पर ध्यान है। महिला एवं बाल विकास मंत्री रंजना बघेल के पीए अरुण निगम शिक्षा विभाग के भ्रष्ट अफसरों की सूची में शामिल रहे हैं। इन पर स्कूलों में होने वाले नलकूप खनन में लाखों रुपए की हेराफेरी के आरोप लगे हैं। इनकी शिकायत खरगोन के पूर्व सांसद इंदौर के मेयर कृष्णमुरारी मोघे ने इंदौर संभागायुक्त से की थी। बीते साल इंदौर संभागायुक्त ने निगम को तत्काल सेवा से बर्खास्त करने के लिए कलेक्टर खरगोन को सिफारिश भेजी थी। इनके खिलाफ पुलिस प्रकरण दर्ज करने के भी निर्देश दिए गए। मामला अदालत भी पहुंचा। अदालत ने संभागायुक्त के फैसले को सही ठहराया पर निगम सुरक्षित स्थान पर पहुंच ही गए हैं। भष्टाचार के आरोप में फंसे महिला एवं बाल विकास मंत्री श्रीमती रंजना बघेल के निज सहायक की विभागीय जांच शुरू हो गई है।
जगदीश देवड़ा और राजेन्द्र सिंह
जेल मंत्री जगदीश देवड़ा के विशेष सहायक राजेंद्र सिंह गुर्जर को सीएम के निर्देश पर पिछले साल ही पद से हटा कर मूल विभाग भेजा गया है। देवड़ा के साथ बीते छह-सात साल से जुड़े रहे राजेंद्र को हटाने की वजह खाचरौद जेल से सिमी के कार्यकर्ताओं को रिहा करने में उनकी भूमिका थी। लेकिन बताया जाता है कि इनको हटाने के लिए मंत्री पर पहले से ही दबाव था। वैसे तो राजेन्द्र सिंह कुछ समय पहले ही पदोन्नत होकर राजपत्रित हुए हैं, लेकिन देवड़ा जी के यहां ये ही सर्वशक्तिमान थे। इनके हाल ये थे कि मंत्री जी के निर्देशों का भी इन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता था। परिवहन विभाग में एक साल में जितने लोग डेपुटेशन पर गए, उनके लिए लाइजनींग इन्होंने ही की थी।
पारस जैन और राजेंद्र भूतड़ा
खाद्य एवं नागरिक आपूर्ति राज्यमंत्री पारस जैन शकर एवं दाल खरीदी के मामले के बाद अब फोर्टिफाइड आटे को लेकर गंभीर आरोपों से घिरे हैं। इनके विशेष सहायक राजेंद्र भूतड़ा ने मंत्री जी के नाम पर ठेकेदारों और अफसरों से जमकर वसूली की है। एक खाद्य निरीक्षक द्वारा आत्महत्या किए जाने को लेकर उसकी पत्नी ने भूतड़ा पर तबादले के लिए रिश्वत लेने के आरोप लगाए थे। इंस्पेक्टर के परिजनों ने मंत्री पर अरोप लगाए। लेकिन भूतड़ा को कुछ माह पहले मुख्यमंत्री के निर्देश पर हटाया गया था।
करण सिंह वर्मा अजय कुमार शर्मां
ईमानदारी के लिए मिसाल के तौर पर पहचाने जाने वाले राजस्व एवं पुनर्वास राज्यमंत्री करण सिंह वर्मा ने अजय कुमार शर्मां अपना विशेष सहायक बना रखा है। राज्य प्रशासनिक सेवा के अधिकारी शर्मा के खिलाफ 12 जनवरी 2009 को लोकायुक्त संगठन में प्रकरण दर्ज हुआ और जांच चल रही है।
पूर्व मुख्यमंत्री और नगरीय प्रशासन मंत्री बाबूलाल गौर पर एक बार फिर दबाव बनाया जा रहा है कि नगरीय प्रशासन विभाग छोड़ें, लेकिन गौर हर पखवाड़े केंद्रीय नेताओं से मिलकर अपना दबदबा जाहिर करते रहे हैं। दूसरी ओर अंत्योदय मेले के दौरान जिन राज्यमंत्रियों ने शिवराज सिंह का दिल जीता है उन्हें पदोन्नति का इंतजार है। इस सूची में बृजेंद्र प्रताप सिंह और हरिशंकर खटीक का नाम सबसे ऊपर है। यही नहीं, अजय विश्नोई के लिए भी कई केंद्रीय नेताओं का दबाव है। ग्वालियर का प्रतिनिधित्व करने वाले अनूप मिश्रा की वापसी के लिए मैदानी फील्ंिडग जम चुकी है, लेकिन राह में रोड़े अटकाने वालों की भी कमी नहीं है। मुख्यमंत्री से लेकर प्रदेश अध्यक्ष तक अनूप के प्रति सहानुभूति जता चुके हैं, लेकिन लंबे समय से अधर में है।