मंगलवार, 17 अप्रैल 2012

ईमानदार होने की सजा



ईमानदार होने की कीमत जब-तब देश और समाज को चुकानी ही पड़ती है। एक बार फिर एक आइपीएस अधिकारी को अपनी जान देकर ईमानदारी की कीमत चुकानी पड़ी है। मध्य प्रदेश के मुरैना जिले में पुलिस अनुमंडल अधिकारी यानी एसडीपीओ के पद पर तैनात 2009 बैच के आइपीएस अधिकारी नरेंद्र कुमार सिंह को बामौर में अवैध खनन से जुड़े माफियाओं ने मार डाला। बताया जा रहा है कि उन्होंने बामौर में जाकर अवैध खनन को रोकने की हिम्मत दिखाई तो ट्रैक्टर चालक गाड़ी लेकर भागने लगा। जब उन्होंने ट्रैक्टर चालक को बीच रास्ते में रोकने की कोशिश की तो उसने नरेंद्र कुमार पर ट्रैक्टर चढ़ा दिया। अस्पताल में नरेंद्र की मौत हो गई। यह हृदयविदारक घटना इस बात की तस्दीक करती है कि देश में अवैध खनन से जुड़े माफिया की ताकत चरम पर है और सरकारें उनके आगे लाचार और पंगु हैं। यह घटना चाक-चौबंद कानून-व्यवस्था की मुनादी पीटने वाली मध्य प्रदेश सरकार के माथे पर कलंक है। अभी तक मध्य प्रदेश में काली कमाई करने वालों का ही भंडाफोड़ हो रहा था, लेकिन आइपीएस अधिकारी की हत्या ने राज्य की डांवाडोल होती कानून-व्यवस्था की पोल खोलकर रख दी है। राज्य सरकार ने हत्याकांड की न्यायिक जांच के आदेश दे दिए हैं, लेकिन विपक्ष सीबीआइ जांच की मांग पर अड़ा हुआ है। सरकार दावा कर रही है कि वह खनन माफिया के खिलाफ कड़ी से कड़ी कार्रवाई करेगी और अवैध खनन के खेल पर रोक लगाएगी, लेकिन सरकार के दावे पर यकीन करना कठिन है। इसलिए कि खनन माफिया के खिलाफ कार्रवाई की मांग लंबे अरसे से की जा रही है, लेकिन सरकार हाथ पर हाथ धरी बैठी है। इसी का दुष्परिणाम है कि आज खनन माफिया के हौसले बुलंद हैं और ईमानदार लोग मारे जा रहे हैं, लेकिन त्रासदी का यह खेल मध्य प्रदेश तक ही सीमित नहीं है, बल्कि अन्य राज्यों में भी अवैध खनन का काला कारोबार जारी है और संबंधित राज्य सरकारों ने मौन धारण किया हुआ है। राजनीतिक संरक्षण दरअसल, अवैध खनन के इस खेल में वही लोग शामिल हैं, जिनके पांव सत्ता के गलियारे तक जाते हैं। अमूमन अवैध खनन के खेल में सत्ता से जुड़े मंत्रियों, सांसदों और विधायकों का नाम सुना जाता है। कर्नाटक में रेड्डी बंधुओं की कारस्तानी जगजाहिर है। कर्नाटक सरकार पर उन्हें संरक्षण देने का आरोप भी लगता रहा है। मतलब साफ है, अवैध खनन से जुड़े माफियाओं को न केवल सत्ता का संरक्षण प्राप्त है, बल्कि सत्ता में उनकी सीधी भागीदारी है। अन्यथा, क्या मजाल कि अवैध खनन से जुड़े माफिया दिन-दहाड़े एक आइपीएस अधिकारी को ट्रैक्टर से कुचलकर मार डालते और सरकार शोक व्यक्त करती रह जाती। इस तरह की घटनाएं आए दिन मध्य प्रदेश, झारखंड, छत्तीसगढ़, उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, कर्नाटक और आंध्र प्रदेश जैसे राज्यों से सुनने को मिलती रहती हैं। खनन माफिया द्वारा सरकारी मुलाजिमों, आमजन और आरटीआइ कार्यकर्ताओं की हत्या आम बात हो गई है। अभी पिछले दिनों उत्तर प्रदेश के सोनभद्र जिले में पहाड़ धंसने से दर्जनों लोगों की जानें चली गई। इस घटना के लिए भी कसूरवार खनन माफिया ही बताए जा रहे हैं। सोनभद्र की यह घटना भी सत्ता पोषित भ्रष्टाचार का ही नतीजा है। हजारों एकड़ सुरक्षित वन भूमि को दुस्साहसिक ढंग से उत्तर प्रदेश सरकार की भूमि घोषित कर उसे मनचाहे पट्टेदारों को अलॉट कर दिया गया है और उस पर अवैध खनन जोरों पर है। दुर्भाग्य यह है कि दर्जनों लोगों के मारे जाने के बाद अब भी खनन का खेल जारी है। हाल ही में कर्नाटक में एक खनन माफिया के समर्थकों ने पत्रकारों पर हमला बोल दिया। दरअसल, ये हमले उन लोगों द्वारा किए और कराए जा रहे हैं, जो भ्रष्टाचार में आकंठ डूबे हुए हैं। वे नहीं चाहते कि प्रशासन, आमजन, मीडिया या आरटीआइ कार्यकर्ता उनकी काली करतूतों पर से पर्दा हटाएं। व्यवस्था को अराजकता में बदल चुके इन लोगों के लिए सरकारी मुलाजिम और आरटीआइ कार्यकर्ता राह के रोड़े नजर आते हैं। वे उन्हें रास्ते से हटाने के लिए हत्या तक पर उतारू हैं। सच तो यह है कि देश में भ्रष्ट नौकरशाहों, राजनेताओं और स्थानीय स्तर के भ्रष्ट कर्मचारियों, बिल्डरों, भू-खनन माफियाओं का एक ऐसा नेटवर्क तैयार हो गया है, जिसका मकसद अवैध तरीके से अकूत संपदा इक_ा करना है। दुर्भाग्य यह है कि सरकार उनके तंत्र को तोडऩे में नाकाम साबित हो रही है। जब तक इन भ्रष्टमंडलियों को छिन्न-भिन्न नहीं किया जाएगा, खनन माफिया और अराजक किस्म के धंधों से जुड़े लोग सरकारी मुलाजिमों और आरटीआइ कार्यकर्ताओं की हत्या करते रहेंगे। दुर्भाग्य यह है कि खनन माफिया के खिलाफ जो सरकारी अधिकारी-कर्मचारी अभियान छेड़े हुए हैं, उन्हें सरकार सुरक्षा दे पाने में भी असमर्थ है। लिहाजा, उन्हें अपनी जान गंवानी पड़ रही है। लूट तंत्र के शिकार हुए कई जांबाज याद होगा, महाराष्ट्र में मालेगांव के अपर जिलाधिकारी यशवंत सोनवाने को तेल माफिया ने दिनदहाड़े जिंदा जला दिया था। जब उन्होंने तेल के काले धंधे से जुड़े लोगों को रंगे हाथ पकडऩा चाहा तो मौके पर ही तेल माफिया के गुर्गो ने उन्हें जलाकर मार डाला। राष्ट्रीय राजमार्ग अथॉरिटी (एनएचएआइ) के परियोजना निदेशक सत्येंद्र दुबे की बिहार में गया के निकट गोली मारकर हत्या कर दी गई। सत्येंद्र दुबे अपनी ईमानदारी के लिए विख्यात थे। उन्होंने एनएचएआइ में बरती जा रही अनियमितताओं के संबंध में तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को पत्र लिखा था। इसी तरह इंडियन ऑयल कॉरपोरेशन के मार्केटिंग मैनेजर शणमुगम मंजूनाथ को उत्तर प्रदेश के लखीमपुर खीरी जिले में गोली मारकर खत्म कर दिया गया। शणमुगम ने तेल ईधन में मिलावट करने वाले तेल माफिया का पर्दाफाश किया था। इसी तर्ज पर देश में आरटीआइ कार्यकर्ताओं की भी हत्या की जा रही है। आरटीआइ कार्यकर्ता भी निशाने पर महज एक साल के दौरान ही एक दर्जन से अधिक आरटीआइ कार्यकर्ताओं की जानें ली जा चुकी हैं। अहमदाबाद के आरटीआइ कार्यकर्ता अमित जेठवा की इसलिए हत्या कर दी गई कि उन्होंने गीर के जंगलों में अवैध खनन का पर्दाफाश किया था। कई रसूखदार लोगों का चेहरा सामने आना तय था, लेकिन उससे पहले ही जेठवा की जान ले ली गई। हत्यारों ने गुजरात हाईकोर्ट के सामने ही उन्हें गोली मार दी। महाराष्ट्र के दत्ता पाटिल आरटीआइ का इस्तेमाल कर भ्रष्टाचार के कई मामले उजागर किए थे। उनकी कोशिश की बदौलत ही एक भ्रष्ट पुलिस उपाधीक्षक और एक वरिष्ठ पुलिस इंस्पेक्टर को अपनी नौकरी से हाथ धोना पड़ा था। उनकी पहल पर ही नगर निगम के अफसरों के खिलाफ कार्रवाई शुरू हुई थी, लेकिन सच और ईमानदारी की लड़ाई लडऩे की कीमत उन्हें भी जान देकर चुकानी पड़ी। इसी तरह महाराष्ट्र के आरटीआइ कार्यकर्ता वि_ल गीते, अरुण सावंत तथा आंध्र प्रदेश के सोला रंगाराव और बिहार के शशिधर मिश्रा को अपनी जान गंवानी पड़ी। जम्मू-कश्मीर के मुजफ्फर बट, मुंबई के अशोक कुमार शिंदे, अभय पाटिल तथा पर्यावरणवादी सुमेर अब्दुलाली पर भी जानलेवा हमला किया गया। देश के पहले केंद्रीय सूचना आयुक्त रह चुके वजाहत हबीबुल्ला की मानें तो कार्यकर्ताओं पर हो रहे हमले यह पुख्ता करते हैं कि आरटीआइ एक्ट देश में प्रभावी रूप ले रहा है, लेकिन क्या यह दिल दहलाने वाली बात नहीं है कि इसकी कीमत उन्हें अपनी जान देकर चुकानी पड़ रही है? आज मौंजू सवाल यह है कि सरकारी मुलाजिमों और आरटीआइ कार्यकर्ताओं पर होने वाले हमले कब बंद होंगे? सरकार उन्हें सुरक्षा कब मुहैया कराएगी? सच तो यह है कि सरकार की लापरवाही से ही ईमानदार अधिकारी और आरटीआइ कार्यकर्ताओं की जान सांसत में है। आज जरूरत इस बात की है कि केंद्र और राज्य सरकारें अवैध खनन रोकने के लिए सख्त कानून बनाएं और उस पर अमल भी करें। अन्यथा, खनन माफिया पर अंकुश लगाना कठिन हो जाएगा और ईमानदार लोगों की जान जाती रहेगी।
युवा और तेजतरार्र आइपीएस अधिकारी नरेंद्र कुमार की निर्मम हत्या ने यह साबित कर दिया है कि इस देश में ईमानदार अधिकारियों के लिए काम कर पाना बेहद मुश्किल हो गया है। इसके साथ ही भ्रष्ट और बेईमान लोगों के लिए अपना काला धंधा चलाना कितना आसान है। यह पहली घटना नहीं है, जब किसी ईमानदार पुलिस अधिकारी ने फर्ज की खातिर अपनी जान की बाजी लगाई है। आइपीएस नरेंद्र कुमार की चिता की आग अभी ठंडी भी नहीं हुई थी कि मध्य प्रदेश के पन्ना जिले में खनन माफिया ने वहां तैनात एक एसडीएम और एसडीपीओ पर जानलेवा हमला कर दिया। राज्य में हो रही ऐसी घटनाएं शिवराज सिंह चौहान सरकार की नाकामी जाहिर करने के लिए काफी है। फर्ज की राह में शहीद होने वाले ऐसे ईमानदार और निडर अधिकारियों की फेहरिस्त काफी लंबी है। वर्षो पहले बिहार के सहरसा-खगडिय़ा जिले के दियारा में दस्यु गिरोह का मुकाबला करते हुए डीएसपी सतपाल सिंह ने भी अपनी शहादत दी थी। हालांकि सतपाल सिंह की मौत के बाद यह बात चर्चा में रही कि स्थानीय जिला प्रशासन अगर समय रहते पर्याप्त पुलिस बल मौके पर भेजता तो शायद उनकी जान बचाई जा सकती थी। इसके बाद बिहार के बहुचर्चित गोपालगंज के डीएम जी. कृष्णैया हत्याकांड का मामला सामने आया, जिसके नामजद अभियुक्त बाहुबली नेता आनंद मोहन फिलहाल उम्रकैद की सजा काट रहे हैं। ऐसी ही एक और घटना झारखंड के चतरा जिले में कुछ साल पहले हुई थी, जिसमें वन माफिया और नक्सलियों ने मिलकर एक डीएफओ की निर्मम हत्या कर दी। ईमानदार पुलिस अधिकारियों की हत्या का सिलसिला यही नहीं थमा, बल्कि साल दर साल बीतने पर इसमें और इजाफा हुआ। पिछले साल महाराष्ट्र में तेल माफिया के खिलाफ कार्रवाई करने पर एक एसडीएम को जिंदा आग के हवाले कर दिया गया। दिनदहाड़े ऐसी घटनाएं होने के बावजूद संबंधित राज्य सरकारें उन लोगों पर कार्रवाई नहीं करती। सरकार की इस अनदेखी की सबसे बड़ी वजह कुछ और नहीं, बल्कि कहीं न कहीं इस काले धंधे में उनके लोगों और नाते-रिश्तेदारों की भागीदारी है। बीते कुछ वर्षो से देश के कई हिस्सों में अवैध खनन का कारोबार बेरोक-टोक चल रहा है। हिंदुस्तान के लगभग उन सभी राज्यों में जहां पहाड़ मौजूद हैं, वहां खनन माफिया सक्रिय हैं। इसमें कोई दो राय नहीं कि धन की इस धार में राजनीतिक दलों के नेता पूरी तरह शामिल हैं या इस तरह कहें कि राज्य सरकारें ऐसे खनन माफियाओं को पूरी तरह अपना संरक्षण दे रही है। कर्नाटक, गोवा में भाजपा और कांग्रेस की सरकार इस मामले में पूरी तरह बेनकाब भी हो चुकी है। आइपीएस अधिकारी नरेंद्र कुमार की जिस बेरहमी के साथ हत्या की गई, उससे कई सवाल पैदा हो रहे हैं। जिस मुरैना में उनकी हत्या हुई, उस जिले में अवैध खनन का धंधा कई वर्षो से चल रहा है। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के कथित सुशासन में यह धंधा थमने की बजाय बढ़ता ही चला गया। बहुत कम लोगों को इस बात की जानकारी होगी कि जिस संसद भवन को देखकर हम उसकी वास्तुकला पर खुशी से इठलाते हैं, असल में उसे बनाने की प्रेरणा मुरैना स्थित मितावली चौंसठ योगिनी मंदिर से ली गई थी। यह मंदिर आठवीं सदी में बनाया गया था। इसे देखने के बाद हर कोई इसे नई दिल्ली स्थित संसद भवन का प्रतिरूप कहे बिना नहीं रह सकता। हालांकि ऊंची पहाडिय़ों पर स्थित इस ऐतिहासिक धरोहर का वजूद अवैध खनन के चलते खतरे में पड़ गया है। इस अवैध खनन में कोई और नहीं, बल्कि मध्य प्रदेश में सरकार चला रही भाजपा के कई माननीय विधायक और नेता शामिल हैं। बोली और गोली के लिए मशहूर मुरैना में इन दिनों अवैध खनन का धंधा भ्रष्ट नेताओं और उनके गुर्गो के लिए बेहद फायदेमंद साबित हो रहा है। एक तरफ वन एवं पर्यावरण मंत्रालय व प्राकृतिक संसाधन विभाग जंगल और पहाड़ों के रक्षार्थ नित्य नए उपाय तलाशने में जुटा है, वहीं संबंधित राज्य सरकारों में मौजूद लोग बिना किसी भय के अपना गोरखधंधा चला रहे हैं। भारत में जो हालात पैदा हो रहे हैं, उसके प्रति संसद और विधानसभा में बैठे लोगों को आज नहीं तो कल सोचना ही पड़ेगा, क्योंकि भ्रष्टाचार से बेहाल और एक अदद रोटी के लिए जद्दोजहद करने वाले करोड़ों लोग आने वाले दिनों में निश्चित तौर पर अपने जन प्रतिनिधियों का गला काटेंगे। आइपीएस नरेंद्र कुमार और अभियंता सत्येंद्र दुबे जैसे ईमानदार अफसरों की कुर्बानी कभी बेकार नहीं जाने वाली। ऐसी घटना उन भ्रष्ट अधिकारियों के लिए भी एक सबक है, जो अपने ईमान का सौदा कर रहे हैं।

अनियमितता का ठीहा बनी पंचायतें





भोपाल। मध्य प्रदेश में ग्राम पंचायतों औरं ग्राम कोषों का ऑडिट सीएजी के पर्यवेक्षण में स्वतंत्र एजेंसी के जरिए होने लगा तो गड़बड़ी मिलने का सिलसिला भी शुरू हो गया। मध्य प्रदेश पहला राज्य है, जहां संविधान संशोधन के बाद सबसे पहले पंचायत चुनाव कराए गए थे। कभी पिछड़े एवं वंचित वर्ग के राजनीतिक एवं सामाजिक सशक्तीकरण को लेकर चर्चित हुईं, सूबे की पंचायतें अब आर्थिक अनियमितता एवं भ्रष्टाचार को लेकर चर्चा में हैं।
स्थानीय निधि संपरीक्षा द्वारा पंचायत एवं ग्रामीण विकास विभाग के प्रमुख को सौंपी गई पहली समेकित ऑडिट रिपोर्ट 2009-10 से खुलासा हुआ कि पंचायतें न तो ऑडिट कराने में रुचि ले रही हैं, न ही इसमें सहयोग कर रही हैं। यहां तक कि हिसाब-किताब रखने की जिम्मेदारियों से भी बच रही हैं। ऑडिट रिपोर्ट में कहा गया कि पंचायतों में करोड़ों की अनियमितता हुई है। रिपोर्ट में साफ-साफ कहा गया है, अधिकतर जगहों पर मनरेगा के अभिलेख स्थानीय निधि संपरीक्षा विभाग को अंकेक्षण के लिए उपलब्ध नहीं कराने से शासन की इस सबसे महत्वपूर्ण एवं महत्वकांक्षी योजना का विधिवत अंकेक्षण संपादित नहीं हो पा रहा है।
शुरुआती दौर में आर्थिक मामलों में पंचायतों के अधिकार सीमित थे, पर पिछले कुछ साल से पंचायतों के जरिए करोड़ों रुपये खर्च किए जा रहे हैं। मनरेगा आने के बाद पंचायतों में पैसों का प्रवाह बहुत तेजी से बढ़ा है, पर ग्राम पंचायतों की ऑडिट स्वंतत्र एजेंसियों से कराने का प्रयास कभी नहीं किया गया। 11वें वित्त आयोग की अनुशंसा के बाद, आखिरकार सूबे के वित्त विभाग को ग्राम पंचायतों एवं ग्राम कोषों का ऑडिट नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक के पर्यवेक्षण में स्थानीय निधि संपरीक्षा के जरिए कराने का आदेश निकालना पड़ा। इस आदेश के बाद स्थानीय निधि संपरीक्षा ने ग्राम पंचायतों एवं ग्राम कोषों के अलावा जिला एवं जनपद पंचायतों की भी ऑडिट शुरू की। एक ओर, राज्य में ऑडिटरों की भारी कमी है, जिसकी वजह से सभी पंचायतों की ऑडिट संभव ही नहीं है, तो दूसरी ओर कई पंचायतें ऑडिट में सहयोग ही नहीं करना चाहतीं।
प्रदेश में 23,040 ग्राम पंचायतें, 313 जनपद पंचायतें एवं 50 जिला पंचायतें हैं, पर 2009-10 में 12,270 ग्राम पंचायतों, 84 जनपद पंचायतों एवं महज आठ जिला पंचायतों की ही ऑडिट हो पाई। राज्य विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष अजय सिंह कहते हैं, यदि प्रदेश के सभी पंचायतों की ऑडिट हो तो वित्तीय अनियमितताओं के जो मामले सामने आएंगे, उनमें अरबों रुपये के भ्रष्टाचार का खुलासा होगा। सरकार का विकास से कोई लेना-देना नहीं है। वह यात्राओं में उलझी हुई है। इसका फायदा मैदानी अमला उठा रहा है। विकास कार्यों एवं मनरेगा के लिए मिलने वाली राशि में भारी भ्रष्टाचार हो रहा है।
प्रदेश की पंचायतें भ्रष्टाचार एवं अनियमितता का ठीहा बन गई हैं। त्रिस्तरीय पंचायतों में कुल 9,388 लाख 12 हजार रुपए का अनियमित भुगतान किया गया है। रिपोर्ट के मुताबिक, ऐसे समस्त भुगतान, जो कि स्थापित नियमों के विपरीत किए गए हैं, अनियमित भुगतान हैं। ग्राम पंचायतों में अनियमित ऑडिट आपत्तियों की संख्या 17,178 है, जिसमें 8,944 लाख 89 हजार रुपये का अनियमित भुगतान हुआ है। इस मामले में पंचायत एवं ग्रामीण विकास मंत्री पं.गोपाल भार्गव के क्षेत्र-सागर संभाग में सबसे ज्यादा 3,404 लाख 76 हजार रुपए का अनियमित भुगतान हुआ है। जनपद पंचायतों में 408 लाख 64 हजार रुपए का अनियमित भुगतान एवं जिला पंचायतों में 34 लाख 59 हजार रुपए का अनियमित भुगतान हुआ है। अनियमित भुगतान की वजह से भ्रष्टाचार की आशंका से इंकार नहीं किया जा सकता है।
पंचायतों में 41।15 लाख रुपए के गबन का मामला सामने आया है। इसमें सरपंच एवं सचिव ने मिलकर कई तरह की तिकड़में लगाईं। गबन के सबसे अधिक मामले इंदौर एवं ग्वालियर संभाग में उजागर हुए हैं। 50 जिला पंचायतों में से महज आठ का अंकेक्षण होने से, गबन का एक प्रकरण सिर्फ रीवा से सामने आया है।
ग्राम पंचायतों द्वारा 16,733 लाख 78 हजार रुपए की अनुदान राशि खर्च ही नहीं की गई। इस मामले में जनपद एवं जिला पंचायतों की भूमिका नकारात्मक रही है। रिपोर्ट में टिप्पणी की गई है, केंद्र एवं राज्य सरकार से प्राप्त अनुदान राशि का उपयोग न हो पाना अत्यंत गंभीर बात है, क्योंकि यह राशि राज्य के सर्वांगीण विकास के लिए है। राशि का उपयोग नहीं होने का प्रमुख कारण त्रिस्तरीय पंचायती राज की प्रमुख संस्था जिला एवं जनपद पंचायतों के मुख्य कार्यपालन अधिकारियों द्वारा अनुदान राशि को समय से ग्राम पंचायतों को उपलब्ध नहीं कराना एवं ग्रामीण यांत्रिकी विभाग के अधीन तकनीकी सेवाओं के लाभ को ग्राम पंचायत एवं ग्राम सभा स्तर तक नहीं पहुंचाया जाना है।
इस मामले में भी पंचायत एवं ग्रामीण विकास मंत्री का क्षेत्र-सागर संभाग आगे है, जहां 6,423 लाख 58 हजार रुपए की अनुदान राशि खर्च नहीं हो पाई। जनपद पंचायत, अनुदान राशि ग्राम पंचायतों को देने के बजाए ब्याज प्राप्ति के लिए खातों में रखते हैं, इसे अत्यंत आपत्तिजनक माना गया है। इन कमियों को छुपाने के लिए जिला पंचायतों ने ऑडिट के लिए मेमो का उत्तर देना तक मुनासिब नहीं समझा। अजय सिंह कहते हैं, राज्य सरकार एक ओर केंद्र पर भेदभाव का आरोप लगाती है, पर इस रिपोर्ट से उजागर हो जाता है कि ग्रामीण एवं सामाजिक विकास एवं वंचित वर्ग के लिए आ रही करोड़ों की अनुदान राशि का उपयोग नहीं हो रहा है।
पंचायतों ने नियम के विपरीत जाकर अग्रिम भुगतान करने में भी दिल खोलकर उदारता दिखाई। इस कारण 716 लाख 88 हजार रुपए अवशेष अग्रिम राशि है। कई निकायों में यह 20-25 साल से लंबित है। ग्राम पंचायतों की वित्तीय एवं कार्य अनियमितता के कारण 132।29 लाख रुपए की राजस्व की हानि भी हुई है। ग्राम पंचायतें नियम के विपरीत जाकर अपने को लाभ पहुंचाने के उद्देश्य से सरकारी खजाने को नुकसान पहुंचा रही हैं। यह भी देखने में आया है कि व्यय करने के मामले में पंचायतें नियमों से परे जाकर बड़े पैमाने पर खर्च कर रही हैं, जो कि एक तरह का भ्रष्टाचार ही है। व्यक्ति विशेष को लाभ पहुंचाकर भी जनपद पंचायतों को नुकसान पहुंचाया जा रहा है।
पंचायती राज पर लंबे समय से काम कर रही एक स्वयं सेवी संस्था के निदेशक डॉ। योगेश कुमार कहते हैं, यह सही है कि ग्राम पंचायतों में भ्रष्टाचार है, पर इसके लिए जिला एवं जनपद पंचायतें ज्यादा जिम्मेदार हैं, जो समय पर पंचायतों को पैसे नहीं देतीं। इससे ग्राम पंचायतों के सचिव एवं सरपंच की वित्तीय संधारण क्षमता कमजोर होती है। लेखा संधारण में अनुभव की कमी भी अनियमितता को बढ़ावा दे रही है।
पंचायतों में सबसे ज्यादा गड़बड़ी के मामलेे मनरेगा से जुड़े हुए हैं। जिला पंचायत स्तर पर इसे लेकर कोई रिकॉर्ड नहीं पाया गया। भले ही राज्य में मनरेगा में भ्रष्टाचार के मामले उजागर हुए हों, पर पंचायत एवं ग्रामीण विकास मंत्री पं। गोपाल भार्गव काम की तुलना में इसे बहुत कम मानते हैं। विधानसभा के शीतकालीन सत्र में विपक्ष के अविश्वास प्रस्ताव का जवाब देते हुए उन्होंने कहा, 18 हजार करोड़ का काम हुआ है। इसके खिलाफ 205 करोड़ रुपए की शिकायत मिली है। यह लगभग एक प्रतिशत होता है। पर केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश ने मध्य प्रदेश में मनरेगा के तहत कई गंभीर अनियमितताओं को देखते हुए 9 अगस्त, 2011 को मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को पत्र लिखकर इसे रोकने एवं राज्य के तंत्र को प्रभावी बनाने का आग्रह किया था। फिर 17 नवंबर, 2011 के पत्र में उन्होंने मनरेगा पर वित्तीय नियंत्रण एवं सामाजिक जवाबदेही की व्यवस्था पर जोर दिया था।
फिलहाल भ्रष्टाचार का गढ़ बनती पंचायतों में भ्रष्टाचार रोकने के प्रयास नाकाफी दिख रहे हैं। स्थानीय निधि संपरीक्षा विभाग के पास सिर्फ 230 लोगों का ही अमला है, जिसके बूते 22 हजार से ज्यादा पंचायतों की ऑडिट असंभव है। विभाग के अमले को बढ़ाए बिना पंचायतों में भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाना संभव नहीं लगता।
आ जादी के बाद ग्रामीण क्षेत्रों के विकास के लिए महात्मा गांधी के सपनों के अनुरूप दो बड़े कार्यक्रम सामुदायिक विकास कार्यक्रम और पंचायती राज, 1952 और 1959 में शुरू किए गए। ये कार्यक्रम गांवों में कल्याणकारी राज्य की नींव डालने वाले थे। हालांकि ये कृषि के विकास के लिए भी बनाए गए थे, पर इनमें मुख्यत: कल्याण का उद्देश्य ग्रामीण भारत का चेहरा बदलना था, ताकि लोगों का जीवन स्तर सुधारा जा सके।
सामुदायिक विकास कार्यक्रम सीमित स्तर पर 1952 में शुरू किया गया, जिसमें 55 विकास प्रखंड चुने गए। प्रत्येक प्रखंड में 100 गांव और करीब 60 से 70 हजार की आबादी थी। 1960 के दशक के मध्य में देश का आधिकाधिक सामुदायिक ढांचा प्रखंडों के जाल में ढक गया, जिसमें 6,000 प्रखंड विकास पदाधिकारी और करीब 6,00,000 ग्राम सेवक नियुक्त किए गए जो इस कार्यक्रम को लागू कर सकें। इस कार्यक्रम में ग्रामीण जीवन के हर पक्ष को शामिल किया गया था। खेती बेहतर बनाने की विधियों से लेकर संचार, स्वास्थ्य और शिक्षा में सुधार आदि सभी पहलुओं को लिया गया था।
इस कार्यक्रम में लोगों द्वारा आत्मनिर्भरता तथा आत्म-सहायता और उत्तरदायित्व पर मुख्य रूप से जोर दिया जाना था। यह मूलत: जनता के अपने कल्याण के लिए, जनता के आंदोलन के रूप में संगठित किया जाने वाला कार्यक्रम था। नेहरू ने इस कार्यक्रम के शुभारंभ के अवसर पर 1952 में कहा था कि इसका मूल लक्ष्य जनता के बीच नीचे से शक्ति संचार करनेका था। एक तरफ यह आवश्यक था कि योजना बनाई जाए, उसका निर्देशन, संगठन और संयोजन किया जाए, परंतु दूसरी तरफ, उससे भी ज्यादा जरूरी, निचले स्तर से स्वत: विकास की आवश्यक परिस्थिति तैयार करना था।इसके अलावा कार्यक्रम में भौतिक उपलब्धि का लक्ष्य तो रखा गया था, परंतु इसका मूल उद्देश्य समुदाय और व्यक्ति को विकसित करना तथा व्यक्ति को अपने गांव और व्यापक अर्थों में भारत का निर्माता बना देना था।उन्होंने कहा कि प्राथमिक वस्तु है इसमें लगा मानव।
इसका दूसरा बड़ा उद्देश्य पिछड़े तबके को उठाना था: हमारा लक्ष्य समान अवसर और अन्य पक्षों को अधिक से अधिक ऊंचे स्तर पर ले जाना होना चाहिए।1952 और उसके बाद के वर्षों में, नेहरू बार-बार सामुदायिक विकास कार्यक्रम और उसके साथ जुड़ी राष्ट्रीय विस्तार सेवा की चर्चा नई सरकारऔर एक महान क्रांतितथा भारत के पुनरुत्थानशील भावना का प्रतीकके रूप में किया करते थे। यह कार्यक्रम विस्तार कार्यों को फैलाने में अच्छी तरह सफल हुआ। जैसे- बेहतर बीज, खाद आदि होने के परिणामस्वरूप आमतौर पर खेती का विकास तेज हुआ और खाद्यान्न उत्पादन बढ़ा। इसके अलावा सड़क, तालाब, कुंआ, स्कूल तथा प्राथमिक चिकित्सा केंद्र आदि का निर्माण और शिक्षा एवं चिकित्सा सुविधाओं का विस्तार हुआ। परंतु जल्द ही यह स्पष्ट हो गया कि कार्यक्रम एक प्रमुख उद्देश्य में विफल हो गया- वह था अपनी विकास गतिविधियों में लोगों की पूरी भागीदारी। न केवल इससे अपनी मदद स्वयं करने की भावना का विकास नहीं हो सका, बल्कि इसने सरकार से उम्मीदों और सरकार पर निर्भरता को और बढ़ा दिया। धीरे-धीरे इसका झुकाव सरकारी काम जैसा हो गया और अफसरशाही ढांचे का हिस्सा बनकर ऊपर से शासित होने लगा। पूरा काय्रक्रम रोजमर्रा की तरह बन गया। प्रखंड विकास पदाधिकारी पारंपरिक सब-डिवीजनल पदाधिकारी के प्रतिरूप बन गए और ग्रामसेवक उनके कर्मचारी। जैसा कि नेहरू ने बाद में 1963 के दौरान कहा कि जहां यह पूरा कार्यक्रम इस प्रकार बनाया गया था कि किसान को लीक पर से हटाया जा सके, जो पिछले कई युगों से उसी पर जीता चला आ रहा हैवहां यह कार्यक्रम खुद ही उसी लीक में धंस गया है।
इस कार्यक्रम की कमजोरी 1957 में ही स्पष्ट हो चुकी थी, जब बलवंत राय मेहता समिति को इसका मूल्यांकन करने का काम दिया गया। इस समिति ने इस कार्यक्रम के नौकरशाही के चंगुल में फंसने और लोगों की भागीदारी के अभाव की जमकर आलोचना की। इसके इलाज के लिए समिति ने यह सिफारिश की कि ग्रामीण और जिला स्तरीय विकास प्रशासन का लोकतांत्रिक विकेंद्रीकरण किया जाए। इस सिफारिश के आधार पर यह तय किया गया कि पूरे देश में ग्राम पंचायत को आधार बनाकर लोकतांत्रिक स्वशासन की समाकलित व्यवस्था शुरू की जाए। यह नई व्यवस्था पंचायती राज के नाम से जानी गई और विभिन्न राज्यों में 1959 से लागू की जाने लगी। इसमें प्रत्यक्ष रूप से चुने गए ग्राम पंचायत और अप्रत्यक्ष रूप से चुने गए प्रखंड स्तरीय जिला परिषद के तीन स्तर बनाए गए। सामुदायिक विकास कार्यक्रम को पंचायती राज के साथ जोड़ दिया गया और बड़ी मात्रा में कार्य, वित्तीय संसाधन और अधिकार तीन स्तरीय समितियों को विकास कार्यक्रमों को चलाने के लिए सौंप दिए गए। इस प्रकार पंचायती राज के द्वारा सामुदायिक विकास कार्यक्रम की बहुत बड़ी कमजोरी जनता की भागीदारी तथा कार्यक्रमों को लागू करने एवं निर्णय लेने का अधिकार सौंप कर दूर करने की कोशिश की गई। इसके तहत अधिकारियों की भूमिका सिर्फ सहायता और निर्देश देने की रह गई। इसके साथ ही, गांवों में हजारों सहकारी संस्थाओं का जाल बुन दिया गया, जिनमें सहकारी बैंक, भूमि गिरवी बैंक, सेवा एवं बाजार सहकारी समिति आदि संस्थाएं बनाई गईं। ये सभी संस्था स्वायत्त थीं, क्योंकि इनका संचालन चुनाव के आधार पर बनी संस्थाओं द्वारा किया जाता था।
नेहरू का उत्साह फिर बढ़ गया क्योंकि पंचायती राज एवं सहकारी संस्थाएं समाज में अन्य क्रांतिकारी परिवर्तन की प्रतिनिधि थीं। इससे विकास और ग्रामीण प्रशासन का उत्तरदायित्व लोगों को प्राप्त हो रहा था, जिससे ग्रामीण विकास की गति तीव्र हो सकती थी। लेकिन एक या दूसरे रूप में पंचायती राज को स्वीकार कर लेने के बावजूद राज्य सरकारों ने इसके विषय में बहुत कम उत्साह दिखाया। उन्होंने पंचायती राज को कोई वास्तविक अधिकार प्रदान नहीं किया, बल्कि उनके कामों और शक्ति पर अंकुश लगाया और पैसे का अभाव पैदा कर उन्हें मर जाने के लिए मजबूर कर दिया। नौकरशाही ने भी ग्रामीण प्रशासन पर अपनी पकड़ बिल्कुल ढीली नहीं होने दी। पंचायतों का राजनीतिकरण हो गया और राजनीतिज्ञों ने गांव के अंदर गुटों का समर्थन हासिल करने के लिए इसका इस्तेमाल किया। परिणामस्वरूप, ग्रामीण स्वशासन की नींव तो डाल दी गई, परंतु इसका लोकतांत्रिक विकेंद्रीकरण मोटेतौर पर अवरूद्ध हो गया और बलवंत राय मेहता समिति एवं जवाहरलाल नेहरू द्वारा जो भूमिका इसे सौंपी गई, वह कभी पूरी नहीं हो पाई।
सामुदायिक विकास के लाभ, नई कृषि सुविधाएं और विस्तार सेवाएं मूलरूप से धनी और पूंजीवादी किसानों द्वारा हथिया ली गई। इन्हीं लोगों ने पंचायती राज संस्था पर भी प्रभुत्व जमा लिया। सामुदायिक विकास कार्यक्रम, पंचायती राज और सहकारी आंदोलन की सबसे बड़ी कमजोरी यह थी कि इसने ग्रामीण समाज के अंदर वर्ग विभाजन को नजरअंदाज किया।
गांव पर समृद्ध, मध्यम और पूंजीवादी किसानों का सामाजिक और आर्थिक वर्चस्व था और न तो नौकरशाह और न ही समृद्ध ग्रामीण वर्ग जनता की भागीदारी और सामाजिक रूपांतरण के अग्रदूत बन सकते थे। यह ऐसा अन्य क्षेत्र था जिसमें नेहरू युग की भूमि सुधार उपायों की कमजोरियां उजागर हो गईं।