शुक्रवार, 21 जुलाई 2017

नयन कुमारी देवी विनोद उपाध्याय

कार्यकर्ताओं पर अंकुश ब्यूरोक्रेसी निरंकुश

विनोद उपाध्याय
आज देश में भाजपा का जो विस्तार देखने को मिल रहा है वह कार्यकर्ताओं के संगठित संकल्प और समर्पण का नतीजा है। देश ही नहीं विश्वभर में जितनी राजनीतिक पार्टियां हैं उनमें सबसे संगठित और समर्पित कार्यकर्ता भाजपा के हैं। यानी भाजपा संगठन की रीढ़ कार्यकर्ता हैं। पार्टी को इस मुकाम तक पहुंचाने के बाद भी कार्यकर्ताओं में दंभ या अहम नहीं हैं। जब भी संगठन या सरकार को बड़ा आयोजन होता है कार्यकर्ता दरी बिछाने से लेकर व्यवस्था संभालने तक की जिम्मेदारी संभाल लेते हैं। लेकिन पार्टी की सत्ता होने के बाद भी कार्यकर्ताओं की उपेक्षा, अपमान और उनके साथ बुरा बर्ताव देखकर मन द्रवित हो जाता है। उस पर आलम यह है की हर बैठक, हर मंच, हर सभा में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, भाजपा संगठन या सरकार के प्रतिनिधि कार्यकर्ताओं पर अंकुश लगाते नजर आ रहे हैं। वहीं दूसरी तरफ ब्यूरोक्रेसी बेखौफ और निरंकुश है। ब्यूरोक्रेसी की निरंकुशता का आलम यह है कि कार्यकर्ता ही नहीं सांसद, मंत्री और विधायक तक की नहीं सुनी जा रही है। उस पर जब भी ब्यूरोक्रेसी द्वारा पदाधिकारियों और कार्यकर्ताओं की उपेक्षा का मुद्दा उठाया जाता है तो साफ कह दिया, आप अपना काम ईमानदारी से करें। यही नहीं कई बार तो जमकर घुंटी पिला दी जाती है कि जनता के बीच तोल-मोल कर ही बोलें। सत्ता और संगठन से जो भी शिकायत है, वह उचित समय पर ही पार्टी प्लेटफार्म पर रखे। जनता के बीच पूरा संयम बरतें और अफसरों से भी ठीक से बात करें। सवाल उठता है कि कार्यकर्ताओं पर इतने सारे 'अंकुशÓ लगा दिए हैं तो ब्यूरोक्रेसी को इतना बेखौफ और निरंकुश क्यों होने दिया जा रहा है। कार्यकर्ताओं पर तो संघ, भाजपा संगठन और सरकार ने भी तरह-तरह के अंकुश लगा रखा है पर ब्यूरोक्रेसी को आखिर कौन कसेगा? दरअसल, प्रदेश में सरकार ने योजनाओं की भरमार लगा दी है। लेकिन या तो उनका क्रियान्वयन नहीं हो पा रहा है या फिर ठीक से हुआ नहीं है। ऐसे में जनता के बीच सक्रिय रहने वाले कार्यकर्ताओं की फजीहत हो रही है। जब कार्यकर्ता जनता की शिकायत को लेकर पहुंचते हैं तो प्रदेश की नौकरशाही उनको मुंह नहीं लगा रही है और न ही उनके काम कर रही है। समस्याओं का अंबार लगा हुआ है। प्रदेश में ब्यूरोक्रेसी की हिटलरशाही को लेकर काफी आक्रोश है। ब्यूरोक्रेसी की हिटलर शाही को सरकार व संगठन के मुखिया भी स्वीकार चुके है। ऐसे में सवाल उठता है कि या तो सरकार ने ब्यूरोक्रेसी को खुला क्यों छोड़ रखा है। जिस तरह पदाधिकारियों और कार्यकर्ताओं के लिए सुचिता के मापदंड हैं उसी तरह ब्यूरोक्रेसी के लिए भी मापदंड होने चाहिए। एक तरफ प्रदेश में सुशासन के लिए मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान समर्पित भाव से काम कर रहे हैं, वहीं दूसरी तरफ ब्यूरोक्रेसी उनकी मेहनत पर पानी फेर रही है। स्थिति इतनी विकट हो गई है की कार्यकर्ता ही नहींं अब तो जनप्रतिनिधि भी ब्यूरोक्रेसी की उपेक्षा से परेशान हैं। सवाल उठता है कि जनप्रतिनिधियों का दायित्व जनता की रक्षा करना होता है और अगर ब्यूरोक्रेसी ही जनप्रतिनिधियों को नजर अंदाज करेेगी तो पार्टी के कार्यकर्ताओं का मनोबल तो तार-तार होगा ही? बेलगाम ब्यूरोक्रेसी कभी सरकार, कभी सरकारी योजना के खिलाफ मुंह खोलने से बाज नहीं आ रही है। यही नहीं संघ और पार्टी के कार्यकर्ताओं के साथ मारपीट करने में भी हिचक नहीं दिख रही है। ब्यूरोक्रेसी के बेखौफ और निरंकुश रूप को देखकर जनता भी भयग्रस्त है।
'कार्यकर्ताÓ अशक्त, कारिंदे सशक्त
प्रदेश में सुशासन के लिए समर्पित भाजपा कार्यकर्ता संघ और पार्टी गाइड लाइन के अनुसार कार्य कर रहे हैं। ऐसे में कभी-कभार जनता का काम लेकर उन्हें कारिंदों के पास जाना पड़ता है। लेकिन कारिंदे इतने सशक्त हो गए हैं की उनके आगे एक कार्यकर्ता अपने आप को अशक्त महसूस करता है। कारिंदों से सताए गए कार्यकर्ता जब गुहार लेकर मंत्रियों के पास पहुंचते हैं तो उन्हें शक ही निगाह से देखा जाता है। ऐसे में कार्यकर्ताओं का मनोबल गिरता है। ऐसी स्थिति में कार्यकर्ता यह सोचता है कि क्या वह केवल दरी बिछाने के लिए ही है? क्या इस सरकार में उसकी औकात रति भर भी नहीं है? क्या उसने इसीलिए अपना जीवन पार्टी के लिए समर्पित कर दिया है की वह अपनी ही सरकार में कारिंदों से उपेक्षित होता रहे? क्या किसी व्यक्ति या समाज का कोई कार्य कराना गुनाह है? कारिदों से मिली उपेक्षा के बाद ऐसे न जाने कितने सवाल एक कार्यकर्ता के मन में उबाल मारते रहते हैं। उनकी यह पीड़ा सही भी है। पुलिस थानों में उसकी सुनवाई नहीं होती। पुलिस वाले जमीन खाली करवाने, कब्जे दिलवाने जैसे काम कर रहे है। ठगी, लूटपाट, हत्या, वाहन चोरी, महिलाओं के साथ अत्याचार के मामले बढ़ रहे है। मलाईदार पदों और कमाई वाले थानों में नियुक्तियों का भ्रष्टाचार किसी से छिपा नहीं है। आरटीओ से बिना वाहन निरीक्षण के फिटनेस प्रमाण-पत्र और बिना टायल के लाइसेंस मिलना कोई बड़ी बात नहीं है। दलालों का बोलबाला है। हर विभाग में काम दलालों के माध्यम से ही होता है। सड़क, बिजली, पानी कारिंदों की मेहरबानी के आश्रित हो गए हैं। हाउसिंग बोर्ड, उद्योग, जेडीए, नगर निगम, लोक निर्माण, कृषि, स्वास्थ्य, परिवहन जैसे विभागों में भ्रष्टाचार जमकर होता है। इन विभागों में महत्वपूर्ण पदों की तरह पुलिस और वन विभाग में भी मलाईदार पदों पर नियुक्ति के लिए अफसर और कर्मचारी लगे रहते है। कई अफसर एवं कर्मचारी तो ऐसे है जो लंबे अरसे से एक ही पद पर जमे हुए है। यहां तक कि पदोन्नति के लाभ भी वे कमाई के चलते छोड़ देते है। जनता में ऐसा संदेश है कि इन विभागों में बिना दिए काम नहीं होता है। और हकीकत भी है। फाइलों के ढेर लगे है। बड़ी-बड़ी घोषणाएं तो हो चुकी है लेकिन, काम कहीं नजर नहीं आता। इसका प्रभाव मैदानी कार्यकर्ताओं पर पड़ता है। जनता उनसे सवाल पूछती है, लेकिन उनके पास जवाब नहीं होता। जब कभी वे जवाब के लिए कारिंदों या मंत्री से मुलाकात करते हैं, अपनी बात रखते हैं तो उन्हें उदंड मान लिया जाता है। ऐसे आखिर एक कार्यकर्ता पर क्या गुजरती होगी यह तो खुद सरकार को भी मालुम होगा। दरअसल, प्रदेश में कारिंदें इतने सशक्त हो गए हैं कि उनके आगे कार्यकर्ता अपने आप को अशक्त महसूस कर रहे हैं। आलम यह है की प्रदेश में कारिंदें इतने सशक्त हो गए है की वे कार्यकर्ताओं को ही नहीं जनप्रतिनिधियों को भी तबज्जो देना कम कर दिया है। नतीजा दोनों के बीच खाई बढ़ रही है और लगातार एक के बाद एक इस तरह के मामले आ रहे है। ब्यूरोक्रेट्स में अब ये सोच भी डवलप हो रही है कि जनप्रतिनिधि तो पांच साल के लिए चुनकर आते है। अगली बार का क्या पता जीतेंगे भी नहीं? चुनावों में जनता कई दिग्गज नेताओं को सबक सिखा देती है। जबकि किसी मामले या विवाद के कारण हटाए गए अफसर को ज्यादा दिन तक निलंबित भी नहीं रखा जा सकता। तबादलों का डर खत्म हो गया है। नौकरी तो करनी है यहां करें या वहां करें की भावना पनप रही है। एसीआर में प्रतिकूल टिप्पणी और प्रमोशन रोकने जैसी कड़ी कार्रवाई अब अपेक्षाकृत कम होती है। इससे ब्यूरोक्रेसी बेखौफ हो गई है। अगर ब्यूरोक्रेसी का यही आलम रहा तो कार्यकर्ताओं का मनोबल दिन पर दिन गिरता रहेगा और यह पार्टी के लिए अच्छा नहीं होगा।
चयन में राजनीति
सरकार बदलती है, अफसर बदलते है। प्राय: जिस पार्टी की सरकार बनती है, उसके मुखिया अपनी पार्टी की विचारधारा से मेल खाने वाले अफसरों को महत्वपूर्ण पदों पर लगाते है। सत्ता बदलने के साथ ही कई अफसर दिल्ली प्रतिनियुक्ति पर चले जाते है और दिल्ली में बैठे अफसर मप्र आ जाते है। लंबे समय से कम महत्वपूर्ण पदों पर बैठें अफसरों की सरकार में पूछ बढ़ जाती है। कहा तो जाता है कि सरकारें बदले की भावना से तबादले नहीं करती लेकिन, ये सत्य है कि सरकार बदलने के साथ ही तबादलों की राजनीति शुरू हो जाती है। यहां तक वरिष्ठता को ताक में रखकर सरकार राज्य के प्रशासनिक मुखिया को बदल देती है। अफसरों के छांट-छांटकर तबादले होते है। जिन अफसरों को पूर्ववर्ती सरकार योग्य बता रही होती है वह नाकाबिल घोषित कर दिए जाते है और जिन अफसरों को पिछली सरकार ने नाकाबिल बनाया था वे खासमखास हो जाते है। उनका वनवास खत्म हो जाता है और मलाईदार एवं महत्वपूर्ण पदों के लिए जोड़तोड़ लगाते नजर आ जाएंगे। इस राजनीति ने भी अफसरों का नजरिया बदला है।

शनिवार, 2 जुलाई 2016

सूखे से देश को 6,50,000 करोड़ का नुकसान

देश के 10 राज्यों में पड़े सूखे की वजह से अर्थव्यवस्था को करीब 6,50,000 करोड़ रुपये का नुकसान होने का अनुमान है। एसोचैम की तरफ से जारी रिपोर्ट में यह दावा किया गया है। रिपोर्ट के मुताबिक देश के 256 जिलों में करीब 33 करोड़ की आबादी सूखे की चपेट में है। लगातार खराब मॉनसून, जलाशयों में कम होते पानी और भूजल के गिरते स्तर की वजह से सूखा प्रभावित इलाकों में जीवन यापन को लेकर गंभीर समस्या पैदा हो गई है। बुंदेलखंड में जल संकट की समस्या गंभीर हो गई है। बुंदेलखंड में उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के 13 जिले सर्वाधिक सूखा प्रभावित क्षेत्र में आते हैं। बुंदेलखंड की भयावह स्थिति का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि यहां पिछले कई सालों से सूखा पड़ा हुआ है। किसानों के बीच काम करने वाली संस्था स्वराज अभियान के मुताबिक केंद्र और राज्य सरकारें इन इलाकों में स्थिति सुधार के लिए कोई काम नहीं कर रही है। सुप्रीम कोर्ट में हाल में ही केंद्र द्वारा दाखिल हलफनामे के अनुसार 10 राज्यों ने खुद को सूखाग्रस्त घोषित किया है जिनमें 2.50 लाख गांव आते हैं। भारत में करीब 6 लाख गांव हैं यानी 40 फीसदी गांव सूखे की मार झेल रहे हैं। कर्नाटक, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, ओडिशा और झारखंड के 90 फीसदी जिले सूखा प्रभावित हैं। इसके अलावा भारत के सबसे बड़े प्रदेश राजस्थान के 57 फीसदी, आंध्र प्रदेश के 76 फीसदी और सबसे ज्यादा आबादी वाले राज्य उत्तर प्रदेश के 75 फीसदी जिले सूखाग्रस्त हैं। सूखे के कारण मध्य प्रदेश के 51 में से 46 जिले प्रभावित हुए है। इन जिलों के करीब 42,829 गांवों 4,00,00,000 आबादी प्रभावित हुई है। वहीं उत्तर प्रदेश 50 जिलों के 72,014 प्रभावित हुए हैं। जहां की 9,88,54,225 आबादी सूखे से हालाकान है। महाराष्ट्र के 21 जिले सूखे से प्रभावित हैं और 15,747 गांवों में इसका सबसे अधिक असर देखा जा रहा है। यहां की 3,68,77,505 आबादी पर सूखा का असर पड़ा है। इसी तरह झारखण्ड के सूखा प्रभावित 22 जिलों के 29,639 गांवों की 3,17,28,726 जनसंख्या सूखे से बेहाल है। कर्नाटक के 27 जिले सूखे की चपेट में हैं और यहां के 22,759 गांवों के 3,11,91,173 लोग प्रभावित हैं। आंध्र प्रदेश के 10 जिलों के 6,974 गांवों की 2,35,37,861 आबादी सूखे की चपेट में है। वहीं छत्तीसगढ़ के 25 जिलों के 16878 गांवों पर सूखे का असर है और 1,99,45,901 लोग प्रभावित हैं। राजस्थान के 9 जिले सूखे से प्रभावित हैं और 14487 गांवों की 1,94,69,000 जनसंख्या सूखे की चपेट में है। वहीं तेलंगाना के 7 जिलों के 5519 गांव के 1,78,33,289 लोग प्रभावित हैं। जबकि ओडिशा के 27 जिलों के 29077 गांवों की 1,67,51,862 आबादी इससे प्रभावित है। यानी देश का एक बड़ा भाग सूखे से जुझ रहा है। 40 फीसदी एक हैंडपंप पर निर्भर संगठन के सर्वेक्षण में यह बात सामने आई थी कि मध्य प्रदेश के करीब 40 फीसदी गांव एक या दो हैंडपंप पर निर्भर हैं। वहीं उत्तर प्रदेश में ऐसे गांवों की आबादी करीब 14 फीसदी है। सर्वेक्षण में यह बात सामने आई थी इन इलाकों में भुखमरी का खतरा मंडरा रहा है। रिपोर्ट बताती है कि सूखे की वजह से कृषि कर्ज में बढ़ोतरी होगी और बच्चों एवं महिलाओं पर भी उल्टा असर पड़ेगा। इसके साथ ही आने वाले दिनों में महंगाई में भी बढ़ोतरी होने की उम्मीद है। सूखेे की वजह से आने वाले दिनों में पानी की समस्या और अधिक गहराने का अनुमान है और इससे अर्थव्यवस्था को भारी नुकसान उठाना पड़ सकता है। भारत की करीब एक चौथाई आबादी पानी की कमी का सामना कर रही है। विश्व बैंक के नए अध्ययन के मुताबिक पानी की कमी और जलवायु परिवर्तन के कारण भारत की जीडीपी को 2050 तक 6 फीसदी का नुकसान उठाना पड़ सकता है। विश्व बैंक के अध्ययन के मुताबिक 2050 तक भारत की जीडीपी को 6 फीसदी का नुकसान हो सकता है।

कौन पहनेगा कांटों का ताज...?

नाथ बेकरार, सिंधिया पर दोहरा भार, बाकी बेकार
भोपाल। मप्र में कांग्रेस पिछले 12 साल से 'बाउंसबैकÓ की आस लगाए हुए है। लेकिन सशक्त नेतृत्व के अभाव में कांग्रेस इस वक्त पस्त और हताश है। उसे उत्साहित करने वाले चेहरे और मौके की दरकार है, क्योंकि उसके आंतरिक लोकतंत्र की दशा अच्छी नहीं है। ऐसे में कांग्रेस को एक ऐसे तारणहार की तलाश है जो पार्टी को इस भंवर से निकाल सके। लेकिन भाजपा के पोस्टर ब्वाय मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को चुनौती देने के लिए कांटों का ताज कौन पहनेगा या यूं कहें की किसको पहनाया जाएगा इसको लेकर कांग्रेस आलाकमान भी असमंजश में है। कांग्रेस आलाकमान को पार्टी पदाधिकारियों की एक रिपोर्ट ने और असमंजश में डाल दिया है। दरअसल, पार्टी के पदाधिकारियों के मंतव्य की एक रिपोर्ट आलाकमान को सौंपी गई है जिसमें सांसद ज्योतिरादित्य सिंधिया और कमलनाथ में से किसी एक को मप्र कांग्रेस का प्रदेश अध्यक्ष बनाने को कहा गया है। रिपोर्ट में सबसे अधिक मत सिंधिया के पक्ष में है। कहा गया है कि मप्र में 15 साल के वनवास के बाद 2018 में होने वाले विधानसभा चुनाव में अगर कोई कांग्रेस को अब 'बाउंसबैकÓ करा सकता है तो वह चेहरा है ज्योतिरादित्य सिंधिया का। लेकिन भावी राजनीतिक हालात को देखते हुए ज्योतिरादित्य पर दोहरा भार है। यानी आगामी दिनों में कांग्रेस पार्टी की जिम्मेवारी अब पूरी तरह राहुल गांधी के कंधों पर आनेवाली है और वर्तमान परिदृश्य में देखा गया है कि राहुल गांधी ज्योतिरादित्य सिंधिया के बिना अधूरे लगते हैं। ऐसे में आलाकमान सिंधिया को एक क्षेत्र में बांधकर नहीं रखना चाहता है।
कमलनाथ की जोरदार लॉबिंग कमलनाथ कांटो भरा ताज पहनने के लिए बेकरार हैं। पदाधिकारियों की रिपोर्ट में उन्हें ज्योतिरादित्य सिंधिया के बाद प्रदेश अध्यक्ष के लिए दूसरे नंबर पर रखा गया है। यही नहीं इंदिरा गांधी के तीसरे बेटे के रूप में चर्चित कमलनाथ को प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष बनाए जाने की मांग अब सतह से ऊपर आने लगी है। साथ ही प्रदेश की राजनीति में इसके मायने भी निकाले जाने लगे है। क्या दिल्ली दरबार में कमलनाथ का कद छोटा हो गया? क्या इस सोची-समझी रणनीति के पीछे दिग्विजय सिंह की कोई भूमिका हैं? या फिर मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को टक्कर देने के लिए पिछड़े वर्ग के किसी नेता को पार्टी की कमान सौंपना कांगेस की मजबूरी है? अब बड़ा सवाल यह उभरकर सामने आ रहा है कि जब मध्यप्रदेश में कांग्रेस की स्थिति बेहद लचर है। दिग्विजय सिंह के मध्यप्रदेश से जाने के बाद कांग्रेस अपने पैरों पर खड़ी नहीं हो पाई। सुरेश पचौरी कांग्रेस में प्राण नहीं फंूक सके। कांतिलाल भूरिया, अरुण यादव भी कांग्रेस की उम्मीदों पर खरे नहीं उतर पाए। ऐसे में कमलनाथ कांग्रेस को 'बाउंसबैकÓ करा पाएंगे? किसी भी कांग्रेसी से यह सवाल पूछने पर उसका जवाब है, आगे-आगे देखिए होता है क्या? वहीं प्रदेश प्रभारी मोहन प्रकाश कहते हैं कि नेता कोई भी बने 2018 में कांग्रेस सत्ता में जरूर आएगी। अगर कमलनाथ के संदर्भ में देखें तो भले ही पदाधिकारियों की रिपोर्ट में ज्योतिरादित्य प्रदेश अध्यक्ष की पहली पसंद हैं लेकिन कमलनाथ इस दावेदारी में सबसे आगे खड़े हैं। कमलनाथ समर्थकों ने उन्हें अध्यक्ष बनाने के लिए महिनों पूर्व से लॉबिंग शुरू कर दी थी। यही नहीं अब तो उनके समर्थकों का उत्साह भी बता रहा है कि उनके नेता के पक्ष में कुछ 'अच्छाÓ होने वाला है। कुछ महीने पहले प्रभारी नेता प्रतिपक्ष बाला बच्चन ने ये कहकर सनसनी मचा दी थी कि यदि कमलनाथ को प्रदेश कांग्रेस की कमान सौंपी जाती है तो पार्टी की हालत सुधरेगी। कमलनाथ पार्टी में नई जान फूंक देंगे। कुछ विधायकों ने भी बच्चन की बात का समर्थन किया था। विधायक निशंक जैन ने तो कदम आगे बढ़कर कहा कि कमलनाथ को न सिर्फ प्रदेश अध्यक्ष बनाया जाना चाहिए, बल्कि अगले चुनाव के लिए कांग्रेस की ओर से उन्हें सीएम प्रोजेक्ट किया जाना चाहिए। लेकिन सवाल उठता है कि क्या कमलनाथ के आने भर से कांग्रेस शिवराज सिंह चौहान के तिलिस्म को तोड़ पाएगी? फिलहाल जवाब 'नाÓ है। इसके दो कारण है पहला यह कि कमलनाथ का प्रभाव क्षेत्र केवल महाकौशल तक सीमित है। उन्होंने कभी भी पूरे मप्र को अपनी राजनीति का क्षेत्र बनाने की कोशिश नहीं की। और दूसरा कांग्रेस का नकारात्मक पहलू यह है कि राज्य में कांग्रेस की पहचान ही गुट में बंटी पार्टी के तौर पर है। यहां कांग्रेस दिग्विजय सिंह, कमलनाथ, ज्योतिरादित्य सिंधिया, सुरेश पचौरी, कांतिलाल भूरिया, सत्यव्रत चुतर्वेदी और अब अरूण यादव के गुटों में बंटी हुई है। जिस पार्टी में इतने गुट हो उसमें एक सर्वमान्य नेता होना असंभव है। मैहर उपचुनाव में पार्टी की हार के बाद मिले संकेतों के आधार पर ही मान लिए गया था कि कमलनाथ ने प्रदेश में पार्टी की बड़ी कुर्सी के लिए अपनी कोशिशें तेज कर दी है। दिल्ली की राजनीति में फिलहाल उनके पास कोई बड़ी भूमिका नहीं है। करीब ढाई साल बाद प्रदेश में विधानसभा चुनाव होना है! प्रदेश में अपनी भूमिका निर्धारित करने के प्रयासों के तहत ही वे इस तैयारी में लग गए है। वैसे इसकी तैयारी काफी पहले कर ली गई थी। लेकिन, सही समय का इंतजार किया जा रहा था, जो शायद अब आ चुका है। उद्योगपति वर्सेस आम आदमी कमलनाथ राजनेता होने के साथ-साथ एक उद्योगपति भी हैं। खुद को इंदिरा गांधी का तीसरा पुत्र मानने वाले कमलनाथ की संजय गांधी के साथ जबर्दस्त जुगलबंदी थी। एक वक्त में पूरी कांग्रेस इंदिरा गांधी के बाद संजय गांधी और कमलनाथ के आसपास ही घूमती थी। कमलनाथ ने कांग्रेस में अपना स्थान पहले की तरह सुरक्षित भी रखा है। इंदिरा से लेकर सोनिया-राहुल की कांग्रेस में भी उनके बर्चस्व को कोई चुनौती नहीं दे पाया। कमलनाथ के पास लंबी राजनीतिक पूंजी है, वे 7,8,9,10, 11, 12, 13, 14, 15, 16 वीं लोकसभा के सदस्य रहे हैं। छिंदवाड़ा सीट पर इसके बीच केवल एक बार सुंदरलाल पटवा ही उन्हें चुनौती दे पाए हैं। कमलनाथ रूपी इस पूरी फिल्म का दूसरा पहलू यह भी है कि इस कद्दावर राजनेता का क्षेत्र अब भी छिंदवाड़ा के इर्द-गिर्द तक ही सीमित है। वह भी लोकसभा चुनाव तक ही इनका प्रभाव चलता है। छिंदवाड़ा से सांसद होने का अवसर इन्हें मिलता है तो विधानसभा में वहां के मतदाता कांग्रेस को नकारने में सबसे आगे रहते हैं। क्या कांग्रेस हाईकमान ने विधानसभा चुनाव की समीक्षा करते वक्त इस गंभीर मुद्दे पर कभी कमलनाथ से कोई जवाब मांगा, ऐेसा कभी सुनने में नहीं आया? ऐेसी स्थिति में क्या कमलनाथ को प्रदेश अध्यक्ष की कमान सौंपी जानी चाहिए या फिर क्या उन्हें सीएम का चेहरा प्रोजेक्ट करने पर प्रदेश के मतदाताओं का झुकाव उनकी तरफ होगा? वह भी तब जब भाजपा ने पांव-पांव वाले भैया, किसानों के हितैषी और एक आम आदमी का चेहरा शिवराज सिंह चौहान के हाथ में प्रदेश की बागडोर थमा रखी है और 2008 और 2013 के चुनाव में शिव ने अपने आप को सिद्ध करने के लिए सारी परीक्षाओं में अव्वल नंबर हासिल किए हैं। ऐसे में अगला चुनाव उद्योगपति वर्सेस आम आदमी के नारों के साथ ही लड़ा जाएगा और कांग्रेस के नेता खुद नाक-मुंह सिकोड़कर कमलनाथ के प्रति मतदाताओं में नफरत पैदा करने का काम करने में शामिल रहेंगे। ऐसे में क्या कमलनाथ छिंदवाड़ा और महाकौशल के अलावा विंध्य, बुंदेलखंड, मध्यभारत, ग्वालियर-चंबल और मालवा-निमाड़ में भी मतदाताओं पर अपना जादू बिखेरने में सफल हो पाएंगे? क्या कांग्रेस के संगठन को वे इस दिशा में आगे बढ़ाने की काबलियत रखते हैं? क्या दिग्विजय सिंह, सुरेश पचौरी, ज्योतिरादित्य सिंधिया, अरुण यादव, सत्यव्रत चतुर्वेदी, अजय सिंह जैसे नेता कांग्रेस की खातिर कमलनाथ के नाम पर समर्पित होकर काम करने को तैयार हो पाएंगे? इन सभी सवालों का जवाब कमलनाथ को अपने आप से भी पूछना पड़ेगा कि वे किस तरह से मध्यप्रदेश में कांग्रेस की पुनर्वापसी में अपने बैनर तले मददगार साबित होकर दिखा सकते हैं? यदि उनका मिशन-2018 का प्रोजेक्ट गुटबाजियों में बंटे नेताओं को एकजुट कर सकता है, भाजपा के मोह से मतदाताओं को उबार सकता है और कांग्रेस को प्रदेश में सुशासन लाने का एक अवसर दिला सकता है तो कमलनाथ को कमल के मुकाबले मैदान मारने की बागडोर थमाई जा सकती है। ज्योतिरादित्य से 'बाउंसबैकÓ की उम्मीद जानकारों का कहना है कि मप्र में कांग्रेस को अगर कोई 'बाउंसबैकÓ करा सकता है तो वह ज्योतिरादित्य हैं। अतीत में कांग्रेस का वास्तविक 'बाउंसबैकÓ केवल इंदिरा गांधी के जमाने में हुआ था। माना जा रहा है ही इंदिरा गांधी की तरह ज्योतिरादित्य करिश्माई नेता नहीं हैं और न उनके पास शिवराज जैसा जादुई तिलिस्म है। फिर भी ज्योतिरादित्य ने पिछले कुछ सालों में लोकनेता की छवि बनाई है और सबको लग रहा है कि अगर शिवराज के किले को कोई भेद सकता है तो वह सिंधिया ही है। ऐसे में सबकी नजर ज्योतिरादित्य सिंधिया पर टिकी है। ज्योतिरादित्य सिंधिया के सामने अब कांग्रेस को कुछ लौटाने का अवसर पैदा है। मध्यप्रदेश में कांग्रेस कार्यकर्ताओं पर ज्योतिरादित्य का एक अलग प्रभाव है। प्रदेश के अन्य कांग्रेस नेताओं के मुकाबले ज्योतिरादित्य ऊर्जा और क्षमताओं के ज्योतिपुंज है और वे ही मध्यप्रदेश में कांग्रेस के तारण हार बन सकते है, लेकिन विसंगति यह है कि बेदाग ज्योतिरादित्य को अपने पिता माधवराव सिंधिया की ही तरह प्रदेश की राजनीति में ज्यादा रुचि नहीं है। लेकिन आज जब मध्यप्रदेश कांग्रेस में एनर्जी की जरुरत है तो मध्यप्रदेश कांग्रेस सिंधिया की ओर उम्मीद की नजरों से ताक रही है। दिग्विजय सिंह भी ज्योतिरादित्य को मध्यप्रदेश का अगुवा बनाने के लिए तैयार है। कमलनाथ भी सिंधिया को पसंद करते हैं। कांतिलाल भूरिया और अरुण यादव के पास ज्योतिरादित्य जैसा आभा मंडल नहीं है। इस स्थिति में यदि ज्योतिरादित्य मध्यप्रदेश कांग्रेस की बागडोर सम्हाल लेते हैं तो मध्यप्रदेश में अगला दशक कांग्रेस और ज्योतिरादित्य सिंधिया का हो सकता है। वैसे ज्योतिरादित्य सिंधिया को मुख्यमंत्री के बतौर प्रोजेक्ट करने का उनके समर्थकों का अभियान 2013 विधानसभा चुनाव से पहले भी खूब चला लेकिन कांग्रेस हाईकमान ने इन बातों पर गौर नहीं किया था। विधानसभा चुनाव में करारी हार के बाद शायद अरुण यादव के बतौर कांग्रेस की वह तलाश पूरी हुई थी, जिसमें गुटबाजी निम्नतम स्तर पर रखने की गुंजाइश नजर आ रही थी। ज्योतिरादित्य सिंधिया को प्रदेश में विधानसभा चुनाव की अहम जिम्मेदारी सौंपी गई थी लेकिन 2013 विधानसभा चुनाव का हश्र सबके सामने है। अब एक बार फिर ज्योतिरादित्य को प्रदेश की कमान और सीएम प्रोजेक्ट कर 2018 चुनाव में पार्टी का चेहरा बनाने की कवायद चलाई जा रही है। प्रदेश अध्यक्ष मान्य लेकिन सीएम पर घमासान प्रदेश अध्यक्ष तक की बात तो कांग्रेस नेता फिर भी समझ सकते हैं लेकिन जब सीएम पद के लिए प्रोजेक्ट करने की बात आती है तो कांग्रेस में गुटबाजी में उलझे नेताओं के पैरों के नीचे की जमीन ही खिसक जाती है। सीएम को लेकर हाल ही में हुए वाकए को नहीं भुलाया जा सकता, जब पृथ्वीपुर के पूर्व विधायक बृजेंद्र सिंह राठौर के आमंत्रण पर पहुंचे भाजपा विधायक हरवंश सिंह राठौर ने दिग्विजय सिंह के पुत्र जयवर्धन सिंह को भावी सीएम बता डाला था। उस वाकए ने भाजपा में ज्यादा तूल नहीं पकड़ा, फिर भी कांग्रेस में अब सीएम का एक और चेहरा दिखाई देने लगा। भले ही जयवर्धन सिंह पहली बार के विधायक हों लेकिन उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव को भी मुख्यमंत्री पद की विरासत हासिल हो ही गई। अब कांग्रेस के गुटों में बंटे दिग्गज कांग्रेस के लिए कितने भी समर्पित हो जाएं लेकिन बात जब मुख्यमंत्री पद की आती है तो दूर तलक चली जाती है। स्वर्गीय माधवराव सिंधिया भी अपने जीवनकाल में कभी मुख्यमंत्री नहीं बन पाए। अब उनके पुत्र ज्योतिरादित्य सिंधिया की इस अभिलाषा को पूरा होने देने में कांग्रेस के दिग्गज किस तरह अपनी महत्वाकांक्षाओं की आहूति देने के लिए तैयार हो सकेंगे, यह सोचने वाली बात है। अरूण यादव पर भरोसा क्यों नहीं? मौजूदा वक्त में मौजूं सवाल यह है कि क्या कांग्रेस अरुण यादव पर भरोसा नहीं कर पा रही है? क्या अरुण यादव के चेहरे को सामने रखकर सारे दिग्गज नेता मिलकर सौ प्रतिशत से ज्यादा देने के लिए कतई तैयार नहीं हैं? क्या गुटबाजी कांग्रेस पर हमेशा राज करेगी और पार्टी का राज मध्यप्रदेश में अब कभी नहीं आ पाएगा? क्या सभी नेता मिलकर मिशन-2018 को लेकर गुटनिरपेक्ष राजनीति का एक उदाहरण पेश करने का मन नहीं बना पा रहे हैं? कांग्रेस में मिशन-2018 से पहले प्रदेश अध्यक्ष की कुर्सी को लेकर चल रही जोर-आजमाइश अपने आप में कई सवाल खड़े कर रही है। अभी तक क्या कमाल दिखा पाए दिग्गज - अरुण यादव को कांग्रेस ने 2014 लोकसभा चुनाव से पहले कांग्रेस की कमान सौंपी है। विधानसभा चुनाव के बाद इतने कम समय में कोई करिश्मा होने की उम्मीद कांग्रेस को भी नहीं थी। साथ ही मोदी लहर ने पूरे देश में कांग्रेस को अर्श से फर्श पर ला दिया तो मध्यप्रदेश में उसमें कोई अपवाद नहीं था। इस चुनाव में मध्यप्रदेश में दो दिग्गज कमलनाथ और ज्योतिरादित्य सिंधिया ही अपनी सीट बचा पाए। वहीं अरुण यादव को हार का सामना करना पड़ा। कांग्रेस ने लोकसभा चुनावों के बाद अरुण पर विश्वास जताकर उन्हें फ्री-हैंड दे दिया। इसके बाद कमलनाथ-ज्योतिरादित्य सिंधिया के नामों को लेकर एक बार फिर जोर-आजमाइश का दौर शुरू क्यों हो गया है? सवाल यह है कि कमलनाथ-ज्योतिरादित्य सिंधिया कांग्रेस के लिए 2003 से 2016 के बीच हुए छह बड़े चुनावों 2003 विधानसभा, 2004 लोकसभा, 2008 विधानसभा, 2009 लोकसभा, 2013 विधानसभा और 2014 लोकसभा के चुनावों में क्या कांग्रेस के लिए क्या उपलब्धियां हासिल कर पाए? कमलनाथ का प्रभाव क्षेत्र महाकौशल है और सिंधिया का प्रभाव क्षेत्र ग्वालियर-चंबल। इनमें इन नेताओं का परफोर्मेंस क्या रहा जबकि कांग्रेस ने टिकट वितरण में इन नेताओं को पूरी तवज्जो दी और यह कहा जाए कि टिकट वितरण इनके कहने पर ही किया गया। परिणाम यह रहा कि 2014 के लोकसभा चुनाव में ये नेता खुद भी बड़ी मुश्किल से अपनी सीट बचा पाए। इतनी हारों के बाद भी कांग्रेस के दिग्गज नेता कमलनाथ, दिग्विजय सिंह, ज्योतिरादित्य सिंधिया, सुरेश पचौरी, सत्यव्रत चतुर्वेदी, कांतिलाल भूरिया, अजय सिंह या फिर अब अरुण यादव के कंधों पर यह भार नहीं है कि सारे नेता साथ बैठकर मध्यप्रदेश में कांग्रेस की दुर्दशा पर विचार करें। साथ ही जनता के बीच तैर रहे गुटबाजी में बंटी कांग्रेस के मिथक को मिटाकर मजबूत कांग्रेस का भरोसा दिलाएं। क्या सभी नेताओं ने बैठकर प्रदेश में पार्टी की दुर्दशा पर विचार किया है? क्या इन नेताओं ने कांग्रेस संगठन की कमजोर स्थिति पर चिंतन-मनन कर इसे मजबूत बनाने की दिशा में साथ मिलकर कदम उठाने पर विचार किया है? क्या इन्होंने जानने की कोशिश की है कि कांग्रेस की ब्लाक, जिला इकाईयां गुटबाजी में बंटी कांग्रेस का संदेश क्यों दे रही हैं और मैदानी स्तर पर वे सत्तारूढ़ भाजपा संगठन के सामने कहां खड़ी हैं? बिना दिग्विजय नहीं गलेगी दाल एक संभावना दिग्विजय सिंह को लेकर भी है, लेकिन शायद वे स्वयं अब खुलकर प्रदेश की राजनीति करने के मूड में नहीं है। पार्टी आलाकमान भी मध्य प्रदेश में अब किसी प्रयोग से बचना चाहता है। जहां तक इस संभावित बदलाव में परदे के पीछे दिग्विजय सिंह की मौजूदगी भांपने वालों का अनुमान है कि दिग्गी राजा की मदद के बिना कमलनाथ या सिंधिया प्रदेश में कोई चमत्कार नहीं कर सकते। आज भले ही दिग्गी राजा खुद चुनाव जिताने की स्थिति में नहीं हों, पर कार्यकर्ताओं की सबसे बड़ी फौज उनके ही पास है। सिंधिया समर्थकों के मुताबिक कमलनाथ को सीएम प्रोजेक्ट करके वे एक बड़ा दांव खेलने के मूड में हैं। इस तरह दिग्गी राजा 2023 में अपने बेटे जयवर्धन सिंह के लिए राह आसान कर रहे हैं। क्योंकि, उम्र के इस पड़ाव में कमलनाथ लम्बी रेस का घोड़ा नहीं हैं! यदि यही दांव पार्टी ज्योतिरादित्य सिंधिया लगाती है, तो दिग्गी राजा के अपने बेटे के लिए देखे सपने पूरे नहीं होंगे। कांग्रेस की स्थिति शुतुरमुर्ग की तरह हार-जीत तो राजनीति का एक हिस्सा है, लेकिन अभी कांग्रेस की स्थिति शुतुरमुर्ग की तरह हो गई है। जैसे वह खतरा देखते ही मिट्टी में अपना सिर छिपा लेता है वैसे ही कांग्रेस खतरे को देखकर झोल-मोल वाली स्थिति में आ जाती है। इसमें सबसे बड़ी समस्या नेतृत्व को लेकर है। इसे सुलझाने का प्रयास कभी नहीं किया गया। कांग्रेस ने 2003 की हार को गंभीरता से नहीं लिया। हार को लेकर कोई अंतर्मंथन नहीं किया गया। फिलहाल पार्टी की सबसे बड़ी चुनौती है- लगातार हार को रोकना, संगठन को मजबूत करना और पार्टी को नया वैचारिक आधार प्रदान करना। राज्य में कांग्रेस के भीतर बढ़ती गुटबाजी देख हमेशा से एक सवाल उठता रहता है कि क्या इस दल के नेता कभी एक हो सकते हैं? जवाब हमेशा 'नÓ रहा है। राज्य में कांग्रेस को एकजुट करने के लिए स्वर्गीय माधवराव सिंधिया ने वर्ष 1993 में डबरा में एक सम्मेलन आयोजित किया था, जिसमें तब के सभी दिग्गज नेताओं ने हिस्सा लिया था। यही कारण है कि डबरा सम्मेलन कांग्रेस की एकता का प्रतीक बन गया था। इसके बाद कांग्रेस सत्ता में आई और एक दशक तक उसने शासन किया, फिर सत्ता से बाहर हुई तो एक दशक से बाहर ही है। पिछले एक दशक से पार्टी के तमाम छोटे और बड़े नेता डबरा सम्मेलन की तर्ज पर सम्मेलन आयेाजित करने का जोर देते रहे मगर कोई दिली तौर पर राजी नहीं हुआ। अब प्रदेश कांग्रेस में सेनापति बनने की होड़ लग गई है। अरुण यादव बाद कुर्सी का सही दावेदार कौन होगा कमलनाथ, ज्योतिरादित्य सिंधिया या फिर कोई और? इसका जवाब अभी भविष्य के गर्भ में है। बसपा के साथ की उम्मीद मध्यप्रदेश में कांग्रेस ने राज्यसभा की तीसरी सीट बसपा के 4 विधायकों के समर्थन के बाद ही जीती है। अब कांग्रेस 2018 में मध्यप्रदेश में अपनी सरकार बनाने के लिए बसपा का साथ जुगाड़ रही है। कांग्रेस नेता बाला बच्चन के मुताबिक कांग्रेस को बसपा के साथ मिलकर चुनाव लडऩे में कोई ऐतराज नहीं है। उधर बसपा नेताओं ने इसका फैसला बसपा सुप्रीमो मायावती पर छोड़ दिया है। यूपी मे चुनावों के दौरान बसपा के हाथी को धकेलते हुए कांग्रेस के हाथ की उम्मीद तो आप कर सकते हैं, लेकिन एमपी मे साल 2018 मे होने वाले चुनावों के दौरान इसका उल्टा भी हो सकता है, लेकिन चुनावों के पहले एमपी में मायावती का हाथी कब किस करवट बैठेगा इसका अंदाजा लगाना फिलहाल मुश्किल है।