शनिवार, 18 दिसंबर 2010

दया के पात्र हैं दिग्विजय



कॉग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह अपने उटपटांग बयानों के कारण हमेशा से विवादों में बने रहते हैं। मध्यप्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री उमा भारती कहती हैं कि दिग्विजय सिंह सिर्फ दया के पात्र हैं। वर्ष 2003 में वे मध्यप्रदेश से बेदखल कर दिए गए थे। इस बेदखली में संघ को दोषी मानते हैं। बकौल सुश्री भारती दिग्विजय सिंह को लगता है कि मध्यप्रदेश से कांग्रेस और उनको बेदखल करने में संघ की ही भूमिका थी। इसीलिए वे हर बात में संघ का नाम घसीटते हैं। दिग्विजय सिंह ने हमेशा ही संघ को कटघरे में खड़े करने की कोशिश की है। हिन्दू आतंकवाद का नारा उछालने और संघ को आतंकी संगठन सिद्ध करने के लिए उन्होने हर संभव कोशिश की।
उमा कहती हैं कि राहुल ने दिग्विजय सिंह को अपना गुरू बना लिया है लेकिन इन दोनों पर यह कहावत शत प्रतिशत चरितार्थ होती है लोभी गुरू लालची चेला- दोनों नरक में ठेलमठेला। उन्होंने कहा कि गांधी एक बड़े राजनीतिक घराने से हैं इसलिए उन्हें दिग्विजय सिंह जैसे राजनीतिज्ञों से बचना चाहिए। दिग्विजय सिंह पर प्रहार करते हुए उन्होंने कहा कि दिग्विजय सिंह को इस तरह के गैर जिम्मेदाराना बयान देने का शौक है। राहुल मुझसे सीखें और आरएसएस का इतिहास पढ़ें। कश्मीर में जवाहर लाल नेहरू ने भी आरएसएस की मदद मांगी थी। यहां तक कि गणतंत्र दिवस के मौके पर परेड में भी आरएसएस को शामिल किया गया है। राहुल को यह सब पढऩा चाहिए। हालांकि दिग्विजय सिंह का दामन स्वयं ही दागदार है। कुछ दिन पहले ही माकपा-माओवादी के केन्द्रीय समिति सदस्य तुषारकांत भट्टाचार्य ने एक साप्ताहिक पत्रिका को बताया था कि दिग्विजय सिंह ने पिछले साल अगस्त में उनकी पार्टी से संपर्क साधा थाा। यह कोशिश हैदराबाद के एक कांगेेसी नेता के जरिए की गई थी। भट्टाचार्य के मुताबिक उस वक्त वह वारंगल जेल में था। गौरतलब है कि दिग्विजय सिंह ने गृहमंत्री चिदंबरम की नक्सल विरोधी नीति की आलोचना की थी।
दिग्विजय सिंह का ताजा बयान यही बयां करता है कि उन्होंने देशभक्ति का कोई सबक नहीं सीखा है, बल्कि इसके उलट वे अंग्रेजो से लेकर आतंकियों और देश विरोधियों के समर्थक के तौर पर उभरे हैं। अब यह सच भी उजागर होन लगा है कि उन्हीं के राज में सिमी, नक्सली गतिविधियां, बांग्लादेशी घुसपैठ और आतंकी गतिविधियों को बढ़ावा मिला, बल्कि अरुंधती राय जैसी देश विरोधी बुद्धिजीवियों को भी शह मिला। इतिहास के पन्नों में यह दर्ज है कि दिग्विजय सिंह के पुरखे अंग्रेजों के प्रति वफादार रहे। अब अखबारों में यह दर्ज हो रहा है कि दिग्विजय सिंह ने आर.आर खान से लेकर अजमल कसाब तक की रहनुमाई राजनीति कैसे की। इन सब से कांग्रेस और दिग्विजय की धर्मनिरपेक्ष छवि को कितना बल मिला या उनके वोट बैंक में कितना इजाफा हुआ यह तो नहीं मालूम, लेकिन तब प्रदेश का और अब पूरे देश का नुकसान जरूर हो रहा है।
राजनीतिक समीक्षक कहते हैं दिग्गी दूसरे दलों में अपने समर्थक पैदा करते हैं और अपनी पार्टी के भीतर अपने विरोधियों को पैदा नहीं होने देते, अगर पैदा हो गए तो उन्हें बढऩे नहीं देते, अगर इक्का-दुक्का विरोधी बढ़ भी गए तो उनका तत्काल खात्मा करते हैं। मध्यप्रदेश और देश की राजनीति में ऐसे अनेक उदाहरण हैं। दिग्विजय सिंह सामंती स्वभाव के राजेनता माने जाते हैं। मध्यप्रदेश में अपने 10 वर्षों के राज में वे जनता को कुशासन देने के रूप में जाने जाते हैं। अपने जमाने में उन्होंने नारा दिया - चुनाव विकास से नहीं, प्रबंधन से जीते जाते हैं। उन्होंने एक पत्रकारों से चर्चा करते हुए कहा था कि जब लालू बिना बिजली और सड़क के तीसरी बार सत्ता में आ सकते हैं तो मैं क्यों नहीं। हालांकि 2003 में उनका चुनावी प्रबंधन बुरी तरफ फेल हो गया था। अपने राज में उन्होंने प्रदेश में सांप्रदायिकता का हौव्वा खड़ा कर दिया था। एक तरफ वे हिन्दुओं का दमन करते रहे वहीं ईसाइय-मुसलमानों को शह देते रहे। गौरतलब है कि 22 दिसंबर, 1998 को झाबुआ के नवापाड़ा में जब एक नन के साथ बलात्कार हुआ था तब भी दिग्विजय सिंह ने हिन्दुओं और हिन्दू संगठनों पर ही आरोप मढ़ दिए थे। लेकिन बाद में बलात्कार के कई आरोपी मतान्तरित ईसाई ही पाए गए थे। विपक्ष सहित कई पार्टियों की मांग और राज्यपाल द्वारा सीबीआई जांच के लिए पत्र लिखने के बाद भी मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ने पूरे मामले से मुह मोड़ लिया था। वे सिर्फ घटना का राजनैतिक लाभ उठाना चाहते थे। दिग्विजय सिंह ने झाबुआ नन बलात्कार कांड के एक आरोपी को कांग्रेस का टिकट भी दिया था।
अपने मुख्यमंत्री के कार्यकाल में जब उन पर सोम डिस्लरी से घूस लेने का आरोप लगा और वे विपक्ष के आक्रामक तेवरों से घिर गए तो अचानक तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की प्रशंसा करने लगे। वे अचानक ही राजग की शिक्षा नीति के प्रशंसक बन गए। ज्योतिष को विज्ञान मान लिया। लेकिन जब-जब उनको मौका हाथ लगा हिन्दुत्व पर आक्रमण करने से कभी नहीं चूके। महाराष्ट्र एटीएस के मुखिया हेमंत करकरे की आतंकी हत्या को लेकर दिए गए बयान पर दिग्गी बुरी तरह घिर गए हैं। अपनी किरकिरी होते देख कांग्रेस ने भी उनके बयान से पल्ला झाड़ लिया है। लेकिन विपक्ष कांग्रेस प्रमुख सोनिया गांधी और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और गृहमंत्री चिदंबरम से दिग्विजय के बयान पर उनकी प्रतिक्रया पूछ रहा है। कांग्रेस में अलग-थलग पड़े दिग्विजय सिंह को उत्तर प्रदेश कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष और सांसद जगदंबिका पाल के बयान से एक और झटका लगेगा। दिग्गी जिस प्रदेश के प्रभारी हैं उसी प्रदेश के कांग्रेसी नेता अब उनके खिलाफ हो गए हैं। जाहिर है दिग्विजय की ओछो राजनीति से कांगेस का धर्मरिपेक्षता का राग भी कमजोर पड़ता दिख रहा है। कांग्रेसी सांसद जगदंबिका पाल ने एक कार्यक्रम में कहा कि दिग्विजय सिंह का बयान गैर जरूरी था। मुम्बई हादसे के बाद गृहमंत्री ने इस मुद्दे पर पाकिस्तान के खिलाफ जिस तरह का माहौल बनाया, उस पर ऐसे बयान से प्रतिकूल असर पड़ेगा। दरअसल अपने बड़बोलेपन से वे कई बार पूरी पार्टी को संकट में डाल चुके हैं। हो सकता है दिग्विजय सिंह का बयान रूवयं को पार्टी में स्थापित करने या अपना कद बढ़ाने के लिए हो। यह भी संभव है कि वे अपने बयानों से पार्टी का भला करना चाहते हों। लेकिन उनके बयानों से हर बार पार्टी को नुकसान ही होता रहा है। ऐसे में पार्टी के भीतर भी वे आलोचना और निन्दा के पात्र बनते हैं। अंतत: उनके स्वयं का नुकसान भी होता है। लेकिन दिग्विजय सिंह है कि अपनी करनी से बाज नहीं आते।
मध्यप्रदेश की राजनीति में 'बुआजीÓ के नाम से चर्चित और वर्तमान विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष रही जमुना देवी ने वर्ष 1995 में कांग्रेस के वर्तमान महासचिव और तत्कालीन मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह के बारे में टिप्पणी की थी, '' मैं आजकल मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह के तंदूर में जल रही हूं।ÓÓ इन्हीं बुआजी ने एक बार कहा था - मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह अपने सलाहकार और वामपंथी विचारधारा के समर्थक संगठनों को विशेष महत्व दे रहे हैं, जिससे नक्सली गतिविधियां फल-फूल रही हैं।
जानकारों के मुताबिक राघोगढ़ ने हमेशा ही अंग्रेजों का साथ दिया। राजा अजीत सिंह के दरम्यान राघोगढ़ के ब्रिटिश राज के ही अधीन रहा। 1904 में राघोगढ़ सिंधिया राज के अधीन हो गया। राघोगढ़ के तब के राजा सिंधिया को नजराना दिया करते थे। राघोगढ़ के राजा बहादुर सिंह भारतीय राजाओं में अंग्रेजों के सबसे वफादार थे। इनकी इच्छा थी कि वे प्रथम विश्व युद्ध में अंग्रेजों की तरफ से लड़ते हुए मारे जायें। अंग्रेजों की इस वफादारी के लिए राघोगढ़ राजघराने को वायसराय का धन्यवाद भी मिला। इतिहास के पन्नों में इस बात का उल्लेख है कि राघोगढ़ सामंत ने अपने क्षेत्र अंग्रेजों के खिलाफ भारतीयों की हर आवाज को दबाया। 1857 के गदर के दौरान भी यह राजघराना भारतीयों की बजाए अंग्रेजों के ही साथ था। दिग्विजय सिंह को यह अवसर मिला था कि वे राघोगढ़ पर लगने वाले आरोपों का जवाब देते, लेकिन उन्होंने न तो अपने 10 वर्षों के अपने शासन में और न ही अब ऐसा कोई प्रयास किया। बजाए इसके वे लगतार ऐसे बयान दे रहे हैं जिससे आतंवादियों और उनके पोषक शक्तियों को ही मदद मिल रही है। मामला चाहे बटला हाउस का हो या आजमगढ़ जाकर आतंकियों के परिजनों से मुलाकात का, हर बार दिग्विजय सिंह पर आतंकियों की मदद करने का आरोप लगा।
मध्यप्रदेश भाजपा ने दिग्विजय सिंह और खूखंार अपराधियों के गठजोर को केन्द्र में रखकर एक पुस्तिका प्रकाशित की थी। 'एक संदिग्ध मुख्यमंत्रीÓ नाम से प्रकाशित इस पुस्तिका में मालवा क्षेत्र के खूंखार अपराधी खान बन्धुओं और दिग्विजय के संबंधों को उजागर किया गया था। मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ने 15 अगस्त, 1995 को स्वतंत्रता दिवस पर भेापाल में बोलते हुए कहा कि ''यहां अल्पसंख्यक असुरक्षा की भावना से पीडि़त होते हैं, और इसीलिए वे हथियारों का जमाव करते हैं।ÓÓ दरअसल दिग्गी अपने उपर लगे आरोपों को ही जायज ठहरा रहे थे। भाजपा ने उन पर संगीन आरोप लगाए थे। गौरतलब है कि 1994-95 में जब गुजरात पुलिस ने मालवा के उज्जैन जिले से पप्पू पठान की गिरफ्तारी की तब विदेशी हथियार कांड का भांडा फूटा। यह भी पता चला कि इसमें रतलाम नगर पालिका निगम का पार्षद भी शामिल है जो दिग्विजय सिंह के पैनल से चुनाव लड़ा था। इस पार्षद का नाम आर.आर खान बताया गया। महिदपुर निवासी पप्पू पठान की जानकारी के आधार पर आर.आर खान के छोटे भाई महमूद खान के पास से कार्बाइन सहित अनेक विदेशी हथियार बरामद हुआ। पकड़े गए आरोपियों का संबंध तस्कर छोटा दाउद और सोहराब पठान से भी पाया गया। पुलिस की तफतीश में यह भी पता चला कि इन सभी आरोपियों को दिग्विजय सरकार के कई मंत्रियों और स्वयं मुख्यमंत्री तथा अल्पसंख्यक आयोग के तत्कालीन अध्यक्ष इब्राहीम कुरैशी का संरक्षण भी प्राप्त है। मीडिया और विपक्ष ने दिग्विजय सिंह द्वारा मेहमूद खान और उसके बड़े भाई आर.आर खान के बचाव में दिए गए बयान को खूब उछाला था। यह भी आरोप लगा कि इंदौर स्थित खंडवा रोड पर मालवा फार्म हाउस, जहां से देशी-विदेशी हथियारों का जखीरा पकड़ा गया था, तत्कालीन दिग्विजय सरकार के मंत्रीमंडल के कई सदस्यों द्वारा अय्याशी के लिए उपयोग किया जाता था। यह गठजोड़ न सिर्फ अखबारों की सुर्खियों में आया, बल्कि मध्यप्रदेश की विधानसभा में भी गूंजा।

सोमवार, 13 दिसंबर 2010

वोट की खातिर कुछ भी करेंगे दिग्विजय सिंह


विनोद उपाध्याय
कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह ने फिर कमाल कर दिया, धोती को फाड़ के रूमाल कर दिया। ऊपर वाले की कृपा से भले वाराणसी बम धमाके में जान-माल की अधिक क्षति नहीं हुई, पर दिग्गी राजा ने जो राजनीतिक धमाका किया, खुद कांग्रेस-बीजेपी और अपनी कूटनीति भी लहुलुहान होती दिख रही।

अभी 26/11 हमले की दूसरी बरसी को बीते महज पखवाड़ा भर हुए पर दिग्गी राजा ने नई कहानी गढ़ दी। खुलासा किया- ‘मालेगांव बम धमाके की जांच में हिंदुवादी संगठनों की भूमिका उजागर करने की वजह से एटीएस चीफ हेमंत करकरे को कट्टर हिंदू संगठनों से जान का खतरा था।’ दिग्गी की मानें, तो मुंबई पर हुए आतंकी हमले से ठीक दो घंटे पहले फोन पर बातचीत में खुद करकरे ने यह बात उन्हें बताई थी। पर सवाल यह कि दिग्गी राजा को 26 नवंबर 2008 को करकरे से हुई बात हमले की दूसरी बरसी के बाद अचानक कैसे याद आ गई? अगर करकरे को सचमुच धमकियां मिल रही थी, तो उनने दिग्विजय सिंह को ही क्यों बताया? करकरे अपने वरिष्ठ अधिकारी या महाराष्ट्र के गृह मंत्री, केंद्रीय गृह मंत्री या फिर पीएम-सीएम से बात कर सकते थे। पर उनने सिर्फ दिग्गी राजा को ही क्यों बताई?

इससे भी अलग सवाल, जब किसी को कोई धमकी मिलती है, तो वह सबसे पहले अपने परिवार से शेयर करता है। पर शहीद हेमंत करकरे की पत्नी कविता करकरे ने फौरन इनकार किया। अलबत्ता जांच में जुड़े अधिकारी के नाते ऐसी बातों को सामान्य बताया। पर दिग्गी राजा की टिप्पणी को कविता करकरे ने वोट बैंक की ओछी राजनीति से प्रेरित बताने में देर नहीं की। सचमुच दिग्गी राजा की दलील आतंकवाद के खिलाफ अपनी लड़ाई को कमजोर करेगा। जब सारी दुनिया और अदालत मुंबई हमले और करकरे जैसे बहादुर ऑफीसरों की शहादत के पीछे पाकिस्तानी आतंकियों की करतूत मान चुका। यों विशेष अदालत से फांसी की सजा पा चुका आतंकी कसाब अब हाई कोर्ट में पैतरेबाजी कर रहा। हाल ही में कसाब ने हेमंत करकरे को मारने में अपनी भूमिका से इनकार किया था। अब करीब-करीब वही बात कांग्रेस महासचिव दिग्गी राजा कह रहे। उन ने दो-टूक कह दिया- ‘जब रात में करकरे की मौत की खबर मिली, तो मैं सन्न रह गया था और मेरे मुंह से निकला, ओह गॉड, मालेगांव जांच के विरोधियों ने उन्हें मार डाला।’ अब आप क्या कहेंगे? क्या शहादत पर बखेड़ा खड़ा करना सचमुच कांग्रेस की फितरत बन गई? या फिर वोट बैंक के लिए कसाब को भी अफजल बनाएगी कांग्रेस?

आज को संसद पर हमले की नौंवीं बरसी है पर लोकतंत्र के सबसे बड़े मंदिर पर हमले का मास्टरमाइंड अफजल गुरु वोट बैंक के राजनीतिक तवे में सेंकी रोटियां तोड़ रहा है। फिर भी संसद में श्रद्धांजलि का ढक़ोसला करते दिखेंगे अपने माननीय नेतागण। जो अफजल की फांसी से जुड़ी फाइल पर कुंडली मारकर बैठे हुए। सिर्फ अफजल ही नहीं, बटला हाउस मुठभेड़ में शहीद इंस्पेक्टर मोहनचंद शर्मा पर भी उंगली उठा चुकी कांग्रेस। खुद दिग्गी राजा ने मोर्चा खोला था। आतंकियों के परिजनों से सहानुभूति जताने आजमगढ़ जाने में भी कोई हिचक नहीं दिखाई थी। पर दिग्गी राजा के हर विवादास्पद स्टैंड में कांग्रेस की बड़ी राजनीति निहित होती। सो कांग्रेस के एक वरिष्ठ नेता ने तो बेबाक कह दिया। बोले- ‘दिग्विजय सिंह उपन्यास के पार्ट जरुर हैं, पर उपन्यासकार नहीं।’ अब कोई पूछे, उपन्यासकार कौन है? अब मुंबई जैसे आतंकी हमले को भी वोट बैंक की राजनीति का हिस्सा बनाने का क्या मकसद? क्या अब कांग्रेस ‘कसाब बचाओ मुहिम’ में जुट गई? अगर करकरे आतंकी हमले में शहीद नहीं हुए, तो क्या विरोधियों ने हत्या कर दी?


अगर यह सच है तो बहुत बुरा है। मुंबई पुलिस के आतंकवाद विरोधी दस्ते के मुखिया, बहादुर, जांबाज़ और वतनपरस्त अफसर हेमंत करकरे की शहादत के दो साल से भी ज्यादा वक़्त के बाद कांग्रेस के महासचिव दिग्विजय सिंह ने जो बात दिल्ली की एक सभा में कही, वह किसी के भी होश उड़ा सकती है। आपने फरमाया कि अपनी हत्या के करीब दो घंटे पहले हेमंत करकरे ने उन्हें फ़ोन किया था और कहा था कि वे उन लोगों से बहुत परेशान थे जो मालेगांव की धमाकों के बारे में उनकी जांच से खुश नहीं थे। दिग्विजय सिंह ने कहा कि वे बहुत परेशान थे। स्व करकरे को इस बात से बहुत तकलीफ थी कि किसी हिन्दुत्ववादी अखबार में छपा था कि उनका बेटा दुबई में रहता है और वहां खूब पैसा पैदा कर रहा था। अखबार ने यह संकेत करने की कोशिश की थी कि उनका बेटा इनकी नंबर दो की कमाई को अपनी कमाई बताकर खेल कर रहा था। जबकि सच्चाई यह है कि उनका बेटा मुंबई के किसी स्कूल में अपनी पढाई पूरी कर रहा था।

करकरे परिवार को पता नहीं था कि तानाशाही और फासिस्ट ताक़तों का सबसे बड़ा हथियार झूठ होता है और उसी झूठ को सैकड़ों बार कहकर वे सच बनाने की कोशिश करते हैं । इस विधा के आदिपुरुष हिटलर के साथी गोबल्स हैं जो उनकी फासीवादी पार्टी के सूचना विभाग के इंचार्ज थे। दिल्ली की उसी सभा में दिग्विजय सिंह ने बताया कि जब रात को उन्हें पता चला कि हेमंत करकरे की ह्त्या हो गयी है तो वे सन्न रह गए और उनकी शुरुआती प्रतिक्रिया यही थी कि ‘हे भगवान,मार डाला उनको।’ वह तो बाद में उन्हें पता चला कि हेमंत करकरे की हत्या मुंबई पर हुए आतंकवादी हमले के दौरान हुई थी। दिग्विजय सिंह ने बताया कि करकरे के परिवार से उनका पारिवारिक सम्बन्ध था। उनके पिता जी रेल कर्मचारी थे और मध्य प्रदेश के छतरपुर में बहुत दिनों तक रहे थे। बाद में उनका तबादला नागपुर के लिए हो गया था, जहां हेमंत करकरे का परिवार बहुत दिनों तक रहा।

दिग्विजय को यह बयान हेमंत करकरे की हत्या के तुरंत बाद देना चाहिए था। इतनी बड़ी बात को आज दो साल बाद क्यों बता रहे हैं दिग्विजय सिंह। इस सूचना का मामले की जांच पर सीधा असर पड़ता। पांच दिन पहले दिए गए उनके इस बयान को जब इंडियन एक्सप्रेस अखबार ने प्रमुखता से छापा तो पूरे देश में चर्चा शुरू हो गयी। बीजेपी वालों ने आसमान सर पर उठा लिया और कांग्रेस ने अपने आपको बयान से अलग कर लिया। लेकिन दिग्विजय सिंह अपना काम कर चुके थे। दो साल बाद दिया गया उनका यह बयान राजनीति खेल लगता है।

उत्तर प्रदेश एक कांग्रेसी इंचार्ज दिग्विजय सिंह को मालूम है कि राज्य का मुसलमान वोट अब मुलायम सिंह के यहां नहीं जा रहा है। साक्षी महराज, कल्याण सिंह और राजबीर सिंह के प्रति मुलायम सिंह ने जो मुहब्बत दिखाई है, उसकी वजह से मुसलमान मुलायम सिंह यादव से बहुत नाराज़ है। रामपुर के विधायक आज़म खां को एक बार निकाल कर दुबारा वापस लेने की राजनीति का भी मुस्लिम इलाकों में मजाक उड़ाया जा रहा है। लोग कह रहे हैं कि यह तो वही आज़म्खन हैं जीके क्षेत्र में उनकी मर्जी के खिलाफ जयाप्रदा जीत कर आई हैं। यहां तक कि आज़म खां के घर के सामने जयाप्रदा के समर्थकों ने मीटिंग और उनेक मोहल्ले में जयाप्रदा को जिताया। ज़ाहिर है मुसलमानों में आज़म खां की वोट दिलाने की हैसियत बिलकुल नहीं है। शायद इसीलिये मायावती ने मुसलमानों के नफरत के ख़ास दावेदार वरुण गांधी को जेल में ठूंसने के प्रोजेक्ट पर काम शुरू कर दिया है। दिग्विजय सिंह का यह बयान भी शहीद हेमंत करकरे के प्रति मुसलमानों की श्रद्धा को कांग्रेस के फायदे के लिए इस्तेमाल करने की गरज से दिया गया बयान नज़र आ रहा है।

हेमंत करकरे की हत्या निश्चित रूप से आतंकवाद के खिलाफ जारी लड़ाई में एक बहुत बड़ी बाधा है। अपनी ईमानदारी और लगन से हेमंत करकरे ने आतंकवाद के खिलाफ संघर्ष को एक सार्थक मुहिम का रूप दिया था। करकरे ने जब मालेगांव के धमाकों के संदिग्धों को पकड़ा उसके पहले फासिस्ट हिंदुत्व के ढिंढोरची देश की लगभग एक चौथाई आबादी को आतंकवादी कहने की जिद करते पाए जाते थे। अक्सर सुनायी पड़ता था कि सभी मुसलमान आतंकवादी नहीं होते लेकिन सभी आतंकवादी मुसलमान होते हैं। मालेगांव के धमाकों के लिए ज़िम्मेदार लोगों को जब हेमंत करकरे की टीम ने पकड़ा तो इस तरह का प्रचार कर रहे गोबल्स के वारिस थोडा शांत हुए लेकिन करकरे के खिलाफ हर तरह के घटिया आरोप प्रत्यारोप लगाना शुरू कर दिया।

संघी हिंदुत्व और उसके सहयोगी संगठनों ने करकरे को उनके पद से हटवाने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगा दिया। उनको डर था कि कहीं करकरे अपनी मुहिम को जारी रखने में सफल हो गये तो उनकी बहुत सारी आतंकवादी गतिविधियों से पर्दा उठ जाएगा। मुंबई और अन्य जगहों पर करकरे के खिलाफ ऐसे जुलूस निकाले गए मानों करकरे किसी राजनीतिक पार्टी के नेता हों। गुजरात के मुख्यमंत्री और २००२ के गुजरात नरसंहार से दुनिया भर में ख्याति पाने वाले नरेंद्र मोदी ने भी स्व करकरे के खिलाफ तरह तरह के बयान दिए। करकरे के खिलाफ जो भी अभियान चला, उसकी अगुवाई मोदी के चेले चपाटे ही कर रहे थे। लेकिन मोदी की हिम्मत की भी दाद देनी पड़ेगी कि जब हेमंत करकरे की हत्या हो गयी तो इन्हीं मोदी साहब ने मुंबई में करकरे के घर जाकर उनकी पत्नी को कुछ लाख रूपए देने की कोशिश की। श्रीमती करकरे को सारी बातें मालूम थीं लिहाजा उन्होंने मोदी को फटकार दिया और साफ़ कह दिया कि अपना पैसा अपने घर रखो।

दिग्विजय सिंह के बयान के बाद स्व करकरे की शहादत में एक और आयाम जुड़ गया है दिल्ली में जिस सभा में दिग्विजय सिंह ने यह बयान दिया उसी सभा में नामी पत्रकार अज़ीज़ बर्नी की किताब, ” आरएसएस की साज़िश —26/11 ” का विमोचन भी हुआ। इस किताब में लिखा हुआ है कि अज़ीज़ बर्नी को भरोसा था कि मुंबई में -26/11 के हमलों की साज़िश के पीछे आरएसएस का हाथ था जो करकरे के काम में बाधा डालना चाहते थे। अगर यह बातें सच हैं तो फ़ौरन इनकी जांच की जानी चाहिए और शहीद करकरे की मौत के लिए ज़िम्मेदार लोगों को कानून के हवाले किया जाना चाहिए।

भारत सबसे बड़ा भ्रष्टतंत्र

सरकार ने 2001 से स्पेक्ट्रम के आबंटन की जांच के आदेश दे दिये हैं। इसके लिए एक जज वाली समिति का गठन कर दिया है। देश के सबसे बड़े कारोबारी समूह टाटा ग्रुप के चेयरमैन रतन टाटा भी यही चाहते हैं। ऐसे में सवाल उठता है कि अगर जांच में एयरटेल, रिलायंस कम्युनिकेशन, वोडाफोन और टाटा से लेकर तमाम कंपनियां गुनहगार पाई गईं तो क्या सबको देश से बाहर कर दिया जाएगा? क्या सबका लाइसेंस और स्पेक्ट्रम रद्द करके उनके कारोबार पर ताला लगा दिया जाएगा?

यह सवाल इसलिए कि बीते साल भर में हमारे देश में ऐसे कई मामले सामने आए जब पांच-दस साल बाद सियासी नफे-नुकसान के आधार पर कुछ कंपनियों पर नकेल कसने की कोशिश हुई। उड़ीसा में पर्यावरण के आधार पर वेदांता का खनन लाइसेंस करना वैसा ही एक मामला था। फिर केर्न इंडिया के समझौते को सुरक्षा के आधार पर रोकने की कोशिश और अब महाराष्ट्र में पर्यावरण के नाम पर लवासा को लेकर हो रही राजनीति भी उसी का हिस्सा है। महाराष्ट्र में ही एनरॉन का हस्र हम देख चुके हैं। आखिर क्यों हज़ारों करोड़ रुपये के निवेश के बाद हमारी सरकार जागती है? आखिर भ्रष्टाचार के आरोपों का निपटारा उसी वक्त क्यों नहीं होता जब विरोध की पहली आवाज़ उठती है? पर्यावरण से लेकर स्थानीय लोगों के हितों से जुड़े सवाल को उसी समय हल क्यों नहीं किया जाता जब प्रोजेक्ट की नींव रखी जाती है? क्यों हमारे हुक्मरान इंतज़ार करते हैं और कंपनियों को आश्वासनों देकर ब्लैकमेल करते हैं और फिर जब वो कंपनियां बाज़ार से उठा कर हज़ारों करोड़ रुपये निवेश कर देती हैं तो उन पर लाठी भांज दी जाती है?

आज देश के सबसे सम्मानित कारोबारी रतन टाटा टेलीकॉम सेक्टर में एक बड़े कारोबारी और सियासी साज़िश की ओर इशारा कर रहे हैं तो उन्हें गंभीरता से लिया जाना चाहिए। इसलिए नहीं कि टाटा कोई देवता हैं जो उन्हें कठघरे में नहीं खड़ा किया जा सकता। बल्कि इसलिए कि देश की सबसे सम्मानित कंपनी के चेयरमैन को इस तरह घुटने टेकने पर मजबूर किया जाएगा तो फिर किस किस्म का आर्थिक ढांचा तैयार करना है यह हमारी सरकारों को तय करना होगा। ऐसा नहीं हो सकता कि एक तरफ हमारी सरकारें निवेश को बढ़ावा देने की बात कहें और दूसरी तरफ निवेश करने वाली कंपनियों को सियासी साज़िश की भेंट चढ़ा दें।

टाटा, लवासा कॉरपोरेशन और वेदांता… ये सब चंद उदाहरण हैं। भारत में ऐसी दर्जनों परियोजनाएं सियासी खेल का शिकार हो चुकी हैं। उड़ीसा में पॉस्को की परियोजना लंबित है। उत्तर प्रदेश के दादरी में रिलायंस पॉवर का प्रोजेक्ट अटका पड़ा है। ये सभी मामले बयां कर रहे हैं कि हमारी व्यवस्था में भ्रष्टाचार की जड़ें कितनी गहरी हैं। हमारे नेताओं और अधिकारियों ने ऐसा भ्रष्ट तंत्र बना दिया है जिसमें कोई भी काम ईमानदारी से नहीं होता। पंचायत स्तर से लेकर राष्ट्रीय परियोजनाओं तक सभी जगह नेता और अधिकारी लूट में लिप्त हैं। संविधान की शपथ लेकर देश की बेहतरी के लिए काम करने का वादा करने वाले देश बेचने में लगे हैं।

यह बहुत गंभीर मसला है और इससे एक संकेत साफ है कि हम अब भी निवेश के लिए बेहतर माहौल नहीं बना सके हैं। चीन से टक्कर लेने और आर्थिक महाशक्ति बनने की बात तो बहुत दूर हमारी उद्योग और निवेश नीति आज भी साफ नहीं हो सकी है। उदारीकरण एक छद्म से अधिक कुछ नहीं। आज भी हमारे यहां कोटा परमिट राज है। सीधे तौर पर न सही, परोक्ष तौर पर सरकार और अधिकारी चाहें तो किसी भी परियोजना को कितने भी अंतराल के बाद फंसा सकते हैं। पैसे खिलाए बगैर प्रोजेक्ट पास नहीं होते और पैसे खिलाकर एक सरकार से प्रोजेक्ट पास भी करा लिया जाए तो भी उसके पूरा होने की कोई गारंटी नहीं। सत्ता बदलने पर दूसरी सरकार किसी गड़े मुर्दे को उखाड़ कर परियोजना रोक सकती है।

अपनी चिट्ठी में रतन टाटा ने कहा है कि सारी मान्यताएं पूरी करने के बाद भी तीन साल तक उनकी कंपनी टीटीएसएल को दिल्ली समेत 39 बड़े जिलों में स्पेक्ट्रम नहीं दिए गए। आखिर क्यों? वो यह कह रहे हैं कि जांच यह भी होनी चाहिए कि वो कौन सी ताकतें हैं जिन्होंने टीटीएसएल की राह में रोड़े अटकाए और जो टेलीकॉम सेक्टर में रिफॉर्म के ख़िलाफ़ थीं। उनके इस बयान से साफ है कि हमारे हुक्मरान पैसा मिलने पर चंद कंपनियों के हितों की रक्षा के लिए किस हद तक जा सकते हैं। पैसा ज्यादा मिले तो वो विदेशी कंपनियों के हितों को पूरा करने के लिए अपने देश के कंपनियों को दांव पर लगा सकते हैं।

इसके विपरीत दुनिया के तमाम देश अपनी कंपनियों के हितों की रक्षा के लिए काफी कुछ करती हैं। अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा की भारत यात्रा के दौरान रिटेल सेक्टर में विदेशी पूंजी निवेश की सीमा बढ़ाने के लिए दबाव डाला गया। ताकि वॉलमार्ट जैसी कंपनियों का हित सध सके। लेकिन हमारे यहां अपनी कंपनियों को आगे बढ़ाने की सोच अभी तक विकसित नहीं हो सकी है। हम आज भी सेठ साहूकारों वाली सोच से ऊपर नहीं उठ सके हैं। वरना सबसे पहला जोर एक ऐसी नीति तैयार करने पर होता जिसमें स्थानीय लोगों के हितों की रक्षा के साथ स्थानीय कंपनियों का हित भी सध जाता। खनन लीज से लेकर स्पेक्ट्रम अलॉटमेंट की प्रक्रिया को पारदर्शी बनाते ताकि उस पर किसी तरह का कोई सवाल नहीं उठे। लेकिन यहां सबकुछ गुपचुप तरीके से होता है। साजिशन, प्रक्रिया में झोल रखा जाता है, ताकि बैकडोर से पैसे लिए जा सकें। ब्लैक मनी की गुंजाइश रखी जा सके। फिर अचानक मालूम चलता है कि किसी सरकार या किसी महकमे ने चुनिंदा कंपनियों के साथ समझौता कर लिया। और यह पता चलने के साथ ही विरोधी उस पर सियासत शुरू कर देते हैं।

लेकिन इस बार उन्होंने इस सियासी दलदल में टाटा को भी घसीट लिया है। टाटा इस देश की सबसे सम्मानित कंपनी इसलिए है क्योंकि वो मुनाफे का बड़ा हिस्सा समाज की बेहतरी में खर्च करती है। परोपकार उसकी परंपरा का एक हिस्सा है। बैंगलोर में इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस और मुंबई में टाटा मेमोरियल हॉस्पिटल टाटा ट्रस्ट की देन है। टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोसल साइंसेस भी टाटा की देन है। टाटा सन्स देश की ऐसी अनोखी कंपनी है जिसमें 65.8 फीसदी हिस्सेदारी टाटा ट्रस्ट की है। उस ट्रस्ट का काम लोगों की बेहतरी के लिए शिक्षा से लेकर स्वास्थ्य के क्षेत्र में योजनाएं चलाना है। आज ये ट्रस्ट झारखंड, उड़ीसा के सैकड़ों गांवों में लोगों के बेहतरी के लिए काम करता ही। अभी कुछ ही दिनों में दिल्ली से टाटा जागृति यात्रा शुरू होने वाली है। जिसमें एक नौजवान साथियों से भरी हुई ट्रेन दिल्ली से देशव्यापी दौरे पर निकलेगी। उन तमाम सामाजिक संस्थानों के मिलवाने के लिए जो मेहनत, लगन और त्याग की नई दास्तान लिख रहे हैं।

आज टाटा सन्स का कारोबार दुनिया के कई देशों में फैला हुआ है। उसकी कुल कमाई का 65 फीसदी हिस्सा विदेशों से आता है। यूरोप से लेकर अमेरिका तक कई देशों में उसने निवेश किया है। कई विदेशी कंपनियों को खरीद लिया है। जहां देश की आज़ादी से लेकर सामाजिक परिवर्तन में अहम योगदान करने वाली ऐसी भारतीय कंपनियों को और आगे बढ़ाने की कोशिश होनी चाहिए वहीं हमारे सियासतदान उन्हें फंसाने और उनसे रिश्वत ऐंठने के तरीके खोजते रहते हैं।

उनकी इस तुच्छ सियासत का सबसे बुरा असर निवेश की संभावनाओं पर पड़ता है। हमारी सरकार वक़्त-वक़्त पर यह घोषित करती रहती है कि निवेश को बढ़ावा देने के लिए वो हर मुमकिन कोशिश कर रही है। वो यह दावा भी करती है कि निवेश के लिए भारत एक सुरक्षित देश है। लेकिन स्पेक्ट्रम घोटाले, वेदांता, पास्को, लवासा और दादरी पॉवर प्रोजेक्ट जैसी परियोजनाएं ये साबित करती हैं कि ऐसे रवैये से हम आर्थिक महाशक्ति नहीं बन सकते। अगर हमें भविष्य की चुनौतियों से निपटना है तो आर्थिक सुधार की गति तेज करनी होगी। नीतियों के साथ प्रक्रिया को भी पारदर्शी बनाना होगा। सबकुछ लोगों के सामने होना चाहिए। रोजगार के अवसरों को बढ़ाना होगा। इसका मतलब यह नहीं कि पर्यावरण को नज़रअंदाज कर दिया या फिर स्थानीय लोगों के हितों की अनदेखी की जाए। पर्यावरण और स्थानीय लोगों के हितों की रक्षा करना सरकार का पहला धर्म है। स्थानीय लोगों को प्रोजेक्ट में हिस्सेदारी भी दी जानी चाहिए। लेकिन उनके नाम पर ओछी सियासत नहीं होनी चाहिए।

शनिवार, 11 दिसंबर 2010

मनरेगा में सवा दो करोड़ रूपए की अनियमितता

बड़वानी। जिले में महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना में लगभग सवा दो करोड़ रूपए की अनियमितताओं के सिलसिले में शुक्रवार को चार थानों (सिलावद, पानसेमल, निवाली और खेतिया) में आठ अधिकारियों के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज की गई। एसपी आरएस मीणा के मुताबिक, इनमें से कुछ सेवानिवृत्त हो चुके हैं या अन्य स्थानों पर पदस्थ हैं।
तीन साल पहले जिले के एक दर्जन कार्यो में अनियमितताओं की शिकायत लोकायुक्त में की गई थी, जिनकी जांच राज्यस्तर पर उच्चस्तरीय दल से कराई गई थी। इसमें पाया गया कि निर्माण कार्यो के दौरान दो करोड़ 12 लाख 20 हजार रूपए से अधिक की अनियमितताएं की गर्ई। इस आधार पर ही जिला प्रशासन ने संबंधित अधिकारियों के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज कराने के निर्देश दिए।

ये हैं आठ
एसपी मीणा के मुताबिक, ग्रामीण यांत्रिकी सेवा विभाग के तत्कालीन प्रभारी कार्यपालन यंत्री आरएस राठौर, तत्कालीन सहायक यंत्री एमएल पाराशर और वाईएस नेगी तथा पांच तत्कालीन उपयंत्रियों सतीश राणे, एसएस अली, राकेश आरसे, एसके मंडलोई और एसके आर्य के खिलाफ सरकारी धन के दुरूपयोग और अन्य धाराओं के तहत मामले दर्ज किए गए।

मोदी को मिली क्लीन चिट के मायने


गुजरात दंगों पर गठित आरके राघवन समिति की अध्यक्षता में एसआइटी यानी विशेष जांच आयोग की रिपोर्ट अभी तक वैधानिक रूप से सार्वजनिक नहीं हुई है और नरेंद्र मोदी को क्लीन चिट दिए जाने की खबर मीडिया के हाथों पहुंच गई। अब पूछा जा रहा है कि नरेंद्र मोदी क्या निर्दोष नहीं हैं? इस सवाल का उत्तर उन लोगों से पूछा जाना चाहिए जिन्होंने यह रिपोर्ट लीक की है और देश की जनता का नब्ज टटोलना चाह रहे हैं ताकि उसके अनुरूप अगला कदम उठाया जा सके। मेरी जानकारी के मुताबिक आरके राघवन समिति की रिपोर्ट अभी माननीय सुप्रीम कोर्ट को बंद लिफाफे में सौंपा गया है और इसमें क्या रिपोर्ट दी गई है अथवा नहीं दी गई है, इस बारे में कोई जानकारी किसी को नहीं है, क्योंकि यह लिफाफा अभी भी बंद ही है। जब लिफाफा खोला जाएगा और उस रिपोर्ट को जनता के सामने कोर्ट रखेगी तब जाकर इस पर कोई टिप्पणी अथवा अपनी राय दी जा सकती है। रिपोर्ट सार्वजनिक होने से पहले इस तरह का मामला प्रकाश में आना एक बड़ा सवाल खड़ा करती है कि आखिर इसके पीछे वास्तविक उद्देश्य क्या हैं? 2002 में गुजरात दंगों की भयावहता और उसके प्रभाव को रिपोर्ट से नहीं आंका जा सकता, बल्कि उन लोगों के मासूम आंखों और उनमें व्याप्त आज भी उस भय में देखा जा सकता है जिसकी साया में वह लगातार जीते आ रहे हैं। गुजरात दंगा पीडि़तों के दर्द और परेशानियों को भुलाया नहीं जा सकता। गोधरा रेल अग्निकांड क्यों हुआ और इसमें किन लोगों का हाथ रहा यह अभी भी संदेह के घेरों में है। यहां एक सवाल यह भी है कि जब किसी राज्य में राज्यव्यापी दंगा फैला हो और उसमें सैकड़ों-हजारों निर्दोष लोगों की जानें गई हों तो क्या उस राज्य के मुख्यमंत्री को इसके लिए जिम्मेदार नहीं माना जाना चाहिए। जब गुजरात में दंगे भड़के हुए थे और पूरे प्रदेश की जनता खासकर मुसलमान वर्ग इससे बड़े पैमाने पर पीडि़त हो रहा था तो नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली पूरी प्रशासनिक मशीनरी क्या कर रही थी? आखिर पूरी प्रशासन पंगु कैसे हो सकती है और इसके लिए उसे निर्देश कहां से मिल रहे थे? यह कुछ ऐसे प्रश्न हैं जिनके लिए किसी आयोग की जांच और उसके रिपोर्ट की जरूरत नहीं है। जब नरेंद्र मोदी के मंत्री और विधायक इन दंगों को भड़काने के आरोप में दोषी पाए जा चुके हैं तो शासन के मुखिया भले ही इसमें प्रत्यक्ष रूप से न शामिल रहे हैं, लेकिन क्या उनकी जिम्मेदारी को कम करके आंका जा सकता है। राज्य प्रशासनिक मशीनरी के मुखिया के रूप में क्या नरेंद्र मोदी की भूमिका को प्रभावी माना जा सकता है। यह सही है कि नरेंद्र मोदी ने गुजरात को विकास के रास्ते पर आगे बढ़ाया है और 2002 में भड़के दंगे के बाद दोबारा ऐसा कोई दंगा नहीं होने पाया।उच्चतम न्यायालय द्वारा गठित विशेष जांच दल यानी एसआइटी द्वारा नरेंद्र मोदी को दंगा कराने के आरोप से मुक्त करना उन लोगों के लिए गहरा आघात है जो लंबे समय से उन्हें कानून के कठघरे में खड़ा करने का हरसंभव प्रयास कर रहे थे। निस्संदेह इससे उन लोगों की त्रासदी और पीड़ा कम नहीं होगी, जिनके परिजन उस वहशी क्रूरता का शिकार हो गए, लेकिन यह अलग से विचार करने का पहलू है। दंगों के बाद से सीधे मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को इसका अपराधी साबित करने की जो कोशिश हुई उसका इस पहलू से लेना-देना नहीं है। उम्मीद है कि अब ऐसी कोशिशों पर विराम लगेगा। गुजरात दंगे के विभिन्न कानूनी पहलुओं से देश आज भली तरह वाकिफ है। बेस्ट बेकरी संबंधी जाहिरा शेख का मामला एक समय सबसे ज्यादा सुर्खियों में था। नरौदा पाटिया, बिल्किस प्रकरण जैसे मामलों में मोदी को अपराधी साबित करने की कोशिशें विफल हुई। यह विरोधियों की अपीलों का ही असर था कि उच्चतम न्यायालय ने सीबीआइ के पूर्व प्रमुख आरके राघवन की अध्यक्षता में विशेष जांच दल का गठन किया और उसके कार्यो की प्रगति को मॉनिटर किया। इस दल ने ही मोदी काल के कई मंत्रियों व नेताओं के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज किया और उन्हें जेल भेजा। स्वयं मोदी से कई घंटों तक पूछताछ हुई। अगर यह दल कह रहा है कि गोधरा कांड के बाद भड़के दंगों में मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी या उनके कार्यालय की भूमिका का कोई प्रमाण नहीं है तो इसे स्वीकार करने के अलावा चारा क्या है। एसआइटी के गठन से लेकर अब तक के प्रवाह पर नजर दौड़ाएं तो यह साफ हो जाएगा कि उच्चतम न्यायालय या एसआइटी भले ही सच सामने लाने चाहता था पर मोदी विरोधियों ने हर अवसर को अपने अनुसार मोड़ने की कोशिश की। 11 मार्च को जब मोदी को एसआइटी ने सम्मन जारी किया तो यह खबर मीडिया की ऐसी सुर्खी बनी मानो अब उनका कानूनी जकड़न में आना निश्चित है। यहां तक कि मुख्यमंत्री पद से मोदी के त्यागपत्र की भी मांग कर दी गई। वैसे मोदी के त्यागपत्र की मांग दंगों के समय से ही हो रही है। उनके विरोधियों का सीधा आरोप है कि गोधरा रेल दहन के बाद का दंगा उनके एवं उनके सहयोगियों द्वारा प्रायोजित था। हालांकि एसआइटी के प्रमुख आरके राघवन ने कहा था कि उनको सम्मन इसलिए जारी किया गया, क्योंकि अनेक गवाहों ने उन पर जो आरोप लगाए हैं उनका जवाब उनसे लिया जा सके। किंतु इस पर ध्यान नहीं दिया गया और दुष्प्रचार जारी रखा गया। उच्चतम न्यायालय ने 26 मार्च, 2008 को एसआइटी का गठन किया और 27 अप्रैल, 2009 को इसे गुजरात दंगों में मोदी की भूमिका की जांच का आदेश दिया। गुलबर्ग सोसायटी में मारे गए कांग्रेस के पूर्व सांसद एहसान जाफरी की पत्नी जाकिया जाफरी ने उच्चतम न्याायलय में याचिका दायर करके कहा कि उनके पति सहित 38 लोगों की हत्या के लिए मोदी को जिम्मेदार बताया। गुलबर्ग सोसायटी में दंगों के बाद लापता 31 लोगों को भी मृत मानकर अहमदाबाद न्यायालय ने मृतकों की संख्या 69 कर दी। एसआइटी को उच्चतम न्यायालय ने गोधरा कांड सहित जिन नौ मामलों में आपराधिक छानबीन का आदेश दिया था उसमें गुलबर्ग सोसायटी कांड भी शामिल था। एसआइटी ने कभी यह शिकायत नहीं की कि उसे जांच में सरकार से किसी स्तर पर असहयोग मिला। 19 जनवरी, 2010 को उच्चतम न्यायालय ने गुजरात सरकार को यह आदेश दिया था कि उस दौरान मोदी के भाषणों की कॉपी एसआइटी को उपलब्ध कराई जाए ताकि उन पर लोगों को भड़काने का जो आरोप है उसकी सत्यता जांची जा सके। साफ है कि एसआइटी का निष्कर्ष केवल मोदी के जवाबों पर ही आधारित नहीं है। घटना के दौरान के सारे टेप व दस्तावेज भी उसने देखे, पुलिस-प्रशासनिक अधिकारियों से पूछताछ की और उनकी नोटिंग का पूरा अध्ययन किया। न एसआइटी को मोदी का भाषण सांप्रदायिक विद्वेष बढ़ाने वाला लगा और न इसमें हिंसा एवं आगजनी को प्रोत्साहित करने का ही अंश था। एसआइटी उच्चतम न्यायालय के निर्देश एवं देखरेख में काम कर रही थी, इसलिए इस पर पक्षपात का आरोप लगाना उचित नहीं, किंतु ऐसा भी हुआ। मोदी से पूछताछ के बाद राघवन का बयान था कि पूछताछ करने वाले संतुष्ट हैं, लेकिन यदि साक्ष्यों के अध्ययन के बाद आवश्यक लगेगा तो दोबारा उन्हें बुलाया जाएगा। विरोधियों ने यह प्रश्न भी उठाया कि राघवन ने क्यों पूछताछ की अध्यक्षता करना आवश्ययक नहीं माना। विरोधी पूछ रहे थे कि मोदी के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज क्यों नहीं हुई? वह ये भूल गए कि अगर प्राथमिकी दर्ज करना अपरिहार्य होता तो उच्चतम न्यायालय स्वयं इसका आदेश दे देता। न्यायालय ने ही नानावती आयोग से पूछा था कि मोदी से पूछताछ क्यों नहीं की गई? विरोधियों ने एसआइटी की कार्यशैली पर जिस प्रकार प्रश्न उठाना आरंभ किया वह भी दुर्भाग्यपूर्ण था। 2002 का गुजरात दंगा केवल गुजरात नहीं, पूरे देश पर एक त्रासदपूर्ण कलंक है। यह हमारे देश की सांप्रदायिक एवं सामाजिक सद्भाव को धक्का पहुंचाने वाली एक ऐसी वारदात थी, जिसके अपराधियों को कतई बख्शा नहीं जाना चाहिए था। अगर लक्ष्य दंगा पीडि़तों को वास्तविक न्याय दिलवाने एवं असली दोषियों को सजा दिलवाने की जगह किसी एक व्यक्ति को खलनायक बनाना हो जाए तो फिर क्या कहा जा सकता है। हम गुजरात प्रशासन की विफलता को कतई अस्वीकार नहीं कर सकते और उस दौरान मुख्यमंत्री होने के नाते मोदी दोषी थे, इतना तो स्वीकार किया जा सकता है। उनके मंत्रियों एवं विधायकों की गिरफ्तारी भी सरकार की भूमिका को संदेह के दायरे में लातीं है। हालांकि गुजरात में दंगों का पुराना इतिहास है पर कई भयावह घटनाएं रोकी जा सकतीं थीं इसे भी अस्वीकार नहीं किया जा सकता। नरेंद्र मोदी ने बिल्कुल योजनाबद्ध तरीके से एक संप्रदाय विशेष के खिलाफ लोगों को भड़काया, उनके खिलाफ हिंसा को हर तरह से सहयोग दिया और प्रोत्साहित किया इसके कहीं कोई प्रमाण नहीं मिले हैं। यही एसआइटी ने भी अपनी रिपोर्ट में कहा है। जहां तक गुलबर्ग सोसायटी का प्रश्न है तो नानावती आयोग के सामने तत्कालीन संयुक्त पुलिस आयुक्त एमके टंडन ने कहा कि वहां पुलिस बल कायम थी और भीड़ को रोकने के लिए गोली भी चलाई गई, लेकिन उस पर भी हमला नहीं रुका। टंडन के अनुसार सोसायटी के अंदर से फायरिंग होने के बाद भीड़ हिंसक हो गई। यह पूछने पर कि क्या एहसान जाफरी का कोई फोन उनके पास आया था तो टंडन ने कहा कि उनके पास पुलिस नियंत्रण कक्ष से संदेश आया था कि पूर्व कांग्रेसी सांसद किसी सुरक्षित जगह जाना चाहते हैं। .तो आप गुलबर्ग सोसायटी क्यों नहीं गए? इस पर टंडन का जवाब था कि वह उससे ज्यादा संवेदनशील दरियापुर क्षेत्र की ओर प्रस्थान कर गए थे एवं वहां दो पुलिस उपाधीक्षक एवं केंद्रीय औद्योगिक सुरक्षा बल की एक कंपनी को भेज दिया। दूसरे पुलिस अधिकारियों की गवाही में भी ऐसी ही बाते हैं। इसका निष्कर्ष हम कुछ भी निकाल सकते हैं पर कहीं से यह साबित नहीं होता कि मोदी ने किसी पुलिस अधिकारी को गुलबर्ग सोसायटी से दूर रहने को कहा था। बहरहाल, एसआइटी की रिपोर्ट के बाद असली न्याय दिलाने की बजाय एक व्यक्ति को निशाना बनाने का यह सिलसिला अब बंद होना चाहिए। एसआइटी के दायरे में गोधरा कांड से लेकर दंगों के सभी प्रमुख कांड थे एवं इस पर उच्चतम न्यायालय की निगरानी थी। मौजूदा ढांचे में इससे विश्वसनीय जांच कुछ नहीं हो सकती। हां, सरकार को यह कोशिश अवश्य जारी रखनी चाहिए ताकि पीडि़त यह न समझें कि उनके साथ दंगों के दौरान हिंसा भी अन्याय के तहत हुआ और यह आज तक जारी है। उन्हें महसूस हो कि उनकी पीठ पर सरकार एवं प्रशासन का हाथ है। साथ ही मनुष्यता को शर्मशार करने वाली वैसी घटना की पुनरावृत्ति नहीं हो इसका भी ध्यान रखना चाहिए। केवल नरेंद्र मोदी को निशाना बनाकर सेक्युलरवाद का हीरो बने रहने की चाहत वाले अपना रवैया नहीं बदलेंगे तो घाव कभी सूख नहीं पाएंगे।

शुक्रवार, 10 दिसंबर 2010

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सत्ता के बावजूद शक्तिहीन कांग्रेस



मौजूदा दौर में देश की राजनीति में जो नाटकीयता हम देख रहे हैं, वह उन्हीं पुराने दिनों की याद दिलाती है. जब स्वतंत्र भारत के नए संविधान का निर्माण किया गया तो उसमें केंद्र को ताक़तवर बना दिया गया और प्रांत उसके अधीन हो गए. सारी शक्तियां केंद्र में ही निहित थीं, जहां कांग्रेस के बहुमत का शासन था. सत्ता की लगाम प्रधानमंत्री के हाथों में थी, जो सर्वशक्तिमान था.आधुनिक भारत के निर्माण का आधार अंग्रेजों के उस कुतर्क में ढूंढा जा सकता है, जिसमें उन्होंने भारत को एक राष्ट्र मानने से इंकार कर दिया था. अंग्रेजों का दावा था कि भारत एक राष्ट्र नहीं, बल्कि अलग-अलग प्रांतों, धर्मों, भाषाओं एवं जातियों का एक समूह है. पहले गोलमेज सम्मेलन में यह फैसला ले लिया गया कि भारत एक कमज़ोर केंद्र और ताक़तवर प्रांतों वाला राष्ट्र होगा.इसकी तुलना मौजूदा दौर की राजनीतिक व्यवस्था से करें तो आज केंद्र में द्विस्तरीय सरकार है. संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन का नेतृत्व सोनिया गांधी के हाथों में है. यह कैबिनेट की तरह काम करता है, जिसमें गठबंधन के साझीदार दलों के बीच सारे फैसले लिए जाते हैं.
वास्तविक कैबिनेट की हैसियत इससे नीचे है, क्योंकि इसमें शामिल गठबंधन के साझीदार दलों के प्रतिनिधि प्रधानमंत्री से आदेश नहीं लेते हैं, बल्कि अपने दल के नेता की बात मानते हैं. इतना ही नहीं, अपने प्रभाव क्षेत्र में मज़बूत आधार वाली पार्टियां किसी की नहीं सुनतीं, वे ख़ुद अपनी मालिक हैं. उदाहरण के लिए तमिलनाडु को लें तो वह एक स्वायत्त प्रांत की तरह व्यवहार करता है.
ए राजा को कैबिनेट से हटाए जाने के मामले में गठबंधन की नेता सोनिया गांधी को डीएमके प्रमुख करुणानिधि से ऐसे बात करनी पड़ी, मानो यह कोई अंतरराष्ट्रीय महत्व का मुद्दा हो. प्रधानमंत्री की स्थिति ऐसी होकर रह गई है कि वह न यहां के हैं और न वहां के. वह सरकार चलाते हैं, लेकिन गठबंधन नहीं.
वर्ष 1989 तक केंद्र की सत्ता पर कांग्रेस पार्टी का आधिपत्य बना रहा, लेकिन इसके बाद कमज़ोर गठबंधन सरकारों के चलते केंद्र की शक्तियों में लगातार कमी आती गई. जब अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री हुआ करते थे तो उनकी हालत इतनी कमज़ोर थी कि 2002 में गुजरात दंगों के बाद वह अपनी पार्टी के मुख्यमंत्री की आलोचना भी नहीं कर सकते थे.
समस्या यह है कि देश के संविधान में मज़बूत केंद्र को आधार बनाया गया है. इसकी वजह यह है कि संविधान निर्माता प्रांतीय आधार पर देश के विभाजन की आशंका से सहमे हुए थे. अब जो हालत है, उसमें देश के टूटने का कोई ख़तरा नहीं है, लेकिन इसे उस अंदाज़ में चलाया भी नहीं जा सकता, जिस तरह नेहरू या इंदिरा गांधी चलाते थे. इसकी सारी संभावनाएं तभी ख़त्म हो गईं, जब इंदिरा गांधी ने देश में आपातकाल की घोषणा की थी. हालांकि इसके बाद 1980 से 1989 तक कांग्रेस फिर से सत्ता में रही, लेकिन स्थितियां हमेशा के लिए बदल चुकी थीं. आपातकाल के बाद भारतीय राजनीति एक नए दौर में प्रवेश कर गई, जिसमें केंद्र की सरकार लगातार कमज़ोर पड़ती गई, लेकिन भारत ने इस नई राजनीतिक व्यवस्था के साथ जीना नहीं सीखा है. कमज़ोर केंद्र वाली संघीय व्यवस्था तभी बिना किसी समस्या के चल सकती है, जब प्रांतों और केंद्र के बीच लगातार बातचीत होती रहे, लेकिन भारतीय राजनीति में अब तक इसके लिए कोई उपाय ईजाद नहीं किया गया है.
यह सोनिया गांधी की राजनीतिक बाजीगरी का ही कमाल था कि वह सत्ता के शीर्ष का बंटवारा करने में कामयाब रहीं. गठबंधन की नेता के रूप में उसे बनाए रखने और साझीदार दलों एवं राज्यों के साथ बातचीत का काम उन्होंने अपने पास रखा, जबकि सरकार चलाने की ज़िम्मेदारी प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के कंधों पर है. पिछले छह सालों से यह व्यवस्था बख़ूबी चलती रही, लेकिन अब इसमें समस्याएं आ रही हैं, क्योंकि नैतिकता में विश्वास न करने वाली ताक़तवर सहयोगी पार्टियों पर नैतिक आचरण थोपा नहीं जा सकता. यही वजह है कि राजा के इस्ती़फे के लिए सरकार को इतने पापड़ बेलने पड़े और इसमें भी कोई संदेह नहीं कि कैबिनेट में अपने हिस्से का मंत्रालय दोबारा पाने के बाद डीएमके इसकी क़ीमत ज़रूर वसूल करेगा. फिर यह भी सत्य है कि केंद्र की ताक़त में कमी भले आई हो, लेकिन विधायिका के मुक़ाबले कार्यपालिका अभी भी काफी मज़बूत है. विपक्ष चाहकर भी सरकार का कुछ नहीं बिगाड़ सकता, क्योंकि सरकार हमेशा ही अपनी मर्जी के बिलों को संसद की मंजूरी दिलाने में कामयाब रहती है. विपक्ष के पास एक ही हथियार बचा है कि वह हंगामा कर संसद की कार्यवाही में रुकावट पैदा करे और तभी ऐसे नज़ारे हमें देखने को मिल रहे हैं.
लेकिन यह भी एक नई शुरुआत है, क्योंकि आपातकाल से पहले तक संसद में होने वाली बहसों को सरकार काफी अहमियत देती थी, लेकिन अब संसद के सत्र छोटे होते हैं और सरकार उन्हें अपनी सुविधा के हिसाब से आयोजित करती है. विपक्ष सरकार की इस चालाकी को अच्छी तरह समझता है, लेकिन गुस्सा करने के अलावा और कुछ नहीं कर सकता. कार्यपालिका पर नकेल कसने का काम न्यायपालिका भी कर सकती है. सर्वोच्च न्यायालय के पास कार्यपालिका को घुड़की देने का नैतिक अधिकार है, लेकिन इससे ज़्यादा कुछ नहीं. गोदामों में सड़ते अनाज वाले मामले में हमने देखा कि सर्वोच्च न्यायालय सरकार के ख़िला़फ कड़ाई से पेश आ सकता है, लेकिन संबंधित मंत्रालय यदि ऐसे व्यक्ति के हाथों में हो, जो गठबंधन में शामिल किसी ताक़तवर पार्टी का नेता हो तो प्रधानमंत्री भी कुछ खास नहीं कर सकते. शरद पवार किसी से आदेश नहीं लेते, किसी की बात नहीं सुनते. प्रधानमंत्री चाहकर भी सर्वोच्च न्यायालय को अपने सहयोगियों से ज़्यादा तवज्जो नहीं दे सकते. लेकिन बड़ा सवाल यह है कि क्या हमारा देश प्रधानमंत्री को उतनी ही इज़्ज़त देता रहेगा, जितनी उन्हें अब तक मिलती रही है?

गुरुवार, 9 दिसंबर 2010

दागदार हो रहा समाजवाद

समाजवाद एक आर्थिक-सामाजिक दर्शन है। समाजवादी व्यवस्था में धन-सम्पत्ति का स्वामित्व और वितरण समाज के नियन्त्रण के अधीन रहते हैं। समाजवाद अंग्रेजी और फ्रांसीसी शब्द सोशलिज्म का हिंदी रूपांतर है। 19वीं शताब्दी के पूर्वार्ध में इस शब्द का प्रयोग व्यक्तिवाद के विरोध में और उन विचारों के समर्थन में किया जाता था जिनका लक्ष्य समाज के आर्थिक और नैतिक आधार को बदलना था और जो जीवन में व्यक्तिगत नियंत्रण की जगह सामाजिक नियंत्रण स्थापित करना चाहते थे। लेकिन आज के दौर में समाजवाद के पहरूओं की कार्यप्रणाली देखकर ऐसा लगता है जैसे व्यक्तिवाद के बिना समाजवाद की कल्पना ही बेमानी है।
उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव समाजवाद के नाम पर राजनीति कर रहे हैं लेकिन उन्होंने और उनके समर्थकों के समाजवाद की एक ऐसी परिभाषा गढ़ दी है कि स्वर्ग में बैठे उनके गुरू
राम मनोहर लोहिया भी आहें भर रहे होंगे। समाजवाद के नाम पर मुलायम ने अपनी महत्वकांक्षाएं पूरी करने के लिए वह सब कुछ किया जिसकी कभी लोहिया ने कल्पना भी नहीं की होगी। आज वही सब मुलायम के लिए परेशानी का सबस बन गया है। समाजवादी पार्टी के लिए उत्तर प्रदेश की राजनीति में अपने आप को स्थापित करके रखना मुश्किल-सा नजर आ रहा है। जो चेहरे कभी समाजवादी पार्टी की पहचान हुआ करते थे, पिछले कुछ समय में एक-एक कर सपा से दूर हो गए. इनमें अमर सिंह भी शामिल हैं जो खुद इनमें से कई की विदाई का सबब बने और अंतत: खुद भी विदा हुए. जमे-जमाए नेताओं के जाने से सपा के लिए मुश्किलें लगातार बढ़ती रही हैं.
'कभी न जिसने झुकना सीखा, उसका नाम मुलायम थाÓ, दो-ढाई वर्ष पहले जब समाजवादी पार्टी के मुख्यालय के गेट के बाहर यह नारा लगा रहे नौजवानों के एक झुंड को कुछ लोगों ने रोकने की कोशिश की और सही नारा - 'कभी न जिसने झुकना सीखा, उसका नाम मुलायम हैÓ, लगाने को कहा तो नाराज नौजवानों ने जवाब दिया, 'नहीं हम तो यही नारा लगाएंगे. या फिर नेता जी अमर सिंह के आगे अकारण झुकना बंद करें.Ó हालांकि यह घटना बहुत छोटी-सी थी, मगर इससे समाजवादी पार्टी के भीतर अमर सिंह की भूमिका और अमर सिंह के कारण समाजवादी आंदोलन को हो रहे नुकसान का अंदाजा लगाया जा सकता था. हालांकि तब तक कार्यकर्ताओं को तो इस बात का एहसास हो गया था कि अमर सिंह के क्या मायने हैं और उनका नफा-नुकसान क्या हैं, लेकिन जमीनी राजनीति के धुरंधर मुलायम सिंह यादव पर अमर सिंह का जादू कुछ इस तरह चढ़ा हुआ था कि वे सब कुछ जानते हुए भी इस हकीकत से अनजान बन रहे थे कि 'अमर प्रभावÓ का घुन समाजवादी आंदोलन को लगातार खोखला करता जा रहा है.
समाजवादी पार्टी को खोखला करने में 'अमर प्रभावÓ ने दो तरह से काम किया. एक ओर इसने समाजवादी पार्टी को अभिजात्य चेहरा ओढ़ाकर अपना चरित्र बदलने के लिए उकसाया तो दूसरी ओर पार्टी में जमीन से जुड़े नेताओं और जमीनी कार्यकर्ताओं की उपेक्षा शुरू हो गई. मुलायम के केंद्रीय रक्षा मंत्री रहते हुए जब 1997 में लखनऊ में समाजवादी पार्टी कार्यकारिणी की बैठक एक पांच सितारा होटल में आयोजित की गई तो आलोचना करने वालों में मुलायम के राजनीतिक विरोधियों के साथ-साथ समाजवादी पार्टी के आम नेता और कार्यकर्ता भी थे. मुलायम सिंह के खांटी समाजवाद का यह एक विरोधाभासी चेहरा था. लेकिन इसके बाद तो यही सिलसिला शुरू हो गया. पार्टी समाजवादी सिद्धांतों और जमीनी राजनीति को एक-एक कर ताक पर रखते हुए 'कॉरपोरेट कल्चरÓ के शिकंजे में फंसती चली गई. नेतृत्व में एक ऐसा मध्यक्रम उभरने लगा जिसे न समाजवादी दर्शन की परवाह थी और न समाजवादी आचरण की चिंता.
समाजवादी पार्टी के लिए उत्तर प्रदेश की राजनीति में अपनी हैसियत बचाए रखना इतना मुश्किल कभी नहीं रहा. सिकुड़ती राजनीतिक ताकत, लगातार साथ छोड़ते पुराने साथी, कुछ अपनी उम्र पूरी कर चुकने की वजह से तो कुछ पार्टी में अपनी उपेक्षा के कारण. एक ओर विधानसभा में मायावती का प्रचंड बहुमत और दूसरी ओर लोकसभा चुनाव परिणामों में कांग्रेसी उलटफेर के चलते राज्य में तीसरे स्थान पर सिमटने का खतरा, एक ओर पिछड़ी जातियों पर कमजोर पड़ती पकड़ और दूसरी ओर मुसलिम वोट बैंक पर नजर गड़ाए प्रतिद्वंद्वी राजनीतिक दल, बसपाई चालों के चलते सहकारी संस्थाओं और ग्रामीण लोकतांत्रिक व्यवस्था पर से नियंत्रण खोते जाने का एहसास और छात्रसंघों की राजनीति पर मायावती का अंकुश, केंद्र में महत्वहीन स्थिति और इन सबसे ऊपर, पार्टी पर मुलायम के घर की पार्टी बन जाने की अपमानजनक तोहमत. ऐसी न जाने कितनी वजहें एक साथ समाजवादी पार्टी के हिस्से आई हैं कि कुछ समय पहले तक तो यह भी समझा जाने लगा था कि समाजवादी पार्टी अब उत्तर प्रदेश में तीसरे-चौथे नंबर की पार्टी बन गई है. कुछ राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों ने तो इसे गुजरे जमाने की कहकर इतिहास की किताबों में दर्ज रहने के लिए छोड़ देने की बातें तक कह डाली थीं. राजनीति के बारे में यह कहा जाता है कि यहां कुछ भी स्थायी नहीं होता. उत्तर प्रदेश की राजनीति में भी इन दिनों यह एक बड़ा सवाल है कि क्या सपा अपने दामन के धब्बों को कभी धो पाएगी और क्या उसका ग्रहण काल अब खत्म होने जा रहा है.

उत्तर प्रदेश में नवंबर की शुरुआत के साथ ही जाड़ों के सर्द मौसम की शुरुआत हो जाती है, लेकिन समाजवादी पार्टी के लिए इस बार का नवंबर सर्दियों में गरमी का सा एहसास लाने वाला साबित हो रहा है. इस महीने में हुई तीन बड़ी घटनाओं ने 'एक थी समाजवादी पार्टीÓ में कुछ नई ऊर्जा का संचार किया है. इनमें पहली घटना मोहम्मद आजम खान की घर वापसी की है तो दूसरी उत्तर प्रदेश विधानसभा के दो उपचुनावों के नतीजे. तीसरी घटना बिहार के चुनाव परिणाम के रूप में है. इन तीनों घटनाओं ने सपा में नई जान फूंकने का काम किया है. कम से कम पार्टी से जुड़े लोगों का तो यही मानना है.
मुलायम के पुराने साथी बेनी प्रसाद वर्मा जो कभी समाजवादी पार्टी में मुलायम के बाद सबसे महत्वपूर्ण नेता माने जाते थे, उन्हें तक साइड लाइन करने की कोशिशें इसी दौरान शुरू हो गई थीं. उन दिनों लखनऊ में समाजवादी पार्टी के मुख्यालय में सपा के एक विधायक सीएन सिंह, बेनी प्रसाद वर्मा पर आए दिन पार्टी हितों और पार्टी कार्यकर्ताओं की उपेक्षा करने का आरोप लगाते हुए टेलीविजन कैमरों के सामने खड़े दिखाई देते थे. तब भी हर कोई यह जानता और मानता था कि इस सबके पीछे सीधे अमर सिंह का हाथ है. समाजवादी लोगों को तब इस सबसे काफी पीड़ा होती थी लेकिन समाजवादी आंदोलन को कमजोर करने वाली इस रस्साकशी पर मुलायम हमेशा खामोश ही रहे. हालांकि आज न सीएन सिंह समाजवादी पार्टी में हैं, न अमर सिंह और न ही बेनी प्रसाद वर्मा, मगर इन तीनों के रहने और तीनों के न रहने के बीच समाजवादी पार्टी ने काफी कुछ खो दिया है. जो ज्यादा चालाक थे, मौका परस्त थे, उन्होंने तो मौके का फायदा उठाते हुए अपने लिए उत्तर प्रदेश में मुलायम की सरकार के अंतिम दौर में ही सुरक्षित नावें ढूढ़ ली थीं. मगर बहुतों को बिना तैयारी असमय पार्टी से किनारा करना पड़ा. 'अमर प्रभावÓ से प्रताडि़त, पीडि़त और उपेक्षित-अपमानित होकर सपा से विदाई लेने वालों में राजबब्बर, बेनी प्रसाद वर्मा और मोहम्मद आजम खान सबसे प्रुमख रहे. गौरतलब है कि ये तीनों ही अलग-अलग कारणों से सपा के लिए महत्वपूर्ण थे. राज बब्बर जहां पार्टी के पहले सिने प्रचारक थे, भीड़ जुटाऊ चेहरे थे, वहीं बेनी जमीनी जोड़-तोड़ के माहिर और उत्तर प्रदेश के एक खास इलाके में कुर्मी वोटरों के जातीय नेता. आजम की तो राजनीतिक पैदाइश ही अयोध्या विवाद से हुई थी और इस लिहाज से वे अल्पसंख्यकों की हिमायती पार्टी के सर्वाधिक प्रभावशाली फायर ब्रांड नेता थे. इन तीनों की रुख्सती समाजवादी पार्टी के लिए जोर का झटका रही जिसका असर भी जोर से ही हुआ.
समाजवादी पार्टी के एक वरिष्ठ विधायक मानते हैं, राजनीति में विचारधारा के आधार पर साथ छूटना एक अलग बात होती है. ऐसा तो होता ही रहता है, लेकिन समाजवादी पार्टी में तो कई बड़े नेताओं को जबरन बेइज्जत करके बाहर किया गया. इसका सीधा-सीधा असर कार्यकर्ताओं के मनोबल पर पड़ा. सितंबर, 2003 में जब मुलायम ने उत्तर प्रदेश विधान सभा में बहुमत साबित किया था तो समाजवादी पार्टी के हौसले सातवें आसमान पर थे. लेकिन साढ़े तीन साल की अपनी लंबी पारी में मुलायम पार्टी के हौसले के इस ग्राफ को ऊपर नहीं ले जा सके. वह नीचे ही गिरता गया और इसकी सबसे बड़ी वजह थी अमर सिंह का प्रभाव. इसके साथ ही इन साढ़े तीन वर्षों में जिस तरह का प्रशासन मुलायम सिंह ने चलाया उसने रही-सही कसर पूरी कर दी.
इस दौर में ऐसी भी स्थितियां हो गई थीं कि समाजवादी पार्टी के थिंक टैंक कहे जाने वाले, मुलायम के भाई रामगोपाल यादव तक राजनीतिक एकांतवास में चले गए थे. पार्टी के वैचारिक तुर्क जनेश्वर मिश्र और मोहन सिंह हाशिए पर थे और लक्ष्मीकांत वर्मा जैसे गैरराजनीतिक समाजवादी चिंतक दूर से तमाशा देखकर अरण्य रोदन करने पर मजबूर हो चुके थे. समाजवादी पार्टी के अनेक वरिष्ठ नेता यह महसूस करते हैं कि उस दौर का खामियाजा पार्टी आज तक भुगत रही है. जिस सत्ता विरोधी लहर पर सवार होकर मायावती ने उत्तर प्रदेश फतेह कर लिया उसकी जड़ें मजबूत करने में सपा का दबंग राज, कार्यकर्ताओं एवं नेताओं की बेलगाम गुंडागर्दी और सरकार का जनसमस्याओं से हटता ध्यान जैसे कारक तो जिम्मेदार थे ही 'अमर प्रभावÓ भी काफी हद तक जिम्मेदार था. अमर सिंह के खास सौंदर्यबोध की चकाचौंध ने धरतीपुत्र को ऐसा मंत्र मुग्ध कर दिया कि वे जमीनी हकीकत से रूबरू हो ही नहीं सके. जिस मुलायम के जनता दरबार एक दौर में खचाखच भरे रहते थे उन्हीं मुलायम से मिल पाना आम आदमी या आम कार्यकर्ता तो दूर विधायकों अथवा अन्य नेताओं के लिए भी मुश्किल हो गया. अमर सिंह हमेशा छाया की तरह मुलायम के साथ होते, उनके एक-एक कदम की नाप जोख कर अमर के चश्मे से होती. सैफई को बॉलीवुड बना देने की चाहत, जया प्रदा के लिए जिद, कल्याण सिंह से एक बार अलगाव के बाद दूसरी बार उनके घर जाकर उन्हें दोस्त बनाने का नाटक, अनिल अंबानी की दोस्ती और दादरी पावर प्लांट जैसे जो तमाम काम मुलायम ने किए उनका पछतावा मुलायम को अब हो रहा होगा और कल्याण से दोस्ती के मामले में तो मुलायम गलती को सार्वजनिक तौर पर स्वीकार करके माफी भी मांग चुके हैं. हालांकि अमर सिंह अब सपा के लिए 'गुजरा जमानाÓ हो चुके हैं, लेकिन इस गुजरे जमाने ने समाजवादी पार्टी के प्रभा मंडल की ओजोन परत में इतना बड़ा छिद्र कर डाला है कि मायावती सरकार के तीन साल के जनविरोधी शासन के बावजूद उससे होने वाला विकिरण पूरी तरह रुक नहीं सका है.
समाजवादी पार्टी के वरिष्ठ नेता अशोक वाजपेयी कहते हैं, हमें अब उज्वल संभावनाएं दिख रही हैं. मौजूदा बीएसपी सरकार से जनता में जबर्दस्त असंतोष है. लेकिन यह सरकार इतनी बर्बर है कि जनता अपने असंतोष को अभिव्यक्त नहीं कर पा रही है. सपा ही इस असंतोष को स्वर दे सकती है. उत्तर प्रदेश का संघर्ष अब मायावती सरकार के अंधेर और समाजवादी पार्टी के सिद्धांतों के बीच ही होगा.
इन उज्वल सम्भावनाओं की तह में नवंबर की वही तीन घटनाएं हैं जिन्होने समाजवादी पार्टी को नई उम्मीद दी है. आजम खान की वापसी समाजवादी पार्टी की अपने बिखरे कुनबे को फिर से बटोरने की कोशिश तो है ही, इसने अल्पसंख्यकों के बीच अपनी विश्वसनीयता बहाल करने की उम्मीद भी पार्टी के भीतर जगा दी है. हालांकि कुछ विश्लेषक इसे एक सामान्य घटना ही मान रहे हैं क्योंकि उनका मानना है कि आजम खान अयोध्या मुद्दे की उपज हैं. जब तक वह मुद्दा जिंदा था आजम की आवाज में दम था. अब जब हाईकोर्ट के फैसले ने अयोध्या मुद्दे की ही हवा निकाल दी है तो यह उम्मीद कैसे की जाए कि उस मुद्दे को लेकर चर्चा में रहने वाले आजम मुसलमानों के बीच कोई बड़ा गुल खिला पाएंगे? उत्तर प्रदेश में मुसलिम समुदाय की बात की जाए तो मोटे तौर पर यह माना जाता है कि किन्हीं खास लहरों को छोड़कर सामान्य चुनावों में उनका वोट 1967 में चौधरी चरण सिंह के बीकेडी बनाने के बाद से ही कांग्रेस से अलग होने लगा था. 4 नवंबर, 1992 को जब मुलायम सिंह यादव ने समाजवादी पार्टी बनाकर अपनी अलग राजनीति शुरू की तो बाबरी मस्जिद पर उनके रुख की वजह से यह मुसलिम वोट एक तरह से उन्हें मिल गया. पिछले विधानसभा चुनाव तक मुसलिम मतदाता के पास समाजवादी पार्टी के अलावा दूसरा विकल्प नहीं था, लेकिन लोकसभा चुनाव में सपा की कल्याण से जुगलबंदी के चलते कांग्रेस के रूप में उसे एक विकल्प मिल गया. अब अगर मायावती भी मुसलिम आरक्षण जैसा कोई ब्रह्मास्त्र छोड़ती हैं तो उसकी चुनौती भी सपा के सम्मुख खड़ी हो सकती है. फिर भी इतना तो माना जा सकता है कि आजम खान की घर वापसी के बाद समाजवादी पार्टी के पास एक तीखा और प्रभावशाली वक्ता और बढ़ जाएगा जो अल्पसंख्यक मामलों में खुलकर और प्रभावशाली तरीके से उसका पक्ष रख सकेगा. लेकिन कल्याण सिंह से दोस्ती की कड़वी हकीकत अब भी पार्टी के दामन पर चस्पा है. हालांकि सांप्रदायिक समझे जाने वाले पवन पांडे और साक्षी महाराज जैसों को भी मुलायम अपने साथ ला चुके हैं, लेकिन कल्याण से उनकी दोस्ती मुसलिम मानस पचा नहीं पाया है. मुलायम के इस मुद्दे पर सार्वजनिक रूप से माफी मांग लेने के बाद भी उनके प्रति पैदा हुआ संदेह खत्म नहीं हुआ है. आजम खान इस संदेह को पूरी तरह खत्म कर पाएंगे इसमें शक है. फिर भी आजम की घर वापसी समाजवादी पार्टी के लिए एक उम्मीद की वापसी तो है ही.
उपचुनावों के नतीजे भी निश्चित तौर पर समाजवादी पार्टी के लिए उत्साहवर्धक हैं. बीएसपी के इन उपचुनावों में वाकओवर दे देने के कारण इन उपचुनावों में मुख्यत: कांग्रेस और समाजवादी पार्टी को एक-दूसरे की तुलना में अपनी हैसियत आंकने का अवसर मिला था और समाजवादी पार्टी ने इसमें अपनी श्रेष्ठता सिद्ध कर दी है. वैसे तो एटा जिले की निधौली कलां और लखीमपुर दोनों की ही सीट समाजवादी पार्टी के विधायकों के निधन से खाली हुई थीं और सहानुभूति लहर का लाभ भी उसे मिलना तय था लेकिन कांग्रेस की इन दोनों ही सीटों पर जिस तरह की दुर्गति हुई उसने समाजवादी पार्टी का सीना चौड़ा कर दिया है. खास तौर पर लखीमपुर सीट पर कांग्रेस सांसद के पुत्र सैफ अली की जमानत भी न बच पाने से समाजवादी पार्टी के लिए यह मानना आसान हो गया है कि उत्तर प्रदेश में लोकसभा चुनाव के दौरान पैदा हुआ कांग्रेसी खुमार अब उतार पर है.
बिहार चुनाव के नतीजों ने समाजवादी पार्टी की इस धारणा को और भी पुख्ता कर दिया है. जिस तरह से वहां सोनिया और राहुल का जादू बेअसर होने की बात कही जा रही है उसने समाजवादी पार्टी को बेहद उत्साहित कर दिया है. खासकर बिहार में मुसलिम मतदाताओं की कांग्रेस से दूरी ने सपा को जबर्दस्त राहत दी है. जिस तरह बिहार कांग्रेस के अध्यक्ष महबूब अली स्वयं सुरक्षित समझी जाने वाली सिमरी बख्तियारपुर सीट से हार गए, वह भी समाजवादी पार्टी को मुसलिम मतों के अपने पक्ष में बने रहने की आश्वस्ति दे रहा है. इससे सपा को अब फिर से यह लगने लगा है कि उत्तर प्रदेश में वही सत्ता की प्रमुख दावेदार है. समाजवादी पार्टी के एक पुराने नेता यह स्वीकार करते हैं कि पार्टी के अंदर अमर सिंह के दिनों की संस्कृति अब पूरी तरह खत्म हो चुकी है. वे जिस तरह मुलायम सिंह से अपनी हर बात मनवा लेते थे उसका खामियाजा अब तक सभी को भुगतना पड़ रहा है. लेकिन अब अच्छे दिन वापस हो रहे हैं और सबसे अच्छी बात यह है कि अब मुलायम फिर से खुद सारे निर्णय करने लगे हैं.इस बदलाव की एक झलक पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव रामगोपाल यादव के उस पत्र से भी मिलती है जो उन्होंने 30 अक्टूबर को प्रदेश अध्यक्ष अखिलेश यादव को लिखा है. इस पत्र में कहा गया है कि पार्टी के किसी भी नेता को अगर कोई होर्डिंग लगानी है तो केवल राष्ट्रीय अध्यक्ष का ही चित्र उस पर होना चाहिए. मुलायम की सरकार के दिनों में हर चौराहे पर मुलायम की तस्वीरों के साथ छुटभय्ये नेताओं की तस्वीरें लगे होर्डिंग दिखाई देते थे और नेता जी के साथ अपनी इस 'निकटताÓ का फायदा उठाने में ये नेता कोई कसर नहीं छोड़ते थे. ऐसे लोगों के कारण पार्टी को तब बहुत बदनामी मिली थी. अब मुलायम ने इसे एकदम बंद करने को कहा है. मतलब साफ है कि वे पार्टी को अब फिर से कड़े अनुशासन में रखना चाहते हैं. समाजवादी पार्टी के लिए हौसला बढ़ाने वाली सबसे बड़ी बात यह है कि मुलायम सिंह यादव अब फिर से सक्रिय प्रतीत होने लगे हैं.
हालांकि मुलायम पहले कई बार यह साबित कर चुके हैं कि वे एक जबर्दस्त फाइटर हैं. अगर ऐसा न होता तो वे 1989 में 'हिंदुओं का हत्याराÓ, 'राम विरोधीÓ और 'मौलाना मुलायमÓ की चिप्पियां लगने के बाद भी सत्ता में वापसी कैसे कर पाते? मगर यह भी सच है कि तब और अब की स्थितियां बिलकुल अलग हैं. बकौल आजम खान, सपा के जहाज को नुकसान पहुंचाने वाले चूहों को बाहर कर मुलायम ने अपने जीवन का नया अध्याय शुरू कर दिया है. लेकिन उत्तर प्रदेश के चुनाव अभी काफी दूर हैं. फिर अभी बीएसपी, कांग्रेस और बीजेपी सभी को अभी अपने-अपने तरकश से तीर निकालने हैं. मायावती के इस बार के अब तक के और मुलायम के पिछले कार्यकाल की तुलना करें तो जनआकांक्षाओं पर खरा उतरने के मामले में दोनों में 19-20 का ही फर्क है. लेकिन मायावती के पास अभी भी काफी समय बाकी है. यह मायावती के लिए लाभ की स्थिति है. जबकि मुलायम को इसी अवधि में अपने सभी पुराने पाप धोकर जनता के सामने नई उम्मीदों के साथ पेश होना होगा. और यह काम भी बहुत आसान नही है प्रो. एचके सिंह के इस विश्लेषण से यह स्पष्ट है कि सफलताओं के नये अध्याय लिखना मुलायम के लिए काफी मुश्किलों का काम है. ऐसे में मुलायम के लिए अभी भी लखनऊ बहुत दूर है. उनके लिए राहत की बात यह है कि वे भी अब लखनऊ की दौड़ में शामिल हैं.
राज बब्बर
समाजवादी पार्टी से निकाले जाने के बाद अमर सिंह लगातार यह कहते रहे हैं कि भले ही उन पर पार्टी में फिल्मी सितारों को लाने का आरोप लगाया जाता रहा हो लेकिन इसकी शुरुआत खुद मुलायम सिंह ने 1994 में राज बब्बर को पार्टी में लाकर की थी. अमर सिंह की यह बात तथ्य के रूप में भले ही सही हो लेकिन इसके संदर्भ बिलकुल ढीले हैं. राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के पूर्व छात्र राज बब्बर का एक लंबा फिल्मी करियर रहा है, लेकिन इससे यह बात कहीं से नहीं भुलाई जा सकती कि राज बब्बर अगर आज भारतीय राजनीति में टिके हैं तो सिर्फ अपने राजनीतिक दम-खम की बदौलत, न कि अपने सिनेमाई ग्लैमर की वजह से. वे अपने कॉलेज के दिनों से ही समाजवाद और लोहिया में आस्था रखने वाले छात्र नेता के रूप में पहचाने जाते थे और अस्सी के दशक के अंत में उन्होंने पूर्व प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह के समर्थन में जबर्दस्त सभाएं की और संघर्ष किया. सिनेमा से इतर उनकी राजनीतिक पहचान इसी दौर में बन चुकी थी. नब्बे के दशक की शुरुआत होते-होते राज बब्बर वीपी सिंह से दूर होकर समाजवादी पार्टी में आ गए और 1994 में पहली बार राज्यसभा से सांसद बने. यह राज बब्बर पर मुलायम सिंह का भरोसा ही था कि उन्होंने राज बब्बर को 1996 में लखनऊ से पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के खिलाफ लोकसभा चुनावों में उतारा. राज बब्बर लखनऊ से तो हार गए लेकिन अगले दोनों लोक सभा चुनावों में उन्होंने अपने शहर आगरा की सीट समाजवादी पार्टी को दिला दी. इसी दौरान पार्टी में अमर सिंह का दबदबा लगातार बढ़ रहा था और बब्बर पार्टी में असहज हो रहे थे. अंतत: वे ऐसे पहले व्यक्ति बने जिन्होंने अमर सिंह के खिलाफ मोर्चा लेने की हिम्मत दिखाई. उन्होंने सार्वजनिक तौर पर अमर सिंह के लिए दलाल जैसे शब्दों का प्रयोग किया. इसके बाद तो पार्टी में एक ही रह सकता था. हुआ वही. अमर रहे और राज बब्बर गए. सपा से बाहर जाने के बाद राज बब्बर लगातार पार्टी के लिए मुश्किलें ही पैदा करते रहे. पहले 2007 के विधानसभा चुनावों के ठीक पहले उन्होंने किसानों के मुद्दे पर दादरी परियोजना के विरोध में एक बार फिर वीपी सिंह के साथ मिलकर जन मोर्चा के तले एक जबर्दस्त आंदोलन छेड़ा. दादरी प्रोजेक्ट मुलायम सिंह के तत्कालीन दोस्त अनिल अंबानी का था. राज बब्बर के आंदोलन से मुलायम सिंह के खिलाफ जो माहौल बना उसने बसपा को बहुत फायदा पहुंचाया. इन चुनावों में जन मोर्चा खुद तो कोई सीट नहीं जीत पाया लेकिन उसने कम से कम 50 सीटों पर सपा को नुकसान पहुंचाया. लेकिन बब्बर सपा के लिए इससे बड़ी मुसीबत 2009 के फिरोजाबाद लोकसभा उपचुनाव में साबित हुए. मुलायम सिंह के बेटे अखिलेश यादव के छोडऩे से खाली हुई इस सीट पर कांग्रेस की तरफ से लड़ते हुए उन्होंने मुलायम सिंह की बहू डिंपल यादव को हराकर अपनी राजनीतिक हैसियत सिद्ध कर दी. इस हार को डिंपल की नहीं बल्कि मुलायम सिंह और सपा की हार के रूप में देखा गया क्योंकि फिरोजबाद सीट पर यादव, लोध और मुसलमान वोट बड़ी संख्या में हैं जिसे सपा का परंपरागत वोट बैंक माना जाता था. राज बब्बर के दिए इस घाव को सपा शायद ही कभी भुला पाए.
बेनी प्रसाद वर्मा
तकरीबन दो दशक तक उत्तर प्रदेश विधानसभा के सदस्य रहे और पांच बार लोकसभा के लिए चुने गए बेनी प्रसाद वर्मा जब तक समाजवादी पार्टी में थे, उनकी गिनती प्रदेश के सबसे कद्दावर नेताओं में होती थी. राज्य और केंद्र दोनों की सरकारों में वे काबीना मंत्री बन चुके थे. जातियों में उलझी उत्तर प्रदेश की राजनीति में किसी दूसरी पार्टी के पास कुर्मी लीडर के तौर पर वर्मा की काट नहीं थी. बाराबंकी से लेकर बहराइच और लखीमपुर तक के कुर्मी वोटों पर उनकी मजबूत पकड़ थी. मुलायम सिंह यादव और बेनी प्रसाद वर्मा की दोस्ती पुरानी थी लेकिन इतनी गहरी दोस्ती होने के बाद भी बेनी वर्मा के साथ वही हुआ जो सपा के दूसरे वरिष्ठ नेताओं के साथ हुआ. जैसे-जैसे पार्टी में अमर सिंह का कद बढ़ा, बेनी उपेक्षितों की कतार में चले गए. मुलायम सिंह के साथ उनकी निर्णायक लड़ाई 2007 विधानसभा चुनावों के ठीक पहले शुरू हुई. इन चुनावों में समाजवादी पार्टी ने बहराइच सीट से वकार अहमद शाह को टिकट दिया जो सपा की सरकार में श्रम मंत्री रह चुके थे. बेनी ने शाह को टिकट दिए जाने का खुला विरोध किया. क्योंकि बेनी के मुताबिक शाह उनके एक कट्टर समर्थक राम भूलन वर्मा की हत्या में शामिल थे. बेनी इससे पहले भी इसी मुद्दे को लेकर वकार अहमद शाह को मंत्रिमंडल से हटाए जाने की मांग कर चुके थे. लेकिन जब समाजवादी पार्टी ने ऐसा नहीं किया तब बेनी बाबू ने इसे कुर्मी स्वाभिमान का मुद्दा बनाते हुए पार्टी छोड़ दी और समाजवादी क्रांति दल के नाम से एक नई पार्टी बना ली. उनके बेटे राकेश वर्मा, जो सपा की सरकार में जेल मंत्री थे, ने भी समाजवादी पार्टी से इस्तीफा दे दिया और अपने पिता जी की पार्टी से उन्हीं की कर्मभूमि मसौली सीट से चुनाव मैदान में उतरे. इससे बेनी बाबू को कोई फायदा तो नहीं हुआ (चुनाव में समाजवादी क्रांति दल को एक सीट भी नहीं मिली), लेकिन उन्होंने सपा को खासा नुकसान पंहुचाया. बेनी बाबू की वजह से ही बाराबंकी सीट पर लंबे समय बाद कांग्रेस का कब्जा हुआ और पीएल पुनिया जीते. हालांकि इन दिनों बेनी वर्मा का भविष्य कांग्रेस में भी उज्जवल नजर नहीं आ रहा है और सूत्रों की मानें तो बेनी प्रसाद भी आजम खान की तरह सपा में वापस आ सकते हैं.
आजम खान
हालांकि आजम खान की सपा में वापसी तय हो चुकी है लेकिन फिर भी यहां उनका जिक्र जरूरी है. पिछले कुछ समय में पार्टी को आजम खान से भी महरूमी का सामना करना पड़ा है और इससे उसे बड़ी मुश्किल भी हुई है. आजम खान की सपा से विदाई का मुख्य कारण अमर सिंह और उनकी ही वजह से कल्याण सिंह रहे. अमर सिंह के मोह की वजह से समाजवादी पार्टी ने अपने जिन नेताओं को खोया उनमें आजम सबसे अहम थे. इसीलिए शायद हाल में आजम की पार्टी में वापसी से पहले मुलायम सिंह ने कहा कि अगर आजम चाहेंगे तो विरोधी दल के नेता का पद उन्हें दिया जाएगा.
अमर सिंह ने अपने मैनेजमेंट और सितारा संस्कृति से समाजवादी पार्टी में जो जगह और दबदबा कायम किया था उससे पुराने समाजवादी नेता एकदम उपेक्षित हो गए थे. आजम भी इन्हीं में थे. अमर सिंह और आजम के बीच की खाई उस वक्त जग जाहिर हो गयी जब आजम के न चाहते हुए भी सपा ने जया प्रदा को रामपुर से लोकसभा का उम्मीदवार घोषित कर दिया. रामपुर सदर से 7 बार के विधायक आजम का कहना था कि जया प्रदा को रामपुर से कोई सरोकार नहीं है ऐसे में उन्हें टिकट क्यों दिया गया. लेकिन अमर सिंह के दबदबे के आगे उनकी नहीं सुनी गयी. जया चुनाव लड़ी और जीत भी गईं. आजम खान की दूसरी नाराजगी मुलायम सिंह के कल्याण सिंह से हाथ मिलाने को लेकर भी थी. इन्हीं दोनों मुद्दों पर नाराज आजम खान को अंतत: पार्टी से बाहर जाना पड़ा. लेकिन लोकसभा चुनाव के नतीजे आने के बाद सपा को आजम खान की अहमियत का एहसास हो गया. अमर सिंह के सपा से जाते ही इस बात की अटकलें तेज हो गईं कि आजम की सपा में वापसी हो सकती है. लेकिन आजम खान बराबर यह कहते रहे कि पहले मुलायम कल्याण सिंह से हाथ मिलाने के लिए सार्वजनिक तौर पर मुसलमानों से माफी मांगें तभी वापसी पर कोई विचार किया जा सकता है. चूंकि सपा को आजम खान की अहमियत समझ में आ चुकी थी, इसलिए मुलायम ने खुद मुसलमानों से माफी भी मांग ली. इसके बाद उनका निष्कासन भी वापस ले लिया गया.
अमर सिंह
जिन हालात में अमर सिंह को पार्टी से निकाला गया, ऐसा लगा जैसे वे खुद यही चाहते हों क्योंकि राम गोपाल यादव से उनके शुरुआती विवाद के बाद ही सपा की तरफ से इसे सुलझा लेने का बयान आया लेकिन अमर सिंह की जुबान नहीं रुकी. अमर सिंह गए तो उनके साथ सपा का फिल्मी सितारों वाला ग्लैमर भी चला गया. जया प्रदा को निकाल दिया गया. मनोज तिवारी और संजय दत्त ने खुद ही इस्तीफ़ा दे दिया. जया बच्चन जब सपा में ही बनी रहीं तो अमर सिंह के साथ बच्चन परिवार के रिश्ते भी खट्टे हो गए. समाजवादी पार्टी ने उनके जाते ही उनकी जगह एक और क्षत्रिय नेता मोहन सिंह को महासचिव और प्रवक्ता बनाकर सामने ले आए. मोहन सिंह पुराने समाजवादी हैं. उन्होंने आपातकाल में 20 महीने जेल में भी गुजारे थे, लेकिन इतना सब होने के बाद भी वे सपा में अमर सिंह के चलते हाशिए पर चले गए थे
1995 में पार्टी में आने वाले अमर सिंह ने समाजवादी पार्टी को एकदम बदल दिया. उन्होंने देश के सबसे चमकदार फिल्मी सितारों और उद्योगपतियों को समाजवादी पार्टी की चौखट पर ला दिया. वे शाहरुख़ खान से अपनी तकरार और कुछ फिल्मी अभिनेत्रियों से अपनी बातचीत को लेकर भी चर्चा में रहे. न्यूक्लियर डील के मुद्दे पर समाजवादी पार्टी के कांग्रेस को समर्थन देने के पीछे अमर सिंह का ही दिमाग था. कल्याण सिंह को सपा में लाने की जमीन भी इन्होंने ही तैयार की थी. पार्टी से निकाले जाने के बाद अमर सिंह लोक मंच बनाकर हर मंच से चिल्लाते रहे है कि मुलायम धोखेबाज हैं और अगर उनमें हिम्मत है तो किसी मुसलमान को मुख्यमंत्री बनाएं.
जनेश्वर मिश्र एवं अन्य
इस साल की शुरुआत में समाजवादी पार्टी को अपने एक और वरिष्ठ नेता जनेश्वर मिश्र को भी खोना पड़ा. हालांकि इसकी वजह सियासी न होकर कुदरती थी. 22 जनवरी को लंबे समय से बीमार चल रहे जनेश्वर मिश्र ने इलाहाबाद के एक अस्पताल में अपनी अंतिम सांस ली. जनेश्वर मिश्र पुराने समाजवादी नेता थे. उन्हें लोहिया के उत्तराधिकारी के तौर पर भी देखा जाता था इसीलिए उनका लोकप्रिय नाम छोटे लोहिया भी था. धुरंधर समाजवादी नेता राज नारायण से उनके करीबी संबंध थे और राज नारायण के निधन के बाद वे समाजवादियों के बीच सबसे सम्मानित नेता की हैसियत रखते थे. चार बार लोकसभा और तीन बार राज्यसभा के सदस्य रहे जनेश्वर मिश्र की राजनीतिक सक्रियता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि गंभीर रूप से बीमार होने के बाद भी उन्होंने अपनी मृत्यु से मात्र तीन दिन पहले 19 जनवरी को सपा के महंगाई और भ्रष्टाचार के मुद्दे पर प्रदेश व्यापी जनांदोलन का इलाहाबाद में नेतृत्व किया था. अमर सिंह की विकसित की गयी सितारा संस्कृति के दौर में समाजवादी पार्टी के अंदर समाजवाद की जो थोड़ी-बहुत महक बाकी रह गई थी उसका केंद्र जनेश्वर मिश्र ही थे. अगर उनकी जगह कोई और होता तो शायद वह भी अमर सिंह की भेंट चढ़ गया होता लेकिन यह जनेश्वर मिश्र का अपना कद और मुलायम सिंह से उनकी नजदीकी ही थी कि सपा में अंत तक उनकी हैसियत पर कोई असर नहीं पड़ा.
इसके अलावा पिछले कुछ समय में समाजवादी पार्टी से आजम खान के अलावा जो मुसलमान नेता बाहर गए उनमें सलीम शेरवानी, शफीकुर्रहमान बर्क और शाहिद सिद्दीकी भी शामिल हैं. भले ही ये नेता पार्टी छोडऩे के लिए कोई वजह बताएं लेकिन इसके लिए उनकी अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं ही ज्यादा जिम्मेदार रहीं.

रविवार, 5 दिसंबर 2010

गुटों में बंटी गडकरी की भाजपा

अपने बेटे की शादी में भले ही नितिन गडकरी ने पूरी भाजपा को बाराती बना दिया हो लेकिन पार्टी के स्तर पर राष्ट्रीय अध्यक्ष लड़ाई और गुटबाजी पर विराम नहीं लगाने में गडकरी पूरी तरह असफल रहे हैं. नितिन गड़करी को भाजपा का राष्ट्रीय अध्यक्ष बने करीब साल भर होने वाला है. लेकिन पार्टी में गुटबाजी रोकने में वे पूरी तरह असफल रहे हैं. आलम यह है कि भाजपा के केंद्रीय नेताओं की गुटबाजी का असर अब राज्यों पर भी पड़ने लगा है. पार्टी के बड़े नेता राज्यों के संगठन और सत्ता पर वर्चस्व बनाए रखने के लिए राज्यों में गुटबाजी को बढ़ावा दे रहे हैं. वे योग्य कार्यकर्ताओं को दरकिनार कर अपने खासमखास को आगे बढ़ा रहे हैं.

उन राज्यों में ज्यादा घमासान है जहां पार्टी की सरकार है. आलम यह है कि 2014 में कांग्रेस को पटकनी देने के लिए संगठन को मजबूत बनाने की बजाए पार्टी के नेता सत्ता और संगठन में वर्चस्व हासिल करने के लिए एक दूसरे को निपटाने में लगे हैं. इससे राज्यों में भाजपा कमजोर हो रही है. कर्नाटक का ताजा उदाहरण सबके सामने हैं कि कैसे एक केंद्रीय नेता और पार्टी के ताकतवर महासचिव अपनी महत्वाकांक्षा को पूरी करने के लिए अपनी ही पार्टी की सरकार गिराना चाहते हैं. कर्नाटक में जबरदस्त गुटबाजी के चलते मुख्यमंत्री येदियुरप्पा पिछले 29 महीने में तीन बार विश्वास मत हासिल करने पर मजबूर हुए हैं. गुटबाजी से आजिज यदुरप्पा तो हाल ही में दिल्ली में बड़े नेताओं के सामने सार्वजनिक रूप से रो तक पड़े थे.

यह हालत केवल कर्नाटक की नहीं है. पंजाब, उत्तराखंड, बिहार, झारखंड में गुटबाजी की बिसात पर खेल जारी है तो मध्य प्रदेश, राजस्थान जैसे राज्यों में भी खिलाड़ी डट कर ताल ठोकते दिख रहे हैं. बिहार चुनाव में अधिक से अधिक सीट जीतने की जितनी तैयारी है उससे कहीं अधिक कोशिश पार्टी में विरोधियों को निपटाने की दिख रही है.प्रदेश अध्यक्ष सीपी ठाकुर और उप मुख्यमंत्री सुशील मोदी टिकट बंटवारे की हारी-जीती बाजी का हिसाब चुकता करने की गुप्त रणनीति में लगे हैं. तो बिहार से ताल्लुक रखने वाले वरिष्ठ नेता रविशंकर प्रसाद, राजीव प्रताप रूडी और शाहनवाज हुसैन भाजपा के अंदर नीतीश कुमार की तरफदारी करने वालों को सबक सिखाने में जुटे हैं. हिमाचल में मुख्यमंत्री प्रेमकुमार धूमल ने विरोधियों को निपटा कर सत्ता और संगठन दोनों पर कब्जा कर लिया है. वहीं उत्तराखंड में राज्य के तीनों बड़े नेता एक दूसरे के पर कतरने में लगे हैं. जबकि झारखंड में झारखंड मुक्ति मोर्चा (जेएमएम) के साथ मिलकर सरकार बनाने के मसले पर शीर्ष नेतृत्व ही दो गुटों में बंटा दिखा. राज्य के पूर्व उप मुख्यमंत्री रघुवरदास और वरिष्ठ नेता और पूर्व वित्त मंत्री यशवंत सिन्हा के बीच छत्तीस का आंकड़ा साफ है. वहीं पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह के खासमखास झारखंड के मुख्यमंत्री पार्टी और संगठन में अपने विरोधियों को किनारे लगाने में जुट गए हैं.

देश की प्रमुख विपक्षी पार्टी भाजपा की हिमाचल, उत्तराखंड, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखंड कर्नाटक, गुजरात के अलावा बिहार और पंजाब में गठबंधन सरकार है. 2009 के आम चुनाव मे भाजपा की करारी हार के बाद पार्टी के शीर्ष नेतृत्व में घमासान मच गया था. संघ के दबाव में आडवाणी नई पीढ़ी को नेतृत्व सौपने के लिए तैयार तो गए, लेकिन उनके चहेतों अरुण जेटली, सुषमा स्वराज, वेंकैया नायडू और अनन्त कुमार में ही पार्टी में वर्चस्व को लेकर टकराव शुरु हो गया. गुटबाजी का आलम यह था कि पार्टी कई खेमों में बट गई. इन चारों के अलावा एक खेमा निवर्तमान पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह का था. तो पार्टी का कट्टरवादी धड़ा नरेंद्र मोदी में पार्टी का भविष्य देख रहा था. खैर, तब मोहन भागवत ने पार्टी में बढ़ती गुटबाजी के लिए इन नेताओं को जिम्मेदार मानते हुए महाराष्ट्र के नेता नितिन गडकरी को पार्टी की राष्ट्रीय अध्यक्ष बना कर यह संदेश देने की कोशिश की गुटबाजी करने वाले नेताओं के पर कतर दिए जाएंगे. लेकिन संघ प्रुमख ने जिन नेताओं को “पावरलेस” करने के लिए नितिन गडकरी को अध्यक्ष बनाया वही नेता बाद में पार्टी में और ताकतवर बन कर उभरे. अब उनकी महत्वाकांक्षाएं फिर जोर मारने लगी हैं. लिहाजा एक दूसरे को कद नीचा करने में लगे हुए हैं. हाल ही में लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष सुषमा स्वराज ने जब अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा की भारत यात्रा के दौरान भाजपा का अमेरिका के प्रति क्या रुख होगा, इस पर विचार करने के लिए बड़े नेताओं की अपने घर पर बैठक बुवॉलाई तो इसमें राजनाथ सिंह को नहीं बुलाया गया. अरुण जेटली, सुषमा स्वराज, नरेंद्र मोदी, वेंकैया नायडू, राजनाथ सिंह खुद को प्रधानमंत्री का दावेदार मानने लगे हैं. इसलिए ये नेता राज्यों में संगठन और सत्ता पर अधिकार चाहते हैं. लिहाजा वे चुन चुन कर अपने चहेतों और चाटुकारों को पद और सत्ता दिलाने में लगे हुए हैं. ऐसे मे कई दमदार और ताकतवर कार्यकर्ता संगठन में पीछे छूट जा रहे हैं. जिससे जमीनी कार्यकर्ताओं में निराशा बढ़ती जा रही है. कर्नाटक का मामला जग जाहिर है. मुख्यमंत्री यदुरप्पा को हटाने के लिए राज्य के पर्यटन मंत्री और खनन माफिया जी जनार्दन रेड्डी ने अभियान चलाया हुआ है. इन रेड्डी बंधुओं को सुषमा स्वराज और अनन्त कुमार का वरदहस्त प्राप्त है. ड्राइंगरूम की राजनीति करने वाले अनन्त कुमार जमीनी नेता यदुरप्पा की कुर्सी पर खुद को विराजमान करना चाहते हैं. आपसी गुटबाजी की वजह से दक्षिण में पहली बार परचम लहराने वाली भाजपा कर्नाटक में लगातार कमजोर हो रही है. तो राजनाथ ने अर्जुन मुड्डा को झारखंड का मुख्यमंत्री बनाने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगा दिया. मुड्डा को रोकने के लिए आडवाणी और उनके चहेतों ने यशवंत सिन्हा का नाम आगे कर दिया. राज्य के पूर्व उप-मुख्यमंत्री रहे रघुबर दास समय की नजाकत को देखते हुए राजनाथ के विरोधी जेटली खेमे में चले गए हैं. लिहाजा झारखंड भाजपा कई गुटों में बंट चुकी है.

जैसा हाल भाजपा के केन्द्रीय नेतृत्व का है, वैसा ही कुछ हाल राजस्थान प्रदेश भाजपा का भी चल रहा है. प्रदेश भाजपा के दो गुटों में बंटे होने के कारण अभी तक राजस्थान विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष पद पर किसी की नियुक्ति नहीं हो पाई है, जबकि यह पद काफी लम्बे अरसे से खाली पड़ा है. एक तरफ अध्यक्ष अरुण चतुर्वेदी और दूसरी तरफ पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे के गुटों के बीच लम्बी खिंचती लड़ाई के कारण विधानसभा में प्रतिपक्ष लगातार कमजोर और दिशाहीन होता जा रहा है. भाजपा की इस अंदरूनी लड़ाई का ही परिणाम है कि अशोक गहलोत सरकार बिना किसी परेशानी के अपना दूसरा साल पूरा करने जा रही है. वसुंधरा राजे और पूर्व पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह छत्तीस का आकड़ा है. जब राजनाथ अध्यक्ष थे, राजस्थान में वसुंधरा को नेता प्रतिपक्ष से हटाने की मुहिम तभी शुरु हुई थी. तो राजे को आडवाणी का आशीर्वाद प्राप्त है. संघ के चह्ते अरुण चतुर्वेदी को संगठन मंत्री रामलाल की पसंद बताया जाता है. राजनाथ सिंह और वसुंधरा राजे सिंधिया के बीच जो विवाद था वह एक चिंगारी के रूप में अभी भी कायम है. वहां संगठन और सत्ता पर कब्जे को लेकर वसुंधरा राजे और उनके विरोधियों में जंग जारी है.

बिहार में भाजपा का मतलब केवल सुशील मोदी रह गया है. मोदी राजनीति के पुराने खिलाड़ी हैं और उन्होंने अपने सभी विरोधियों को या तो विधान परिषद में भेज दिया है या फिर पार्टी में शंट कर दिया है. अरुण जेटली जब बिहार के प्रभारी थे तब भाजपा बिहार में सत्ता में आई. मोदी जेटली के खासमखास रहे हैं और पिछले विधानसभा में टिकट का बंटवारा पूरी तरह से जेटली और मोदी ने ही किया था. सुशील मोदी की मनमानी के खिलाफ आवाज उठाने वाले राधामोहन सिंह जैसे नेताओं को किनारे कर दिया गया. मोदी और जेटली के विरोधियों को मजबूरन चुप रहना पड़ा. लेकिन जेटली के बाद अनंत कुमार के बिहार का प्रभारी बनने के बाद मोदी विरोधी फिर मुखर हो गए थे. बावजूद इसके अरुण जेटली अपने चहेते सीपी ठाकुर को प्रदेश अध्यक्ष बनवाने में कामयाब रहे. अश्विनी चौबे, नंद किशोर यादव और दबी जबान से गिरिराज सिंह जैसे मंत्रियों ने विधानसभा चुनावों से पहले ही मोदी के खिलाफ विरोध का स्वर तेज कर दिया था. पार्टी विधानसभा चुनावों के लिए सर्वे करा रही थी तो मोदी विरोधियों की उम्मीदें जग गईं लेकिन केंद्रीय नेतृत्व को साधने में माहिर मोदी ने फिर अपनी पसंद से ही टिकट बांटा. बिहार के सहप्रभारी धर्मेंद्र प्रधान तक की ज्यादा नहीं चली. बिहार से भाजपा के तीन प्रवक्ता हैं. मुख्य प्रवक्ता रविशंकर प्रसाद की दूसरे प्रवक्ताओं शाहनवाज हुसैन और राजीव प्रताप रूढी से भी नहीं बनती. इसके अलावा पटना के सांसद शत्रुघ्न सिन्हा के साथ भी उनका आंकड़ा नहीं बनता. हालांकि इन नेताओं की फिलहाल ज्यादा नहीं चल पा रही, लेकिन ये सभी गडकरी से नजदीकियां बढ़ा रहे हैं. दो चरण तक दूरी बनाए रखने के बाद शत्रुघ्न सिन्हा गडकरी के अनुरोध पर प्रचार में उतरे हैं. उसी तरह सुषमा स्वराज को भी बिहार में अपने विश्वस्तों की तलाश है. अगर भाजपा का प्रदर्शन इन चुनावों में गिरता है तो इसकी एक बड़ी वजह राज्य में गुटबाजी होगी. हालांकि भाजपा के प्रदेश मंत्री और चुनाव प्रचार अभियान के प्रभारी मृत्युंजय झा बिहार में गुटबाजी से साफ इनकार करते हुए कहते हैं, "बिहार भाजपा में खेमेबाजी की बातें निराधार हैं. पार्टी में जितना समन्वय इन चुनावों में दिखा है उतना पहले कभी नहीं रहा.”

मध्यप्रदेश में भाजपा नेताओं में खुलकर गुटबाजी तो नहीं है, पर विभिन्न महत्वपूर्ण मौकों पर उनके बीच के मनमुटाव सामने आते रहे हैं. सरकार में कई ऐसे मंत्री हैं, जो दिल्ली के नेताओं के साथ संबंधों के कारण अपनी मनमर्जी चलाते हैं. ये बात भले ही खुले तौर पर सामने नहीं आएं, पर भाजपा की विभिन्न बैठकों में मंत्रियों एवं नेताओं को नसीहतें मिलती रही हैं. नितिन गडकरी हो या अनंत कुमार या प्रभात झा या फिर मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान, सभी इस बात को लेकर परेशान हैं कि सत्ता में बैठे लोगों के बीच एवं सत्ता एवं संगठन में संतुलन किस तरह से बनाया जाए. पर प्रदेश में इस तरह की समस्या बढ़ाने में केंद्रीय नेताओं की भूमिका ज्यादा है. प्रदेश के हर बड़े नेता के अपने-अपने संकटमोचक हैं. प्रदेश के एक बड़े नेता कहते हैं, “राज्य के प्रमुख नेताओं के केंद्र के बड़े नेताओं सुषमा स्वराज, अरुण जेटली, अनंत कुमार, लालकृष्ण आडवाणी, वेंकैया नायडू और राजनाथ सिंह से अपने-अपने संबंध हैं. इसकी वजह से केंद्रीय नेताओं के शक्ति संतुलन का प्रभाव प्रदेश की राजनीति पर भी पड़ता है. वे कई बार तो उनके मोहरे की तरह काम करते हैं.”

बाबूलाल गौर को विधानसभा चुनाव में टिकट मिलने की संभावना कम थी और प्रदेश के दिग्गज नेता उनके पक्ष में नहीं थे, पर केंद्रीय नेताओं के हस्तक्षेप से उन्होंने टिकट हासिल कर ली. प्रदेश में भले ही वे अकेले हों, पर केंद्र में वेंकैया नायडू का सहयोग उन्हें लगातार मिलता है. इसी तरह से प्रदेश के बड़े नेता एवं उद्योग मंत्री कैलाश विजयवर्गीय का नाम जमीन घोटाले में आया, पर एक केंद्रीय नेता के संरक्षण के कारण ही वे मंत्री पद पर बरकरार रहे. प्रदेश के कई नेताओं की नाखुशी और खुले विरोध के बावजूद केंद्रीय नेताओं के सहयोग से प्रभात झा प्रदेश भाजपा के अध्यक्ष बन गए. मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की सुषमा स्वराज से निकटता जगजाहिर है. चौहान ने ही अपनी लोकसभा सीट विदिशा से सुषमा को चुनाव जितवा कर संसद भेजा है. तो प्रदेश अध्यक्ष प्रभात झा को अरुण जेटली का बरदहस्त प्राप्त है. प्रभात झा को जबरदस्त विरोध के बावजूद मध्य प्रदेश का अध्यक्ष बनाने में जेटली की महत्वपूर्ण भूमिका रही है. सुश्री उमा भारती का भाजपा में वापसी का मामला भी मध्यप्रदेश के नेताओं के विरोध से कम, राष्ट्रीय नेताओं की आपसी तकरार से लटका हुआ है.

मध्य प्रदेश के बाद बात करते हैं छत्तीसगढ़ की. सूबे के मुख्यमंत्री रमन सिंह को शक्ति संतुलन में माहिर बताया जाता है. भाजपा में कोई भी राष्ट्रीय अध्यक्ष रहे, डा रमन सिंह सबको पटा लेते हैं नतीजन पार्टी में उनके विद्रोही चाहकर भी उनका कुछ नहीं बिगाड़ पा रहे. जब राजनाथ सिंह राष्ट्रीय अध्यक्ष थे तो उनका वरदहस्त रमन सिंह को इस कदर हासिल था कि राज्य का कोई भी नेता रमनसिंह के खिलाफ बोलने की हिमत नहीं जुटा पाता था मगर गडकरी के पार्टी अध्यक्ष बनने के बाद परिस्थितियां बदलने लगी हैं और मुख्यमंत्री भी अब समझौतावादी हो गये हैं. गडकरी के साथ कुछ महीने पहले हुई एक बैठक में पूर्व केन्द्रीय मंत्री और सुषमा कैंप के रमेश बैस ने शिकायत कर दी कि नक्सल मामले में रमनसिंह वरिष्ठ नेताओं की राय को कोई तवज्जो नहीं देते. बयान ने खासा रंग दिखाया नतीजन इसका जवाब देने में मुख्यमंत्री ने देरी नहीं की. उन्होंने साफ कह दिया कि संगठन अपना काम कर रहा है और सरकार अपना. जिन्हें शिकायत हो वे संगठन के सामने अपनी बात रख सकते हैं. खैर, बात और बढ़ती इसके पहले ही रमनसिंह और बैस ने एक साथ बैठकर गिले-शिकवे दूर कर लिये. मगर पार्टी के अंदरूनी जानकारों की मानें तो मुख्यमंत्री बनने की लालसा मन में दबाए बैठे बैस ज्यादा दिन तक चुप नहीं बैठने वाले. वैसे भी वे सुषमा स्वराज के समर्थक माने जाते हैं. तो रमन सिंह के आडवाणी कैंप के वेंकैया नायडू से करीबी रिश्ते हैं. नंदकुमार साय और शिवप्रताप सिंह भी रमन सरकार से खासे नाखुश थे मगर उन्हें राज्यसभा भेजकर मुयमंत्री ने संतुलन कायम करने का संदेश दे दिया है. हालांकि पार्टी का हिन्दुत्ववादी चेहरा सांसद दिलीपसिंह जूदेव की नाराजगी दूर नहीं हो सकी है. आलम यह है कि उनके पुत्र और विधायक युद्धवीरसिंह जूदेव ने संसदीय सचिव पद से इस्तीफा दे दिया है.

वरिष्ठ नेताओं के फीडबैक का ही असर रहा कि गडकरी ने फेरबदल के बहाने रमनसिंह के चहेतों पर गाज गिरानी शुरू कर दी है और इसका पहला लक्ष्य उस तिकड़ी को तोडऩा है जो पार्टी से लेकर सरकार तक का भविष्य तय करती है और जिससे राज्य के कई पार्टी दिगगज मुंह फुलाये बैठे हैं. फेरबदल का पहला शिकार जेटली के करीबी और छत्तीसगढ़ के प्रभारी धर्मेन्द्र प्रधान हुए, जिन्हें छत्तीसगढ़ से हटाते हुए दूसरे राज्य का प्रभारी बना दिया गया. अब अगली बारी सौदान सिंह की बताई जाती है. सिंह के कार्य-व्यवहार को लेकर कई केन्द्रीय नेता नाखुश हैं और वे संगठनमंत्री को बदलने पर जोर दे रहे हैं. वैसे नये प्रदेश प्रभारी जगतप्रकाश नड्डा के आने के बाद राज्य के दूसरे वरिष्ठ मंत्री बृजमोहन अग्रवाल का कद काफी बढ़ा है. अग्रवाल के गडकरी और नड्डा से बहुत पुराने संपर्क हैं इसलिए राज्य-भाजपा में बृजमोहन की दखलंदाजी खासी बढ़ गई है. केन्द्र की राजनीति कर रहे राज्य के कई वरिष्ठ नेता रमन सरकार से असंतुष्ट चल रहे हैं जिनमें रमेश बैस, नंदकुमार साय, करूणा शुक्ला, राज्यसभा सांसद शिवप्रताप सिंह और दिलीपसिंह जूदेव जैसे नेता शामिल हैं। राजनाथ सिंह के पार्टी अध्यक्ष रहते ये नेता चुप ही थे मगर नेतृत्व बदलने और गडकरी के आने के बाद रमन सरकार का जो फीडबैक आलाकमान को दिया गया है, उससे गडकरी खासे सतर्क हो गये हैं.

पंजाब, हिमाचल और उत्तराखंड में भी सत्ता और संगठन पर कब्जे की लडाई चरम पर है. पंजाब में भले ही भाजपा की अकाली दल के साथ गठबंधन सरकार है, लेकिन अकाली हमेशा उसकी जड़े खोदने में लगे रहते हैं. पंजाब में कई दमदार नेता हैं लेकिन प्रदेश अध्यक्ष एक ऐसे कमजोर व्यक्ति को बना दिया गया क्योंकि वह तब के प्रदेश प्रभारी बलबीर पुंज के खासमखास थे. अडवाणी के करीबी हिमाचल के मुख्यमंत्री प्रेमकुमार धूमल राज्य में अपने बेटे और युवा मोर्चा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अनुराग ठाकुर की राह से कांटे निकालने में लगे हैं. अरुण जेटली की मदद से बेटे को युवा मोर्चा का अध्यक्ष बनवाने वाले धूमल संगठन के दमदार नेताओं को किनारे लगाने में जुटे हैं ताकि बेटे को राज्य की राजनीति में आसानी से स्थापित कर सकें. धूमल ने अपने करीबी खिमीराम को जेबी प्रदेश अध्यक्ष बनवा कर सत्ता के साथ संगठन पर भी नियंत्रण करने की कोशिश की है. जेपी नडडा जैसे विरोधियों को उन्होंने राज्य से बाहर केंद्र की राजनीति में भिजवा दिया. उत्तराखंड में तीन बड़े नेता अपनी राजनीतिक आकांक्षाओं को पूरा करने के लिए एक दूसरे को शह-मात देने में जुटे हैं. मुख्यमंत्री रमेश कुमार पोखरियाल “निशंक” के अलावा एक गुट पूर्व मुख्यमंत्री भुवन चंद खंडूरी का है तो दूसरा राष्ट्रीय उपाध्यक्ष भगत सिंह कोशियारी का है. तीनों की गुटबाजी राज्य में पार्टी संगठन की जड़ों में मट्ठा डालने का काम कर रही है.

नितिन गडकरी चाहते हैं कि 2014 में केंद्र में भाजपा की सरकार बने और वे इसके लिए अपने स्तर पर इमानदारी से प्रयास भी कर रहे हैं. वे चाहते हैं कि संगठन को मजबूत कर अगले लोकसभा चुनाव तक भाजपा के वोट बैंक में 10 फीसदी की बढ़ोत्तरी की जा सके. लेकिन पार्टी के ही नेता अपने स्वार्थों के लिए नितिन गडकरी की इस योजना को पलीता लगाने में जुटे हुए हैं.

शनिवार, 4 दिसंबर 2010

कल्याण की छाया से मुक्ति को छटपटा रही भाजपा

उत्तर प्रदेश में भाजपा के सामने भगवान राम के साथ अब पूर्व मुख्यमंत्री कल्याण सिंह के नाम का इस्तेमाल करने की राजनीतिक मजबूरी आ गई है. भाजपा अब मायावती और मुलायम के साथ अपने मुख्यमंत्रियों के कार्यकाल की तुलना करने जा रही है. यह तुलनात्मक पत्रक हर विधानसभा क्षेत्र में बांटे जाएंगे. कल्याण सिंह भाजपा से तीन बार मुख्यमंत्री रहे हैं. ऐसे में मजबूरी में ही सही, पार्टी के लिए उनकी छाया से खुद को मुक्त कर पाना मुमकिन नहीं होगा. इन सबके बीच एक सवाल यह भी है कि कहीं यह कल्याण सिंह को भाजपा में लाने की एक सोची-समझी रणनीति तो नहीं है. ऐसा नहीं है कि उत्तर प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी की कमजोर स्थिति और नेताओं के आपस में ही सिर फुटौव्वल से राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी वाकिफ नहीं हैं. विस्फोटक होते हालात से वह भी परिचित हैं और इन विकट स्थितियों में भी वह मिशन 2012 को सफलता के साथ पूरा करने का संदेश कार्यकर्ताओं को दे रहे हैं, लेकिन पार्टी की केंद्रीय राजनीति में हावी मुरली मनोहर जोशी, राजनाथ सिंह, विनय कटियार, कलराज मिश्र, मुख्तार अब्बास नकवी एवं अन्य नेताओं के सामने उनकी सारी रणनीति फेल हो रही है.

उत्तर प्रदेश के उक्त केंद्रीय नेता अपने-अपने क्षेत्रों के जनाधार वाले नेताओं को किनारे लगाने में ही अपनी ताकत का इस्तेमाल कर रहे हैं. यही वजह रही कि जो नेता रमापति राम त्रिपाठी के नेतृत्व वाली कमेटी में उपाध्यक्ष और महामंत्री जैसे पदों पर थे, उन्हें सूर्य प्रताप शाही ने क्षेत्रीय कमेटियों का अध्यक्ष बनाकर हैसियत में रहने का संकेत दे दिया. अयोध्या से विधायक लल्लू सिंह को ही लें, रमापति राम ने उन्हें अपनी कमेटी में उपाध्यक्ष बनाया था, लेकिन इस बार वह अवध क्षेत्र के अध्यक्ष बना दिए गए. गुस्साए लल्लू सिंह ने पद ग्रहण नहीं किया तो दो माह बाद उनकी जगह सुभाष त्रिपाठी को अवध क्षेत्र का नया अध्यक्ष बना दिया गया. इस तरह जय प्रकाश को काशी क्षेत्र का अध्यक्ष बनाया गया, लेकिन उन्होंने भी कार्यभार संभालने से इंकार कर दिया. भाजपा में कितना अंतर्विरोध है, यह पार्टी के वरिष्ठ नेता केशरीनाथ त्रिपाठी की एक बात से साफ़ हो जाता है. उनसे जब संगठन और मिशन 2012 के बारे में पूछा गया तो उन्होंने कहा कि इस बारे में लखनऊ में बैठे लोगों से बात कीजिए, मैं तो इलाहाबाद में बैठा हूं.

नई कमेटी में क्षेत्रीय असंतुलन और पार्टी के प्रति वफादारी की अनदेखी होना भी मुद्दा बना, लेकिन इसे दबा दिया गया. डैमेज कंट्रोल के लिए विजय बहादुर पाठक और राजीव तिवारी को सह प्रवक्ता से प्रोन्नत करके प्रवक्ता बना दिया गया तो प्रवक्ताओं की टीम में एक नया नाम हरिद्वार दुबे शामिल किया गया. अब प्रदेश भाजपा में प्रवक्ताओं की भरमार हो गई है. नई कमेटी में पूर्वांचल को काफी अहमियत दी गई है, दस उपाध्यक्षों में पांच पूर्वांचल के हैं. ऐसे में बाकी क्षेत्र खुद को उपेक्षित महसूस कर रहे हैं. भाजपाइयों की इस आपसी मारकाट के बीच ही अयोध्या मुद्दे पर हाईकोर्ट का फैसला आना पार्टी के लिए संजीवनी का काम कर सकता है, लेकिन ऐसे समय में कल्याण सिंह सरीखे नेता की कमी महसूस की जा रही है. इस माहौल में पार्टी संगठन के स्तर पर कुछ संजीदा हुई है. भाजपा अब गांव-गांव जाकर जनता की नब्ज टटोलने का काम करेगी. केंद्रीय और प्रदेश स्तर के नेता गांवों में रात्रि विश्राम करेंगे. इससे जनता के साथ सीधा संवाद स्थापित होगा. कहने की जरूरत नहीं रह जाती है कि अयोध्या पर हाईकोर्ट का फैसला आने के बाद जब मुख्यमंत्रियों के कार्यकाल का तुलनात्मक पत्रक बंटेगा तो उसमें कल्याण सिंह की उपलब्धियों का जिक्र भी होगा. ऐसे में भाजपा के लिए अपरोक्ष रूप से ही सही, कल्याण सिंह का इस्तेमाल करने की मजबूरी रहेगी. अब यह सभी जानते हैं कि कल्याण सिंह भाजपा से तीन बार मुख्यमंत्री रहे. राम प्रकाश गुप्ता एवं राजनाथ सिंह भी भाजपा से मुख्यमंत्री रहे, लेकिन सरकार की हनक और धमक की चर्चा तो केवल कल्याण सिंह के जमाने की ही होती है.

बात 1991 की है, उत्तर प्रदेश में भगवा लहर चल रही थी और सूबे के चुनावी इतिहास में यह पहली बार हुआ था कि भारतीय जनता पार्टी ने पूर्ण बहुमत के साथ अपनी सरकार बनाई. सभी नेता खुश थे, कार्यकर्ता प्रफुल्लित थे, कहीं कोई गुटबाजी नहीं. मतभेद थे, लेकिन मनभेद नहीं. समय चक्र के साथ भाजपाइयों पर सत्ता का नशा चढ़ा, सोनिया-राहुल को कोसते-कोसते कांग्रेसी संस्कृति हावी हुई. आज भाजपा उत्तर प्रदेश में चौथे नंबर की पार्टी बनकर रह गई है. कारण और भी हैं, लेकिन केंद्रीय एवं राज्य नेतृत्व की हालत पर काबू पाने की दिलचस्पी कहीं नहीं दिखती है. समाचारपत्रों में बयानबाजी जारी रहे, इसके लिए भाजपा की प्रदेश इकाई में प्रवक्ताओं की फौज बना दी गई है. सबके लिए एक-एक दिन निर्धारित कर दिया गया है. पार्टी पदाधिकारी अखबारों में अपनी खबरें देखकर खुश हो लेते हैं. नतीजतन, उत्तर प्रदेश की चुनावी राजनीति में भाजपा की जमीन लगातार खिसकती जा रही है.
इसका सबसे ताजा उदाहरण पंचायत चुनाव हैं. इन चुनावों में पार्टी की ऐसी कोई उपलब्धि नहीं है, जिसे वह प्रचारित कर सके. पार्टी के विधायक तक अपने निकट के रिश्तेदारों को जिता नहीं सके. महराजगंज के विधायक महंत दुबे की अनुज वधू प्रीति रानी और पत्नी पूनम दोनों ही बीडीसी का चुनाव हार गईं. वहीं फर्रुखाबाद में भाजपा के जिला अध्यक्ष डॉ. भूदेव सिंह प्रधानी का चुनाव हार गए. वह 15 वर्षों से प्रधानी कर रहे थे, लेकिन इस बार पराजय का सामना करना पड़ गया. पंचायत चुनाव खत्म होने के बाद पार्टी को गांव-गांव जाकर संगठन मजबूत करने की याद जरूर आई है. अब इसका कितना फायदा 2012 में होने वाले विधानसभा चुनाव में मिलेगा, यह देखने वाली बात होगी. पंचायत चुनाव में भाजपा के प्रदर्शन पर संगठन के अपने तर्क हैं. उसका कहना है कि भाजपा की शहरी मतदाताओं में गहरी पैठ है. पंचायत चुनाव पार्टी सिंबल पर नहीं हुए, सभी दलों ने इससे खुद को अलग रखा. ऐसे में कोई दावा करने की स्थिति में नहीं है. बात सही भी है, लेकिन शहर में भी भाजपा कुछ नहीं कर पा रही है. उल्टे जो कमाई थी, उसे भी गवां ही रही है. प्रदेश की राजधानी लखनऊ का उदाहरण सबके सामने है. पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के राजनीति से संन्यास लेने की घोषणा से पहले तक लखनऊ संसदीय क्षेत्र के शहरी इलाके की सभी विधानसभा सीटों पर भाजपा का क़ब्ज़ा होता था. अटल जी ने लोकसभा चुनाव नहीं लड़ा, उनके प्रतिनिधि के तौर पर लाल जी टंडन जनता की अदालत में आए. लखनऊ के लोगों ने टंडन को जिताकर संसद तो पहुंचा दिया, लेकिन भाजपा की परंपरागत लखनऊ पश्चिम विधानसभा सीट कांग्रेस को सौंप दी. इस क्षेत्र से लाल जी टंडन लगातार कई बार चुनाव जीतते रहे, लेकिन वह अपने उत्तराधिकारी अमित पुरी को विधानसभा नहीं भेज सके. पार्टी इसकी वजह चाहे जो भी बताए, लेकिन कार्यकर्ता साफ़ तौर पर कहते हैं कि इस सीट से टंडन अपने बेटे को चुनाव लड़ाना चाहते थे. पार्टी ने उनकी इच्छा पूरी नहीं की. नतीजतन टंडन समर्थकों ने चुनाव में अमित पुरी के साथ भितरघात करके उन्हें हरा दिया.

भितरघात की प्रवृत्ति ने ही लोकसभा चुनाव में भाजपा को उत्तर प्रदेश में कहीं का न रखा. जिस उत्तर प्रदेश के सहारे लालकृष्ण आडवाणी प्रधानमंत्री बनने का सपना देख रहे थे, उसे उन्हीं के सिपहसलारों ने पूरा नहीं होने दिया. लोकसभा चुनाव के बाद भितरघात करने के आरोप में 26 नेताओं को नोटिस भी जारी की गई, लेकिन हुआ कुछ नहीं. नोटिस को किसी ने नोटिस में नहीं लिया. मजेदार बात यह है कि भाजपा के तत्कालीन प्रदेश महामंत्री स्वतंत्र देव सिंह ने भितरघातियों को नोटिस जारी किया और इसके कुछ दिनों बाद ही जालौन लोकसभा सीट से भाजपा के प्रत्याशी रहे भानु प्रताप वर्मा ने संगठन की एक बैठक में उन्हीं पर भितरघात का आरोप लगा दिया. बरेली से लगातार छह बार संसद पहुंचने वाले संतोष गंगवार ने भी अपनी हार के लिए पार्टी के तत्कालीन प्रदेश उपाध्यक्ष राजेश अग्रवाल को जिम्मेदार ठहराया था. वर्ष 2007 में उत्तर प्रदेश विधानसभा के लिए हुए चुनाव से भी भाजपा के इन गुटबाज नेताओं ने कोई सबक नहीं लिया था. विधानसभा चुनाव के नतीजे आने के बाद उत्तर प्रदेश में भाजपा महज 51 सीटों पर सिमट कर रह गई, जबकि इसके पहले सदन में उसके 93 विधायक हुआ करते थे. पार्टी कार्यकर्ता इस स्थिति के लिए नेतृत्व को ही जिम्मेदार मानते हैं. कार्यकर्ताओं की मानें तो नेतृत्व के पास ऐसा कोई मुद्दा ही नहीं है, जिससे वह मतदाताओं को अपनी तरफ आकर्षित कर सके. भाजपा की इस कमजोरी का फायदा उठाते हुए कांग्रेस खुद को मजबूत करने में लगी है. भगवा झंडे का परंपरागत मतदाता पंजे को मजबूत करने में अब ज़्यादा दिलचस्पी दिखा रहा है. कार्यकर्ताओं की बात गलत नहीं है. लोकसभा चुनावों में कांग्रेस ने जिस तरह उल्लेखनीय प्रदर्शन किया, उसने भाजपा को चौथे स्थान पर पहुंचा दिया. जाहिर है कि भाजपा का जनाधार कांग्रेस की ओर खिसका है. इन हालात में सबसे चिंताजनक यह है कि केंद्रीय नेतृत्व संगठन को मजबूत और गतिशील करने के प्रति गंभीर नहीं दिखता. दिखावे के लिए संगठन के चुनाव होते हैं, लेकिन प्रदेश अध्यक्ष से लेकर जिला अध्यक्षों तक का मनोनयन किया जाता है. नतीजतन भाजपा में आंतरिक लोकतंत्र और सामूहिक नेतृत्व लफ्फाजी की बातें बनकर रह गया है.

भाजपा के वर्तमान प्रदेश अध्यक्ष सूर्य प्रताप शाही हों या फिर रमापति राम त्रिपाठी, सभी केंद्रीय नेतृत्व के थोपे हुए चेहरे हैं. इन्हें कार्यकर्ता अपना नेता मानने को तैयार नहीं हैं. तभी जंबो जेट प्रदेश कमेटी बनाने के बाद भी प्रदेश भाजपा संगठन में असंतोष थमने का नाम नहीं ले रहा है. आम दिनों में पार्टी कार्यालय में सन्नाटा पसरा रहता है. कोई केंद्रीय नेता लखनऊ आया तो उसके स्वागत की रस्म अदायगी के लिए क्षेत्रीय क्षत्रप प्रदेश मुख्यालय आते हैं और फिर ग़ायब हो जाते हैं. ऐसे में कार्यकर्ता इन नेताओं को कहां तलाश करें. कार्यकर्ता आज भी उस घड़ी को कोसते हैं, जब वर्ष 1999 में कल्याण सिंह को पैदल करने के लिए भाजपा में गुटबाजी का दीमक लगा और वह पूरे संगठन को ही चट कर गया. कल्याण सिंह के पार्टी छोडऩे से भाजपा में अगड़ों और पिछड़ों का सामंजस्य गड़बड़ाया, जिसे भाजपा नेतृत्व ने महसूस किया. कल्याण सिंह को दोबारा भाजपा में लाया गया. वर्ष 2007 का विधानसभा चुनाव कल्याण सिंह के नेतृत्व में ही लड़ा गया, लेकिन भाजपा का कल्याण नहीं हो सका. कार्यकर्ता कहते हैं कि कल्याण सिंह को भाजपा में दोबारा लाया गया, लेकिन राजनाथ सिंह, कलराज मिश्र और लाल जी टंडन उन्हें सहन नहीं कर पा रहे थे. जनता में भी कल्याण सिंह का जादू नहीं चल सका. फिर वर्ष 2009 में लोकसभा चुनाव से ऐन पहले वह भाजपा छोड़कर मुलायम सिंह यादव से हाथ मिला बैठे. उत्तर प्रदेश के वर्तमान सियासी एवं जातीय समीकरणों पर यदि गौर करें तो भाजपा के सवर्ण मतदाताओं का एक बड़ा तबका बसपा के साथ है. बहुजन के स्थान पर सर्वजन का नारा देकर मायावती ने दलित और ब्राह्मण मतदाताओं का जो समीकरण बैठाया है, उसकी काट बसपा के विरोधी राजनीतिक दल अभी तक नहीं तलाश पाए हैं. कांग्रेस ज़रूर इस मामले में कुछ सफ़ल होती दिख रही है, लेकिन भाजपा इसे मानने को तैयार नहीं है. पार्टी के वरिष्ठ नेता एवं विधान परिषद सदस्य हृदय नारायण दीक्षित कहते हैं कि मायावती के शासनकाल में मची लूट, भ्रष्टाचार, ध्वस्त कानून व्यवस्था एवं बेरोजगारी से त्रस्त जनता भाजपा को ही विकल्प के रूप में देख रही है. वह पार्टी में किसी भी तरह की गुटबाजी से भी साफ़ इंकार करते हैं. भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष सूर्य प्रताप शाही भी पार्टी संगठन के एकजुट होने का दावा करते हैं. इन नेताओं के दावों में कितनी सच्चाई है, यह पहले विधानसभा चुनाव, फिर लोकसभा चुनाव और अब पंचायत चुनाव के नतीजों से साफ़ हो चला है.

शुक्रवार, 26 नवंबर 2010

वंशवादी राजनीति के अंत की शुरुआत है नीतीश की जीत

लालू का जिन्न गायब हो गया। राहुल गांधी का करिश्मा फेल हो गया। नीतीश की आंधी में सारे उड़ गये। एक बार फिर भगवान बुद्व और जयप्रकाश नारायण की धरती ने देश को संदेश दिया है। संदेश स्पष्ट है। बिहार में ढाई प्रतिशत की आबादी वाले कुर्मी जाति के नीतीश कुमार सर्वजात के नेता बन गया। जिला का जिला साफ हो गया। विरोधी दलों को सीट नहीं मिली। जाति के जाति ने नीतीश को वोट दिया। महिला सशक्तिकरण ने बिहार की ही नहीं देश की राजनीति बदल दी है।

बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने बिहार विधानसभा के लिए हुए चुनाव नतीजे आ जाने के बाद ऐलान किया कि यह जीत बिहार की जनता की है। यह अलग बात है कि उनके साथ चुनाव लडऩे वाली बीजेपी इसे अपनी जीत मान रही है। और एनडीए की नीतियों का डंका पीट रही है लेकिन सच्चाई नीतीश कुमार के बयान से साफ़ नजऱ आ रही है। राजनीति के जानकार कहते हैं कि यह जीत न तो जेडीयू की है और न ही एनडीए की। यह साफ़तौर पर नीतीश कुमार की जीत है। उनके साथ जो भी खड़ा था वह जीत गया। चाहे वह बीजेपी जैसी पार्टी ही क्यों न हो।

एक और सच्चाई से मुंह नहीं मोडऩा चाहिए। वह यह कि खुद नीतीश कुमार को भी नहीं अंदाज़ था कि बिहार की जनता उनके साथ इतने बड़े पैमाने पर जुड़ चुकी है। अगर ऐसा होता तो इस बात की पूरी संभावना है कि बीजेपी से ऊब चुके नीतीश कुमार चुनाव के पहले अकेले ही जाने का फैसला कर लेते और दिल्ली से ले कर पटना तक नीतीश की जीत को अपनी जीत बता रही बीजेपी भी उसी हस्र को पंहुच गयी होती जिसको, लालू प्रसाद यादव, राम विलास पासवान और कांग्रेस के लोग पंहुचे हैं। बिहार के चुनावों में पासवान की तरफ से प्रेस मैनेज कर रहे एक श्रीमानजी से जब पूछा गया था कि क्या राम विलास जी की पार्टी को कुछ सम्मानजनक सीटें मिल जायेगीं, तो उन्होंने लगभग नाराज़ होते हुए कह दिया था कि 24 नवम्बर को गिनती के बाद देखिएगा, लालू जी के साथ मिलकर पासवान जी सरकार बनायेगें। उसी तरह, लालू भी मुगालते में थे। शायद इसीलिये उन्होंने नतीजों को विस्मयकारी बताया।

कांग्रेस के लोग भी राहुल गाँधी की सभाओं में आ रहे लोगों की संख्या को वास्तविक मान रहे थे और उम्मीद कर रहे थे कि इस बार कांग्रेस की किस्मत सुधरेगी। लेकिन नतीजे आने के बाद बिलकुल साफ़ हो गया है कि सब लोग मुगालते में थे। किसी को भनक भी नहीं थी कि जनता क्या फैसला करने वाली है। जनता ने फैसला सुना दिया है और उसने नीतीश कुमार की हर बात का विश्वास किया है। फैसला इस बात का ऐलान है कि बिहार के लोग नीतीश के साथ हैं।

अपनी आदत के मुताबिक नीतीश कुमार ने जनता के फैसले को सिर झुका कर स्वीकार किया है और साफ़ कहा है कि उनके पास जादू की कोई छड़ी नहीं है जिसको घुमा कर वे हालात को तुरंत बदल दें लेकिन लोगों के लिए काम करने की इच्छाशक्ति है। यही बात सबसे अहम है। किसी के पास जादू की छड़ी नहीं होती लेकिन कुछ लोग बातें बड़ी बड़ी करते हैं। मौजूदा बिहार का सौभाग्य है कि वहां आज के युग में नीतीश कुमार जैसा व्यक्ति मौजूद है लेकिन राज्य की बदकिसमती यह है कि उसके नेताओं में नीतीश कुमार के अलावा ज़्यादातर ऐसे हैं जो बातें बड़ी बड़ी कर रहे हैं। लालू प्रसाद ने जिस तरह से चुनावी नतीजों पर प्रतिक्रिया दी है वह निराशाजनक है, बीजेपी ने जिस तरह से जीत का दावा करना शुरू किया है वह भी बहुत ही अजीब है। यह किसी पार्टी की जीत नहीं है, यह शुद्ध रूप से नीतीश कुमार की जीत है। और यह अंतिम सत्य है।

बिहार विधान सभा के लिए हुए 2010 के चुनावों के भारतीय राजनीति में बहुत सारी पुरानी मान्यताओं के खंडहर ढह जाएंगे। सबसे बड़ा किला तो जातिवाद का ढह गया है। लालू प्रसाद और राम विलास पासवान ने तय कर लिया था उनकी अपनी जातियों के वोट के साथ जब मुसलमानों का वोट मिला दिया जाएगा तो बिहार में एक अजेय गठबंधन बन जाएगा। लेकिन ऐसा कहीं कुछ नहीं हुआ। उनके अपने सबसे प्रिय लोग चुनाव हार गए। राम विलास पासवान के दो भाई चुनाव हार गए। लालू प्रसाद की पत्नी दो सीटों से चुनाव हार गयीं।

जाति के गणित के हिसाब से बहुत ही भरोसेमंद सीटों पर चुनाव लड़ रहे इन लोगों की हार जहां जाति के किले को नेस्तनाबूद करती है , वहीं राजनीति में घुस चुके परिवारबाद के सांप को भी पूरी तरह से कुचल देने की शुरुआत कर चुकी है। पूरे देश में और लगभग हर पार्टी में परिवारवाद का ज़हर फैल चुका है। इस चुनाव ने यह साफ़ संकेत दे दिया है कि अपने परिवार के बाहर देखना लोकतांत्रिक राजनीति का ज़रूरी हिस्सा है और बाकी राजनीतिक पार्टियों और नेताओं को भी अपने परिवार के बाहर टैलेंट तलाशने की कोशिश करनी चाहिए। यह चुनाव साम्प्रदायिक ताक़तों की भी हार है। अपने देश में साम्प्रदायिक वहशत के पर्याय बन चुके, नरेंद्र मोदी को जिस तरह से नीतीश कुमार ने बिहार आने से रोका, वह सेकुलर जमातों को अच्छा लगा और इन चुनावों में सेकुलर बिरादरी को महसूस हो गया कि सत्ता की राजनीति के मजबूरी में भले ही नीतीश कुमार बीजेपी को ढो रहे हैं लेकिन मूल रूप से वे बीजेपी-आर एस एस की साम्प्रदायिक राजनीति के पक्षधर नहीं हैं। शायद इसी समझ का नतीजा है कि इस बार मुसलमानों ने बड़ी संख्या नीतीश कुमार की बात का विश्वास किया और उनके उम्मीदवारों को जिताया।

बिहार के विधानसभा चुनावों के बाद एक और ज़बरदस्त सन्देश आया है। इस बार अवाम ने गुंडों को नकार दिया है। हाँ, एकाध गुंडे जो नीतीश कुमार के साथ थे वे जीत गए हैं। लेकिन नीतीश कुमार के पिछले पांच साल के गुंडा विनाश के प्रोजेक्ट को जिन लोगों ने देखा है उन्हें मालूम है अब हुकूमत में गुंडों का दखल बहुत कम हो जाएगा। नीतीश कुमार के सत्ता में आने के पहले के पंद्रह वर्षों में जिस तरह से बिहार में गुंडा राज कायम हुआ था और अपहरण एक उद्योग की शक्ल अख्तियार कर चुका था, उसके हवाले से देखने पर साफ़ समझ में आ जाएगा कि लालू प्रसाद के परिवार के राज में गुंडा प्रशासन का स्थायी हिस्सा बन चुका था। पिछले पांच वर्षों में नीतीश ने उसे बहुत कमज़ोर कर दिया। जिसकी वजह से ही इस बार बड़े बड़े गुंडे और उनेक घर वाले चुनाव हार गए हैं। बिहार में नीतीश के राज में गुंडों का आतंक घटा है।

बीजेपी वाले नीतीश की जीत को गुजरात में नरेंद्र मोदी की जीत के सांचे में रखकर देखने के चक्कर में हैं। कई नेता यह कहते पाए जा रहे हैं कि कि एनडीए का नारा विकास है और वे लोग नीतीश कुमार को भी अपने बन्दे के रूप में पेश करने की कोशिश कर रहे हैं। लेकिन बात इतनी आसान नहीं है। एक तो तथाकथित एनडीए का कहीं कोई अस्तित्व नहीं है। गुजरात में भी नहीं। वहां शुद्ध रूप से मोदी के ब्रैंड की राजनीति चल रही है जिसका लक्ष्य हिन्दूराज कायम करना है। 2002 में शुरू करके पिछले गुजरात विधान सभा चुनावों तक गुजरात के मुसलमानों में मोदी ने इतना आतंक फैला दिया था कि मुसलमान वहां दहशत में है और कई इलाकों में तो वह दर के मारे नरेंद्र मोदी के उम्मीदवारों को वोट भी दे रहा है। गुजरात में मुसलमान अब दबा कुचला वर्ग है और कोई भी राजनीतिक जमात उसके लिए किसी तरह की कोई लड़ाई लड़ सकने की स्थिति में नहीं है। इसके साथ-साथ मोदी ने राज्य के औद्योगिक विकास को सरकारी तौर पर प्राथमिकता की सूची में डाल दिया है जिससे साम्प्रदायिक हो चुके समाज को संतुष्ट किया जा रहा है। गुजरात में भी बीजेपी या एनडीए का कुछ नहीं है। वह नरेंद्र मोदी छाप राजनीति है जो मोदी को सरकार में बनाए हुए है। अपने आप को लूप में रखने के चक्कर में बीजेपी गुजरात से बिहार की तुलना करने की जो जल्दबाजी कर रही है, उस से बचने की ज़रूरत है। बिहार में नीतीश की जो जीत है उसका गुजरात से कोई लेना देना नहीं है। हाँ अगर कोई बात तलाशी जा सकती है तो वह यह है कि बिहार में नरेंद्र मोदी को फटकार दिया गया था और नरेंद्र मोदी को डांट डपट कर नीतीश ने बिहार में एक बड़े वर्ग को अपने साथ कर लिया था।

बिहार ने एक बार फिर देश की राजनीति को दिशा दी है। इस बार वहां न तो जातिवाद चला और न ही परिवारवाद। अपने असफल बच्चों को राजनीति में उतारने की नेताओं की कोशिश को भी ज़बरदस्त झटका लगा है। उम्मीद की जानी चाहिए कि बाकी राज्यों में भी जातिवाद और परिवारवाद को इसी तरह का झटका लगेगा। इस बार एक और दिलचस्प बात हुई है। बीजेपी के बावजूद मुसलमानों ने नीतीश कुमार का विश्वास किया और लालू प्रसाद के मुसलमानों के रहनुमा बनने के मुगालते को ठीक किया। बाबरी मस्जिद के फैसले के बाद कांग्रेस से दूर खिंच रहे मुसलमान ने एक बार फिर साबित कर दिया कि अगर नीयत में ईमानदारी नहीं है तो वह बीजेपी के साथी नीतीश को तो वोट दे सकता है लेकिन अंदर ही अन्दर की दगाबाजी उसे बर्दाश्त नहीं है।


चुनावों से ठीक पहले हंग असेंबली की बात की जा रही थी। पटना में खद्दरधारी नेताओं की जबान नितीश के विरोध में थी। ये सारे जबान व्यक्तिगत हितों से ग्रसित थे। कई शहरों के कुछ प्रमुख अड्डों पर बैठकबाजी करने वाले खद्दरधारी नेता, नितीश को गाली देते थे। बटाई बिल का बहाना लेकर। लेकिन बटाई बिल से पीडि़त लोगों ने भी वोट दिया। कहा बटाई बिल पता नहीं, पर रात को गांव में सो तो रहे है। खेती तो आराम से कर रहे है। चुनाव से ठीक पहले कुछ कांग्रेसी खुश थे, हंग असेंबली होगा। चलो इसी बहाने राष्ट्रपति शासन लागू होगा। ये वही लोग थे जिनके व्यक्तिगत हितों को नितीश कुमार ने पूरा नहीं किया था। इनका जिला या ब्लाक स्तर पर उनकी दलाली नहीं चली थी। लेकिन इससे अलग आम जनता की सोच थी। उन्हें सुरक्षित जीवन चाहिए था। गांवों तक बढिया सड़क की जरूरत थी। बढिय़ा स्वास्थ्य सेवा चाहिए था। नितीश ने इसे कर दिखाया। अस्पतालों में दवाइयां मिलनी शुरू हो गई थी। डाक्टर हास्पीटल में बैठने लगे थे। गांव तक सड़क बन गई थी। लोगों को गुंडागर्दी टैक्स से मुक्ति मिल गई थी। व्यापारी बिन भय के देर रात तक दुकान खोल सकता था। ट्रेन से उतर देर रात अपने घर जा सकता था। यह नितीश कुमार के पहले पांच साल की उपल्बिद थी।

बिहार का चुनाव परिणाम देश की राजनीति बदलेगा। राज्य की अस्मिता से अलग, जाति की अस्मिता से अलग विशुद्व चुनाव था विकास की राजनीति पर। भ्रष्टाचार मुद्दा था, पर 2 जी स्पेक्ट्रम, कामनवेल्थ ने बिहार के भ्रष्टाचार को पीछे ढकेल दिया था। आजादी के पचास साल बाद लोगों को गांवों में सड़क देखने को मिली थी। गांव की महिलाएं सुरक्षित घर से बाहर शौच के लिए निकल पा रही थी। ये महिलाएं हर जाति की थी। क्या भूमिहार, क्या राजपूत, क्या कहार, क्या कोयरी, क्या कुर्मी, क्या दलित, क्या यादव। हर जाति की महिला की इज्जत आबरू बची। अब अगला लक्ष्य बिहार की जनता ने नितीश को दे दिया है। बिहार की जनता पिछले पचास सालों से बिजली से मरहूम है। अगले पांच सालों में बेहतर बिजली, बेहतर शिक्षा और बेहतर रोजगार का प्रबंध नितीश कुमार करेंगे। यह जनता की उम्मीद है।

शुक्रवार, 19 नवंबर 2010

बिहार में फेल हो गए राहुल बाबा



भारत की राजनीति में परिवर्तन की महागाथा जिस राज्य से लिखी जाती है वह है बिहार,लेकिन कांग्रेस के युवराज की राजनीति बिहार में पूरी तरह फेल होकर रह गई है।लालू यादव को सबक सिखाने की जिद ने कांग्रेस पार्टी को अंधा बना दिया. पार्टी ने बिहार में ऐसी रणनीति बनाई, जिससे पूरा विपक्ष ही खंड-खंड हो गया.
सवाल यह है कि राहुल ने बिहार में ऐसी रणनीति क्यों अपनाई. दरअसल राहुल गांधी के लिए बिहार चुनाव एक प्रयोगशाला है, उन्हें देश का प्रधानमंत्री बनना है, युवाओं का सर्वमान्य नेता बनना है. इसी मायने में बिहार चुनाव राहुल गांधी का इम्तहान है. बिहार के चुनाव में यह भी फैसला होना है कि राहुल गांधी का करिश्मा चुनाव पर असर डालता है या नहीं? राहुल गांधी में संगठन का पुनर्निर्माण करने की काबिलियत है या नहीं? बीस साल पहले कांग्रेस बिहार की सबसे मजबूत और ताक़तवर पार्टी हुआ करती थी. राहुल क्या कांग्रेस पार्टी के पुराने दिन लौटा पाएंगे? राहुल गांधी और उनके सलाहकारों के लिए यही चुनौती है. राहुल गांधी ने मुसलमानों और युवाओं के ज़रिए इस काम को अंजाम देने की कोशिश की है. ऐसा ही कुछ राहुल गांधी को उत्तर प्रदेश में करना है. अगर बिहार का प्रयोग सफल रहता है तो राहुल गांधी के लिए पूर्ण बहुमत के साथ प्रधानमंत्री बनने का रास्ता साफ़ हो जाएगा, लेकिन राहुल गांधी अपनी पहली परीक्षा में फेल हो गए. राहुल गांधी नौजवानों को राजनीति में सामने लाने की बात करते हैं. भारत के युवाओं का सर्वमान्य नेता बनना उनका सपना है. बिहार चुनाव उनके लिए एक मौक़ा था, जब वह ज़्यादा से ज़्यादा युवाओं को उम्मीदवार बना सकते थे. अगर राहुल गांधी बिहार में 25-40 वर्ष की आयु के 60 फीसदी उम्मीदवारों को टिकट दिलवाने में कामयाब होते तो यह माना जा सकता था कि राहुल गांधी जो कहते हैं, वही करते हैं, लेकिन बिहार चुनाव में वह एनएसयूआई और यूथ कांग्रेस से दस से ज़्यादा उम्मीदवारों को टिकट नहीं दे सके. इसका मतलब यह है कि कांग्रेस पार्टी युवाओं से समर्थन तो चाहती है, लेकिन उनके हाथ नेतृत्व देना नहीं चाहती.

कांग्रेस की योजना बिहार में असफल होती दिखाई दे रही है. चुनाव से पहले बिहार में कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष अनिल शर्मा थे. उन्होंने पार्टी को खड़ा करने में बड़ा योगदान किया. जो काम लालू यादव और रामविलास पासवान नहीं कर सके, वह काम अनिल शर्मा ने किया. उन्होंने सबसे पहले नीतीश कुमार के खिलाफ माहौल बनाया. पूरे राज्य का दौरा कर पार्टी संगठन और कार्यकर्ताओं को एकजुट किया, लेकिन पार्टी ने उन्हें बेइज़्ज़त करके अध्यक्ष पद से हटा दिया. दरअसल, राहुल गांधी के सलाहकार पिछले छह महीने से बिहार में हर तरह के प्रयोग को अंजाम देने में लगे थे. राहुल गांधी कहां जाएंगे, कहां प्रेस कांफ्रेंस करेंगे, कैसे लोगों को टिकट दिया जाएगा, किन्हें संगठन की जि़म्मेदारी दी जाएगी आदि सब कुछ उनके सलाहकार राहुल गांधी के नेतृत्व के नाम पर कर रहे थे. राहुल गांधी ने भी चुनाव प्रचार में कोई कसर नहीं छोड़ी.

बिहार चुनाव अपने आ़खिरी चरण में है. इस चुनाव की सबसे बड़ी खासियत यह है कि हर पार्टी ने अपने-अपने हिसाब से जनता को मूर्ख बनाने के हर दांव खेले. कांग्रेस पार्टी इस खेल में सबसे आगे रही. अब चुनाव के नतीजे ही यह बताएंगे कि जनता इनके झांसे में आई या नहीं. अफ़सोस की बात यह है कि बिहार चुनाव के दौरान जनता की समस्याएं और उनसे जुड़े सवाल चुनाव का मुद्दा नहीं बन सके. विपक्ष ने और भी निराश किया. सरकार की कमियों को मुद्दा बनाने के बजाय सबने नीतीश कुमार को ही निशाने पर ले लिया. विपक्षी दलों की कृपा से नीतीश कुमार चुनाव के केंद्र में आ गए. यही नीतीश कुमार की कामयाबी की सबसे बड़ी वजह है. इसकी शुरुआत कांग्रेस ने की. कांग्रेस ने इस चुनाव में पानी की तरह पैसा बहाया. बिहार कांग्रेस के एक सचिव सागर रायका और पार्टी की यूथ विंग के अध्यक्ष ललन कुमार को पुलिस ने साढ़े छह लाख रुपये के साथ गिरफ़्तार किया. इन पर सोनिया गांधी की रैली में भीड़ इक_ा करने के लिए पैसे बांटने का आरोप है. सोनिया गांधी की रैली में शामिल होने के लिए पैसे बांटने के आरोप में कांग्रेस के छह अन्य कार्यकर्ता भी गिरफ्तार हुए. पार्टी ने खुद को एनडीए को चुनौती देने वाली मुख्य पार्टी बनाने में साम, दाम, दंड, भेद सब कुछ लगा दिया. राहुल गांधी ने अपनी सारी ताक़त झोंक दी. उनकी रैलियों में लोग तो आए, लेकिन कांग्रेस पार्टी नीतीश कुमार को चुनौती देने में नाकाम रही.

शुरुआत से ही बिहार चुनाव में कांग्रेस की वजह से काफी कन्फ्यूजन फैला. राहुल गांधी के सलाहकारों ने उन्हें यह समझा दिया कि नीतीश कुमार ने बिहार में अच्छा काम किया है. उनकी तारीफ़ करने से राहुल गांधी को लोग सच बोलने वाला नेता समझेंगे. इसके बाद वह जो भी बोलेंगे, लोग उनकी बातों पर विश्वास करेंगे. राहुल बिहार गए और उन्होंने कह दिया कि नीतीश कुमार बिहार का विकास कर रहे हैं. जिसका अर्थ यह निकला कि नीतीश कुमार से पहले लालू यादव की जो सरकार थी, उसने विकास का काम नहीं किया. राहुल गांधी ने एक ही झटके में विपक्ष को कमज़ोर कर दिया. राहुल गांधी के ऐसे बयानों से लालू यादव और रामविलास पासवान का नाराज़ होना स्वाभाविक था, क्योंकि इस बयान से वे दोनों बैकफुट पर आ गए. इसके बाद खबर यह भी आई कि कांग्रेस पार्टी ने नीतीश कुमार की तरफ़ दोस्ती का हाथ बढ़ाया. यह संदेश दिया गया कि चुनाव के बाद कांग्रेस पार्टी नीतीश की सरकार को समर्थन दे सकती है. नीतीश कुमार ने राहुल के बयान के बदले उन्हें धन्यवाद कहा, लेकिन कांग्रेस के साथ कोई भी तालमेल करने से सार्वजनिक तौर पर मना कर दिया. फिर कांग्रेस ने लालू यादव और रामविलास पासवान के बीच भ्रम फैलाने की कोशिश की. कांग्रेस की तरफ़ से यह बात फैलाई गई कि चुनाव परिणामों के बाद यदि बिहार में त्रिशंकु विधानसभा की स्थिति सामने आती है तो कांग्रेस लालू यादव की जगह रामविलास पासवान को समर्थन देगी. पहले राहुल गांधी ने नीतीश की तारीफ़ की, फिर चुनाव प्रचार के दौरान उन पर केंद्र की योजनाओं को सही ढंग से लागू न करने का आरोप लगाया. कांग्रेस ने बीच-बीच में गठबंधन और रणनीति को लेकर अफवाह फैलाई. राहुल गांधी के सलाहकार शायद बिहार से वाकि़फ़ नहीं हैं और शायद इसलिए ऐसी ग़लती हो गई. बिहार की जनता राजनीतिक तौर पर काफी परिपक्व है, वह नेताओं के बहकावे में नहीं फंसती. बयानबाज़ी का असर बिहार की जनता पर नहीं होता. यही वजह है कि कांग्रेस का चुनावी अभियान बिहार में मज़ाक बन गया.

कांग्रेस ने मुसलमानों को ठगने के लिए एक मुस्लिम नेता को बिहार प्रदेश कांग्रेस का अध्यक्ष बनाया. क्या कांग्रेस पार्टी को यह लगा कि सर्फ़ि अध्यक्ष बना देने से मुसलमान उनके पास वापस आ जाएंगे, उनका वोट मिल जाएगा? मुसलमानों के साथ कांग्रेस ने जो कलाबाज़ी की है, उसका इतिहास तो अनंत है. क्या कांग्रेस पार्टी को यह लगता है कि सच्चर कमेटी और रंगनाथ मिश्र कमीशन रिपोर्ट पर कोई कार्रवाई किए बिना मुसलमानों को धोख़ा दिया जा सकता है? कांग्रेस पार्टी जो कहती है और जो करती है, उसमें ज़मीन-आसमान का फ़कऱ् होता है. लगता है कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह अपने ही बयान को भूल गए हैं. मनमोहन सिंह ने प्रधानमंत्री बनने के बाद यह कहकर राजनीतिक गलियारों में शाबाशी बटोरी थी कि सरकारी संसाधनों पर अल्पसंख्यकों का ज़्यादा हक़ है. यूपीए की सरकार बने अब सात साल होने वाले हैं, लेकिन अल्पसंख्यकों और मुसलमानों के विकास से जुड़ा एक भी क़ानून नहीं लाया गया है. चुनाव से ठीक पहले बाबरी मस्जिद-राम जन्मभूमि मामले में इलाहाबाद हाईकोर्ट का फैसला आ गया. इस फैसले पर सोनिया गांधी, मनमोहन सिंह और राहुल गांधी की चुप्पी ने मुसलमानों को कांग्रेस से दूर कर दिया. कांग्रेस ने बिहार में 48 मुसलमानों को मैदान में उतार दिया. कांग्रेस की इस बात के लिए तारीफ़ होनी चाहिए कि इसने इतने ज़्यादा मुसलमान उम्मीदवारों को टिकट दिए, लेकिन समझने की बात यह है कि क्या इन उम्मीदवारों को इसलिए टिकट दिया गया कि ये जीतने वाले उम्मीदवार हैं. या फिर लालू यादव का नुक़सान करने के लिहाज़ से यह रणनीति बनाई गई है. चुनाव परिणाम से यह साबित हो जाएगा कि कांग्रेस द्वारा मुसलमानों को टिकट देने के फैसले से किसे नुक़सान हुआ और इसका फायदा किसे हुआ.

कांग्रेस पार्टी ने बिहार में जो काम किया, वही काम वह पश्चिम बंगाल में भी दोहराने की तैयारी में है. उससे यही निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि पश्चिम बंगाल में सर्फ़ि ममता बनर्जी ही हैं, जो लेफ्ट फ्रंट की सरकार को हराने की ताक़त रखती हैं. लोकसभा, पंचायतों और नगरपालिकाओं में तृणमूल कांग्रेस की शानदार जीत हुई है. राहुल गांधी ने जब यह कहा कि कांग्रेस पार्टी उन्हीं शर्तों पर तृणमूल कांग्रेस के साथ गठबंधन करेगी, जो सम्मानजनक हों. इसका मतलब यह हुआ कि कांग्रेस पार्टी को अगर उसके मन मुताबिक़ सीटें नहीं मिलीं तो वह बिहार की तरह अकेले चुनाव लड़ेगी. चुनाव त्रिकोणीय हो जाएगा और इसका फायदा लेफ्ट फ्रंट को मिलेगा. अगर ऐसा होता है तो कांग्रेस पर यह आरोप लगना निश्चित है कि पार्टी पश्चिम बंगाल में बदलाव नहीं चाहती है.

बिहार चुनाव के संदर्भ में राहुल गांधी की राजनीति पर ग़ौर करना ज़रूरी है. मामला किसानों का हो या फिर उड़ीसा के नियमगिरि के आदिवासियों का, राहुल गांधी के नज़रिए और केंद्र सरकार की नीतियों में मतभेद है. राहुल गांधी गऱीबों, किसानों और आदिवासियों के साथ नजऱ आते हैं, लेकिन सरकार उनकी विचारधारा के विपरीत चल रही है. राहुल गांधी भारत के साथ खड़े हैं, लेकिन कांग्रेस सरकार इंडिया के साथ नजऱ आती है. राहुल गांधी की कथनी और केंद्र सरकार की करनी में ज़मीन-आसमान का अंतर है. सवाल यह है कि क्या राहुल गांधी बिहार की जनता को यह विश्वास दिला पाएंगे कि बुनियादी सवालों पर वह जो कह रहे हैं, सही है? वह जिस सिद्धांत को लेकर चल रहे हैं, वह सही है? वैसे राहुल गांधी की इस बात के लिए तारीफ होनी चाहिए कि जब वह आदिवासियों, मज़दूरों और गऱीबों के मुद्दे पर बोलते हैं तो एक भावी प्रधानमंत्री नजऱ आते हैं. उनके बयानों को सुनकर अच्छा भी लगता है, लेकिन डर भी लगता है. राहुल गांधी कुछ मुद्दों पर ऐसी राय रखते हैं, जिसका विरोध देश ही नहीं, बल्कि विदेशों की बड़ी-बड़ी शक्तियां करती हैं. देखना है कि राहुल गांधी के विचार, उनकी राजनीति सरकारी योजनाओं में कब तब्दील होती है.

बिहार चुनाव में जातीय समीकरण, अपराधियों और परिवारवाद का बोलबाला रहा. नेताओं ने जनता की समस्याओं के बजाय अपने निजी स्वार्थों पर ज़्यादा ध्यान दिया. नीतीश कुमार ने भी जनता को मूर्ख बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी. वह नरेंद्र मोदी का विरोध करने का भ्रम भी फैलाते रहे और भारतीय जनता पार्टी के साथ गठबंधन भी सलामत रहा. उन्होंने विकास के आंकड़ों की कलाबाज़ी दिखाई. सड़क बनाने को सुशासन का नाम देकर जनता को बेकारी, अशिक्षा और गऱीबी जैसे मुद्दों से दूर रखने में वह कामयाब रहे. भारतीय जनता पार्टी ने नीतीश कुमार की बी टीम बनकर अपने धार्मिक और विवादित मुद्दों पर पर्दा डालकर लोगों को गुमराह किया. वामपंथी पार्टियों की दुविधा यह रही कि पार्टी दिल्ली के दफ्तर से बाहर ही नहीं निकली. बिहार में गऱीबी, अशिक्षा एवं बेरोजग़ारी जैसी समस्याएं हैं, लेकिन वामपंथी दलों ने भी निराश ही किया. जनता के लिए उन्होंने सड़क पर उतरने की ज़हमत नहीं उठाई. लालू यादव के खिलाफ़ सबसे बड़ा इल्ज़ाम यह है कि वह विकास विरोधी हैं. उनकी इसी छवि का नुकसान रामविलास पासवान को हो रहा है. मायावती ने ज़्यादा से ज़्यादा उम्मीदवारों को खड़ा कर चुनाव को बहुकोणीय बना दिया. लालू यादव और रामविलास पासवान ने अगर गऱीबों, दलितों, मज़दूरों, किसानों और मुसलमानों के विकास को मुद्दा बनाया होता तो चुनाव में बहस का मुद्दा ही अलग होता. कांग्रेस ने लालू यादव और रामविलास पासवान से हाथ न मिलाकर विपक्ष के वोटों का बंटवारा कर दिया.