शुक्रवार, 26 नवंबर 2010

वंशवादी राजनीति के अंत की शुरुआत है नीतीश की जीत

लालू का जिन्न गायब हो गया। राहुल गांधी का करिश्मा फेल हो गया। नीतीश की आंधी में सारे उड़ गये। एक बार फिर भगवान बुद्व और जयप्रकाश नारायण की धरती ने देश को संदेश दिया है। संदेश स्पष्ट है। बिहार में ढाई प्रतिशत की आबादी वाले कुर्मी जाति के नीतीश कुमार सर्वजात के नेता बन गया। जिला का जिला साफ हो गया। विरोधी दलों को सीट नहीं मिली। जाति के जाति ने नीतीश को वोट दिया। महिला सशक्तिकरण ने बिहार की ही नहीं देश की राजनीति बदल दी है।

बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने बिहार विधानसभा के लिए हुए चुनाव नतीजे आ जाने के बाद ऐलान किया कि यह जीत बिहार की जनता की है। यह अलग बात है कि उनके साथ चुनाव लडऩे वाली बीजेपी इसे अपनी जीत मान रही है। और एनडीए की नीतियों का डंका पीट रही है लेकिन सच्चाई नीतीश कुमार के बयान से साफ़ नजऱ आ रही है। राजनीति के जानकार कहते हैं कि यह जीत न तो जेडीयू की है और न ही एनडीए की। यह साफ़तौर पर नीतीश कुमार की जीत है। उनके साथ जो भी खड़ा था वह जीत गया। चाहे वह बीजेपी जैसी पार्टी ही क्यों न हो।

एक और सच्चाई से मुंह नहीं मोडऩा चाहिए। वह यह कि खुद नीतीश कुमार को भी नहीं अंदाज़ था कि बिहार की जनता उनके साथ इतने बड़े पैमाने पर जुड़ चुकी है। अगर ऐसा होता तो इस बात की पूरी संभावना है कि बीजेपी से ऊब चुके नीतीश कुमार चुनाव के पहले अकेले ही जाने का फैसला कर लेते और दिल्ली से ले कर पटना तक नीतीश की जीत को अपनी जीत बता रही बीजेपी भी उसी हस्र को पंहुच गयी होती जिसको, लालू प्रसाद यादव, राम विलास पासवान और कांग्रेस के लोग पंहुचे हैं। बिहार के चुनावों में पासवान की तरफ से प्रेस मैनेज कर रहे एक श्रीमानजी से जब पूछा गया था कि क्या राम विलास जी की पार्टी को कुछ सम्मानजनक सीटें मिल जायेगीं, तो उन्होंने लगभग नाराज़ होते हुए कह दिया था कि 24 नवम्बर को गिनती के बाद देखिएगा, लालू जी के साथ मिलकर पासवान जी सरकार बनायेगें। उसी तरह, लालू भी मुगालते में थे। शायद इसीलिये उन्होंने नतीजों को विस्मयकारी बताया।

कांग्रेस के लोग भी राहुल गाँधी की सभाओं में आ रहे लोगों की संख्या को वास्तविक मान रहे थे और उम्मीद कर रहे थे कि इस बार कांग्रेस की किस्मत सुधरेगी। लेकिन नतीजे आने के बाद बिलकुल साफ़ हो गया है कि सब लोग मुगालते में थे। किसी को भनक भी नहीं थी कि जनता क्या फैसला करने वाली है। जनता ने फैसला सुना दिया है और उसने नीतीश कुमार की हर बात का विश्वास किया है। फैसला इस बात का ऐलान है कि बिहार के लोग नीतीश के साथ हैं।

अपनी आदत के मुताबिक नीतीश कुमार ने जनता के फैसले को सिर झुका कर स्वीकार किया है और साफ़ कहा है कि उनके पास जादू की कोई छड़ी नहीं है जिसको घुमा कर वे हालात को तुरंत बदल दें लेकिन लोगों के लिए काम करने की इच्छाशक्ति है। यही बात सबसे अहम है। किसी के पास जादू की छड़ी नहीं होती लेकिन कुछ लोग बातें बड़ी बड़ी करते हैं। मौजूदा बिहार का सौभाग्य है कि वहां आज के युग में नीतीश कुमार जैसा व्यक्ति मौजूद है लेकिन राज्य की बदकिसमती यह है कि उसके नेताओं में नीतीश कुमार के अलावा ज़्यादातर ऐसे हैं जो बातें बड़ी बड़ी कर रहे हैं। लालू प्रसाद ने जिस तरह से चुनावी नतीजों पर प्रतिक्रिया दी है वह निराशाजनक है, बीजेपी ने जिस तरह से जीत का दावा करना शुरू किया है वह भी बहुत ही अजीब है। यह किसी पार्टी की जीत नहीं है, यह शुद्ध रूप से नीतीश कुमार की जीत है। और यह अंतिम सत्य है।

बिहार विधान सभा के लिए हुए 2010 के चुनावों के भारतीय राजनीति में बहुत सारी पुरानी मान्यताओं के खंडहर ढह जाएंगे। सबसे बड़ा किला तो जातिवाद का ढह गया है। लालू प्रसाद और राम विलास पासवान ने तय कर लिया था उनकी अपनी जातियों के वोट के साथ जब मुसलमानों का वोट मिला दिया जाएगा तो बिहार में एक अजेय गठबंधन बन जाएगा। लेकिन ऐसा कहीं कुछ नहीं हुआ। उनके अपने सबसे प्रिय लोग चुनाव हार गए। राम विलास पासवान के दो भाई चुनाव हार गए। लालू प्रसाद की पत्नी दो सीटों से चुनाव हार गयीं।

जाति के गणित के हिसाब से बहुत ही भरोसेमंद सीटों पर चुनाव लड़ रहे इन लोगों की हार जहां जाति के किले को नेस्तनाबूद करती है , वहीं राजनीति में घुस चुके परिवारबाद के सांप को भी पूरी तरह से कुचल देने की शुरुआत कर चुकी है। पूरे देश में और लगभग हर पार्टी में परिवारवाद का ज़हर फैल चुका है। इस चुनाव ने यह साफ़ संकेत दे दिया है कि अपने परिवार के बाहर देखना लोकतांत्रिक राजनीति का ज़रूरी हिस्सा है और बाकी राजनीतिक पार्टियों और नेताओं को भी अपने परिवार के बाहर टैलेंट तलाशने की कोशिश करनी चाहिए। यह चुनाव साम्प्रदायिक ताक़तों की भी हार है। अपने देश में साम्प्रदायिक वहशत के पर्याय बन चुके, नरेंद्र मोदी को जिस तरह से नीतीश कुमार ने बिहार आने से रोका, वह सेकुलर जमातों को अच्छा लगा और इन चुनावों में सेकुलर बिरादरी को महसूस हो गया कि सत्ता की राजनीति के मजबूरी में भले ही नीतीश कुमार बीजेपी को ढो रहे हैं लेकिन मूल रूप से वे बीजेपी-आर एस एस की साम्प्रदायिक राजनीति के पक्षधर नहीं हैं। शायद इसी समझ का नतीजा है कि इस बार मुसलमानों ने बड़ी संख्या नीतीश कुमार की बात का विश्वास किया और उनके उम्मीदवारों को जिताया।

बिहार के विधानसभा चुनावों के बाद एक और ज़बरदस्त सन्देश आया है। इस बार अवाम ने गुंडों को नकार दिया है। हाँ, एकाध गुंडे जो नीतीश कुमार के साथ थे वे जीत गए हैं। लेकिन नीतीश कुमार के पिछले पांच साल के गुंडा विनाश के प्रोजेक्ट को जिन लोगों ने देखा है उन्हें मालूम है अब हुकूमत में गुंडों का दखल बहुत कम हो जाएगा। नीतीश कुमार के सत्ता में आने के पहले के पंद्रह वर्षों में जिस तरह से बिहार में गुंडा राज कायम हुआ था और अपहरण एक उद्योग की शक्ल अख्तियार कर चुका था, उसके हवाले से देखने पर साफ़ समझ में आ जाएगा कि लालू प्रसाद के परिवार के राज में गुंडा प्रशासन का स्थायी हिस्सा बन चुका था। पिछले पांच वर्षों में नीतीश ने उसे बहुत कमज़ोर कर दिया। जिसकी वजह से ही इस बार बड़े बड़े गुंडे और उनेक घर वाले चुनाव हार गए हैं। बिहार में नीतीश के राज में गुंडों का आतंक घटा है।

बीजेपी वाले नीतीश की जीत को गुजरात में नरेंद्र मोदी की जीत के सांचे में रखकर देखने के चक्कर में हैं। कई नेता यह कहते पाए जा रहे हैं कि कि एनडीए का नारा विकास है और वे लोग नीतीश कुमार को भी अपने बन्दे के रूप में पेश करने की कोशिश कर रहे हैं। लेकिन बात इतनी आसान नहीं है। एक तो तथाकथित एनडीए का कहीं कोई अस्तित्व नहीं है। गुजरात में भी नहीं। वहां शुद्ध रूप से मोदी के ब्रैंड की राजनीति चल रही है जिसका लक्ष्य हिन्दूराज कायम करना है। 2002 में शुरू करके पिछले गुजरात विधान सभा चुनावों तक गुजरात के मुसलमानों में मोदी ने इतना आतंक फैला दिया था कि मुसलमान वहां दहशत में है और कई इलाकों में तो वह दर के मारे नरेंद्र मोदी के उम्मीदवारों को वोट भी दे रहा है। गुजरात में मुसलमान अब दबा कुचला वर्ग है और कोई भी राजनीतिक जमात उसके लिए किसी तरह की कोई लड़ाई लड़ सकने की स्थिति में नहीं है। इसके साथ-साथ मोदी ने राज्य के औद्योगिक विकास को सरकारी तौर पर प्राथमिकता की सूची में डाल दिया है जिससे साम्प्रदायिक हो चुके समाज को संतुष्ट किया जा रहा है। गुजरात में भी बीजेपी या एनडीए का कुछ नहीं है। वह नरेंद्र मोदी छाप राजनीति है जो मोदी को सरकार में बनाए हुए है। अपने आप को लूप में रखने के चक्कर में बीजेपी गुजरात से बिहार की तुलना करने की जो जल्दबाजी कर रही है, उस से बचने की ज़रूरत है। बिहार में नीतीश की जो जीत है उसका गुजरात से कोई लेना देना नहीं है। हाँ अगर कोई बात तलाशी जा सकती है तो वह यह है कि बिहार में नरेंद्र मोदी को फटकार दिया गया था और नरेंद्र मोदी को डांट डपट कर नीतीश ने बिहार में एक बड़े वर्ग को अपने साथ कर लिया था।

बिहार ने एक बार फिर देश की राजनीति को दिशा दी है। इस बार वहां न तो जातिवाद चला और न ही परिवारवाद। अपने असफल बच्चों को राजनीति में उतारने की नेताओं की कोशिश को भी ज़बरदस्त झटका लगा है। उम्मीद की जानी चाहिए कि बाकी राज्यों में भी जातिवाद और परिवारवाद को इसी तरह का झटका लगेगा। इस बार एक और दिलचस्प बात हुई है। बीजेपी के बावजूद मुसलमानों ने नीतीश कुमार का विश्वास किया और लालू प्रसाद के मुसलमानों के रहनुमा बनने के मुगालते को ठीक किया। बाबरी मस्जिद के फैसले के बाद कांग्रेस से दूर खिंच रहे मुसलमान ने एक बार फिर साबित कर दिया कि अगर नीयत में ईमानदारी नहीं है तो वह बीजेपी के साथी नीतीश को तो वोट दे सकता है लेकिन अंदर ही अन्दर की दगाबाजी उसे बर्दाश्त नहीं है।


चुनावों से ठीक पहले हंग असेंबली की बात की जा रही थी। पटना में खद्दरधारी नेताओं की जबान नितीश के विरोध में थी। ये सारे जबान व्यक्तिगत हितों से ग्रसित थे। कई शहरों के कुछ प्रमुख अड्डों पर बैठकबाजी करने वाले खद्दरधारी नेता, नितीश को गाली देते थे। बटाई बिल का बहाना लेकर। लेकिन बटाई बिल से पीडि़त लोगों ने भी वोट दिया। कहा बटाई बिल पता नहीं, पर रात को गांव में सो तो रहे है। खेती तो आराम से कर रहे है। चुनाव से ठीक पहले कुछ कांग्रेसी खुश थे, हंग असेंबली होगा। चलो इसी बहाने राष्ट्रपति शासन लागू होगा। ये वही लोग थे जिनके व्यक्तिगत हितों को नितीश कुमार ने पूरा नहीं किया था। इनका जिला या ब्लाक स्तर पर उनकी दलाली नहीं चली थी। लेकिन इससे अलग आम जनता की सोच थी। उन्हें सुरक्षित जीवन चाहिए था। गांवों तक बढिया सड़क की जरूरत थी। बढिय़ा स्वास्थ्य सेवा चाहिए था। नितीश ने इसे कर दिखाया। अस्पतालों में दवाइयां मिलनी शुरू हो गई थी। डाक्टर हास्पीटल में बैठने लगे थे। गांव तक सड़क बन गई थी। लोगों को गुंडागर्दी टैक्स से मुक्ति मिल गई थी। व्यापारी बिन भय के देर रात तक दुकान खोल सकता था। ट्रेन से उतर देर रात अपने घर जा सकता था। यह नितीश कुमार के पहले पांच साल की उपल्बिद थी।

बिहार का चुनाव परिणाम देश की राजनीति बदलेगा। राज्य की अस्मिता से अलग, जाति की अस्मिता से अलग विशुद्व चुनाव था विकास की राजनीति पर। भ्रष्टाचार मुद्दा था, पर 2 जी स्पेक्ट्रम, कामनवेल्थ ने बिहार के भ्रष्टाचार को पीछे ढकेल दिया था। आजादी के पचास साल बाद लोगों को गांवों में सड़क देखने को मिली थी। गांव की महिलाएं सुरक्षित घर से बाहर शौच के लिए निकल पा रही थी। ये महिलाएं हर जाति की थी। क्या भूमिहार, क्या राजपूत, क्या कहार, क्या कोयरी, क्या कुर्मी, क्या दलित, क्या यादव। हर जाति की महिला की इज्जत आबरू बची। अब अगला लक्ष्य बिहार की जनता ने नितीश को दे दिया है। बिहार की जनता पिछले पचास सालों से बिजली से मरहूम है। अगले पांच सालों में बेहतर बिजली, बेहतर शिक्षा और बेहतर रोजगार का प्रबंध नितीश कुमार करेंगे। यह जनता की उम्मीद है।

शुक्रवार, 19 नवंबर 2010

बिहार में फेल हो गए राहुल बाबा



भारत की राजनीति में परिवर्तन की महागाथा जिस राज्य से लिखी जाती है वह है बिहार,लेकिन कांग्रेस के युवराज की राजनीति बिहार में पूरी तरह फेल होकर रह गई है।लालू यादव को सबक सिखाने की जिद ने कांग्रेस पार्टी को अंधा बना दिया. पार्टी ने बिहार में ऐसी रणनीति बनाई, जिससे पूरा विपक्ष ही खंड-खंड हो गया.
सवाल यह है कि राहुल ने बिहार में ऐसी रणनीति क्यों अपनाई. दरअसल राहुल गांधी के लिए बिहार चुनाव एक प्रयोगशाला है, उन्हें देश का प्रधानमंत्री बनना है, युवाओं का सर्वमान्य नेता बनना है. इसी मायने में बिहार चुनाव राहुल गांधी का इम्तहान है. बिहार के चुनाव में यह भी फैसला होना है कि राहुल गांधी का करिश्मा चुनाव पर असर डालता है या नहीं? राहुल गांधी में संगठन का पुनर्निर्माण करने की काबिलियत है या नहीं? बीस साल पहले कांग्रेस बिहार की सबसे मजबूत और ताक़तवर पार्टी हुआ करती थी. राहुल क्या कांग्रेस पार्टी के पुराने दिन लौटा पाएंगे? राहुल गांधी और उनके सलाहकारों के लिए यही चुनौती है. राहुल गांधी ने मुसलमानों और युवाओं के ज़रिए इस काम को अंजाम देने की कोशिश की है. ऐसा ही कुछ राहुल गांधी को उत्तर प्रदेश में करना है. अगर बिहार का प्रयोग सफल रहता है तो राहुल गांधी के लिए पूर्ण बहुमत के साथ प्रधानमंत्री बनने का रास्ता साफ़ हो जाएगा, लेकिन राहुल गांधी अपनी पहली परीक्षा में फेल हो गए. राहुल गांधी नौजवानों को राजनीति में सामने लाने की बात करते हैं. भारत के युवाओं का सर्वमान्य नेता बनना उनका सपना है. बिहार चुनाव उनके लिए एक मौक़ा था, जब वह ज़्यादा से ज़्यादा युवाओं को उम्मीदवार बना सकते थे. अगर राहुल गांधी बिहार में 25-40 वर्ष की आयु के 60 फीसदी उम्मीदवारों को टिकट दिलवाने में कामयाब होते तो यह माना जा सकता था कि राहुल गांधी जो कहते हैं, वही करते हैं, लेकिन बिहार चुनाव में वह एनएसयूआई और यूथ कांग्रेस से दस से ज़्यादा उम्मीदवारों को टिकट नहीं दे सके. इसका मतलब यह है कि कांग्रेस पार्टी युवाओं से समर्थन तो चाहती है, लेकिन उनके हाथ नेतृत्व देना नहीं चाहती.

कांग्रेस की योजना बिहार में असफल होती दिखाई दे रही है. चुनाव से पहले बिहार में कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष अनिल शर्मा थे. उन्होंने पार्टी को खड़ा करने में बड़ा योगदान किया. जो काम लालू यादव और रामविलास पासवान नहीं कर सके, वह काम अनिल शर्मा ने किया. उन्होंने सबसे पहले नीतीश कुमार के खिलाफ माहौल बनाया. पूरे राज्य का दौरा कर पार्टी संगठन और कार्यकर्ताओं को एकजुट किया, लेकिन पार्टी ने उन्हें बेइज़्ज़त करके अध्यक्ष पद से हटा दिया. दरअसल, राहुल गांधी के सलाहकार पिछले छह महीने से बिहार में हर तरह के प्रयोग को अंजाम देने में लगे थे. राहुल गांधी कहां जाएंगे, कहां प्रेस कांफ्रेंस करेंगे, कैसे लोगों को टिकट दिया जाएगा, किन्हें संगठन की जि़म्मेदारी दी जाएगी आदि सब कुछ उनके सलाहकार राहुल गांधी के नेतृत्व के नाम पर कर रहे थे. राहुल गांधी ने भी चुनाव प्रचार में कोई कसर नहीं छोड़ी.

बिहार चुनाव अपने आ़खिरी चरण में है. इस चुनाव की सबसे बड़ी खासियत यह है कि हर पार्टी ने अपने-अपने हिसाब से जनता को मूर्ख बनाने के हर दांव खेले. कांग्रेस पार्टी इस खेल में सबसे आगे रही. अब चुनाव के नतीजे ही यह बताएंगे कि जनता इनके झांसे में आई या नहीं. अफ़सोस की बात यह है कि बिहार चुनाव के दौरान जनता की समस्याएं और उनसे जुड़े सवाल चुनाव का मुद्दा नहीं बन सके. विपक्ष ने और भी निराश किया. सरकार की कमियों को मुद्दा बनाने के बजाय सबने नीतीश कुमार को ही निशाने पर ले लिया. विपक्षी दलों की कृपा से नीतीश कुमार चुनाव के केंद्र में आ गए. यही नीतीश कुमार की कामयाबी की सबसे बड़ी वजह है. इसकी शुरुआत कांग्रेस ने की. कांग्रेस ने इस चुनाव में पानी की तरह पैसा बहाया. बिहार कांग्रेस के एक सचिव सागर रायका और पार्टी की यूथ विंग के अध्यक्ष ललन कुमार को पुलिस ने साढ़े छह लाख रुपये के साथ गिरफ़्तार किया. इन पर सोनिया गांधी की रैली में भीड़ इक_ा करने के लिए पैसे बांटने का आरोप है. सोनिया गांधी की रैली में शामिल होने के लिए पैसे बांटने के आरोप में कांग्रेस के छह अन्य कार्यकर्ता भी गिरफ्तार हुए. पार्टी ने खुद को एनडीए को चुनौती देने वाली मुख्य पार्टी बनाने में साम, दाम, दंड, भेद सब कुछ लगा दिया. राहुल गांधी ने अपनी सारी ताक़त झोंक दी. उनकी रैलियों में लोग तो आए, लेकिन कांग्रेस पार्टी नीतीश कुमार को चुनौती देने में नाकाम रही.

शुरुआत से ही बिहार चुनाव में कांग्रेस की वजह से काफी कन्फ्यूजन फैला. राहुल गांधी के सलाहकारों ने उन्हें यह समझा दिया कि नीतीश कुमार ने बिहार में अच्छा काम किया है. उनकी तारीफ़ करने से राहुल गांधी को लोग सच बोलने वाला नेता समझेंगे. इसके बाद वह जो भी बोलेंगे, लोग उनकी बातों पर विश्वास करेंगे. राहुल बिहार गए और उन्होंने कह दिया कि नीतीश कुमार बिहार का विकास कर रहे हैं. जिसका अर्थ यह निकला कि नीतीश कुमार से पहले लालू यादव की जो सरकार थी, उसने विकास का काम नहीं किया. राहुल गांधी ने एक ही झटके में विपक्ष को कमज़ोर कर दिया. राहुल गांधी के ऐसे बयानों से लालू यादव और रामविलास पासवान का नाराज़ होना स्वाभाविक था, क्योंकि इस बयान से वे दोनों बैकफुट पर आ गए. इसके बाद खबर यह भी आई कि कांग्रेस पार्टी ने नीतीश कुमार की तरफ़ दोस्ती का हाथ बढ़ाया. यह संदेश दिया गया कि चुनाव के बाद कांग्रेस पार्टी नीतीश की सरकार को समर्थन दे सकती है. नीतीश कुमार ने राहुल के बयान के बदले उन्हें धन्यवाद कहा, लेकिन कांग्रेस के साथ कोई भी तालमेल करने से सार्वजनिक तौर पर मना कर दिया. फिर कांग्रेस ने लालू यादव और रामविलास पासवान के बीच भ्रम फैलाने की कोशिश की. कांग्रेस की तरफ़ से यह बात फैलाई गई कि चुनाव परिणामों के बाद यदि बिहार में त्रिशंकु विधानसभा की स्थिति सामने आती है तो कांग्रेस लालू यादव की जगह रामविलास पासवान को समर्थन देगी. पहले राहुल गांधी ने नीतीश की तारीफ़ की, फिर चुनाव प्रचार के दौरान उन पर केंद्र की योजनाओं को सही ढंग से लागू न करने का आरोप लगाया. कांग्रेस ने बीच-बीच में गठबंधन और रणनीति को लेकर अफवाह फैलाई. राहुल गांधी के सलाहकार शायद बिहार से वाकि़फ़ नहीं हैं और शायद इसलिए ऐसी ग़लती हो गई. बिहार की जनता राजनीतिक तौर पर काफी परिपक्व है, वह नेताओं के बहकावे में नहीं फंसती. बयानबाज़ी का असर बिहार की जनता पर नहीं होता. यही वजह है कि कांग्रेस का चुनावी अभियान बिहार में मज़ाक बन गया.

कांग्रेस ने मुसलमानों को ठगने के लिए एक मुस्लिम नेता को बिहार प्रदेश कांग्रेस का अध्यक्ष बनाया. क्या कांग्रेस पार्टी को यह लगा कि सर्फ़ि अध्यक्ष बना देने से मुसलमान उनके पास वापस आ जाएंगे, उनका वोट मिल जाएगा? मुसलमानों के साथ कांग्रेस ने जो कलाबाज़ी की है, उसका इतिहास तो अनंत है. क्या कांग्रेस पार्टी को यह लगता है कि सच्चर कमेटी और रंगनाथ मिश्र कमीशन रिपोर्ट पर कोई कार्रवाई किए बिना मुसलमानों को धोख़ा दिया जा सकता है? कांग्रेस पार्टी जो कहती है और जो करती है, उसमें ज़मीन-आसमान का फ़कऱ् होता है. लगता है कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह अपने ही बयान को भूल गए हैं. मनमोहन सिंह ने प्रधानमंत्री बनने के बाद यह कहकर राजनीतिक गलियारों में शाबाशी बटोरी थी कि सरकारी संसाधनों पर अल्पसंख्यकों का ज़्यादा हक़ है. यूपीए की सरकार बने अब सात साल होने वाले हैं, लेकिन अल्पसंख्यकों और मुसलमानों के विकास से जुड़ा एक भी क़ानून नहीं लाया गया है. चुनाव से ठीक पहले बाबरी मस्जिद-राम जन्मभूमि मामले में इलाहाबाद हाईकोर्ट का फैसला आ गया. इस फैसले पर सोनिया गांधी, मनमोहन सिंह और राहुल गांधी की चुप्पी ने मुसलमानों को कांग्रेस से दूर कर दिया. कांग्रेस ने बिहार में 48 मुसलमानों को मैदान में उतार दिया. कांग्रेस की इस बात के लिए तारीफ़ होनी चाहिए कि इसने इतने ज़्यादा मुसलमान उम्मीदवारों को टिकट दिए, लेकिन समझने की बात यह है कि क्या इन उम्मीदवारों को इसलिए टिकट दिया गया कि ये जीतने वाले उम्मीदवार हैं. या फिर लालू यादव का नुक़सान करने के लिहाज़ से यह रणनीति बनाई गई है. चुनाव परिणाम से यह साबित हो जाएगा कि कांग्रेस द्वारा मुसलमानों को टिकट देने के फैसले से किसे नुक़सान हुआ और इसका फायदा किसे हुआ.

कांग्रेस पार्टी ने बिहार में जो काम किया, वही काम वह पश्चिम बंगाल में भी दोहराने की तैयारी में है. उससे यही निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि पश्चिम बंगाल में सर्फ़ि ममता बनर्जी ही हैं, जो लेफ्ट फ्रंट की सरकार को हराने की ताक़त रखती हैं. लोकसभा, पंचायतों और नगरपालिकाओं में तृणमूल कांग्रेस की शानदार जीत हुई है. राहुल गांधी ने जब यह कहा कि कांग्रेस पार्टी उन्हीं शर्तों पर तृणमूल कांग्रेस के साथ गठबंधन करेगी, जो सम्मानजनक हों. इसका मतलब यह हुआ कि कांग्रेस पार्टी को अगर उसके मन मुताबिक़ सीटें नहीं मिलीं तो वह बिहार की तरह अकेले चुनाव लड़ेगी. चुनाव त्रिकोणीय हो जाएगा और इसका फायदा लेफ्ट फ्रंट को मिलेगा. अगर ऐसा होता है तो कांग्रेस पर यह आरोप लगना निश्चित है कि पार्टी पश्चिम बंगाल में बदलाव नहीं चाहती है.

बिहार चुनाव के संदर्भ में राहुल गांधी की राजनीति पर ग़ौर करना ज़रूरी है. मामला किसानों का हो या फिर उड़ीसा के नियमगिरि के आदिवासियों का, राहुल गांधी के नज़रिए और केंद्र सरकार की नीतियों में मतभेद है. राहुल गांधी गऱीबों, किसानों और आदिवासियों के साथ नजऱ आते हैं, लेकिन सरकार उनकी विचारधारा के विपरीत चल रही है. राहुल गांधी भारत के साथ खड़े हैं, लेकिन कांग्रेस सरकार इंडिया के साथ नजऱ आती है. राहुल गांधी की कथनी और केंद्र सरकार की करनी में ज़मीन-आसमान का अंतर है. सवाल यह है कि क्या राहुल गांधी बिहार की जनता को यह विश्वास दिला पाएंगे कि बुनियादी सवालों पर वह जो कह रहे हैं, सही है? वह जिस सिद्धांत को लेकर चल रहे हैं, वह सही है? वैसे राहुल गांधी की इस बात के लिए तारीफ होनी चाहिए कि जब वह आदिवासियों, मज़दूरों और गऱीबों के मुद्दे पर बोलते हैं तो एक भावी प्रधानमंत्री नजऱ आते हैं. उनके बयानों को सुनकर अच्छा भी लगता है, लेकिन डर भी लगता है. राहुल गांधी कुछ मुद्दों पर ऐसी राय रखते हैं, जिसका विरोध देश ही नहीं, बल्कि विदेशों की बड़ी-बड़ी शक्तियां करती हैं. देखना है कि राहुल गांधी के विचार, उनकी राजनीति सरकारी योजनाओं में कब तब्दील होती है.

बिहार चुनाव में जातीय समीकरण, अपराधियों और परिवारवाद का बोलबाला रहा. नेताओं ने जनता की समस्याओं के बजाय अपने निजी स्वार्थों पर ज़्यादा ध्यान दिया. नीतीश कुमार ने भी जनता को मूर्ख बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी. वह नरेंद्र मोदी का विरोध करने का भ्रम भी फैलाते रहे और भारतीय जनता पार्टी के साथ गठबंधन भी सलामत रहा. उन्होंने विकास के आंकड़ों की कलाबाज़ी दिखाई. सड़क बनाने को सुशासन का नाम देकर जनता को बेकारी, अशिक्षा और गऱीबी जैसे मुद्दों से दूर रखने में वह कामयाब रहे. भारतीय जनता पार्टी ने नीतीश कुमार की बी टीम बनकर अपने धार्मिक और विवादित मुद्दों पर पर्दा डालकर लोगों को गुमराह किया. वामपंथी पार्टियों की दुविधा यह रही कि पार्टी दिल्ली के दफ्तर से बाहर ही नहीं निकली. बिहार में गऱीबी, अशिक्षा एवं बेरोजग़ारी जैसी समस्याएं हैं, लेकिन वामपंथी दलों ने भी निराश ही किया. जनता के लिए उन्होंने सड़क पर उतरने की ज़हमत नहीं उठाई. लालू यादव के खिलाफ़ सबसे बड़ा इल्ज़ाम यह है कि वह विकास विरोधी हैं. उनकी इसी छवि का नुकसान रामविलास पासवान को हो रहा है. मायावती ने ज़्यादा से ज़्यादा उम्मीदवारों को खड़ा कर चुनाव को बहुकोणीय बना दिया. लालू यादव और रामविलास पासवान ने अगर गऱीबों, दलितों, मज़दूरों, किसानों और मुसलमानों के विकास को मुद्दा बनाया होता तो चुनाव में बहस का मुद्दा ही अलग होता. कांग्रेस ने लालू यादव और रामविलास पासवान से हाथ न मिलाकर विपक्ष के वोटों का बंटवारा कर दिया.

संघ से जंग कांग्रेस की राजनैतिक चाल

जो अखण्ड भारत की मॉग, स्वदेशी अपनाने पर बल, अपने पूर्वजों को नमन, भगवद्वज (भगवा घ्वज) को गुरू, भारतवर्ष को भूमि का टुकडा न मानते हुये मॉ का स्थान देता है तथा घुसपैठ, आतंकवाद, अलगाववाद एवं जबरन धर्मान्तरण का स्पष्ट विरोध करता है जो राष्ट्रीय चरित्र जागरण तथा राष्ट्रीय साहित्य का श्रृजन कर वितरण भी करता है। एक तरफ मैकाले की मानसिक दासता की मुक्ति की बात तथा दूसरी तरफ समाज को एक करने के लिये सेवा कार्य भी करता है जो गरीबी अशिक्षा, छुआछुत, बेईमानी समाप्त करने की भी बात करता है। वह राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ है, जिसके मूल में स्पष्ट राष्ट्रवाद है, जिसका मानना है शुद्ध सात्विक प्रेम द्वारा मर्यादित रूप से अपनी बात कहने से ही किसी समस्या का समधान हो सकता है। यह एक एैसा सांस्कृतिक राष्ट्रवादी संगठन है, जिसकी न तो कहीं सदस्यता होती है और न किसी प्रकार का पंजीकरण। इनके स्वंयसेवको की विधिवत कहीं भी सूची नहीं बनती। जो व्यक्ति एक बार ध्वज प्रणाम कर लेता है, उसी का हो जाता है। इसमें धर्म, जाति, उम्र तथा लिंग का कोई बंधन नहीं। यह एक स्पष्ट पारदर्शी संगठन है सब इसके तथा यह सबका है। यदि हम गौर करे यह तीन वाक्यों से मिलकर बना है जिसमें कहीं भी किसी विशेष धर्म की चर्चा या पहचान नहीं है, जिसका गुरू भी भगवद्वज है। कोई व्यक्ति, महापुरूष या देवी देवता नहीं है। सिद्घान्त भी सभी धर्मों को ध्यान में रखकर बनाये गये हैं। घ्वज पूजन में भी विशेष ध्यान रखा गया है कि किसी पंथ या मजहब को इसमें भाग लेने में असुविधा न हो। गुरू के स्थान पर भी राष्ट्रीयता, ज्ञान, त्याग, पवित्रता और तेज का प्रतीक भगवद्वज ही है। जिसे 1929 की करांचीकांगे्रस झण्डा कमेटी ने भी अपनी रिपोर्ट में राष्ट्रीय ध्वज स्वीकारा था। यह अपने अनेकानेक अनुशांगिक संगठनों के माध्यम से समाज से बुराईयों को दूर का प्रयास करता है तथा उत्कृष्ठ राष्ट्रप्रेम, सद्गुण निर्माण तथा समाज को एक सूत्र में पिरोने के प्रयास में लगा रहता है। संघ ने देश की आजादी में भी अपनी महत्वपूर्ण भागीदारी निभाई। 1930 की 26 जनवरी वाले दिन एक बड़े कार्यक्रम के तहत सम्पूर्ण शाखाओं पर पूर्ण स्वराज की मांग तथा 1942 में भारत छोड़ो आन्दोलन में संघ की खुलकर हिस्सेदारी तथा अंग्रेज सरकार की गुप्तचर विभाग की फाइलों में संघ के बारे में विशेष टिप्पणियॉ उसके राष्ट्रीय स्वरूप को और प्रमाणित करती हैं कुल मिलाकर यह तो तय है संघ एक ईमानदार राष्ट्रवादी संगठन है जो किसी एक धर्म का नहीं है। जिसका मुख्य उद्देश्य भारत को पुनः परम वैभव को प्राप्त कराना है।
वर्तमान में कांग्रेस सरकार के नेता संघ एवं उनके अनुशांगिक संगठनों की तुलना आंतकी संगठनों से करते है। अभी हाल में संघ के एक प्रचारक इन्द्रेश कुमार को सीधे अजमेर विस्फोट में जबरन शामिल करना उनकी दूषित मानसिकता दर्शाता है। जग जाहिर है इन्द्रेश ने हिन्दू मुस्लिम एकता तथा मुस्लिम समाज को संघ से जोड़ने के लिये एवं उनकी हिचक समाप्त करने के लिये सराहनीय योगदान दिया तथा वे सफल भी हुये। संघ के पूर्व सर संघ चालक के0एस0 सुदर्शन ने मध्य प्रदेश की सभा में कांग्रेज पार्टी की नेता सोनिया गांधी पर अरूचिकर टिप्पणी की। उक्त कथन से कांग्रेस पार्टी के कार्यकर्ताओं में रोष होना स्वभाविक है। यह भी सत्य है भारतवर्ष ने सोनिया जी को वह स्थान दिया जो शायद दुनिया के किसी देश में एक विदेशी को नहीं प्राप्त हो सकता उनकी जन्म भूमि इटली में तो कदापि नहीं। सोनिया गॉधी के नेतृत्व वाली कांग्रेज पार्टी को यह नहीं भुलना चाहिए, वे देश के एक बड़े राजनैतिक दल भी है तथा देश में उनकी सरकार भी है। यदि उन्हे लग रहा है कि उक्त बयान के लिये उन्हे दण्डित किया जाना चाहिए तो न्यायलय का मार्ग खुला है उन पर कानूनी कार्यवाही की जा सकती है। लेकिन देश के संघ कार्यालयों पर हिंसात्मक गतिविधियों द्वारा उक्त पार्टी के कार्यकर्ताओें ने अराजकता का जो परिचय दिया निंदनीय तथा अशोभनीय है। उससे अधिक चिंताजनक एवं अनुचित तो यह है उक्त सत्ताधारी राजनैतिक दल के महासचिव यह बयान देते है, यदि कांग्रेसीजन कुछ प्रतिकूल कार्य करते हैं तो इसकी जिम्मेदारी किसी और पर नहीं बल्कि संघ पर होगी। यह क्या अमर्यादित बात हुई? गुण्डागर्दी, उपद्रव कोई करे जिम्मेदारी किसी और पर क्या यह बयान हिंसा भडकाने वाला प्रतीत नहीं होता। क्या ऐसा नहीं लगता कांग्र्रेसी नेता अपने कार्यकर्ताओं को अराजकता के लिये ब़ावा दे रहे हों।
केन्द्र पर शासन करने वाली कांग्रेस पार्टी ऐसा पहली बार नहीं कर रहीं है। एक लम्बे कालखण्ड से हिन्दू तथा मुसलमानों के मध्य खाई ब़ाने का कार्य किया है उक्त राष्ट्रीय राजनैतिक दल ने। हमेशा अंग्रेजों की व्यवस्था आगे ब़़ाते हुये उन्होने बॉटों और राज करो की नीति अपनाई तथा मुस्लिम समाज को तुष्टिकरण के माध्यम से अपना मतदाता बनाये रखने का प्रयास किया, उन्हे सच्चाई का दर्पण दिखाने का प्रयत्न कभी नहीं किया। उन्हें डर था कहीं वे नाराज हो गये तो एक बड़़ा वोट बैंक उनके हाथो से निकल जायेगा। किसी समय मुस्लिम वर्ग को तुष्टिकरण कर उन्हे प्रसन्न रखने का प्रयास किया जाता था। आज उससे एक कदम आगे ब़ आतंकवदियों के प्रति नरम व्यवहार अपना तथा देश के विघटनकारी तत्वों को खुली छूट के साथ सम्पूर्ण हिन्दू समाज तथा अन्तर्राष्ट्रीय स्तर अपनी सकारात्मक पहचान बनाये संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को आतंकी संगठन घोषित करने को वे अमादा हैं तथा इस कृत्य के माध्यम से उन्हे प्रसन्न रखने का प्रयास कर रहें है वे। देश तथा सम्पूर्ण भारतीय समाज के असली दुश्मन उक्त राजनैतिक दल तथा उनके सरीखे राजनेता तथा संगठन है। जिनकी धर्मनिरपेक्षता की सुई अपने व्यक्तिगत स्वार्थ तथा राजनैतिक महात्वाकांक्षाओं के इर्द गिर्द घूमती रहती है। जिन सरीखो ने सम्पूर्ण राष्ट्र को ऐसी जगह लाकर खड़ा कर दिया जहॉ से उसका अस्तित्व ही संकट में नजर आने लगा।
आज संघ जिस तरह केन्द्र सरकार की हिन्दू विरोधी नीतियों के खिलाफ पहली बार सड़कों पर पूरे देश में उतरा, यह एक सामान्य धटना नहीं हैं। जिस तरह केन्द्र सरकार ने पहले हिन्दू आतंकवाद फिर उसका भगवाकरण कर संघ के प्रचारक इन्द्रेश कुमार को उसमें घेरने का प्रयास किया। जिससे स्पष्ट पता चलता है कि योजनाबद्ध ़ंग से संघ को घेरने की साजिश चल रहीं है। पूरे देश को जिज्ञासा है उनका नाम बिना किसी साक्ष्य के किस आधार पर अजमेर बम धमाके में शामिल किया गया। आज तक राजस्थान पुलिस यह कहने की स्थिति में क्यों नहीं है कि उनका नाम अरोप पत्र में किस आधार पर शामिल किया गया। अधकचरे आरोप पत्र के आधार पर एक ईमानदार राष्ट्रनिष्ठ व्यक्ति तथा संगठन को कटघरे में खड़़ा करना कहॉ तक न्यायोचित है। संघ की नीतिरीति-सिद्घांत स्पष्ट तथा पारदर्शी है। जो किसी भी रूप में आराजकता तथा राष्ट्र विरोधी गतिविधियों की तरफ आकर्षित नहीं करता। प्रथम तो संघ का कोई व्यक्ति राष्ट्र विरोधी गतिविधियों में लिप्त नहीं हो सकता। दूसरा यदि कोई भविष्य में होता भी है तो वह उसका व्यक्तिगत विषय है न तो संगठन का उससे सरोकार है और न ही वह उसके बचाव में आने वाला है।
आज केन्द्र की सरकार जबरन हिन्दू संगठनो तथा समाज को भगवा आंतकवाद का जामा पहनाने के प्रयास में है। जबकि आजतक कोई हिन्दू संगठन तो दूर हिन्दू व्यक्ति के किसी आतंकी घटना में शामिल होने का आरोप साबित नहीं हो पाया है। कांग्रेस पार्टी द्वारा के0एस0 सुदर्शन के बयान पर जरूरत से अधिक प्रतिक्रिया, इन्द्रेश कुमार को बेवजह अजमेर विस्फोट में शामिल करना, भगवा आतंकवाद का भूत पैदा करना तथा संघ की तुलना सिमी से करना कांग्रेस पार्टी की कोई पूर्व योजना तो नहीं है? क्योंकि देश में 2जी स्पेक्ट्रम घोटाला, आदर्श सोसाइटी तथा राष्ट्रमण्डल खेल घोटाला सरीखे घोटालों की झड़ी लगी है। केन्द्र की सरकार घोटालों की सरकार बनकर रह गई है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की आ़ में देश के विघटन कारी तत्व उनकी नाक के नीचे दिल्ली में आकर सभायें करते है। भारत की सीमायें तथा अन्दर के हालात तनावपूर्ण हैं। घोटालों सहित विभिन्न आयामों में घिरी तथा पूरी तरह असफल केन्द्र की सरकार को कुछ सूझ नहीं रहा है, वे क्या करें। कहीं देश का ध्यान बाटने के लिये मनमोहन सरकार उक्त हिन्दू विरोधी गतिविधियॉ तो नहीं कर रही है। विचारणीय है?

- राघवेन्द्र सिंह

गुरुवार, 18 नवंबर 2010

गरीबों की राजनीति भाई युवराजों को

गरीब केवल वोट बैंक माना जाता है वह राजनीति का हिस्सा कभी भी नहीं रहा है लेकिन जब से कांगे्रस के युवराज ने अपने आप को गरीबों का मसिहा बनाने का अभिनय शुरू किया है राजनीति की परिभाषा ही बदलने लगी है। फिर क्या भाजपा के नए युवराज और गांधी परिवार से बहिष्कृत, वरुण गांधी भी अपने आप को गरीबों का मसिहा सिद्व करने में लग गए हैं। हालांकि अपने विवादास्पद बयान के कारण वरूण ने अपनी एक अलग छवि बना ली है।
भाजपा के युवा सांसद और राष्ट्रीय सचिव वरुण गांधी खुद को उम्र में 10 साल बड़े चचेरे भाई एवं कांग्रेस के राष्ट्रीय महासचिव राहुल गांधी की पीढ़ी का नहीं मानते, मगर दोनों राजनीति की एक ही रेसिपी तैयार करते दिखाई पड़ रहे है।भारतीय जनता पार्टी के युवा नेता वरुण गांधी ने हरदोई में एक कार्यक्रम के दौरान कहा कि उनकी नजऱ में कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी अब युवा नहीं हैं। उम्र का तकाजा तो यही कहता है कि वरुण से दस साल बड़े राहुल अब वाकई में युवा नहीं हैं, लेकिन सही मायने में राजनीतिक प्लेटफॉर्म पर चलने के लिए आज खुद युवा होने से ज्यादा युवा जैसी सोच की जरूरत होती है और इस पैमाने पर राहुल एकदम खरे उतरते हैं। भाजपा के यूथ आइकन कहे जाने वाले वरुण गांधी ने हाल ही में लोगों के बीच जाना शुरू किया, जैसा कि राहुल गांधी हमेशा से करते आ रहे हैं। यह बात वरुण जानते थे, इसीलिए उन्होंने सफाई दी कि वो राहुल की नकल नहीं कर रहे हैं, उनका मकसद अलग है। जबकि सही मायने में देखा जाए तो कांग्रेस की बड़ी-बड़ी रैलियों में राहुल उन्हीं रैलियों को संबोधित करते हैं, जिनमें युवाओं की संख्या ज्यादा हो।
राहुल साल भर में कई विश्वविद्यालयों का दौरा भी करते हैं। यही नहीं छात्रों से मुखातिब होते वक्त राहुल गांधी उन्हीं के स्तर पर सोचते हैं और उनके अंदर गहराई से झांक कर देखते हैं। राहुल गांधी की युवा सोच ही है, जो उन्होंने युवक कांग्रेस का नाम बदलकर युवा कांग्रेस कर दिया। यानी पार्टी की यह इकाई सिर्फ 20 से 30 वर्ष की आयु के लोगों की नहीं, बल्कि उन सभी की है, जो युवा सोच रखते हैं।

राहुल गांधी ने युवा कांग्रेस के पदाधिकारियों के चयन के लिए टैलेंट हंट किया, और गांव से लेकर राष्ट्रीय स्तर तक संगठन के चुनाव लोकतांत्रिक ढंग से कराये। वरुण की टिप्?पणी को अगर हास्यासपद ढंग से लिया जाए, तो अगर आमिर खान, शाहरुख खान, अक्षय कुमार, सैफ अली खान और सलमान खान 40 के पार होने के बाद भी युवा हैं, तो राहुल क्यों नहीं। कुल मिलाकर यह कहना गलत नहीं होगा, कि युवा बने रहने से ज्यादा जरूरी है युवा सोच विकसित करना।
राहुल जहां एक ओर गरीबों को देश की असली शक्ति बता रहे हैं, वहीं वरुण आम जनता से संवाद और सम्पर्क बढ़ा कर गरीब केन्द्रित राजनीति की राह पर चलने पर जोर दे रहे हैं।
वरुण गांधी का कहना है कि मेरी एक सोच है, वह सोच यह है कि राजनीति चुनाव केन्द्रित नहीं होनी चाहिए बल्कि गरीब केन्द्रित होनी चाहिए। उन्होंने कहा-राजनीति गरीब केन्द्रित होनी चाहिए। हालांकि आज कोई गरीब भी अपने को गरीब नहीं कहलाना चाहता कारण कि लोगों में आत्मगौरव और सम्मान की भावना बढ़ी है, जो कि अच्छी बात है। वरुण ने कहा कि पार्टी के सभी राजनीतिक कार्यकर्ताओं और नेताओं को चाहिए कि वे जमीनी राजनीति करें और समाज के हर तबके का विश्वास जीतें, सभी को चाहिए कि वे दीवाली के दिन किसी बाढ़ पीडित गांव में जाकर वहां दिया जलाएं। यह पूछे जाने पर कि कहीं आप भी वही तो नहीं कर रहे जो राहुल गांधी कर रहे है, वरुण ने कहा, जितने लोग घूम रहे हैं -सभी सीख रहे हैं -राहुल जी मुझसे उम्र में 10 साल बड़े हैं -मैं उन्हें अपनी पीढ़ी का नहीं मानता। सार्वजनिक और राजनीतिक जीवन में सामान्य लोगों को अधिक विश्वसनीय बताते हुए वरुण ने कहा, सामान्य आदमी का रिश्ता दल से नहीं दिल से है -राजनीतिक लोगों के मन में मैल हो सकता है, क्योंकि उनमें महत्वाकांक्षा होती है। उत्तार प्रदेश में कम से कम एक करोड़ लोगों के नदियों के बाढ़ सीमा क्षेत्र में रहने के बावजूद बाढ़ से बचाव के लिये कोई खास प्रभावी योजना का अभाव होने का दावा करते हुए वरुण ने कहा कि उनकी योजना है कि भविष्य में वह उत्तार प्रदेश के विभिन्न क्षेत्रों में जाकर दो-तीन दिन रुकेंगे ताकि आम जनता से मिलने और उनकी समस्याएं समझने का पूरा अवसर मिले। भाजपा के राष्ट्रीय सचिव वरुण ने दोहराया कि पार्टी कार्यकर्ताओं और नेताओं को दीवाली के दिन किसी बाढ़ पीडित परिवार में जाकर वहां दिया जलाना चाहिए और यह काम किसी राजनीतिक अभियान के रूप में नहीं बल्कि कर्तव्य भावना से करना चाहिए।
सांसदों में अपने वेतन-भत्तो बढ़वाने में सांसदों में बड़ी एकता दिखाई देने के सवाल पर वरुण ने कहा कि राजनीति में अनेक लोग आर्थिक दृष्टि से साधारण परिवारों से आते हैं और उनके लिए तो यह जरुरी हो सकता है,मगर हम बहुत से लोग खुश किस्मत है, हमें कोई आर्थिक संकट नहीं है और हम संसद में वेतन के लिए नहीं जाते हैं। उन्होंने यह भी बताया कि वह सांसद होने के नाते उन्हें मिलने वाले सभी वेतन भत्तो जनता और जरुरतमंद लोगों की सहायता में खर्च करते हैं, यह उनका संकल्प है।

वरुण सुलझे हुए राजनीतिज्ञ हैं। भले ही उनकी उम्र कम है लेकिन राजनीति के कीड़े उन्हें विरासत में मिले हैं, वे जानते हें कि गांधी परिवार से लतियाए और दुरियाए जाने के बाद वे जिस आतंकवादी जमात में शामिल हुए हैं वहां जो जितना बड़ा बतोलेबाज और असभ्य होगा उतना ही जल्दी तरक्की पाएगा। सो वरुण ने कुछ गलत थोड़े ही न कहा, अपनी जगह पक्की की है!
वरुण भले ही अपने नाम के आगे गांधी लिखते हैं लेकिन हैं वे गोडसे की जमात में। चेहरे मोहरे से भी उनके नाक नक्श कहीं से भी किसी गांधी से नहीं मिलते हैं, और गांधी परिवार से तमाम असहमतियों के बावजूद यह बात दावे के साथ कही जा सकती है कि वरुण की भाषा और संस्कार भी गांधी परिवार के नहीं हैं, बल्कि जो भाषा वे प्रयोग कर रहे हैं, उस भाषा पर तो बापू के हत्यारों का कॉपीराइट है या वरुण के एक चाचा ( उनके पिता और मां के परम मित्र अकबर अहमद डम्पी) का। जब हिन्दुत्व और डम्पीत्व का संगम होता है तो वरुण गांधी बनता है।
भाजपा के गांधी युवराज की भाषा सुनकर अचानक जेहन में डम्पी साहब कौंध गए। याद आया कि 90 के दशक में डम्पी ने किसी चुनावी सभा में अपने कुर्ते के बटन खोलकर कहा था कि अडवाणी मुसलमानों को हिन्दुस्तान से बाहर निकालने की बात करते हैं, पहले मुझे ( डम्पी) को निकालकर दिखाएं। ठीक उसी अंदाज में वरुण अपने खोल से बाहर आए हैं।
हालांकि वरुण के स्वर्गीय पिता भी अल्पसंख्यकों के जानी दुश्मन थे और संघ से उनकी लड़ाई भी हिंदू उग्रवाद पर वर्चस्व को लेकर थी। इसीलिए आपातकाल के दौरान चुनचुनकर मुस्लिम आबादी वाली बस्तियों में बुल्डोजर चलवाए गए थे और नसबंदी के लिए मुख्य निशाना अल्पसंख्यक और दलित ही बनाए गए थे। यह संजय गांधी ही थे जिन्होंने देश भर के गुंडों को यूथ कांग्रेस के बैनर तले एकत्र किया था और राजनीति के अपराधीकरण की शुरुआत की थी। इसलिए वरुण के ताजा वक्तव्य पर चौंकने की नहीं बल्कि उनका सही विश्लेशण करने की आवश्यकता है।

स्व0 संजय गाधी की मृत्यु के बाद उनकी पत्नी मेनका ने जिस परिवेश में वरुण की परवरिश की उसमें उन्हें गांधी परिवार के संस्कार नहीं मिलने थे। लोगों को याद होगा अमेठी के चुनाव में मेनका ने राजीव गांधी के लिए जिन शब्दों का प्रयोग किया था, उनका तात्पर्य था – इस गीदड़ ने दो-दो शेरों को मारा है। मेनका ने स्व0 इंदिरा गांधी से मोर्चा लेने के लिए जो संजय विचार मंच बनाया था उसके एक बड़े नेता अकबर अहमद डम्पी भी थे। जाहिर है कि वरुण को जो संस्कार मिले वे उनकी मां और डम्पी जैसे नेताओं से मिले, जिसका सदुपयोग उन्होंने सही मंच पर किया है। इसमें अचंभे वाली कोई बात नहीं है।
अपने चचेरे भाई बहन से खुन्नस पूरी करने के चक्कर में वरुण को यह याद भी नहीं रहा कि उनके पिता की मृत्यु आज भी एक रहस्य है। संजय की मृत्यु के समय यह चर्चा आम थी कि संजय जिस हेलीकॉप्टर में सवार होकर उड़े थे उसमें भाजपा नेत्री राजमाता विजयराजे सिंधिया के पुत्र और संजय के मित्र माधवराव सिंधिया भी सवार होने वाले थे, लेकिन ऐन वक्त पर माधवराव को हेलीकॉप्टर से उतार लिया गया था। बेहतर होता कि वरुण दूसरों के हाथ काटने की कसम खाने से पहले अपने पिता की असमय मृत्यु के लिए जिम्मेदार लोगों के चेहरे से नकाब उठाते।
वरुण अपने खोल से बाहर आते वक्त यह भूल गए कि वे सिर्फ मेनका गांधी के बेटे नहीं हैं, बल्कि इंदिरा गांधी और फिरोज गांधी के पौत्र भी हैं, और अगर उनके नाम के आगे गांधी न लगा होता तो आज उनकी हैसियत इतनी न होती। वरुण ने ऐसा करके अपने नाम के आगे लगे 'गांधीÓ शब्द का अपमान किया है। लेकिन ऐसा करते वक्त वे भूल गए कि वे आसमान पर थूक रहे हैं।

इतिहास बताता है कि जब पीढिय़ां अपने बुजुर्गों के खिलाफ जाना शुरु करती हैं तो बिंबसार के घर में अजातशत्रु पैदा होता है, स्टालिन की पौत्री सीआईए की एजेंट निकलती है, और इंदिरा गांधी के घर में वरुण निकलता है। लेकिन अच्छा होता कि वरुण ने आग उगलने से पहले कम से कम एक बार अपनी मां से ही पूछ लिया होता कि क्या करीमुल्लाह और मजरुल्लाह डरावने नाम होते हैं, क्या इन डरावने नामों में उस अकबर अहमद डम्पी का नाम भी शामिल है जिसने अपने जिगरी दोस्त की मौत के बाद उसके बच्चे को राजनीतिक प्रशिक्षण भी दिया और चाचा का प्यार भी?