शुक्रवार, 21 जुलाई 2017

नयन कुमारी देवी विनोद उपाध्याय

कार्यकर्ताओं पर अंकुश ब्यूरोक्रेसी निरंकुश

विनोद उपाध्याय
आज देश में भाजपा का जो विस्तार देखने को मिल रहा है वह कार्यकर्ताओं के संगठित संकल्प और समर्पण का नतीजा है। देश ही नहीं विश्वभर में जितनी राजनीतिक पार्टियां हैं उनमें सबसे संगठित और समर्पित कार्यकर्ता भाजपा के हैं। यानी भाजपा संगठन की रीढ़ कार्यकर्ता हैं। पार्टी को इस मुकाम तक पहुंचाने के बाद भी कार्यकर्ताओं में दंभ या अहम नहीं हैं। जब भी संगठन या सरकार को बड़ा आयोजन होता है कार्यकर्ता दरी बिछाने से लेकर व्यवस्था संभालने तक की जिम्मेदारी संभाल लेते हैं। लेकिन पार्टी की सत्ता होने के बाद भी कार्यकर्ताओं की उपेक्षा, अपमान और उनके साथ बुरा बर्ताव देखकर मन द्रवित हो जाता है। उस पर आलम यह है की हर बैठक, हर मंच, हर सभा में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, भाजपा संगठन या सरकार के प्रतिनिधि कार्यकर्ताओं पर अंकुश लगाते नजर आ रहे हैं। वहीं दूसरी तरफ ब्यूरोक्रेसी बेखौफ और निरंकुश है। ब्यूरोक्रेसी की निरंकुशता का आलम यह है कि कार्यकर्ता ही नहीं सांसद, मंत्री और विधायक तक की नहीं सुनी जा रही है। उस पर जब भी ब्यूरोक्रेसी द्वारा पदाधिकारियों और कार्यकर्ताओं की उपेक्षा का मुद्दा उठाया जाता है तो साफ कह दिया, आप अपना काम ईमानदारी से करें। यही नहीं कई बार तो जमकर घुंटी पिला दी जाती है कि जनता के बीच तोल-मोल कर ही बोलें। सत्ता और संगठन से जो भी शिकायत है, वह उचित समय पर ही पार्टी प्लेटफार्म पर रखे। जनता के बीच पूरा संयम बरतें और अफसरों से भी ठीक से बात करें। सवाल उठता है कि कार्यकर्ताओं पर इतने सारे 'अंकुशÓ लगा दिए हैं तो ब्यूरोक्रेसी को इतना बेखौफ और निरंकुश क्यों होने दिया जा रहा है। कार्यकर्ताओं पर तो संघ, भाजपा संगठन और सरकार ने भी तरह-तरह के अंकुश लगा रखा है पर ब्यूरोक्रेसी को आखिर कौन कसेगा? दरअसल, प्रदेश में सरकार ने योजनाओं की भरमार लगा दी है। लेकिन या तो उनका क्रियान्वयन नहीं हो पा रहा है या फिर ठीक से हुआ नहीं है। ऐसे में जनता के बीच सक्रिय रहने वाले कार्यकर्ताओं की फजीहत हो रही है। जब कार्यकर्ता जनता की शिकायत को लेकर पहुंचते हैं तो प्रदेश की नौकरशाही उनको मुंह नहीं लगा रही है और न ही उनके काम कर रही है। समस्याओं का अंबार लगा हुआ है। प्रदेश में ब्यूरोक्रेसी की हिटलरशाही को लेकर काफी आक्रोश है। ब्यूरोक्रेसी की हिटलर शाही को सरकार व संगठन के मुखिया भी स्वीकार चुके है। ऐसे में सवाल उठता है कि या तो सरकार ने ब्यूरोक्रेसी को खुला क्यों छोड़ रखा है। जिस तरह पदाधिकारियों और कार्यकर्ताओं के लिए सुचिता के मापदंड हैं उसी तरह ब्यूरोक्रेसी के लिए भी मापदंड होने चाहिए। एक तरफ प्रदेश में सुशासन के लिए मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान समर्पित भाव से काम कर रहे हैं, वहीं दूसरी तरफ ब्यूरोक्रेसी उनकी मेहनत पर पानी फेर रही है। स्थिति इतनी विकट हो गई है की कार्यकर्ता ही नहींं अब तो जनप्रतिनिधि भी ब्यूरोक्रेसी की उपेक्षा से परेशान हैं। सवाल उठता है कि जनप्रतिनिधियों का दायित्व जनता की रक्षा करना होता है और अगर ब्यूरोक्रेसी ही जनप्रतिनिधियों को नजर अंदाज करेेगी तो पार्टी के कार्यकर्ताओं का मनोबल तो तार-तार होगा ही? बेलगाम ब्यूरोक्रेसी कभी सरकार, कभी सरकारी योजना के खिलाफ मुंह खोलने से बाज नहीं आ रही है। यही नहीं संघ और पार्टी के कार्यकर्ताओं के साथ मारपीट करने में भी हिचक नहीं दिख रही है। ब्यूरोक्रेसी के बेखौफ और निरंकुश रूप को देखकर जनता भी भयग्रस्त है।
'कार्यकर्ताÓ अशक्त, कारिंदे सशक्त
प्रदेश में सुशासन के लिए समर्पित भाजपा कार्यकर्ता संघ और पार्टी गाइड लाइन के अनुसार कार्य कर रहे हैं। ऐसे में कभी-कभार जनता का काम लेकर उन्हें कारिंदों के पास जाना पड़ता है। लेकिन कारिंदे इतने सशक्त हो गए हैं की उनके आगे एक कार्यकर्ता अपने आप को अशक्त महसूस करता है। कारिंदों से सताए गए कार्यकर्ता जब गुहार लेकर मंत्रियों के पास पहुंचते हैं तो उन्हें शक ही निगाह से देखा जाता है। ऐसे में कार्यकर्ताओं का मनोबल गिरता है। ऐसी स्थिति में कार्यकर्ता यह सोचता है कि क्या वह केवल दरी बिछाने के लिए ही है? क्या इस सरकार में उसकी औकात रति भर भी नहीं है? क्या उसने इसीलिए अपना जीवन पार्टी के लिए समर्पित कर दिया है की वह अपनी ही सरकार में कारिंदों से उपेक्षित होता रहे? क्या किसी व्यक्ति या समाज का कोई कार्य कराना गुनाह है? कारिदों से मिली उपेक्षा के बाद ऐसे न जाने कितने सवाल एक कार्यकर्ता के मन में उबाल मारते रहते हैं। उनकी यह पीड़ा सही भी है। पुलिस थानों में उसकी सुनवाई नहीं होती। पुलिस वाले जमीन खाली करवाने, कब्जे दिलवाने जैसे काम कर रहे है। ठगी, लूटपाट, हत्या, वाहन चोरी, महिलाओं के साथ अत्याचार के मामले बढ़ रहे है। मलाईदार पदों और कमाई वाले थानों में नियुक्तियों का भ्रष्टाचार किसी से छिपा नहीं है। आरटीओ से बिना वाहन निरीक्षण के फिटनेस प्रमाण-पत्र और बिना टायल के लाइसेंस मिलना कोई बड़ी बात नहीं है। दलालों का बोलबाला है। हर विभाग में काम दलालों के माध्यम से ही होता है। सड़क, बिजली, पानी कारिंदों की मेहरबानी के आश्रित हो गए हैं। हाउसिंग बोर्ड, उद्योग, जेडीए, नगर निगम, लोक निर्माण, कृषि, स्वास्थ्य, परिवहन जैसे विभागों में भ्रष्टाचार जमकर होता है। इन विभागों में महत्वपूर्ण पदों की तरह पुलिस और वन विभाग में भी मलाईदार पदों पर नियुक्ति के लिए अफसर और कर्मचारी लगे रहते है। कई अफसर एवं कर्मचारी तो ऐसे है जो लंबे अरसे से एक ही पद पर जमे हुए है। यहां तक कि पदोन्नति के लाभ भी वे कमाई के चलते छोड़ देते है। जनता में ऐसा संदेश है कि इन विभागों में बिना दिए काम नहीं होता है। और हकीकत भी है। फाइलों के ढेर लगे है। बड़ी-बड़ी घोषणाएं तो हो चुकी है लेकिन, काम कहीं नजर नहीं आता। इसका प्रभाव मैदानी कार्यकर्ताओं पर पड़ता है। जनता उनसे सवाल पूछती है, लेकिन उनके पास जवाब नहीं होता। जब कभी वे जवाब के लिए कारिंदों या मंत्री से मुलाकात करते हैं, अपनी बात रखते हैं तो उन्हें उदंड मान लिया जाता है। ऐसे आखिर एक कार्यकर्ता पर क्या गुजरती होगी यह तो खुद सरकार को भी मालुम होगा। दरअसल, प्रदेश में कारिंदें इतने सशक्त हो गए हैं कि उनके आगे कार्यकर्ता अपने आप को अशक्त महसूस कर रहे हैं। आलम यह है की प्रदेश में कारिंदें इतने सशक्त हो गए है की वे कार्यकर्ताओं को ही नहीं जनप्रतिनिधियों को भी तबज्जो देना कम कर दिया है। नतीजा दोनों के बीच खाई बढ़ रही है और लगातार एक के बाद एक इस तरह के मामले आ रहे है। ब्यूरोक्रेट्स में अब ये सोच भी डवलप हो रही है कि जनप्रतिनिधि तो पांच साल के लिए चुनकर आते है। अगली बार का क्या पता जीतेंगे भी नहीं? चुनावों में जनता कई दिग्गज नेताओं को सबक सिखा देती है। जबकि किसी मामले या विवाद के कारण हटाए गए अफसर को ज्यादा दिन तक निलंबित भी नहीं रखा जा सकता। तबादलों का डर खत्म हो गया है। नौकरी तो करनी है यहां करें या वहां करें की भावना पनप रही है। एसीआर में प्रतिकूल टिप्पणी और प्रमोशन रोकने जैसी कड़ी कार्रवाई अब अपेक्षाकृत कम होती है। इससे ब्यूरोक्रेसी बेखौफ हो गई है। अगर ब्यूरोक्रेसी का यही आलम रहा तो कार्यकर्ताओं का मनोबल दिन पर दिन गिरता रहेगा और यह पार्टी के लिए अच्छा नहीं होगा।
चयन में राजनीति
सरकार बदलती है, अफसर बदलते है। प्राय: जिस पार्टी की सरकार बनती है, उसके मुखिया अपनी पार्टी की विचारधारा से मेल खाने वाले अफसरों को महत्वपूर्ण पदों पर लगाते है। सत्ता बदलने के साथ ही कई अफसर दिल्ली प्रतिनियुक्ति पर चले जाते है और दिल्ली में बैठे अफसर मप्र आ जाते है। लंबे समय से कम महत्वपूर्ण पदों पर बैठें अफसरों की सरकार में पूछ बढ़ जाती है। कहा तो जाता है कि सरकारें बदले की भावना से तबादले नहीं करती लेकिन, ये सत्य है कि सरकार बदलने के साथ ही तबादलों की राजनीति शुरू हो जाती है। यहां तक वरिष्ठता को ताक में रखकर सरकार राज्य के प्रशासनिक मुखिया को बदल देती है। अफसरों के छांट-छांटकर तबादले होते है। जिन अफसरों को पूर्ववर्ती सरकार योग्य बता रही होती है वह नाकाबिल घोषित कर दिए जाते है और जिन अफसरों को पिछली सरकार ने नाकाबिल बनाया था वे खासमखास हो जाते है। उनका वनवास खत्म हो जाता है और मलाईदार एवं महत्वपूर्ण पदों के लिए जोड़तोड़ लगाते नजर आ जाएंगे। इस राजनीति ने भी अफसरों का नजरिया बदला है।