बुधवार, 12 जनवरी 2011

मुसलमानों के मसीहा बनने की कवायद

दिग्गी राजा कांग्रेस की परंपरागत राजनीति के तहत मुस्लिमों का मसीहा बनने की कवायद में जुटे हैं। दिग्गी राजा के राजनीतिक गुरू रहे हैं अर्जुन सिंह। इसे संयोग कहा जाए अथवा कांग्रेस की व्यूह रचना कि गुरु-चेला दोनों परंपरागत रूप से हिंदूवादी राजनीतिके लिए जिस संघ परिवार पर आरोप लगाते हैं उसके समर्थक परिवारों से ही दोनों का रिश्ता रहा है। अर्जुन सिंह के पिता थे तो कांग्रेसी पर पं. नेहरू द्वारा दुत्कार कर पार्टी से निकाले जाने के बाद वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वितीय सरसंघचालक माधव सदाशिव गोलवलकर उर्फ गुरुजी के करीबी हो गए थे। 1980 के दशक में जब इस मुद्दे पर कांग्रेस के राष्ट्रीय कार्याध्यक्ष पं. कमलापति त्रिपाठी ने अर्जुन सिंह की बखिया उधेड़ी थी तब अपने बचाव में नाकाम अर्जुन सिंह ने बयान दिया था कि किसी इंसान के हाथ में अपना बाप चुनने का अधिकार नहीं होता। वैसे भी अर्जुन सिंह तमाम हिंदू साधु संतों और तांत्रिकों के करीबी रहे हैं। 1990 के दशक में जब अर्जुन सिंह और पी.वी. नरसिंहराव के बीच टकराव बढ़ा तब अर्जुन सिंह की औकात घटाने के लिए कैप्टेन सतीश शर्मा की अगुवाई में अमेठी में कांग्रेस के अधिवेशन का आयोजन हुआ। यदि यह अधिवेशन सफल हो जाता तो संभव था कि कैप्टेन शर्मा नरसिंहराव और सोनिया गांधी के बीच समझौता कराने में कामयाब हो जाते।
अमेठी अधिवेशन के ठीक एक दिन पहले सम्मेलन स्थल पर बेमौसम तूफानी बारिश हुई और आयोजन तहस-नहस हो गाय। आज भी कांग्रेस के तमाम लोग मानते हैं कि अर्जुन सिंह ने मध्य प्रदेश की दतिया पीठ में पीतांबर देवी के एक सिद्ध द्वारा शत्रुंजय का प्रयोग कराया था और उसी के परिणमस्वरूप अमेठी में सम्मेलन तहस-नहस हुआ। इस बात में कितनी सच्चाई है, इसकी पुष्टि कठिन है, पर इस सत्य से कोई इंकार नहीं कर सकता कि उक्त तूफानी बारिश सम्मेलन स्थल की पंचकोसी के बाहर नहीं हुई थी। हिंदू तंत्र-मंत्र पर अगाध विश्वास रखने वाले यही अर्जुन सिंह जब राजेंद्र सच्चर आयोग गठित कर मुस्लिम तुष्टीकरण करते हैं तो उनकी विरोधाभासी छवि उभरती है। दिग्विजय सिंह ने कालांतर में अपने गुरु को घंटाल साबित कर दिया । 1993 में मुख्यमंत्री बनने तक अर्जुन सिंह की चेलाही की कसम खाने वाले दिग्गी राजा ने तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिंहराव से हाथ मिला लिया और इस बात का पूरा प्रबंध किया कि अर्जुन सिंह आजन्म मध्य प्रदेश से चुनाव जीतकर न जाने पाएं। चुरहट के राजा अर्जुन सिंह की तरह ही दिग्विजय राघोगढ़ (गुना) के राजा हैं। दिग्गी राजा का परिवार स्वतंत्र पार्टी और जनसंघ का समर्थक रहा है।
2003 में जब दिग्गी राजा अपने एक दशक के शासनकाल के बाद सत्ता से बाहर गए तो उन्हें 2004 में कांग्रेस की सत्ता में पुनर्वापसी के मामले में गहरा संदेह था, इसीलिए उन्होंने 2004 के लोकसभा चुनावों के ठीक पहले अपने सगे भाई लक्ष्मण सिंह को भाजपा में भेजकर अपने लिए सत्ता का समीकरण तैयार किया था। ठीक इसी तरह अर्जुन सिंह भी अल्पसंख्यवाद की दुहाई तो देते रहे हैं साथ ही साथ भाजपा नेताओं से मधुर रिश्ते भी कायम रखते हैं। 2004 के चुनावों के पहले उन्होंने अपने पुत्र जो कि दिग्विजय मंत्रिमंडल में काबीना मंत्री थे, को भाजपा में भेजने का सौदा किया था। दिग्विजय सिंह की भाजपा से सेटिंग को समझना हो तो 1993 के विधानसभा चुनावों और 1996 के लोकसभा चुनाव के साथ-साथ 1998 के मध्य प्रदेश के विधानसभा चुनावों और 1999 के लोकसभा चुनावों के परिणामों पर नजर घुमा लें। दिग्विजय सिंह के नेतृत्व में विधानसभा चुनावों में कांग्रेस को भारी सफलता मिलती थी और लोकसभा चुनावों में सफलता का सेहरा भाजपा के सिर पर बंधता था।
भाजपा के साथ दिग्विजय सिंह का राजनीतिक पंगा शुरू हुआ जनवरी 2001 में। दिग्विजय सिंह के करीबी शंकराचार्य स्वरूपानंद सरस्वती के निमंत्रण पर 2000-2001 के महाकुंभ में सोनिया गांधी स्नान करने गई। हालांकि सोनिया के इस निर्णय को प्रेरित और प्रभावित किया थ। सोनिया के निजी सचिव विंसेंट जॉर्ज ने। सोनिया-जॉर्ज और स्वामी स्वरूपानंद के बीच कड़ी का काम किया था शंकराचार्य के तीर्थ पुरोहित और उद्योगपति श्रीनाथ चतुर्वेदी ने। लेकिन जब सोनिया ने कुंभस्नान का फैसला किया तो अर्जुन सिंह के नेतृत्व में कांग्रेस नेताओं के एक वर्ग ने उन्हें इसके विरोध की सलाह दी। तब माखनलाल फोतेदार और सुरेश पचौरी के साथ दिग्विजय सिंह ने सोनिया के कुंभस्नान के फैसले के पक्ष में लामबंदी की थी। कुंभ स्नान के दौरान सोनिया ने गंगा पूजा, गणपति पूजा, कुलदेवता पूजा और त्रिवेणी पूजा की थी।
2002 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों में दिग्विजय सिंह प्रचार प्रभारी थे, उन्होंने सोनिया की ईसाइयत के प्रचार को निष्प्रभ करने के लिए मीडिया में इन तस्वीरों को प्रसारित कराया था। सदन रहे कि 2000-2001 के महाकुंभ में स्नान करने के लिए न तो तत्कालीन प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी गए थे और न ही लालकृष्ण आडवाणी। सो, दिग्विजय के प्रचार को बल मिला। इसी दौरान भोपाल में एक शराब व्यापारी पर आयकर विभाग ने छापा मारा। उस व्यापारी के घर से आयकर विभाग ने एक डायरी बरामद की। इस डायरी में दिग्विजय सिंह के नाम पर 10 करोड़ रूपए का भुगतान दर्ज था। जब आयकर विभाग द्वारा बरामद डायरी का मामला उछाला गया तो दिग्विजय ने इसे उनकी राज्य सरकार के खिलाफ संघ और भाजपा द्वारा रचा गया षड्यंत्र करार दिया था।
शराब कारोबारी की उक्त डायरी में लाभ प्राप्त करने वालों में मध्य प्रदेश के तत्कालीन अतिरिक्त पुलिस महानिदेशक (इंटेलिजेंस) ए.एन. सिंह का नाम भी दर्ज था। कुछ माह बाद जब दिग्गी राजा ने इन्हीं एएन सिंह को मध्य प्रदेश का पुलिस महानिदेशक बना दिया तब उन पर लगे दागों के धब्बे और गहरे हो गए थे। भाजपा के आक्रामक तेवर से चिढ़कर दिग्विजय ने उस समय उसके हिंदू वोट बैंक में सेंध लगाने का संकल्प लिया था। इसी संकल्प के तहत फरवरी 2002 में उन्होंने मध्य प्रदेश के दिघौरी में धर्म सम्मेलन का आयोजन किया था। इस सम्मेलन में दिग्विजय ने सोनिया गांधी को मुख्य अतिथि के रूप में लाकर उन्हें हिंदू धर्माचार्यो का आशीर्वाद दिलाया। दिघौरी धर्म सम्मेलन में बद्रिका (शारदापीठ) और द्वारका पीठ के शंकराचार्य स्वरूपानंद सरस्वती, कांची कामकोटि के शंकराचार्य जयेंद्र सरस्वती और पुरी पीठ के शंकराचार्य निश्चलानंद सरस्वती को एक मंच पर ला सोनिया गांधी को आशीर्वाद दिलाने में सफल हुए थे। शारदा पीठ शंकराचार्य पद के लिए स्वामी स्वरूपानंद और स्वामी वासुदेवानंद के बीच आज भी मुकद्दमेबाजी है। वासुदेवानंद पूरी तरह विश्व हिंदू परिषद के साथ हैं। तकनीकी तौर पर दिग्गी राजा हिंदुओं के चारों पीठों के शंकराचार्यो से सोनिया को मान्यता दिलाने में कामयाब हुए थे। उस समय सोनिया गांधी ने मंच से कहा था कि यदि रामजन्मभूमि के मामले में फैसला हिंदुओं के पक्ष में आता है तो राम मंदिर का निर्माण विश्व हिंदू परिषद के प्रभाववाली रामजन्मभूमि न्यास की बजाय स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती की अध्यक्षतावाले रामालय ट्रस्ट द्वारा कराया जाना चाहिए।
दिघौरी सम्मेलन के दौरान दिग्विजय सिंह ने मुस्लिम नेताओं को भी मंच पर लाकर रामजन्मभूमि और बाबरी ढांचे के विवाद पर कांग्रेसी मध्यस्थता में मसले को सुलझाने की पहल भी की थी। दिग्विजय की बजाय तब कांग्रेस के मुस्लिम बीट के प्रभारी अर्जुन सिंह थे। तब मुस्लिम नेतृत्व सोनिया गांधी के प्रभाव को लेकर सशंकित भी था सो उनके प्रयाास को मुस्लिमों ने अस्वीकार कर दिया था। दिग्विजय और सोनिया के इस प्रयास को भाजपा ने गंभीरता से लिया था। लोकसभा में राष्ट्रपति के अभिभाषण पर आभार प्रस्ताव पर बोलते हुए तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने सोनिया गांधी पर कटाक्ष किया था- जब वह (सोनिया गांधी) शंकराचार्य का आशीर्वाद लेती हैं तेा मुझे महंत रामचंद्रदास परमहंस का आशीर्वाद लेने से क्यों वंचित रहना चाहिए? जो दिग्विजय सिंह 2002 में सोनिया गांधी को हिंदू प्रचारित करने में जुटे थे, आधे दशक बाद वही दिग्विजय सिंह हिंदू धर्माचार्यो और संगठनों को आतंकवादी करार देने पर क्यों जुट गए हैं? तब दिग्विजय को उनके आलाकमान ने राज्य की राजनीति से उठकर केंद्र की राजनीति में आने के लिए स्पेस देना शुरू किया था। 2003 के विधानसभा चुनावों में दिग्विजय उसी तरह हारे थे जिस तरह 2010 के बिहार विधानसभा चुनावों में लालू प्रसाद यादव का सफाया हुआ है। तब दिग्विजय कहा करते थे कि चुनाव विकास के बल पर नहीं जीते जाते।
उमा भारती ने बीएसपी (बिजली-सड़क और पानी) का मुद्दा उठाकर भाजपा को सत्ता में लाया। दिग्विजय जानते थे कि इस दारुण पराजय के बाद मध्य प्रदेश में सत्ता स्थापना 10 वर्षो तक संभव नहीं, सो वे एक दशक तक राज्य की राजनीति में न लौटने की सौगंध खाकर दिल्ली आए। 2004 में राहुल गांधी राजनीति में आए। अर्जुन सिंह सोनिया गांधी के प्रमुख सलाहकार बनकर सत्ता का संचालन करने में जुटे थे। मजबूरी में सोनिया गांधी ने डॉ. मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री बना दिया। तेरह वर्षो तक सतत सोनिया निष्ठा की कसम खाने वाले अर्जुन सिंह की मंडली के लिए नरसिंह राव के करीबी का प्रधानमंत्री बनना एक शॉक था। अर्जुन सिंह इस झटके से नहीं उबर पाए। बीच-बीच में वे अपने वक्तव्यों और फैसलों से मनमोहन सरकार के लिए संकट पैदा करने लगे। तब अर्जुन विरोधियों ने केंद्र में दिग्विजय सिंह को सशक्त बना दिया।
2009 में कांग्रेस की सत्ता में पुनर्वापसी में डॉ. मनमोहन सिंह का कद बढ़ा तो उन्होंने अपने प्रभाव का इस्तेमाल कर वरिष्ठ अर्जुन सिंह को सरकार के लिए बोझ साबित कर दिया। सत्ता से अर्जुन की विदाई ने मुस्लिम मसीहाई के लिए दिग्विजय को अवसर उपलब्ध करा दिया। 2009 के लोकसभा चुनावों के पूर्व दिग्गी राजा अमर सिंह के वाग्बाणों को सहकर भी सपा से उत्तर प्रदेश में गठबंधन के पैरोकार थे। इस गठबंधन में बड़ी बाधा बनी अर्जुन सिंह के करीबी विश्वनाथ चतुर्वेदी द्वारा मुलायम-अमर सिंह के खिलाफ दायर बेहिसाबी संपत्ति की जांच की याचिका। गठबंधन नहीं हुआ फिर भी जिन सीटों पर कांग्रेस के प्रत्याशी जीत की स्थिति में आए वहां मुसलमानों ने सपा-बसपा की बजाय कांग्रेस को चुना। कांग्रेस लोकसभा में उत्तर प्रदेश में बससे ज्यादा सीटें जीतने में कामयाब हुई है। इस चमत्कार को भुनाने में दिग्गी राजा क्यों पीछे रहते? सो, 2009 के बाद वे राहुल गांधी के राजनीतिक गुरु के रूप में खुद को प्रोजेक्ट करने लगे। अर्जुन सिंह की छवि के साथ-साथ दिग्गी राजा मुलायम के वोट बैंक को भी अपनी झोली में लाना चाहते हैं। इसी रणनीति के तहत कल तक शंकराचार्यो के चरण पूजनेवाले मुल्लों की दाढ़ी चूम रहे हैं। हिंदू आतंकवाद का प्रचार मुल्ला मुलायम की छवि को मुल्ला दिग्विजय की इमेज में बदलने की महज एक कवायद है। कांग्रेस की एक जबरदस्त परंपरा रही है। कांग्रेस मुस्लिम वोट बैंक तो बनाती है, उसी रिझाती है, तुष्ट करती है लेकिन मुस्लिम वोट बैंक की कुंुजी कभी किसी मुसलमान के हाथ में नहीं सौंपती। मुस्लिम वोट बैंक का नेतृत्व वह हमेशा किसी गैरमुस्लिम से ही कराती है। किसी योग्य मुस्लिम को नेतृत्व की कमान न सौंपने की इसी कांग्रेसी नीति से मोहम्मद अली जिन्ना का राष्ट्रद्रोह जन्मा था।
मोहम्मद अली जिन्ना जब मुस्लिम समुदाय को सेकुलरवाद का काढ़ा पिला रहे थे तब खिलाफत आंदोलन को समर्थन देकर कांग्रेस विश्व इस्लामी बंधुत्व की मीठी टॉनिक पिला रही थी। कांग्रेस का इतिहास है उसके मंच पर अहिंसा के पुजारी महात्मा गांधी की मौजूदगी में अली बंधुओं ने जिन्ना से हाथापाई की और गांधी अहिंसा की अपील करने की बजाय मंद-मंद मुस्कुराते रहे। मौलाना अबुल कलाम आजाद कांग्रेस के हिंदू नेतृत्व की परछाई बन जीने को तैयार थे, लेकिन अखंड भारत में वे कभी भी मुस्लिम समुदाय के नेता नहीं रहे। महात्मा गांधी ने हमेशा मुस्लिमों के बीच पं. जवाहरलाल नेहरू को स्थापित करने का प्रयास किाय। पं. नेहरू के कार्यकाल में रफी अहमद किदवई को मृदुला साराभाई का पल्लू पकड़कर सरदार पटेल के खिलाफ मुहिम चलानी पड़ी। इंदिरा गांधी के शासनकार में आप एक भी मुस्लिम नेता का नाम नहीं गिना सकते जिसकी अखिल भारतीय कीर्ति रही हो।
1977 में जब इंदिरा गांधी सत्ता से बाहर गई तो तमाम राजनीतिक विश्लेषकों ने गांधी-नेहरू परिवार की राजनीतिक श्रद्धांजलि लिख दी थी। उस समय दिल्ली के कस्तूरबा गांधी रोड मस्जिद के मौलाना जमील इलियासी ने 1980 तक इंदिरा गांधी की सत्ता में वापसी की भविष्यवाणी की थी। इलियासी को इंदिरा गांधी ने मिलने के लिए बुलाया। मौलवी इलियासी को किसी मुस्लिम नेता की बजाय उन्होंने अपने निजी सचिव आर.के. धवन के माध्यम से बुलवाया। मौलवी इलियासी ने इंदिराजी के शयनकक्ष में जाने की इच्छा जाहिर की। इंदिराजी ने संकोच किया लेकिन मौलवी को अपना बिस्तर देखने का मौका दिया। मौलवी ने एक ‘गंडा’ इंदिराजी को दिया और उसे अपने तकिए के नीचे रख कर सोने की सलाह दी। मौलाना इलियासी की भविष्यवाणी सही साबित हुई। मस्लिम पॉवर सर्कल में मौलवी इलियासी का वजन अचानक बढ़ गया। वे बारंबार इंदिराजी से मिलने का प्रयास करने लगे। जब इंदिराजी तक मौलवी इलियासी के प्रभाव की खबरें पहुंची तो उन्होंने मौलवी की मुलाकात के आग्रह को ठुकराना शुरू कर दिया। कुछ दिन बाद संजय गांधी की चापर दुर्घटना में मृत्यु हो गई। इस हादसे के बाद इंदिराजी स्वाभाविक तौर धर्मभीरू हो गई। एक बार फिर आरके धवन के माध्यम से मौलवी इलियासी को बुलाया गया। मौका पाते ही मौलवी ने इंदिराजी को समझाया कि लंबे समय तक उनके द्वारा दिया गया गंडा इंदिराजी के साथ रह गया उसी के परिणामस्वरूप संजय गांधी के हादसे का झटका उन्हें सहना पड़ा।
मौलवी के इस दावे पर इंदिरा जी को कितना भरोसा हुआ यह बात तो खुदा जाने, पर उन्होंने इस दोष के निवारण का उपाय मौलवी से पूछा। मौलवी ने उनसे नमाज अजा करने के लिए कहा। इंदिराजी ने नमाज अता करने की विधि के बारे में अनभिज्ञता जाहिर की तो मौलवी ने उन्हें खुद नमाज अता करना सिखाया। इंदिराजी ने जब मौलवी के कहने पर नमाज अता कर दिया। तो मुस्लिम समुदाय में एक खबर फैलाई गई किगांधी परिवार ने इस्लाम स्वीकार कर लिया है। इंदिरा गांधी ने मौलवी के कहने पर नमाज अता कर दिया, फिर भी किसी मुस्लिम नेता को मुस्लिम नेतृत्व की कमान नहीं सौंपी। राजीव गांधी ने अपने कार्यकाल में शाहबानो के मामले में सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को संसद में पलट कर मुस्लिम तुष्टीकरण किया लेकिन कभी किसी मुस्लिम नेता को मुस्लिम नेतृत्व की कमान नहीं सौंपी। सोनिया गांधी ने महात्मा गांधी के जमाने से चली आ रही इस परंपरा को जारी रखा है।
कांग्रेस अध्यक्षा के अपने प्रथम कार्यकाल में भले ही उन्होंने अल्पसंख्यक प्रकोष्ठ का जिम्मा अब्दुल रहमान अंतुले या सी.के. जाफर शरीफ को सौंपा हो, परंतु जब भी मुस्लिम समुदाय से समन्वय की आवश्यकता पड़ी उन्होंने यह जिम्मेदारी अर्जुन सिंह को दी। अपनी अध्यक्षता के वर्तमान चरण में सोनिया गांधी अपने हर फैसले की प्रक्रिया में अहमद पटेल को शामिल करती है, लेकिन जब कभी मुस्लिम तुष्टीकरण का अवसर आता है वह अहमद पटेल या गुलाम नबी आजाद की बजाय दिग्विजय सिंह उर्फ दिग्गी राजा को आगे करती है।