बुधवार, 8 जून 2011

मध्य प्रदेश से बंधेगा सुषमा का बोरिया-बिस्तर

विनोद उपाध्याय
भाजपा की बड़ी दीदी यानी सुषमा स्वराज का वर्तमान रेड्डी बंधुओं के कारण विवादों में फंसा हुआ हैं। यह विवाद क्या गुल खिलाएगा यह तो कुछ दिनों में पता चल ही जाएगा लेकिन उनके लिए सबसे चिन्तादायक खबर यह है कि उनका भविष्य अधर में लटकने वाला है। भाजपा से प्रधानमंत्री पद की संभावित दावेदारों में से एक लोकसभा की नेता प्रतिपक्ष सुषमा स्वराज को भी इसका अभास हो गया है जिसके कारण वे आजकल इस खतरे की आशंका में जी रही हैं कि कहीं उनसे अति सुरक्षित निर्वाचन क्षेत्र छिन न जाए और उन्हें यह खतरा दिख रहा है उनकी ही पार्टी के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की धर्मपत्नी साधना सिंह से। सुषमा को यह डर ऐसे ही नहीं सता रहा है बल्कि अभी तक दूसरों के जनाधार पर चुनाव जीत कर राजनीति करने वाली सुषमा स्वराज को उनकी वर्तमान लोकसभा सीट विदिशा से बेदखल करने की तैयारी संगठन और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के कुछ कदावर पदाधिकारियों की पहल पर चल रही है।
यायावर राजनेता रहीं सुषमा स्वराज को लगभग ढाई दशक बाद विदिशा संसदीय क्षेत्र के रूप में एक सुरक्षित ठिकाना मिला है। हरियाणा विधानसभा से 1977 में शुरू हुआ उनका राजनीतिक सफर, अंबाला कैंट, करनाल, दिल्ली, बेल्लारी और उत्तराखंड होते हुए मप्र आकर विराम ले रहा है। श्रीमती स्वराज अब खुद को मध्यप्रदेश निवासी साबित करने के साथ हमेशा उस विदिशा से ही जुड़े रहना चाहती है, जो भाजपा के लिए देश में सर्वाधिक सुरक्षित दो संसदीय क्षेत्रों में से एक है।
शिवराज को विदिशा इतना प्यारा है कि उन्होंने मुख्यमंत्री बनने के बाद यहां से पार्टी की वरुण गांधी को लोकसभा भेजने की इच्छा को भी मान्य नहीं किया। वरुण की काट के तौर पर क्षेत्र की जनता ने मुख्यमंत्री की धर्मपत्नी साधना सिंह का नाम आगे बढ़ाया। समझौता मुख्यमंत्री के खास मित्र रामपाल सिंह के नाम पर हुआ, जिन्हें मंत्री पद से इस्तीफा दिला कर शिवराज ने लोकसभा भेजा तो केवल इसलिए कि विदिशा पर उनकी विरासत बरकरार है। उनके इसी विदिशा पर सुषमा की नजर गड़ गई। हरियाणा में दो बार विधायक रहीं सुषमा स्वराज अपने गृह प्रांत में लोकसभा का एक भी चुनाव नहीं जीत पाईं। उन्होंने करनाल से 1980, 1984 और 1989 में लगातार तीन लोकसभा चुनाव लड़े और तीनों में पराजय हाथ लगी। ओजस्वी वक्ता और महिला होने के नाते भाजपा को उनकी संसद में जरूरत थी तो उन्हें 1990 में राज्यसभा भेज दिया गया। इसके बाद हरियाणा के बजाए दिल्ली उनका मुकाम हो गया और उन्हें 1990 में राज्यसभा भेज दिया गया और उन्होंने 1996 तथा 1998 के चुनाव दक्षिण दिल्ली से लड़े। वे लगभग तीन माह दिल्ली की मुख्यमंत्री भी रहीं, लेकिन वहां के विधानसभा चुनाव में अपनी सरकार न बनवा पाईं।
सुषमा को उनका कद बढ़ाने वाली पराजय मिली सोनिया गांधी के हाथों। 1999 में भाजपा ने उन्हें कर्नाटक के बेल्लारी से श्रीमती गांधी के खिलाफ उतारा और इसके बाद वे भाजपा के लिए खासमखास हो गईं। श्रीमती स्वराज को पार्टी ने 2000 में उत्तराखंड से राज्यसभा भेजा। यह कार्यकाल पूरा होने के बाद उन्हें 2006 में मध्यप्रदेश से उच्च सदन पहुंचाया गया। मध्यप्रदेश से जुड़ाव ने उन्हें यहां स्थायी डेरा जमाने की प्रेरणा दी और सुषमा ने मप्र में लोकसभा सीट पर दावा जता दिया। अंदरखाने की बातें हैं कि मुख्यमंत्री उन्हें विदिशा नहीं देना चाहते थे, इसलिए भोपाल संसदीय क्षेत्र की पेशकश की गई। सुषमा को यह जम भी गया, लेकिन पूर्व मुख्यमंत्री और भोपाल के सांसद कैलाश जोशी का वीटो भारी साबित हुआ। हारकर शिवराज को विदिशा से अपने मित्र रामपाल सिंह को होशंगाबाद भेजना पड़ा, जहां रामपाल को पराजय नसीब हुई और विदिशा में सुषमा को विजय। अब कभी भोपाल में मुख्यमंत्री का आवास रहा शानदार बंगला सुषमा स्वराज का है। यहीं से वे विदिशा का अपना साम्राज्य संभालती है। वे कह भी चुकी हैं कि अब अंतिम समय तक विदिशा से उनका नाता बना रहेगा। बताते हैं कि सुषमा के विदिशा प्रेम ने शिवराज सिंह को हरकत में ला दिया है और सुषमा का यह विदिशा प्रेम ही साधना को राजनीति में सक्रिय होने का मुख्य कारण बन गया है। अपने पति द्वारा सहेज कर रखे गए संसदीय क्षेत्र से बेदखल होने की पीड़ा ने उन्हें राजनीति की मुख्य धारा में ला दिया। प्रदेश भाजपा के अनुकूल माहौल में उन्होंने महिला मोर्चा का उपाध्यक्ष पद लिया है और उनकी सक्रियता पहले से कही अधिक है। वे हर बुधवार विदिशा में बनवाए गए मंदिर जाती हैं तो वहां के लोगों की समस्याएं भी प्राथमिकता से हल करवाती हैं। कहना नहीं होगा कि विदिशा के लिए अब दो महिला नेत्रियां सक्रिय हैं, एक सांसद दूसरी सांसद बनने की संभावना को खारिज कर चुकी हैं, लेकिन उनकी लोकप्रियता और क्षेत्र के प्रति समर्पण इस बात की चुगली कर रहा है कि मौका मिला तो वे चुनाव जरूर लड़ेंगी। ऐसे में उनकी पहली प्राथमिकता विदिशा ही होगी। इसलिए अभी कहा नहीं जा सकती कि भाजपा के बड़े नेताओं का लांचिंग पैड रहा विदिशा अगली बार किसको संसद पहुंचाएगा।
बताते हैं कि अभी तक अपने आपको मध्य प्रदेश की राजनीति तक ही सीमित रखने का मन बना चुकी साधना सिंह को केंद्रिय राजनीति का सपना दिखा रही हैं महिला मोर्चा की राष्ट्रीय अध्यक्ष स्मृति ईरानी। भाजपा के सूत्र बताते हैं कि हमेशा अपने पति(शिवराज सिंह चौहान)के साथ साए की तरह रहने वाली साधना सिंह को राजनीति की पाठशाला के गुण-दाष सिखाने का जिम्मा भी स्मृति ईरानी ने उठा रखा है।
साधना सिंह के संभावित प्रयासों को भांप कर सुषमा स्वराज ने भी दिल्ली की अपनी व्यवस्तताओं में से विदिशा के लिए अधिक से अधिक समय निकालना शुरू कर दिया है। उनकी हरियाणवी टीम के लोग संसदीय क्षेत्र में घूम-घूम कर फीडबैक लेते रहते हैं। एक तरह से क्षेत्र की पूरी कमान ही श्रीमती स्वराज के इन खास लोगों के हाथों में है। स्थानीय नेतृत्व को किसी भी काम के लिए इन्हीं लोगों से संपर्क करना पड़ता है। श्रीमती स्वराज हर माह का एक सप्ताह विदिशा और भोपाल को देकर नब्ज टटोलती रहती है। क्षेत्र के लिए मोबाइल एंबुलेंस सहित कई सौगातें भी वे दे रही हैं।
उधर विदिशा को अपना घर बना चुके शिवराज सिंह चौहान और उनकी धर्मपत्नी साधना सिंह विदिशा से किसी भी कीमत पर दूरी नहीं बनाना चाहते हैं। उनके लिए यह क्षेत्र उतना ही खास है, जितना वर्तमान संसद के लिए है। शिवराज के प्रदेश भर में सक्रिय रहने को देखते हुए साधना सिंह ही विदिशा से संबंधित मामले देखती हैं। उनका गांव-गांव के कार्यकर्ताओं से नाता है और क्षेत्र में वेयर हाउस, मकान भी हैं।
क्षेत्र के एक पूर्व विधायक कहते हैं कि शिवराज सिंह समूचा संसदीय क्षेत्र पैदल ही नाप लेते थे। वे ऐसे सांसद थे, जिनका जनता से सीधा जुड़ाव था, अगर भैया को फुरसत नहीं मिलती थी तो भाभी (साधना सिंह) समस्याओं को हल करवा दिया करती थीं, मगर अब वो बात नहीं रही। इस लिए हम चाहते हैं कि भैया न सही भाभी तो अपने लोगों का प्रतिनिधित्व करें। वहीं शिवराज समर्थक संघ के एक नेता ने भी उन्हें चेताते हुए कहा है कि सुषमा की आदत है कि वह पहले उंगली पकड़ती हैं और मौका मिलते ही उस आदमी को धकेल कर उसकी जगह ले लेती हैं। वह कहते हैं कि हरियाणा की राजनीति से बेदखल होने के बाद जब सुषमा राजनीति करने दिल्ली पहुंची तो पहले उन्होंने वहां के दबंग नेता मदन लाल खुराना की उंगली पकडऩी चाही लेकिन खुराना ने सुषमा स्वराज को कोई विशेष महत्व नहीं दिया सो वे उनकी सरकार के मंत्री सज्जन सिंह वर्मा के साथ दिल्ली में अपनी पकड़ बनाने में जुट गईं। वर्मा के ही दम पर उन्होंने दक्षिण दिल्ली लोकसभा का चुनाव भी जीता। समय आने पर खुराना की जगह सज्जन सिंह वर्मा को फिट करा दिया और बाद में स्वयं उस पद पर (दिल्ली की मुख्यमंत्री) बैठ गईं। 1998 में दिल्ली विधानसभा का चुनाव सुषमा स्वराज के नेतृत्व में लड़ा गया, जिसमें सरस्वती पुत्री को 84 के दंगों के दागी नेताओं ने मिलकर धूल चटा दी। आश्चर्यजनक बात तो यह है कि भाजपा के टिकट वितरण में सबसे ज्यादा सुषमा स्वराज की ही चली थी और नतीजे आने पर दिल्ली से भाजपा का ऐसा सफाया हुआ कि आज तक उस सदमें से नहीं उभर पाई। ऐसे में मध्य प्रदेश में सत्ता और संगठन को इस विषय पर मंथन करने का अभी पर्याप्त समय है। अब देखना है की सुषमा स्वराज की खिलाफत में मध्य प्रदेश की राजनीति में उठा बवंडर शांत होता है या आंधी का रूप धारण करता है।

शिवराज भाजपा के मुख्यमंत्री नंबर वन

विनोद उपाध्याय

बीते साल जून में जब देश की आर्थिक राजधानी मुंबई में भाजपा शासित राज्यों के मुख्यमंत्रियों को लेकर सुराज सम्मेलन का आयोजन किया गया था तो सम्मेलन में हुए विचार-विमर्श के बाद यह बहस शुरू हुआ था कि अब कौन है भाजपा का मुख्यमंत्री नंबर वन? हालांकि पार्टी नेतृत्व ने इस सवाल पर कन्नी काटने में ही भलाई समझी। उस एक साल पहले शरू हुई बहस का जवाब मिला है उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में भाजपा की राष्ट्रीय कार्यसमिति की बैठक में। जहां पार्टी पदाधिकारियों ने मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और उनकी योजनाओं की भरपूर प्रशंसा कर इस बात का संकेत दे दिया की वे ही भाजपा के मुख्यमंत्री नंबर वन हैं।
वर्तमान समय में गुजरात (मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी),उत्तराखण्ड (मुख्यमंत्री रमेश पोखरियाल निशंक),मध्यप्रदेश (मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान), छत्तीसगढ़ (मुख्यमंत्री रमन सिंह),झारखण्ड (मुख्यमंत्री अर्जुन मुण्डा),कर्नाटक (मुख्यमंत्री येद्दियुरप्पा),हिमांचल प्रदेश (मुख्यमंत्री प्रेम कुमार धूमल)और बिहार (उप मुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी ) में भाजपा या उसकी समर्थित सरकार है। लेकिन जिस प्रकार मप्र की योजनाओं को राष्ट्रीय स्तर पर मान,सम्मान मिला और अनुसरण हुआ उतना और किसी राज्य की योजनाओं को नहीं मिला। भाजपा का राष्ट्रीय नेतृत्व मानता है कि मप्र भाजपा ने हमेशा देश को दिशा दी है। मध्यप्रदेश में शिवराजसिंह चौहान के नेतृत्व से प्रदेश की तस्वीर बदली है। मप्र में भय,भूख,भ्रष्टाचार से मुक्ति की सबसे पहले पहल हुई। सत्ता और संगठन का जितना बेहतर तालमेल यहां है वह और किसी राज्य में नजर नहीं आ रहा है।
उल्लेखनीय है कि भाजपा का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने के बाद नितिन गडकरी ने बीते साल जून में जब देश की आर्थिक राजधानी मुंबई में भाजपा शासित राज्यों के मुख्यमंत्रियों को लेकर सुराज सम्मेलन का आयोजन किया तो उसमें गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी मुख्य वक्ता बनाए गए। मोदी ने भाजपा के कई शीर्ष केंद्रीय नेताओं की मौजूदगी में भाजपा के मुख्यमंत्रियों को सुराज और सुशासन का पाठ पढ़ाया तो ऐसा लगा जैसे भाजपा को नंबर वन मुख्यमंत्री मिल गया। गडकरी के अध्यक्ष बनने के बाद हुए मुख्यमंत्रियों के इस सम्मेलन से पहले और बाद में देश के कई नामचीन उद्योगपतियों से लेकर बॉलीवुड के बादशाह अमिताभ बच्चन तक ने मोदी के नेतृत्व और शासन का बखान करने में कोई कसर बाकी नहीं छोड़ी थी। अनेक लोगों को मोदी में भविष्य का प्रधानमंत्री बनने की क्षमता नजर आई। लेकिन गुजरात में लगातार भाजपा की जीत के नायक रहे मोदी पर गोधरा कांड का ऐसा दाग लगा है जिससे उनका उबर पाना मुश्किल है। भाजपा आलाकमान जानता है कि गठबंधन राजनीति के इस दौर में मोदी की कट्टरवादी छवि दिल्ली की कुर्सी तक ले जाने में बाधा खड़ी करेगी इसलिए उसने शिवराज की विकासवादी छवि को अपने एजेंडे में शामिल किया है।
इसका पहला नजारा मिला गडकरी के भाजपा अध्यक्ष बनने के साल भर बाद ही पिछले दिनों जब दिल्ली में भाजपा के मुख्यमंत्रियों का दूसरा सम्मेलन हुआ। वहां मु़बई अधिवेशन की अपेक्षा बहुुत कुछ बदला-बदला सा था। मोदी सम्मेलन में न तो मुख्य वक्ता थे और न ही उनका पहले जैसे एकछत्र जलवा ही था। सम्मेलन की खास बात यह भी रही कि इसमें विकास, सुराज और सुशासन जैसे शब्दों के लिए केवल गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी का ही नाम नहीं लिया गया बल्कि मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को तो सबसे अधिक सराहना मिली। ऐसे में यह सवाल उठना भी लाजिमी था कि क्या विकास के नाम पर नरेंद्र मोदी के मुकाबले में भाजपा के दूसरे मुख्यमंत्रियों को खड़ा किया जा रहा है? हालांकि इस सवाल पर भाजपा का कोई भी नेता ऐसा कुछ नहीं बोला जो पार्टी के मुख्यमंत्रियों के बीच कलह का कारण बनता। पार्टी के प्रवक्ताओं से जब यह पूछा गया कि क्या इस बार भी नरेंद्र मोदी सम्मेलन में छाए रहे? तो उत्तर मिला-भाजपा के सभी मुख्यमंत्री अच्छा काम कर रहे हैं। इसलिए भाजपा के मुख्यमंत्रियों के सम्मेलन में जिस प्रकार की प्रशंसा मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की हुई है उससे तो यही लगता है कि राट्रीय स्तर पर भाजपा का चेहरा बनने से पहले मोदी को भाजपा के भीतर ही कड़ी चुनौती मिल मिल रही है। और लखनऊ में भाजपा की राष्ट्रीय कार्यसमिति की बैठक में तो लगभग इस बात का संकेत भी मिल गया है कि अब भाजपा को वह चेहरा मिल गया है जिसे आगे कर वह आगे की रणनीति बना सकती है। दरअसल, भाजपा का लक्ष्य 2014 में होने वाले लोकसभा चुनाव और उससे पहले होने वाले विधानसभा चुनावों के लिए अपना लक्ष्य तय करना है। पार्टी को अटल-आडवाणी के बाद एक ऐसे व्यक्ति की तलाश है जो राष्ट्रीय स्तर पर पार्टी का चेहरा बन सके। जिसके नाम जनता वोट दे और जो अपने काम और नाम से जनता को भाजपा को वोट देने के लिए प्रेरित कर सके।
भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी का तो कहना है कि भ्रष्टाचार उन्मूलन के लिए मध्य प्रदेश सरकार की योजनाओं का दूसरे राज्यों को भी अनुकरण करना चाहिए। वहीं, पार्टी के वरिष्ठ नेता लाल कृष्ण आडवाणी का कहना है कि मध्य प्रदेश में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के नेतृत्व में पार्टी संगठन और राज्य सरकार के बीच बेहतर तालमेल सराहनीय है अन्य भाजपा शासित राज्यों को भी इसका अनुकरण करना चाहिए। गडकरी बड़े विश्वास के साथ कहते हैं कि मध्य प्रदेश की सभी 29 सीटों पर विजयी होकर लाल किला का रास्ता यही से तैयार करना है।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के एक पदाधिकारी कहते हैं कि मप्र भाजपा में मुख्यमंत्री पद को लेकर मचे घमासान के बीच एक बार पूर्व मुख्यमंत्री सुंदरलाल पटवा ने लिखा था, मत चूको चौहान। छह माह के भीतर ही मुख्यमंत्री की कुर्सी पर आसीन होकर शिवराज सिंह चौहान ने अपने राजनैतिक गुरू की वाणी को सही साबित किया। तब से प्रदेश की राजनीति की पटरी पर आई शिवराज एक्सप्रेस धीरज के साथ बढ़ती ही जा रही है। भारी झंझावात के बीच जब उन्होंने कुर्सी संभाली थी तो कयास लग रहे थे कि शिवराज की राह में प्रशासनिक अनुभवहीनता आड़े आएगी। यह कयास गलत निकले। धीरे ही सही लेकिन उन्होंने प्रदेश में विकास और सुशासन की ऐसी लहर पैदा की केवल भाजपा शासित राज्य ही नहीं बल्कि देश के अन्य राज्यों के मुख्यमंत्रियों से आगे निकलकर राजनैतिक बिसात पर भी बाजी मार ली।

मध्य प्रदेश देश का पहला राज्य है, जिसने लोक सेवाओं में भ्रष्टाचार के उन्मूलन के लिए ठोस कदम उठाए हैं। सरकार ने न केवल विकास, बल्कि भ्रष्टाचार समाप्त करने पर भी खासा जोर दिया। इसके लिए विधानसभा में लोकसेवा प्रदाय की गारंटी अधिनियम, 2010 तथा मध्य प्रदेश विशेष न्यायालय अधिनियम, 2011 पारित किया। लोकसेवा प्रदाय की गारंटी अधिनियम के जरिये सरकारी कर्मचारियों, अधिकारी की जवाबदेही निश्चित की गई है। इसके अंतर्गत कर्मचारी या अधिकारी, यदि निश्चित समय पर अपना कार्य पूरा नहीं करते हैं तो उस पर जुर्माना लगाने का प्रावधान है। इसी तरह, विशेष न्यायालय अधिनियम में लोक सेवकों द्वारा भ्रष्ट तरीके से हासिल की गई सम्पत्ति जब्त करने का प्रावधान है।

वनवास से लौटी उमा फंसी चक्रव्यूह में

विनोद उपाध्याय
भाजपा की फायर ब्रांड नेत्री उमा भारती के छह साल के वनवास को समाप्त करने की घोषणा के साथ ही पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी ने उन्हें एक ऐसे चक्रव्यूह में डाल दिया है जिसे तोड़ पाना उनके लिए टेढ़ी खीर साबित होगा। उत्तर प्रदेश के चुनावी महाभारत में बसपा,सपा और कांग्रेस के चक्रव्यूह को तोडऩे के लिए भाजपा को उमा भारती के रूप में अभिमन्यू तो मिल गया है लेकिन सवाल यह खड़ा हो रहा है कि क्या उमा को उत्तर प्रदेश भाजपा के पांडव राजनाथ सिंह,कलराज मिश्र, लालजी टंडन, मुरली मनोहर जोशी और विनय कटियार का साथ मिल पाएगा या फिर वह भी महाभारत के अभिमन्यू की तरह चक्रव्यूह में फंस जाएंगी।
उल्लेखनीय है कि उत्तर प्रदेश की राजनीति में राजनाथ सिंह,कलराज मिश्र, लालजी टंडन, मुरली मनोहर जोशी और विनय कटियार भाजपा के पांडव माने जाते है, लेकिन ये बिखरे पड़े हैं। राजनाथ सिंह राष्ट्रीय राजनीति में जम चुके हैं। मुरली मनोहर जोशी,कलराज और लालजी टंडन भी खुद को राष्ट्रीय नेता ही मानते हैं। विनय कटियार अकेले ऐसे नेता हैं जो प्रदेश में सक्रिय है। ऐसे में उमा का साथ कौन देगा, कौन उनकी बात मानेगा, यह विचारणीय है। इसमें कोई शक नहीं कि उमा अपनी भूमिका अच्छी तरह से निभाएंगी, लेकिन युद्ध जीतने के लिए योद्धा भी ज़रूरी हैं, जो फिलहाल उत्तर प्रदेश में पार्टी के पास दिखाई नहीं देते। पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के बाद उत्तर प्रदेश में भाजपा के पास अब कोई ऐसा चेहरा नहीं है, जो उसे सत्ता में वापस ला सके। वैसे उत्तर प्रदेश में भाजपा के पास बड़े नामों एवं चेहरों की कमी नहीं है। मुख्तार अब्बास नकवी, मेनका गांधी एवं वरुण गांधी भी उत्तर प्रदेश से ही हैं, लेकिन इनमें वरुण को छोड़कर कोई आक्रामक नहीं दिखता।
उधर खबर यह भी सामने आ रही है कि उमा भारती की वाया उत्तर प्रदेश भाजपा में वापसी को क्षेत्रीय क्षत्रप पचा नहीं पा रहे हैं। उमा को उत्तर प्रदेश का प्रभार सौंपा गया है। यहां तक किसी को दिक्कत नहीं है, लेकिन उमा के उत्तर प्रदेश से ही चुनाव लडऩे की दशा में यहां के नेताओं को अपना वजूद खतरे में पड़ता दिखाई दे रहा है। यही वजह है कि वे उमा के भाजपा में आने पर खुलकर खुशी का इज़हार नहीं कर रहे हैं और न ही ग़म जता पा रहे हैं। उमा भारती के आने से ग़ैर भाजपाई दलों में खलबली ज़रूर है। विरोधी अभी से आरोप लगाने लगे हैं कि उत्तर प्रदेश में भाजपा का मिशन 2012 सांप्रदायिकता को उभारने वाला होगा।
भाजपा कार्यकर्ताओं के सामने एक सवाल यह भी है कि क्या उमा भारती अपने बड़े भाई कल्याण सिंह के खिलाफ़ मुखर हो सकेंगी। उमा वाकई ऐसा कर पाएंगी, यह कह पाना बहुत मुश्किल है। वजह पिछले विधानसभा और लोकसभा चुनाव हैं, जब कल्याण भाजपा में नहीं थे और उमा भाजपा की स्टार प्रचारक हुआ करती थीं। उस दौरान भी उमा ने कल्याण के खिलाफ़ बोलने से परहेज किया। अब कल्याण मुलायम सिंह यादव का साथ छोड़ चुके हैं। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में उनका अपना असर है, जहां भाजपा को अपनी पैठ बनानी है। ऐसे में उमा को कल्याण सिंह के खिलाफ़ आक्रामक होना पड़ेगा, यह वक्त की मजबूरी भी होगी।
भाजपा में उमा की वापसी के साथ ही यह भी कयास लगने लगे हैं कि उत्तर प्रदेश में होने वाले आगामी विधानसभा चुनाव में हिंदू-मुस्लिम मतों का ध्रुवीकरण कराने के हर हथकंडे का इस्तेमाल होगा। उमा भारती जिस राम मंदिर आंदोलन की देन हैं, वह हाईकोर्ट के ताजा निर्णय के बाद एक बार फिर से चर्चा में है। विवादित ढांचा ढहाए जाने के मामले में उमा भारती भी आरोपी हैं। इसका राजनीतिक लाभ उठाने से भाजपा तनिक भी परहेज नहीं करेगी। दिलचस्प बात यह है कि भड़काऊ भाषण देने की आदत के चलते ही उमा भारती राजनीति के शीर्ष पर पहुंचीं तो इसी वजह से उन्हें राजनीति में बुरे दिन भी देखने पड़ रहे हैं। मध्य प्रदेश की मुख्यमंत्री रहते हुए उन्हें वर्ष 2004 में इस्तीफा देना पड़ा था। वजह कर्नाटक के हुबली शहर में कऱीब 15 साल पहले सांप्रदायिक तनाव फैलाने के आरोप में उमा के खिलाफ म़ुकदमा कायम किया गया था। इस मामले में उन्हें अदालत के सामने पेश होना था। वे उस समय मुख्यमंत्री थीं, और वारंट के कारण उन्हें मुख्यमंत्री पद से त्यागपत्र देना पड़ा था। पार्टी ने वरिष्ठ नेता बाबूलाल गौर को कमान सौंप दी थी। इसके बाद पार्टी और उमा के बीच मतभेद बढ़ते गए और अंतत: पार्टी ने उमा को बाहर का रास्ता दिखा दिया। उसके बाद उमा भारती ने भारतीय जनशक्ति पार्टी बनाई लेकिन उन्हें अपेक्षित सफलता नहीं मिली। अब वे फिर पार्टी में वापस आ गई हैं।
उधर उमा भारती की वाया उत्तर प्रदेश भाजपा में वापसी से मध्य प्रदेश के नेताओं के माथे पर भी बल पड़ गए हैं। पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष प्रभात झा कहते हैं कि उमा का पार्टी में स्वागत है लेकिन उनका पार्टी में रहने या न रहने का कोई भी असर प्रदेश में नहीं पड़ेगा। यहां यह बात याद दिलाना जरूरी है कि उमा मध्य प्रदेश में ही पार्टी के लिए काम करना चाह रहीं थी लेकिन उनकी मध्य प्रदेश में वापसी में उन्हीं के शिष्य रहे नेता ही रोड़े अटका रहे थे। इसकी प्रमुख वजह उमा भारती का अक्खड़पन, उनकी तानाशाही है। भाजपा में रहते हुए उन्होंने जिस तरह से लालकृष्ण आडवाणी के खिलाफ़ तीखे शब्दों का इस्तेमाल किया, वह किसी से छिपा नहीं है। मध्य प्रदेश के नेताओं की उमा के सामने मुंह खोलने की हिम्मत नहीं होती थी। जिन बाबूलाल गौर ने उमा की चरण पादुका लेकर मुख्यमंत्री की कुर्सी हासिल की थी, वह भी आज अपनी इस नेता को नकारने लगे हैं। शिवराज सिंह चौहान को भी वह फूटी आंख नहीं सुहाती हैं। मध्य प्रदेश भाजपा के नेता डरते थे कि अगर उमा भारती भाजपा में आएंगी तो वह फिर से पुराना रवैया अख्तियार करेंगी। उमा की इस ख्याति से उत्तर प्रदेश भाजपा के नेता अपरिचित नहीं हैं। मध्य प्रदेश भाजपा में अगर कई गुट हैं तो उत्तर प्रदेश इस मामले में उसका बड़ा भाई है। गुटबाज़ी ने ही उत्तर प्रदेश में भाजपा को कहीं का नहीं छोड़ा है। ऐसे में उत्तर प्रदेश के नेता और कार्यकर्ता उमा भारती का नेतृत्व कहां तक स्वीकार करेंगे, यह सोचने वाली बात है। इन सबके बीच एक सवाल अहम है कि क्या उत्तर प्रदेश में भाजपा के नेताओं का संगठन नाकारा हो चुका है,जो उमा भारती मध्य प्रदेश में अपना राजनीतिक अस्तित्व नहीं बचा सकीं, उनसे भाजपा उत्तर प्रदेश में किसी करिश्मे की उम्मीद कैसे कर रही है। बहुजन समाज पार्टी, समाजवादी पार्टी और कांग्रेस को भी बैठे-बैठाए भाजपा ने एक मुद्दा थमा दिया है। देखना है कि चुनावी महाभारत में विरोधी दलों के चक्रव्यूह को उमा भारती कैसे तोड़़ेंगी।