सोमवार, 13 दिसंबर 2010

भारत सबसे बड़ा भ्रष्टतंत्र

सरकार ने 2001 से स्पेक्ट्रम के आबंटन की जांच के आदेश दे दिये हैं। इसके लिए एक जज वाली समिति का गठन कर दिया है। देश के सबसे बड़े कारोबारी समूह टाटा ग्रुप के चेयरमैन रतन टाटा भी यही चाहते हैं। ऐसे में सवाल उठता है कि अगर जांच में एयरटेल, रिलायंस कम्युनिकेशन, वोडाफोन और टाटा से लेकर तमाम कंपनियां गुनहगार पाई गईं तो क्या सबको देश से बाहर कर दिया जाएगा? क्या सबका लाइसेंस और स्पेक्ट्रम रद्द करके उनके कारोबार पर ताला लगा दिया जाएगा?

यह सवाल इसलिए कि बीते साल भर में हमारे देश में ऐसे कई मामले सामने आए जब पांच-दस साल बाद सियासी नफे-नुकसान के आधार पर कुछ कंपनियों पर नकेल कसने की कोशिश हुई। उड़ीसा में पर्यावरण के आधार पर वेदांता का खनन लाइसेंस करना वैसा ही एक मामला था। फिर केर्न इंडिया के समझौते को सुरक्षा के आधार पर रोकने की कोशिश और अब महाराष्ट्र में पर्यावरण के नाम पर लवासा को लेकर हो रही राजनीति भी उसी का हिस्सा है। महाराष्ट्र में ही एनरॉन का हस्र हम देख चुके हैं। आखिर क्यों हज़ारों करोड़ रुपये के निवेश के बाद हमारी सरकार जागती है? आखिर भ्रष्टाचार के आरोपों का निपटारा उसी वक्त क्यों नहीं होता जब विरोध की पहली आवाज़ उठती है? पर्यावरण से लेकर स्थानीय लोगों के हितों से जुड़े सवाल को उसी समय हल क्यों नहीं किया जाता जब प्रोजेक्ट की नींव रखी जाती है? क्यों हमारे हुक्मरान इंतज़ार करते हैं और कंपनियों को आश्वासनों देकर ब्लैकमेल करते हैं और फिर जब वो कंपनियां बाज़ार से उठा कर हज़ारों करोड़ रुपये निवेश कर देती हैं तो उन पर लाठी भांज दी जाती है?

आज देश के सबसे सम्मानित कारोबारी रतन टाटा टेलीकॉम सेक्टर में एक बड़े कारोबारी और सियासी साज़िश की ओर इशारा कर रहे हैं तो उन्हें गंभीरता से लिया जाना चाहिए। इसलिए नहीं कि टाटा कोई देवता हैं जो उन्हें कठघरे में नहीं खड़ा किया जा सकता। बल्कि इसलिए कि देश की सबसे सम्मानित कंपनी के चेयरमैन को इस तरह घुटने टेकने पर मजबूर किया जाएगा तो फिर किस किस्म का आर्थिक ढांचा तैयार करना है यह हमारी सरकारों को तय करना होगा। ऐसा नहीं हो सकता कि एक तरफ हमारी सरकारें निवेश को बढ़ावा देने की बात कहें और दूसरी तरफ निवेश करने वाली कंपनियों को सियासी साज़िश की भेंट चढ़ा दें।

टाटा, लवासा कॉरपोरेशन और वेदांता… ये सब चंद उदाहरण हैं। भारत में ऐसी दर्जनों परियोजनाएं सियासी खेल का शिकार हो चुकी हैं। उड़ीसा में पॉस्को की परियोजना लंबित है। उत्तर प्रदेश के दादरी में रिलायंस पॉवर का प्रोजेक्ट अटका पड़ा है। ये सभी मामले बयां कर रहे हैं कि हमारी व्यवस्था में भ्रष्टाचार की जड़ें कितनी गहरी हैं। हमारे नेताओं और अधिकारियों ने ऐसा भ्रष्ट तंत्र बना दिया है जिसमें कोई भी काम ईमानदारी से नहीं होता। पंचायत स्तर से लेकर राष्ट्रीय परियोजनाओं तक सभी जगह नेता और अधिकारी लूट में लिप्त हैं। संविधान की शपथ लेकर देश की बेहतरी के लिए काम करने का वादा करने वाले देश बेचने में लगे हैं।

यह बहुत गंभीर मसला है और इससे एक संकेत साफ है कि हम अब भी निवेश के लिए बेहतर माहौल नहीं बना सके हैं। चीन से टक्कर लेने और आर्थिक महाशक्ति बनने की बात तो बहुत दूर हमारी उद्योग और निवेश नीति आज भी साफ नहीं हो सकी है। उदारीकरण एक छद्म से अधिक कुछ नहीं। आज भी हमारे यहां कोटा परमिट राज है। सीधे तौर पर न सही, परोक्ष तौर पर सरकार और अधिकारी चाहें तो किसी भी परियोजना को कितने भी अंतराल के बाद फंसा सकते हैं। पैसे खिलाए बगैर प्रोजेक्ट पास नहीं होते और पैसे खिलाकर एक सरकार से प्रोजेक्ट पास भी करा लिया जाए तो भी उसके पूरा होने की कोई गारंटी नहीं। सत्ता बदलने पर दूसरी सरकार किसी गड़े मुर्दे को उखाड़ कर परियोजना रोक सकती है।

अपनी चिट्ठी में रतन टाटा ने कहा है कि सारी मान्यताएं पूरी करने के बाद भी तीन साल तक उनकी कंपनी टीटीएसएल को दिल्ली समेत 39 बड़े जिलों में स्पेक्ट्रम नहीं दिए गए। आखिर क्यों? वो यह कह रहे हैं कि जांच यह भी होनी चाहिए कि वो कौन सी ताकतें हैं जिन्होंने टीटीएसएल की राह में रोड़े अटकाए और जो टेलीकॉम सेक्टर में रिफॉर्म के ख़िलाफ़ थीं। उनके इस बयान से साफ है कि हमारे हुक्मरान पैसा मिलने पर चंद कंपनियों के हितों की रक्षा के लिए किस हद तक जा सकते हैं। पैसा ज्यादा मिले तो वो विदेशी कंपनियों के हितों को पूरा करने के लिए अपने देश के कंपनियों को दांव पर लगा सकते हैं।

इसके विपरीत दुनिया के तमाम देश अपनी कंपनियों के हितों की रक्षा के लिए काफी कुछ करती हैं। अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा की भारत यात्रा के दौरान रिटेल सेक्टर में विदेशी पूंजी निवेश की सीमा बढ़ाने के लिए दबाव डाला गया। ताकि वॉलमार्ट जैसी कंपनियों का हित सध सके। लेकिन हमारे यहां अपनी कंपनियों को आगे बढ़ाने की सोच अभी तक विकसित नहीं हो सकी है। हम आज भी सेठ साहूकारों वाली सोच से ऊपर नहीं उठ सके हैं। वरना सबसे पहला जोर एक ऐसी नीति तैयार करने पर होता जिसमें स्थानीय लोगों के हितों की रक्षा के साथ स्थानीय कंपनियों का हित भी सध जाता। खनन लीज से लेकर स्पेक्ट्रम अलॉटमेंट की प्रक्रिया को पारदर्शी बनाते ताकि उस पर किसी तरह का कोई सवाल नहीं उठे। लेकिन यहां सबकुछ गुपचुप तरीके से होता है। साजिशन, प्रक्रिया में झोल रखा जाता है, ताकि बैकडोर से पैसे लिए जा सकें। ब्लैक मनी की गुंजाइश रखी जा सके। फिर अचानक मालूम चलता है कि किसी सरकार या किसी महकमे ने चुनिंदा कंपनियों के साथ समझौता कर लिया। और यह पता चलने के साथ ही विरोधी उस पर सियासत शुरू कर देते हैं।

लेकिन इस बार उन्होंने इस सियासी दलदल में टाटा को भी घसीट लिया है। टाटा इस देश की सबसे सम्मानित कंपनी इसलिए है क्योंकि वो मुनाफे का बड़ा हिस्सा समाज की बेहतरी में खर्च करती है। परोपकार उसकी परंपरा का एक हिस्सा है। बैंगलोर में इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस और मुंबई में टाटा मेमोरियल हॉस्पिटल टाटा ट्रस्ट की देन है। टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोसल साइंसेस भी टाटा की देन है। टाटा सन्स देश की ऐसी अनोखी कंपनी है जिसमें 65.8 फीसदी हिस्सेदारी टाटा ट्रस्ट की है। उस ट्रस्ट का काम लोगों की बेहतरी के लिए शिक्षा से लेकर स्वास्थ्य के क्षेत्र में योजनाएं चलाना है। आज ये ट्रस्ट झारखंड, उड़ीसा के सैकड़ों गांवों में लोगों के बेहतरी के लिए काम करता ही। अभी कुछ ही दिनों में दिल्ली से टाटा जागृति यात्रा शुरू होने वाली है। जिसमें एक नौजवान साथियों से भरी हुई ट्रेन दिल्ली से देशव्यापी दौरे पर निकलेगी। उन तमाम सामाजिक संस्थानों के मिलवाने के लिए जो मेहनत, लगन और त्याग की नई दास्तान लिख रहे हैं।

आज टाटा सन्स का कारोबार दुनिया के कई देशों में फैला हुआ है। उसकी कुल कमाई का 65 फीसदी हिस्सा विदेशों से आता है। यूरोप से लेकर अमेरिका तक कई देशों में उसने निवेश किया है। कई विदेशी कंपनियों को खरीद लिया है। जहां देश की आज़ादी से लेकर सामाजिक परिवर्तन में अहम योगदान करने वाली ऐसी भारतीय कंपनियों को और आगे बढ़ाने की कोशिश होनी चाहिए वहीं हमारे सियासतदान उन्हें फंसाने और उनसे रिश्वत ऐंठने के तरीके खोजते रहते हैं।

उनकी इस तुच्छ सियासत का सबसे बुरा असर निवेश की संभावनाओं पर पड़ता है। हमारी सरकार वक़्त-वक़्त पर यह घोषित करती रहती है कि निवेश को बढ़ावा देने के लिए वो हर मुमकिन कोशिश कर रही है। वो यह दावा भी करती है कि निवेश के लिए भारत एक सुरक्षित देश है। लेकिन स्पेक्ट्रम घोटाले, वेदांता, पास्को, लवासा और दादरी पॉवर प्रोजेक्ट जैसी परियोजनाएं ये साबित करती हैं कि ऐसे रवैये से हम आर्थिक महाशक्ति नहीं बन सकते। अगर हमें भविष्य की चुनौतियों से निपटना है तो आर्थिक सुधार की गति तेज करनी होगी। नीतियों के साथ प्रक्रिया को भी पारदर्शी बनाना होगा। सबकुछ लोगों के सामने होना चाहिए। रोजगार के अवसरों को बढ़ाना होगा। इसका मतलब यह नहीं कि पर्यावरण को नज़रअंदाज कर दिया या फिर स्थानीय लोगों के हितों की अनदेखी की जाए। पर्यावरण और स्थानीय लोगों के हितों की रक्षा करना सरकार का पहला धर्म है। स्थानीय लोगों को प्रोजेक्ट में हिस्सेदारी भी दी जानी चाहिए। लेकिन उनके नाम पर ओछी सियासत नहीं होनी चाहिए।

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