शुक्रवार, 10 दिसंबर 2010

सत्ता के बावजूद शक्तिहीन कांग्रेस



मौजूदा दौर में देश की राजनीति में जो नाटकीयता हम देख रहे हैं, वह उन्हीं पुराने दिनों की याद दिलाती है. जब स्वतंत्र भारत के नए संविधान का निर्माण किया गया तो उसमें केंद्र को ताक़तवर बना दिया गया और प्रांत उसके अधीन हो गए. सारी शक्तियां केंद्र में ही निहित थीं, जहां कांग्रेस के बहुमत का शासन था. सत्ता की लगाम प्रधानमंत्री के हाथों में थी, जो सर्वशक्तिमान था.आधुनिक भारत के निर्माण का आधार अंग्रेजों के उस कुतर्क में ढूंढा जा सकता है, जिसमें उन्होंने भारत को एक राष्ट्र मानने से इंकार कर दिया था. अंग्रेजों का दावा था कि भारत एक राष्ट्र नहीं, बल्कि अलग-अलग प्रांतों, धर्मों, भाषाओं एवं जातियों का एक समूह है. पहले गोलमेज सम्मेलन में यह फैसला ले लिया गया कि भारत एक कमज़ोर केंद्र और ताक़तवर प्रांतों वाला राष्ट्र होगा.इसकी तुलना मौजूदा दौर की राजनीतिक व्यवस्था से करें तो आज केंद्र में द्विस्तरीय सरकार है. संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन का नेतृत्व सोनिया गांधी के हाथों में है. यह कैबिनेट की तरह काम करता है, जिसमें गठबंधन के साझीदार दलों के बीच सारे फैसले लिए जाते हैं.
वास्तविक कैबिनेट की हैसियत इससे नीचे है, क्योंकि इसमें शामिल गठबंधन के साझीदार दलों के प्रतिनिधि प्रधानमंत्री से आदेश नहीं लेते हैं, बल्कि अपने दल के नेता की बात मानते हैं. इतना ही नहीं, अपने प्रभाव क्षेत्र में मज़बूत आधार वाली पार्टियां किसी की नहीं सुनतीं, वे ख़ुद अपनी मालिक हैं. उदाहरण के लिए तमिलनाडु को लें तो वह एक स्वायत्त प्रांत की तरह व्यवहार करता है.
ए राजा को कैबिनेट से हटाए जाने के मामले में गठबंधन की नेता सोनिया गांधी को डीएमके प्रमुख करुणानिधि से ऐसे बात करनी पड़ी, मानो यह कोई अंतरराष्ट्रीय महत्व का मुद्दा हो. प्रधानमंत्री की स्थिति ऐसी होकर रह गई है कि वह न यहां के हैं और न वहां के. वह सरकार चलाते हैं, लेकिन गठबंधन नहीं.
वर्ष 1989 तक केंद्र की सत्ता पर कांग्रेस पार्टी का आधिपत्य बना रहा, लेकिन इसके बाद कमज़ोर गठबंधन सरकारों के चलते केंद्र की शक्तियों में लगातार कमी आती गई. जब अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री हुआ करते थे तो उनकी हालत इतनी कमज़ोर थी कि 2002 में गुजरात दंगों के बाद वह अपनी पार्टी के मुख्यमंत्री की आलोचना भी नहीं कर सकते थे.
समस्या यह है कि देश के संविधान में मज़बूत केंद्र को आधार बनाया गया है. इसकी वजह यह है कि संविधान निर्माता प्रांतीय आधार पर देश के विभाजन की आशंका से सहमे हुए थे. अब जो हालत है, उसमें देश के टूटने का कोई ख़तरा नहीं है, लेकिन इसे उस अंदाज़ में चलाया भी नहीं जा सकता, जिस तरह नेहरू या इंदिरा गांधी चलाते थे. इसकी सारी संभावनाएं तभी ख़त्म हो गईं, जब इंदिरा गांधी ने देश में आपातकाल की घोषणा की थी. हालांकि इसके बाद 1980 से 1989 तक कांग्रेस फिर से सत्ता में रही, लेकिन स्थितियां हमेशा के लिए बदल चुकी थीं. आपातकाल के बाद भारतीय राजनीति एक नए दौर में प्रवेश कर गई, जिसमें केंद्र की सरकार लगातार कमज़ोर पड़ती गई, लेकिन भारत ने इस नई राजनीतिक व्यवस्था के साथ जीना नहीं सीखा है. कमज़ोर केंद्र वाली संघीय व्यवस्था तभी बिना किसी समस्या के चल सकती है, जब प्रांतों और केंद्र के बीच लगातार बातचीत होती रहे, लेकिन भारतीय राजनीति में अब तक इसके लिए कोई उपाय ईजाद नहीं किया गया है.
यह सोनिया गांधी की राजनीतिक बाजीगरी का ही कमाल था कि वह सत्ता के शीर्ष का बंटवारा करने में कामयाब रहीं. गठबंधन की नेता के रूप में उसे बनाए रखने और साझीदार दलों एवं राज्यों के साथ बातचीत का काम उन्होंने अपने पास रखा, जबकि सरकार चलाने की ज़िम्मेदारी प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के कंधों पर है. पिछले छह सालों से यह व्यवस्था बख़ूबी चलती रही, लेकिन अब इसमें समस्याएं आ रही हैं, क्योंकि नैतिकता में विश्वास न करने वाली ताक़तवर सहयोगी पार्टियों पर नैतिक आचरण थोपा नहीं जा सकता. यही वजह है कि राजा के इस्ती़फे के लिए सरकार को इतने पापड़ बेलने पड़े और इसमें भी कोई संदेह नहीं कि कैबिनेट में अपने हिस्से का मंत्रालय दोबारा पाने के बाद डीएमके इसकी क़ीमत ज़रूर वसूल करेगा. फिर यह भी सत्य है कि केंद्र की ताक़त में कमी भले आई हो, लेकिन विधायिका के मुक़ाबले कार्यपालिका अभी भी काफी मज़बूत है. विपक्ष चाहकर भी सरकार का कुछ नहीं बिगाड़ सकता, क्योंकि सरकार हमेशा ही अपनी मर्जी के बिलों को संसद की मंजूरी दिलाने में कामयाब रहती है. विपक्ष के पास एक ही हथियार बचा है कि वह हंगामा कर संसद की कार्यवाही में रुकावट पैदा करे और तभी ऐसे नज़ारे हमें देखने को मिल रहे हैं.
लेकिन यह भी एक नई शुरुआत है, क्योंकि आपातकाल से पहले तक संसद में होने वाली बहसों को सरकार काफी अहमियत देती थी, लेकिन अब संसद के सत्र छोटे होते हैं और सरकार उन्हें अपनी सुविधा के हिसाब से आयोजित करती है. विपक्ष सरकार की इस चालाकी को अच्छी तरह समझता है, लेकिन गुस्सा करने के अलावा और कुछ नहीं कर सकता. कार्यपालिका पर नकेल कसने का काम न्यायपालिका भी कर सकती है. सर्वोच्च न्यायालय के पास कार्यपालिका को घुड़की देने का नैतिक अधिकार है, लेकिन इससे ज़्यादा कुछ नहीं. गोदामों में सड़ते अनाज वाले मामले में हमने देखा कि सर्वोच्च न्यायालय सरकार के ख़िला़फ कड़ाई से पेश आ सकता है, लेकिन संबंधित मंत्रालय यदि ऐसे व्यक्ति के हाथों में हो, जो गठबंधन में शामिल किसी ताक़तवर पार्टी का नेता हो तो प्रधानमंत्री भी कुछ खास नहीं कर सकते. शरद पवार किसी से आदेश नहीं लेते, किसी की बात नहीं सुनते. प्रधानमंत्री चाहकर भी सर्वोच्च न्यायालय को अपने सहयोगियों से ज़्यादा तवज्जो नहीं दे सकते. लेकिन बड़ा सवाल यह है कि क्या हमारा देश प्रधानमंत्री को उतनी ही इज़्ज़त देता रहेगा, जितनी उन्हें अब तक मिलती रही है?

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