शनिवार, 4 दिसंबर 2010

कल्याण की छाया से मुक्ति को छटपटा रही भाजपा

उत्तर प्रदेश में भाजपा के सामने भगवान राम के साथ अब पूर्व मुख्यमंत्री कल्याण सिंह के नाम का इस्तेमाल करने की राजनीतिक मजबूरी आ गई है. भाजपा अब मायावती और मुलायम के साथ अपने मुख्यमंत्रियों के कार्यकाल की तुलना करने जा रही है. यह तुलनात्मक पत्रक हर विधानसभा क्षेत्र में बांटे जाएंगे. कल्याण सिंह भाजपा से तीन बार मुख्यमंत्री रहे हैं. ऐसे में मजबूरी में ही सही, पार्टी के लिए उनकी छाया से खुद को मुक्त कर पाना मुमकिन नहीं होगा. इन सबके बीच एक सवाल यह भी है कि कहीं यह कल्याण सिंह को भाजपा में लाने की एक सोची-समझी रणनीति तो नहीं है. ऐसा नहीं है कि उत्तर प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी की कमजोर स्थिति और नेताओं के आपस में ही सिर फुटौव्वल से राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी वाकिफ नहीं हैं. विस्फोटक होते हालात से वह भी परिचित हैं और इन विकट स्थितियों में भी वह मिशन 2012 को सफलता के साथ पूरा करने का संदेश कार्यकर्ताओं को दे रहे हैं, लेकिन पार्टी की केंद्रीय राजनीति में हावी मुरली मनोहर जोशी, राजनाथ सिंह, विनय कटियार, कलराज मिश्र, मुख्तार अब्बास नकवी एवं अन्य नेताओं के सामने उनकी सारी रणनीति फेल हो रही है.

उत्तर प्रदेश के उक्त केंद्रीय नेता अपने-अपने क्षेत्रों के जनाधार वाले नेताओं को किनारे लगाने में ही अपनी ताकत का इस्तेमाल कर रहे हैं. यही वजह रही कि जो नेता रमापति राम त्रिपाठी के नेतृत्व वाली कमेटी में उपाध्यक्ष और महामंत्री जैसे पदों पर थे, उन्हें सूर्य प्रताप शाही ने क्षेत्रीय कमेटियों का अध्यक्ष बनाकर हैसियत में रहने का संकेत दे दिया. अयोध्या से विधायक लल्लू सिंह को ही लें, रमापति राम ने उन्हें अपनी कमेटी में उपाध्यक्ष बनाया था, लेकिन इस बार वह अवध क्षेत्र के अध्यक्ष बना दिए गए. गुस्साए लल्लू सिंह ने पद ग्रहण नहीं किया तो दो माह बाद उनकी जगह सुभाष त्रिपाठी को अवध क्षेत्र का नया अध्यक्ष बना दिया गया. इस तरह जय प्रकाश को काशी क्षेत्र का अध्यक्ष बनाया गया, लेकिन उन्होंने भी कार्यभार संभालने से इंकार कर दिया. भाजपा में कितना अंतर्विरोध है, यह पार्टी के वरिष्ठ नेता केशरीनाथ त्रिपाठी की एक बात से साफ़ हो जाता है. उनसे जब संगठन और मिशन 2012 के बारे में पूछा गया तो उन्होंने कहा कि इस बारे में लखनऊ में बैठे लोगों से बात कीजिए, मैं तो इलाहाबाद में बैठा हूं.

नई कमेटी में क्षेत्रीय असंतुलन और पार्टी के प्रति वफादारी की अनदेखी होना भी मुद्दा बना, लेकिन इसे दबा दिया गया. डैमेज कंट्रोल के लिए विजय बहादुर पाठक और राजीव तिवारी को सह प्रवक्ता से प्रोन्नत करके प्रवक्ता बना दिया गया तो प्रवक्ताओं की टीम में एक नया नाम हरिद्वार दुबे शामिल किया गया. अब प्रदेश भाजपा में प्रवक्ताओं की भरमार हो गई है. नई कमेटी में पूर्वांचल को काफी अहमियत दी गई है, दस उपाध्यक्षों में पांच पूर्वांचल के हैं. ऐसे में बाकी क्षेत्र खुद को उपेक्षित महसूस कर रहे हैं. भाजपाइयों की इस आपसी मारकाट के बीच ही अयोध्या मुद्दे पर हाईकोर्ट का फैसला आना पार्टी के लिए संजीवनी का काम कर सकता है, लेकिन ऐसे समय में कल्याण सिंह सरीखे नेता की कमी महसूस की जा रही है. इस माहौल में पार्टी संगठन के स्तर पर कुछ संजीदा हुई है. भाजपा अब गांव-गांव जाकर जनता की नब्ज टटोलने का काम करेगी. केंद्रीय और प्रदेश स्तर के नेता गांवों में रात्रि विश्राम करेंगे. इससे जनता के साथ सीधा संवाद स्थापित होगा. कहने की जरूरत नहीं रह जाती है कि अयोध्या पर हाईकोर्ट का फैसला आने के बाद जब मुख्यमंत्रियों के कार्यकाल का तुलनात्मक पत्रक बंटेगा तो उसमें कल्याण सिंह की उपलब्धियों का जिक्र भी होगा. ऐसे में भाजपा के लिए अपरोक्ष रूप से ही सही, कल्याण सिंह का इस्तेमाल करने की मजबूरी रहेगी. अब यह सभी जानते हैं कि कल्याण सिंह भाजपा से तीन बार मुख्यमंत्री रहे. राम प्रकाश गुप्ता एवं राजनाथ सिंह भी भाजपा से मुख्यमंत्री रहे, लेकिन सरकार की हनक और धमक की चर्चा तो केवल कल्याण सिंह के जमाने की ही होती है.

बात 1991 की है, उत्तर प्रदेश में भगवा लहर चल रही थी और सूबे के चुनावी इतिहास में यह पहली बार हुआ था कि भारतीय जनता पार्टी ने पूर्ण बहुमत के साथ अपनी सरकार बनाई. सभी नेता खुश थे, कार्यकर्ता प्रफुल्लित थे, कहीं कोई गुटबाजी नहीं. मतभेद थे, लेकिन मनभेद नहीं. समय चक्र के साथ भाजपाइयों पर सत्ता का नशा चढ़ा, सोनिया-राहुल को कोसते-कोसते कांग्रेसी संस्कृति हावी हुई. आज भाजपा उत्तर प्रदेश में चौथे नंबर की पार्टी बनकर रह गई है. कारण और भी हैं, लेकिन केंद्रीय एवं राज्य नेतृत्व की हालत पर काबू पाने की दिलचस्पी कहीं नहीं दिखती है. समाचारपत्रों में बयानबाजी जारी रहे, इसके लिए भाजपा की प्रदेश इकाई में प्रवक्ताओं की फौज बना दी गई है. सबके लिए एक-एक दिन निर्धारित कर दिया गया है. पार्टी पदाधिकारी अखबारों में अपनी खबरें देखकर खुश हो लेते हैं. नतीजतन, उत्तर प्रदेश की चुनावी राजनीति में भाजपा की जमीन लगातार खिसकती जा रही है.
इसका सबसे ताजा उदाहरण पंचायत चुनाव हैं. इन चुनावों में पार्टी की ऐसी कोई उपलब्धि नहीं है, जिसे वह प्रचारित कर सके. पार्टी के विधायक तक अपने निकट के रिश्तेदारों को जिता नहीं सके. महराजगंज के विधायक महंत दुबे की अनुज वधू प्रीति रानी और पत्नी पूनम दोनों ही बीडीसी का चुनाव हार गईं. वहीं फर्रुखाबाद में भाजपा के जिला अध्यक्ष डॉ. भूदेव सिंह प्रधानी का चुनाव हार गए. वह 15 वर्षों से प्रधानी कर रहे थे, लेकिन इस बार पराजय का सामना करना पड़ गया. पंचायत चुनाव खत्म होने के बाद पार्टी को गांव-गांव जाकर संगठन मजबूत करने की याद जरूर आई है. अब इसका कितना फायदा 2012 में होने वाले विधानसभा चुनाव में मिलेगा, यह देखने वाली बात होगी. पंचायत चुनाव में भाजपा के प्रदर्शन पर संगठन के अपने तर्क हैं. उसका कहना है कि भाजपा की शहरी मतदाताओं में गहरी पैठ है. पंचायत चुनाव पार्टी सिंबल पर नहीं हुए, सभी दलों ने इससे खुद को अलग रखा. ऐसे में कोई दावा करने की स्थिति में नहीं है. बात सही भी है, लेकिन शहर में भी भाजपा कुछ नहीं कर पा रही है. उल्टे जो कमाई थी, उसे भी गवां ही रही है. प्रदेश की राजधानी लखनऊ का उदाहरण सबके सामने है. पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के राजनीति से संन्यास लेने की घोषणा से पहले तक लखनऊ संसदीय क्षेत्र के शहरी इलाके की सभी विधानसभा सीटों पर भाजपा का क़ब्ज़ा होता था. अटल जी ने लोकसभा चुनाव नहीं लड़ा, उनके प्रतिनिधि के तौर पर लाल जी टंडन जनता की अदालत में आए. लखनऊ के लोगों ने टंडन को जिताकर संसद तो पहुंचा दिया, लेकिन भाजपा की परंपरागत लखनऊ पश्चिम विधानसभा सीट कांग्रेस को सौंप दी. इस क्षेत्र से लाल जी टंडन लगातार कई बार चुनाव जीतते रहे, लेकिन वह अपने उत्तराधिकारी अमित पुरी को विधानसभा नहीं भेज सके. पार्टी इसकी वजह चाहे जो भी बताए, लेकिन कार्यकर्ता साफ़ तौर पर कहते हैं कि इस सीट से टंडन अपने बेटे को चुनाव लड़ाना चाहते थे. पार्टी ने उनकी इच्छा पूरी नहीं की. नतीजतन टंडन समर्थकों ने चुनाव में अमित पुरी के साथ भितरघात करके उन्हें हरा दिया.

भितरघात की प्रवृत्ति ने ही लोकसभा चुनाव में भाजपा को उत्तर प्रदेश में कहीं का न रखा. जिस उत्तर प्रदेश के सहारे लालकृष्ण आडवाणी प्रधानमंत्री बनने का सपना देख रहे थे, उसे उन्हीं के सिपहसलारों ने पूरा नहीं होने दिया. लोकसभा चुनाव के बाद भितरघात करने के आरोप में 26 नेताओं को नोटिस भी जारी की गई, लेकिन हुआ कुछ नहीं. नोटिस को किसी ने नोटिस में नहीं लिया. मजेदार बात यह है कि भाजपा के तत्कालीन प्रदेश महामंत्री स्वतंत्र देव सिंह ने भितरघातियों को नोटिस जारी किया और इसके कुछ दिनों बाद ही जालौन लोकसभा सीट से भाजपा के प्रत्याशी रहे भानु प्रताप वर्मा ने संगठन की एक बैठक में उन्हीं पर भितरघात का आरोप लगा दिया. बरेली से लगातार छह बार संसद पहुंचने वाले संतोष गंगवार ने भी अपनी हार के लिए पार्टी के तत्कालीन प्रदेश उपाध्यक्ष राजेश अग्रवाल को जिम्मेदार ठहराया था. वर्ष 2007 में उत्तर प्रदेश विधानसभा के लिए हुए चुनाव से भी भाजपा के इन गुटबाज नेताओं ने कोई सबक नहीं लिया था. विधानसभा चुनाव के नतीजे आने के बाद उत्तर प्रदेश में भाजपा महज 51 सीटों पर सिमट कर रह गई, जबकि इसके पहले सदन में उसके 93 विधायक हुआ करते थे. पार्टी कार्यकर्ता इस स्थिति के लिए नेतृत्व को ही जिम्मेदार मानते हैं. कार्यकर्ताओं की मानें तो नेतृत्व के पास ऐसा कोई मुद्दा ही नहीं है, जिससे वह मतदाताओं को अपनी तरफ आकर्षित कर सके. भाजपा की इस कमजोरी का फायदा उठाते हुए कांग्रेस खुद को मजबूत करने में लगी है. भगवा झंडे का परंपरागत मतदाता पंजे को मजबूत करने में अब ज़्यादा दिलचस्पी दिखा रहा है. कार्यकर्ताओं की बात गलत नहीं है. लोकसभा चुनावों में कांग्रेस ने जिस तरह उल्लेखनीय प्रदर्शन किया, उसने भाजपा को चौथे स्थान पर पहुंचा दिया. जाहिर है कि भाजपा का जनाधार कांग्रेस की ओर खिसका है. इन हालात में सबसे चिंताजनक यह है कि केंद्रीय नेतृत्व संगठन को मजबूत और गतिशील करने के प्रति गंभीर नहीं दिखता. दिखावे के लिए संगठन के चुनाव होते हैं, लेकिन प्रदेश अध्यक्ष से लेकर जिला अध्यक्षों तक का मनोनयन किया जाता है. नतीजतन भाजपा में आंतरिक लोकतंत्र और सामूहिक नेतृत्व लफ्फाजी की बातें बनकर रह गया है.

भाजपा के वर्तमान प्रदेश अध्यक्ष सूर्य प्रताप शाही हों या फिर रमापति राम त्रिपाठी, सभी केंद्रीय नेतृत्व के थोपे हुए चेहरे हैं. इन्हें कार्यकर्ता अपना नेता मानने को तैयार नहीं हैं. तभी जंबो जेट प्रदेश कमेटी बनाने के बाद भी प्रदेश भाजपा संगठन में असंतोष थमने का नाम नहीं ले रहा है. आम दिनों में पार्टी कार्यालय में सन्नाटा पसरा रहता है. कोई केंद्रीय नेता लखनऊ आया तो उसके स्वागत की रस्म अदायगी के लिए क्षेत्रीय क्षत्रप प्रदेश मुख्यालय आते हैं और फिर ग़ायब हो जाते हैं. ऐसे में कार्यकर्ता इन नेताओं को कहां तलाश करें. कार्यकर्ता आज भी उस घड़ी को कोसते हैं, जब वर्ष 1999 में कल्याण सिंह को पैदल करने के लिए भाजपा में गुटबाजी का दीमक लगा और वह पूरे संगठन को ही चट कर गया. कल्याण सिंह के पार्टी छोडऩे से भाजपा में अगड़ों और पिछड़ों का सामंजस्य गड़बड़ाया, जिसे भाजपा नेतृत्व ने महसूस किया. कल्याण सिंह को दोबारा भाजपा में लाया गया. वर्ष 2007 का विधानसभा चुनाव कल्याण सिंह के नेतृत्व में ही लड़ा गया, लेकिन भाजपा का कल्याण नहीं हो सका. कार्यकर्ता कहते हैं कि कल्याण सिंह को भाजपा में दोबारा लाया गया, लेकिन राजनाथ सिंह, कलराज मिश्र और लाल जी टंडन उन्हें सहन नहीं कर पा रहे थे. जनता में भी कल्याण सिंह का जादू नहीं चल सका. फिर वर्ष 2009 में लोकसभा चुनाव से ऐन पहले वह भाजपा छोड़कर मुलायम सिंह यादव से हाथ मिला बैठे. उत्तर प्रदेश के वर्तमान सियासी एवं जातीय समीकरणों पर यदि गौर करें तो भाजपा के सवर्ण मतदाताओं का एक बड़ा तबका बसपा के साथ है. बहुजन के स्थान पर सर्वजन का नारा देकर मायावती ने दलित और ब्राह्मण मतदाताओं का जो समीकरण बैठाया है, उसकी काट बसपा के विरोधी राजनीतिक दल अभी तक नहीं तलाश पाए हैं. कांग्रेस ज़रूर इस मामले में कुछ सफ़ल होती दिख रही है, लेकिन भाजपा इसे मानने को तैयार नहीं है. पार्टी के वरिष्ठ नेता एवं विधान परिषद सदस्य हृदय नारायण दीक्षित कहते हैं कि मायावती के शासनकाल में मची लूट, भ्रष्टाचार, ध्वस्त कानून व्यवस्था एवं बेरोजगारी से त्रस्त जनता भाजपा को ही विकल्प के रूप में देख रही है. वह पार्टी में किसी भी तरह की गुटबाजी से भी साफ़ इंकार करते हैं. भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष सूर्य प्रताप शाही भी पार्टी संगठन के एकजुट होने का दावा करते हैं. इन नेताओं के दावों में कितनी सच्चाई है, यह पहले विधानसभा चुनाव, फिर लोकसभा चुनाव और अब पंचायत चुनाव के नतीजों से साफ़ हो चला है.

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