शनिवार, 11 दिसंबर 2010

मोदी को मिली क्लीन चिट के मायने


गुजरात दंगों पर गठित आरके राघवन समिति की अध्यक्षता में एसआइटी यानी विशेष जांच आयोग की रिपोर्ट अभी तक वैधानिक रूप से सार्वजनिक नहीं हुई है और नरेंद्र मोदी को क्लीन चिट दिए जाने की खबर मीडिया के हाथों पहुंच गई। अब पूछा जा रहा है कि नरेंद्र मोदी क्या निर्दोष नहीं हैं? इस सवाल का उत्तर उन लोगों से पूछा जाना चाहिए जिन्होंने यह रिपोर्ट लीक की है और देश की जनता का नब्ज टटोलना चाह रहे हैं ताकि उसके अनुरूप अगला कदम उठाया जा सके। मेरी जानकारी के मुताबिक आरके राघवन समिति की रिपोर्ट अभी माननीय सुप्रीम कोर्ट को बंद लिफाफे में सौंपा गया है और इसमें क्या रिपोर्ट दी गई है अथवा नहीं दी गई है, इस बारे में कोई जानकारी किसी को नहीं है, क्योंकि यह लिफाफा अभी भी बंद ही है। जब लिफाफा खोला जाएगा और उस रिपोर्ट को जनता के सामने कोर्ट रखेगी तब जाकर इस पर कोई टिप्पणी अथवा अपनी राय दी जा सकती है। रिपोर्ट सार्वजनिक होने से पहले इस तरह का मामला प्रकाश में आना एक बड़ा सवाल खड़ा करती है कि आखिर इसके पीछे वास्तविक उद्देश्य क्या हैं? 2002 में गुजरात दंगों की भयावहता और उसके प्रभाव को रिपोर्ट से नहीं आंका जा सकता, बल्कि उन लोगों के मासूम आंखों और उनमें व्याप्त आज भी उस भय में देखा जा सकता है जिसकी साया में वह लगातार जीते आ रहे हैं। गुजरात दंगा पीडि़तों के दर्द और परेशानियों को भुलाया नहीं जा सकता। गोधरा रेल अग्निकांड क्यों हुआ और इसमें किन लोगों का हाथ रहा यह अभी भी संदेह के घेरों में है। यहां एक सवाल यह भी है कि जब किसी राज्य में राज्यव्यापी दंगा फैला हो और उसमें सैकड़ों-हजारों निर्दोष लोगों की जानें गई हों तो क्या उस राज्य के मुख्यमंत्री को इसके लिए जिम्मेदार नहीं माना जाना चाहिए। जब गुजरात में दंगे भड़के हुए थे और पूरे प्रदेश की जनता खासकर मुसलमान वर्ग इससे बड़े पैमाने पर पीडि़त हो रहा था तो नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली पूरी प्रशासनिक मशीनरी क्या कर रही थी? आखिर पूरी प्रशासन पंगु कैसे हो सकती है और इसके लिए उसे निर्देश कहां से मिल रहे थे? यह कुछ ऐसे प्रश्न हैं जिनके लिए किसी आयोग की जांच और उसके रिपोर्ट की जरूरत नहीं है। जब नरेंद्र मोदी के मंत्री और विधायक इन दंगों को भड़काने के आरोप में दोषी पाए जा चुके हैं तो शासन के मुखिया भले ही इसमें प्रत्यक्ष रूप से न शामिल रहे हैं, लेकिन क्या उनकी जिम्मेदारी को कम करके आंका जा सकता है। राज्य प्रशासनिक मशीनरी के मुखिया के रूप में क्या नरेंद्र मोदी की भूमिका को प्रभावी माना जा सकता है। यह सही है कि नरेंद्र मोदी ने गुजरात को विकास के रास्ते पर आगे बढ़ाया है और 2002 में भड़के दंगे के बाद दोबारा ऐसा कोई दंगा नहीं होने पाया।उच्चतम न्यायालय द्वारा गठित विशेष जांच दल यानी एसआइटी द्वारा नरेंद्र मोदी को दंगा कराने के आरोप से मुक्त करना उन लोगों के लिए गहरा आघात है जो लंबे समय से उन्हें कानून के कठघरे में खड़ा करने का हरसंभव प्रयास कर रहे थे। निस्संदेह इससे उन लोगों की त्रासदी और पीड़ा कम नहीं होगी, जिनके परिजन उस वहशी क्रूरता का शिकार हो गए, लेकिन यह अलग से विचार करने का पहलू है। दंगों के बाद से सीधे मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को इसका अपराधी साबित करने की जो कोशिश हुई उसका इस पहलू से लेना-देना नहीं है। उम्मीद है कि अब ऐसी कोशिशों पर विराम लगेगा। गुजरात दंगे के विभिन्न कानूनी पहलुओं से देश आज भली तरह वाकिफ है। बेस्ट बेकरी संबंधी जाहिरा शेख का मामला एक समय सबसे ज्यादा सुर्खियों में था। नरौदा पाटिया, बिल्किस प्रकरण जैसे मामलों में मोदी को अपराधी साबित करने की कोशिशें विफल हुई। यह विरोधियों की अपीलों का ही असर था कि उच्चतम न्यायालय ने सीबीआइ के पूर्व प्रमुख आरके राघवन की अध्यक्षता में विशेष जांच दल का गठन किया और उसके कार्यो की प्रगति को मॉनिटर किया। इस दल ने ही मोदी काल के कई मंत्रियों व नेताओं के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज किया और उन्हें जेल भेजा। स्वयं मोदी से कई घंटों तक पूछताछ हुई। अगर यह दल कह रहा है कि गोधरा कांड के बाद भड़के दंगों में मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी या उनके कार्यालय की भूमिका का कोई प्रमाण नहीं है तो इसे स्वीकार करने के अलावा चारा क्या है। एसआइटी के गठन से लेकर अब तक के प्रवाह पर नजर दौड़ाएं तो यह साफ हो जाएगा कि उच्चतम न्यायालय या एसआइटी भले ही सच सामने लाने चाहता था पर मोदी विरोधियों ने हर अवसर को अपने अनुसार मोड़ने की कोशिश की। 11 मार्च को जब मोदी को एसआइटी ने सम्मन जारी किया तो यह खबर मीडिया की ऐसी सुर्खी बनी मानो अब उनका कानूनी जकड़न में आना निश्चित है। यहां तक कि मुख्यमंत्री पद से मोदी के त्यागपत्र की भी मांग कर दी गई। वैसे मोदी के त्यागपत्र की मांग दंगों के समय से ही हो रही है। उनके विरोधियों का सीधा आरोप है कि गोधरा रेल दहन के बाद का दंगा उनके एवं उनके सहयोगियों द्वारा प्रायोजित था। हालांकि एसआइटी के प्रमुख आरके राघवन ने कहा था कि उनको सम्मन इसलिए जारी किया गया, क्योंकि अनेक गवाहों ने उन पर जो आरोप लगाए हैं उनका जवाब उनसे लिया जा सके। किंतु इस पर ध्यान नहीं दिया गया और दुष्प्रचार जारी रखा गया। उच्चतम न्यायालय ने 26 मार्च, 2008 को एसआइटी का गठन किया और 27 अप्रैल, 2009 को इसे गुजरात दंगों में मोदी की भूमिका की जांच का आदेश दिया। गुलबर्ग सोसायटी में मारे गए कांग्रेस के पूर्व सांसद एहसान जाफरी की पत्नी जाकिया जाफरी ने उच्चतम न्याायलय में याचिका दायर करके कहा कि उनके पति सहित 38 लोगों की हत्या के लिए मोदी को जिम्मेदार बताया। गुलबर्ग सोसायटी में दंगों के बाद लापता 31 लोगों को भी मृत मानकर अहमदाबाद न्यायालय ने मृतकों की संख्या 69 कर दी। एसआइटी को उच्चतम न्यायालय ने गोधरा कांड सहित जिन नौ मामलों में आपराधिक छानबीन का आदेश दिया था उसमें गुलबर्ग सोसायटी कांड भी शामिल था। एसआइटी ने कभी यह शिकायत नहीं की कि उसे जांच में सरकार से किसी स्तर पर असहयोग मिला। 19 जनवरी, 2010 को उच्चतम न्यायालय ने गुजरात सरकार को यह आदेश दिया था कि उस दौरान मोदी के भाषणों की कॉपी एसआइटी को उपलब्ध कराई जाए ताकि उन पर लोगों को भड़काने का जो आरोप है उसकी सत्यता जांची जा सके। साफ है कि एसआइटी का निष्कर्ष केवल मोदी के जवाबों पर ही आधारित नहीं है। घटना के दौरान के सारे टेप व दस्तावेज भी उसने देखे, पुलिस-प्रशासनिक अधिकारियों से पूछताछ की और उनकी नोटिंग का पूरा अध्ययन किया। न एसआइटी को मोदी का भाषण सांप्रदायिक विद्वेष बढ़ाने वाला लगा और न इसमें हिंसा एवं आगजनी को प्रोत्साहित करने का ही अंश था। एसआइटी उच्चतम न्यायालय के निर्देश एवं देखरेख में काम कर रही थी, इसलिए इस पर पक्षपात का आरोप लगाना उचित नहीं, किंतु ऐसा भी हुआ। मोदी से पूछताछ के बाद राघवन का बयान था कि पूछताछ करने वाले संतुष्ट हैं, लेकिन यदि साक्ष्यों के अध्ययन के बाद आवश्यक लगेगा तो दोबारा उन्हें बुलाया जाएगा। विरोधियों ने यह प्रश्न भी उठाया कि राघवन ने क्यों पूछताछ की अध्यक्षता करना आवश्ययक नहीं माना। विरोधी पूछ रहे थे कि मोदी के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज क्यों नहीं हुई? वह ये भूल गए कि अगर प्राथमिकी दर्ज करना अपरिहार्य होता तो उच्चतम न्यायालय स्वयं इसका आदेश दे देता। न्यायालय ने ही नानावती आयोग से पूछा था कि मोदी से पूछताछ क्यों नहीं की गई? विरोधियों ने एसआइटी की कार्यशैली पर जिस प्रकार प्रश्न उठाना आरंभ किया वह भी दुर्भाग्यपूर्ण था। 2002 का गुजरात दंगा केवल गुजरात नहीं, पूरे देश पर एक त्रासदपूर्ण कलंक है। यह हमारे देश की सांप्रदायिक एवं सामाजिक सद्भाव को धक्का पहुंचाने वाली एक ऐसी वारदात थी, जिसके अपराधियों को कतई बख्शा नहीं जाना चाहिए था। अगर लक्ष्य दंगा पीडि़तों को वास्तविक न्याय दिलवाने एवं असली दोषियों को सजा दिलवाने की जगह किसी एक व्यक्ति को खलनायक बनाना हो जाए तो फिर क्या कहा जा सकता है। हम गुजरात प्रशासन की विफलता को कतई अस्वीकार नहीं कर सकते और उस दौरान मुख्यमंत्री होने के नाते मोदी दोषी थे, इतना तो स्वीकार किया जा सकता है। उनके मंत्रियों एवं विधायकों की गिरफ्तारी भी सरकार की भूमिका को संदेह के दायरे में लातीं है। हालांकि गुजरात में दंगों का पुराना इतिहास है पर कई भयावह घटनाएं रोकी जा सकतीं थीं इसे भी अस्वीकार नहीं किया जा सकता। नरेंद्र मोदी ने बिल्कुल योजनाबद्ध तरीके से एक संप्रदाय विशेष के खिलाफ लोगों को भड़काया, उनके खिलाफ हिंसा को हर तरह से सहयोग दिया और प्रोत्साहित किया इसके कहीं कोई प्रमाण नहीं मिले हैं। यही एसआइटी ने भी अपनी रिपोर्ट में कहा है। जहां तक गुलबर्ग सोसायटी का प्रश्न है तो नानावती आयोग के सामने तत्कालीन संयुक्त पुलिस आयुक्त एमके टंडन ने कहा कि वहां पुलिस बल कायम थी और भीड़ को रोकने के लिए गोली भी चलाई गई, लेकिन उस पर भी हमला नहीं रुका। टंडन के अनुसार सोसायटी के अंदर से फायरिंग होने के बाद भीड़ हिंसक हो गई। यह पूछने पर कि क्या एहसान जाफरी का कोई फोन उनके पास आया था तो टंडन ने कहा कि उनके पास पुलिस नियंत्रण कक्ष से संदेश आया था कि पूर्व कांग्रेसी सांसद किसी सुरक्षित जगह जाना चाहते हैं। .तो आप गुलबर्ग सोसायटी क्यों नहीं गए? इस पर टंडन का जवाब था कि वह उससे ज्यादा संवेदनशील दरियापुर क्षेत्र की ओर प्रस्थान कर गए थे एवं वहां दो पुलिस उपाधीक्षक एवं केंद्रीय औद्योगिक सुरक्षा बल की एक कंपनी को भेज दिया। दूसरे पुलिस अधिकारियों की गवाही में भी ऐसी ही बाते हैं। इसका निष्कर्ष हम कुछ भी निकाल सकते हैं पर कहीं से यह साबित नहीं होता कि मोदी ने किसी पुलिस अधिकारी को गुलबर्ग सोसायटी से दूर रहने को कहा था। बहरहाल, एसआइटी की रिपोर्ट के बाद असली न्याय दिलाने की बजाय एक व्यक्ति को निशाना बनाने का यह सिलसिला अब बंद होना चाहिए। एसआइटी के दायरे में गोधरा कांड से लेकर दंगों के सभी प्रमुख कांड थे एवं इस पर उच्चतम न्यायालय की निगरानी थी। मौजूदा ढांचे में इससे विश्वसनीय जांच कुछ नहीं हो सकती। हां, सरकार को यह कोशिश अवश्य जारी रखनी चाहिए ताकि पीडि़त यह न समझें कि उनके साथ दंगों के दौरान हिंसा भी अन्याय के तहत हुआ और यह आज तक जारी है। उन्हें महसूस हो कि उनकी पीठ पर सरकार एवं प्रशासन का हाथ है। साथ ही मनुष्यता को शर्मशार करने वाली वैसी घटना की पुनरावृत्ति नहीं हो इसका भी ध्यान रखना चाहिए। केवल नरेंद्र मोदी को निशाना बनाकर सेक्युलरवाद का हीरो बने रहने की चाहत वाले अपना रवैया नहीं बदलेंगे तो घाव कभी सूख नहीं पाएंगे।

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