रविवार, 5 दिसंबर 2010

गुटों में बंटी गडकरी की भाजपा

अपने बेटे की शादी में भले ही नितिन गडकरी ने पूरी भाजपा को बाराती बना दिया हो लेकिन पार्टी के स्तर पर राष्ट्रीय अध्यक्ष लड़ाई और गुटबाजी पर विराम नहीं लगाने में गडकरी पूरी तरह असफल रहे हैं. नितिन गड़करी को भाजपा का राष्ट्रीय अध्यक्ष बने करीब साल भर होने वाला है. लेकिन पार्टी में गुटबाजी रोकने में वे पूरी तरह असफल रहे हैं. आलम यह है कि भाजपा के केंद्रीय नेताओं की गुटबाजी का असर अब राज्यों पर भी पड़ने लगा है. पार्टी के बड़े नेता राज्यों के संगठन और सत्ता पर वर्चस्व बनाए रखने के लिए राज्यों में गुटबाजी को बढ़ावा दे रहे हैं. वे योग्य कार्यकर्ताओं को दरकिनार कर अपने खासमखास को आगे बढ़ा रहे हैं.

उन राज्यों में ज्यादा घमासान है जहां पार्टी की सरकार है. आलम यह है कि 2014 में कांग्रेस को पटकनी देने के लिए संगठन को मजबूत बनाने की बजाए पार्टी के नेता सत्ता और संगठन में वर्चस्व हासिल करने के लिए एक दूसरे को निपटाने में लगे हैं. इससे राज्यों में भाजपा कमजोर हो रही है. कर्नाटक का ताजा उदाहरण सबके सामने हैं कि कैसे एक केंद्रीय नेता और पार्टी के ताकतवर महासचिव अपनी महत्वाकांक्षा को पूरी करने के लिए अपनी ही पार्टी की सरकार गिराना चाहते हैं. कर्नाटक में जबरदस्त गुटबाजी के चलते मुख्यमंत्री येदियुरप्पा पिछले 29 महीने में तीन बार विश्वास मत हासिल करने पर मजबूर हुए हैं. गुटबाजी से आजिज यदुरप्पा तो हाल ही में दिल्ली में बड़े नेताओं के सामने सार्वजनिक रूप से रो तक पड़े थे.

यह हालत केवल कर्नाटक की नहीं है. पंजाब, उत्तराखंड, बिहार, झारखंड में गुटबाजी की बिसात पर खेल जारी है तो मध्य प्रदेश, राजस्थान जैसे राज्यों में भी खिलाड़ी डट कर ताल ठोकते दिख रहे हैं. बिहार चुनाव में अधिक से अधिक सीट जीतने की जितनी तैयारी है उससे कहीं अधिक कोशिश पार्टी में विरोधियों को निपटाने की दिख रही है.प्रदेश अध्यक्ष सीपी ठाकुर और उप मुख्यमंत्री सुशील मोदी टिकट बंटवारे की हारी-जीती बाजी का हिसाब चुकता करने की गुप्त रणनीति में लगे हैं. तो बिहार से ताल्लुक रखने वाले वरिष्ठ नेता रविशंकर प्रसाद, राजीव प्रताप रूडी और शाहनवाज हुसैन भाजपा के अंदर नीतीश कुमार की तरफदारी करने वालों को सबक सिखाने में जुटे हैं. हिमाचल में मुख्यमंत्री प्रेमकुमार धूमल ने विरोधियों को निपटा कर सत्ता और संगठन दोनों पर कब्जा कर लिया है. वहीं उत्तराखंड में राज्य के तीनों बड़े नेता एक दूसरे के पर कतरने में लगे हैं. जबकि झारखंड में झारखंड मुक्ति मोर्चा (जेएमएम) के साथ मिलकर सरकार बनाने के मसले पर शीर्ष नेतृत्व ही दो गुटों में बंटा दिखा. राज्य के पूर्व उप मुख्यमंत्री रघुवरदास और वरिष्ठ नेता और पूर्व वित्त मंत्री यशवंत सिन्हा के बीच छत्तीस का आंकड़ा साफ है. वहीं पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह के खासमखास झारखंड के मुख्यमंत्री पार्टी और संगठन में अपने विरोधियों को किनारे लगाने में जुट गए हैं.

देश की प्रमुख विपक्षी पार्टी भाजपा की हिमाचल, उत्तराखंड, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखंड कर्नाटक, गुजरात के अलावा बिहार और पंजाब में गठबंधन सरकार है. 2009 के आम चुनाव मे भाजपा की करारी हार के बाद पार्टी के शीर्ष नेतृत्व में घमासान मच गया था. संघ के दबाव में आडवाणी नई पीढ़ी को नेतृत्व सौपने के लिए तैयार तो गए, लेकिन उनके चहेतों अरुण जेटली, सुषमा स्वराज, वेंकैया नायडू और अनन्त कुमार में ही पार्टी में वर्चस्व को लेकर टकराव शुरु हो गया. गुटबाजी का आलम यह था कि पार्टी कई खेमों में बट गई. इन चारों के अलावा एक खेमा निवर्तमान पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह का था. तो पार्टी का कट्टरवादी धड़ा नरेंद्र मोदी में पार्टी का भविष्य देख रहा था. खैर, तब मोहन भागवत ने पार्टी में बढ़ती गुटबाजी के लिए इन नेताओं को जिम्मेदार मानते हुए महाराष्ट्र के नेता नितिन गडकरी को पार्टी की राष्ट्रीय अध्यक्ष बना कर यह संदेश देने की कोशिश की गुटबाजी करने वाले नेताओं के पर कतर दिए जाएंगे. लेकिन संघ प्रुमख ने जिन नेताओं को “पावरलेस” करने के लिए नितिन गडकरी को अध्यक्ष बनाया वही नेता बाद में पार्टी में और ताकतवर बन कर उभरे. अब उनकी महत्वाकांक्षाएं फिर जोर मारने लगी हैं. लिहाजा एक दूसरे को कद नीचा करने में लगे हुए हैं. हाल ही में लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष सुषमा स्वराज ने जब अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा की भारत यात्रा के दौरान भाजपा का अमेरिका के प्रति क्या रुख होगा, इस पर विचार करने के लिए बड़े नेताओं की अपने घर पर बैठक बुवॉलाई तो इसमें राजनाथ सिंह को नहीं बुलाया गया. अरुण जेटली, सुषमा स्वराज, नरेंद्र मोदी, वेंकैया नायडू, राजनाथ सिंह खुद को प्रधानमंत्री का दावेदार मानने लगे हैं. इसलिए ये नेता राज्यों में संगठन और सत्ता पर अधिकार चाहते हैं. लिहाजा वे चुन चुन कर अपने चहेतों और चाटुकारों को पद और सत्ता दिलाने में लगे हुए हैं. ऐसे मे कई दमदार और ताकतवर कार्यकर्ता संगठन में पीछे छूट जा रहे हैं. जिससे जमीनी कार्यकर्ताओं में निराशा बढ़ती जा रही है. कर्नाटक का मामला जग जाहिर है. मुख्यमंत्री यदुरप्पा को हटाने के लिए राज्य के पर्यटन मंत्री और खनन माफिया जी जनार्दन रेड्डी ने अभियान चलाया हुआ है. इन रेड्डी बंधुओं को सुषमा स्वराज और अनन्त कुमार का वरदहस्त प्राप्त है. ड्राइंगरूम की राजनीति करने वाले अनन्त कुमार जमीनी नेता यदुरप्पा की कुर्सी पर खुद को विराजमान करना चाहते हैं. आपसी गुटबाजी की वजह से दक्षिण में पहली बार परचम लहराने वाली भाजपा कर्नाटक में लगातार कमजोर हो रही है. तो राजनाथ ने अर्जुन मुड्डा को झारखंड का मुख्यमंत्री बनाने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगा दिया. मुड्डा को रोकने के लिए आडवाणी और उनके चहेतों ने यशवंत सिन्हा का नाम आगे कर दिया. राज्य के पूर्व उप-मुख्यमंत्री रहे रघुबर दास समय की नजाकत को देखते हुए राजनाथ के विरोधी जेटली खेमे में चले गए हैं. लिहाजा झारखंड भाजपा कई गुटों में बंट चुकी है.

जैसा हाल भाजपा के केन्द्रीय नेतृत्व का है, वैसा ही कुछ हाल राजस्थान प्रदेश भाजपा का भी चल रहा है. प्रदेश भाजपा के दो गुटों में बंटे होने के कारण अभी तक राजस्थान विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष पद पर किसी की नियुक्ति नहीं हो पाई है, जबकि यह पद काफी लम्बे अरसे से खाली पड़ा है. एक तरफ अध्यक्ष अरुण चतुर्वेदी और दूसरी तरफ पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे के गुटों के बीच लम्बी खिंचती लड़ाई के कारण विधानसभा में प्रतिपक्ष लगातार कमजोर और दिशाहीन होता जा रहा है. भाजपा की इस अंदरूनी लड़ाई का ही परिणाम है कि अशोक गहलोत सरकार बिना किसी परेशानी के अपना दूसरा साल पूरा करने जा रही है. वसुंधरा राजे और पूर्व पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह छत्तीस का आकड़ा है. जब राजनाथ अध्यक्ष थे, राजस्थान में वसुंधरा को नेता प्रतिपक्ष से हटाने की मुहिम तभी शुरु हुई थी. तो राजे को आडवाणी का आशीर्वाद प्राप्त है. संघ के चह्ते अरुण चतुर्वेदी को संगठन मंत्री रामलाल की पसंद बताया जाता है. राजनाथ सिंह और वसुंधरा राजे सिंधिया के बीच जो विवाद था वह एक चिंगारी के रूप में अभी भी कायम है. वहां संगठन और सत्ता पर कब्जे को लेकर वसुंधरा राजे और उनके विरोधियों में जंग जारी है.

बिहार में भाजपा का मतलब केवल सुशील मोदी रह गया है. मोदी राजनीति के पुराने खिलाड़ी हैं और उन्होंने अपने सभी विरोधियों को या तो विधान परिषद में भेज दिया है या फिर पार्टी में शंट कर दिया है. अरुण जेटली जब बिहार के प्रभारी थे तब भाजपा बिहार में सत्ता में आई. मोदी जेटली के खासमखास रहे हैं और पिछले विधानसभा में टिकट का बंटवारा पूरी तरह से जेटली और मोदी ने ही किया था. सुशील मोदी की मनमानी के खिलाफ आवाज उठाने वाले राधामोहन सिंह जैसे नेताओं को किनारे कर दिया गया. मोदी और जेटली के विरोधियों को मजबूरन चुप रहना पड़ा. लेकिन जेटली के बाद अनंत कुमार के बिहार का प्रभारी बनने के बाद मोदी विरोधी फिर मुखर हो गए थे. बावजूद इसके अरुण जेटली अपने चहेते सीपी ठाकुर को प्रदेश अध्यक्ष बनवाने में कामयाब रहे. अश्विनी चौबे, नंद किशोर यादव और दबी जबान से गिरिराज सिंह जैसे मंत्रियों ने विधानसभा चुनावों से पहले ही मोदी के खिलाफ विरोध का स्वर तेज कर दिया था. पार्टी विधानसभा चुनावों के लिए सर्वे करा रही थी तो मोदी विरोधियों की उम्मीदें जग गईं लेकिन केंद्रीय नेतृत्व को साधने में माहिर मोदी ने फिर अपनी पसंद से ही टिकट बांटा. बिहार के सहप्रभारी धर्मेंद्र प्रधान तक की ज्यादा नहीं चली. बिहार से भाजपा के तीन प्रवक्ता हैं. मुख्य प्रवक्ता रविशंकर प्रसाद की दूसरे प्रवक्ताओं शाहनवाज हुसैन और राजीव प्रताप रूढी से भी नहीं बनती. इसके अलावा पटना के सांसद शत्रुघ्न सिन्हा के साथ भी उनका आंकड़ा नहीं बनता. हालांकि इन नेताओं की फिलहाल ज्यादा नहीं चल पा रही, लेकिन ये सभी गडकरी से नजदीकियां बढ़ा रहे हैं. दो चरण तक दूरी बनाए रखने के बाद शत्रुघ्न सिन्हा गडकरी के अनुरोध पर प्रचार में उतरे हैं. उसी तरह सुषमा स्वराज को भी बिहार में अपने विश्वस्तों की तलाश है. अगर भाजपा का प्रदर्शन इन चुनावों में गिरता है तो इसकी एक बड़ी वजह राज्य में गुटबाजी होगी. हालांकि भाजपा के प्रदेश मंत्री और चुनाव प्रचार अभियान के प्रभारी मृत्युंजय झा बिहार में गुटबाजी से साफ इनकार करते हुए कहते हैं, "बिहार भाजपा में खेमेबाजी की बातें निराधार हैं. पार्टी में जितना समन्वय इन चुनावों में दिखा है उतना पहले कभी नहीं रहा.”

मध्यप्रदेश में भाजपा नेताओं में खुलकर गुटबाजी तो नहीं है, पर विभिन्न महत्वपूर्ण मौकों पर उनके बीच के मनमुटाव सामने आते रहे हैं. सरकार में कई ऐसे मंत्री हैं, जो दिल्ली के नेताओं के साथ संबंधों के कारण अपनी मनमर्जी चलाते हैं. ये बात भले ही खुले तौर पर सामने नहीं आएं, पर भाजपा की विभिन्न बैठकों में मंत्रियों एवं नेताओं को नसीहतें मिलती रही हैं. नितिन गडकरी हो या अनंत कुमार या प्रभात झा या फिर मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान, सभी इस बात को लेकर परेशान हैं कि सत्ता में बैठे लोगों के बीच एवं सत्ता एवं संगठन में संतुलन किस तरह से बनाया जाए. पर प्रदेश में इस तरह की समस्या बढ़ाने में केंद्रीय नेताओं की भूमिका ज्यादा है. प्रदेश के हर बड़े नेता के अपने-अपने संकटमोचक हैं. प्रदेश के एक बड़े नेता कहते हैं, “राज्य के प्रमुख नेताओं के केंद्र के बड़े नेताओं सुषमा स्वराज, अरुण जेटली, अनंत कुमार, लालकृष्ण आडवाणी, वेंकैया नायडू और राजनाथ सिंह से अपने-अपने संबंध हैं. इसकी वजह से केंद्रीय नेताओं के शक्ति संतुलन का प्रभाव प्रदेश की राजनीति पर भी पड़ता है. वे कई बार तो उनके मोहरे की तरह काम करते हैं.”

बाबूलाल गौर को विधानसभा चुनाव में टिकट मिलने की संभावना कम थी और प्रदेश के दिग्गज नेता उनके पक्ष में नहीं थे, पर केंद्रीय नेताओं के हस्तक्षेप से उन्होंने टिकट हासिल कर ली. प्रदेश में भले ही वे अकेले हों, पर केंद्र में वेंकैया नायडू का सहयोग उन्हें लगातार मिलता है. इसी तरह से प्रदेश के बड़े नेता एवं उद्योग मंत्री कैलाश विजयवर्गीय का नाम जमीन घोटाले में आया, पर एक केंद्रीय नेता के संरक्षण के कारण ही वे मंत्री पद पर बरकरार रहे. प्रदेश के कई नेताओं की नाखुशी और खुले विरोध के बावजूद केंद्रीय नेताओं के सहयोग से प्रभात झा प्रदेश भाजपा के अध्यक्ष बन गए. मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की सुषमा स्वराज से निकटता जगजाहिर है. चौहान ने ही अपनी लोकसभा सीट विदिशा से सुषमा को चुनाव जितवा कर संसद भेजा है. तो प्रदेश अध्यक्ष प्रभात झा को अरुण जेटली का बरदहस्त प्राप्त है. प्रभात झा को जबरदस्त विरोध के बावजूद मध्य प्रदेश का अध्यक्ष बनाने में जेटली की महत्वपूर्ण भूमिका रही है. सुश्री उमा भारती का भाजपा में वापसी का मामला भी मध्यप्रदेश के नेताओं के विरोध से कम, राष्ट्रीय नेताओं की आपसी तकरार से लटका हुआ है.

मध्य प्रदेश के बाद बात करते हैं छत्तीसगढ़ की. सूबे के मुख्यमंत्री रमन सिंह को शक्ति संतुलन में माहिर बताया जाता है. भाजपा में कोई भी राष्ट्रीय अध्यक्ष रहे, डा रमन सिंह सबको पटा लेते हैं नतीजन पार्टी में उनके विद्रोही चाहकर भी उनका कुछ नहीं बिगाड़ पा रहे. जब राजनाथ सिंह राष्ट्रीय अध्यक्ष थे तो उनका वरदहस्त रमन सिंह को इस कदर हासिल था कि राज्य का कोई भी नेता रमनसिंह के खिलाफ बोलने की हिमत नहीं जुटा पाता था मगर गडकरी के पार्टी अध्यक्ष बनने के बाद परिस्थितियां बदलने लगी हैं और मुख्यमंत्री भी अब समझौतावादी हो गये हैं. गडकरी के साथ कुछ महीने पहले हुई एक बैठक में पूर्व केन्द्रीय मंत्री और सुषमा कैंप के रमेश बैस ने शिकायत कर दी कि नक्सल मामले में रमनसिंह वरिष्ठ नेताओं की राय को कोई तवज्जो नहीं देते. बयान ने खासा रंग दिखाया नतीजन इसका जवाब देने में मुख्यमंत्री ने देरी नहीं की. उन्होंने साफ कह दिया कि संगठन अपना काम कर रहा है और सरकार अपना. जिन्हें शिकायत हो वे संगठन के सामने अपनी बात रख सकते हैं. खैर, बात और बढ़ती इसके पहले ही रमनसिंह और बैस ने एक साथ बैठकर गिले-शिकवे दूर कर लिये. मगर पार्टी के अंदरूनी जानकारों की मानें तो मुख्यमंत्री बनने की लालसा मन में दबाए बैठे बैस ज्यादा दिन तक चुप नहीं बैठने वाले. वैसे भी वे सुषमा स्वराज के समर्थक माने जाते हैं. तो रमन सिंह के आडवाणी कैंप के वेंकैया नायडू से करीबी रिश्ते हैं. नंदकुमार साय और शिवप्रताप सिंह भी रमन सरकार से खासे नाखुश थे मगर उन्हें राज्यसभा भेजकर मुयमंत्री ने संतुलन कायम करने का संदेश दे दिया है. हालांकि पार्टी का हिन्दुत्ववादी चेहरा सांसद दिलीपसिंह जूदेव की नाराजगी दूर नहीं हो सकी है. आलम यह है कि उनके पुत्र और विधायक युद्धवीरसिंह जूदेव ने संसदीय सचिव पद से इस्तीफा दे दिया है.

वरिष्ठ नेताओं के फीडबैक का ही असर रहा कि गडकरी ने फेरबदल के बहाने रमनसिंह के चहेतों पर गाज गिरानी शुरू कर दी है और इसका पहला लक्ष्य उस तिकड़ी को तोडऩा है जो पार्टी से लेकर सरकार तक का भविष्य तय करती है और जिससे राज्य के कई पार्टी दिगगज मुंह फुलाये बैठे हैं. फेरबदल का पहला शिकार जेटली के करीबी और छत्तीसगढ़ के प्रभारी धर्मेन्द्र प्रधान हुए, जिन्हें छत्तीसगढ़ से हटाते हुए दूसरे राज्य का प्रभारी बना दिया गया. अब अगली बारी सौदान सिंह की बताई जाती है. सिंह के कार्य-व्यवहार को लेकर कई केन्द्रीय नेता नाखुश हैं और वे संगठनमंत्री को बदलने पर जोर दे रहे हैं. वैसे नये प्रदेश प्रभारी जगतप्रकाश नड्डा के आने के बाद राज्य के दूसरे वरिष्ठ मंत्री बृजमोहन अग्रवाल का कद काफी बढ़ा है. अग्रवाल के गडकरी और नड्डा से बहुत पुराने संपर्क हैं इसलिए राज्य-भाजपा में बृजमोहन की दखलंदाजी खासी बढ़ गई है. केन्द्र की राजनीति कर रहे राज्य के कई वरिष्ठ नेता रमन सरकार से असंतुष्ट चल रहे हैं जिनमें रमेश बैस, नंदकुमार साय, करूणा शुक्ला, राज्यसभा सांसद शिवप्रताप सिंह और दिलीपसिंह जूदेव जैसे नेता शामिल हैं। राजनाथ सिंह के पार्टी अध्यक्ष रहते ये नेता चुप ही थे मगर नेतृत्व बदलने और गडकरी के आने के बाद रमन सरकार का जो फीडबैक आलाकमान को दिया गया है, उससे गडकरी खासे सतर्क हो गये हैं.

पंजाब, हिमाचल और उत्तराखंड में भी सत्ता और संगठन पर कब्जे की लडाई चरम पर है. पंजाब में भले ही भाजपा की अकाली दल के साथ गठबंधन सरकार है, लेकिन अकाली हमेशा उसकी जड़े खोदने में लगे रहते हैं. पंजाब में कई दमदार नेता हैं लेकिन प्रदेश अध्यक्ष एक ऐसे कमजोर व्यक्ति को बना दिया गया क्योंकि वह तब के प्रदेश प्रभारी बलबीर पुंज के खासमखास थे. अडवाणी के करीबी हिमाचल के मुख्यमंत्री प्रेमकुमार धूमल राज्य में अपने बेटे और युवा मोर्चा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अनुराग ठाकुर की राह से कांटे निकालने में लगे हैं. अरुण जेटली की मदद से बेटे को युवा मोर्चा का अध्यक्ष बनवाने वाले धूमल संगठन के दमदार नेताओं को किनारे लगाने में जुटे हैं ताकि बेटे को राज्य की राजनीति में आसानी से स्थापित कर सकें. धूमल ने अपने करीबी खिमीराम को जेबी प्रदेश अध्यक्ष बनवा कर सत्ता के साथ संगठन पर भी नियंत्रण करने की कोशिश की है. जेपी नडडा जैसे विरोधियों को उन्होंने राज्य से बाहर केंद्र की राजनीति में भिजवा दिया. उत्तराखंड में तीन बड़े नेता अपनी राजनीतिक आकांक्षाओं को पूरा करने के लिए एक दूसरे को शह-मात देने में जुटे हैं. मुख्यमंत्री रमेश कुमार पोखरियाल “निशंक” के अलावा एक गुट पूर्व मुख्यमंत्री भुवन चंद खंडूरी का है तो दूसरा राष्ट्रीय उपाध्यक्ष भगत सिंह कोशियारी का है. तीनों की गुटबाजी राज्य में पार्टी संगठन की जड़ों में मट्ठा डालने का काम कर रही है.

नितिन गडकरी चाहते हैं कि 2014 में केंद्र में भाजपा की सरकार बने और वे इसके लिए अपने स्तर पर इमानदारी से प्रयास भी कर रहे हैं. वे चाहते हैं कि संगठन को मजबूत कर अगले लोकसभा चुनाव तक भाजपा के वोट बैंक में 10 फीसदी की बढ़ोत्तरी की जा सके. लेकिन पार्टी के ही नेता अपने स्वार्थों के लिए नितिन गडकरी की इस योजना को पलीता लगाने में जुटे हुए हैं.

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