बुधवार, 19 अक्तूबर 2011

प्रधानमंत्री पद को लेकर भाजपा में रार



विनोद उपाध्याय

घोटालों से घिरी कांग्रेसनीत यूपीए सरकार के फिर सत्ता में नहीं आने की धारणा के बीच भाजपा में प्रधानमंत्री पद के लिए घमासान शुरू हो गया है। पार्टी को लग रहा है कि इस बार उसे उत्तर भारत के कांग्रेस प्रभावित क्षेत्रों में अच्छी सफलता हासिल होगी। भले ही वह अकेले अपने दम पर सरकार न बना पाए, मगर भाजपानीत एनडीए तो सत्ता में आ ही जाएगा। जाहिर तौर पर भाजपा सबसे बड़ा दल होगा, लिहाजा उसी का नेता प्रधानमंत्री पद पर काबिज हो जाएगा। इस अनुमान के आधार पर भाजपा नेताओं में प्रधानमंत्री पद पाने की होड़-सी लग गई है और पार्टी गाइड लाइन को दरकिनार कर नेता स्वयंभू प्रधानमंत्री बनने के जतन में जुट गए हंै।
राजनीतिक संकेतों और भाजपा के सूत्रों की मानें तो पार्टी में प्रधानमंत्री पद के दावेदार नेताओं में लालकृष्ण आडवानी,सुषमा स्वराज, अरुण जेटली, नरेन्द्र मोदी, राजनाथ सिंह, नितिन गडकरी, यशवंत सिन्हा और मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के अलावा जद(यू) से नितीश कुमार अपने-अपने तरीके से दावा पेश कर रहे हैं।
इस दृश्य को देखकर एक बात तो साफ झलक रही है कि अटल बिहारी वाजपेयी के राजनीतिक अवसान के बाद आज भाजपा ऐसे मोड़ पर खड़ी है जहां कोई किसी का माई-बाप नहीं है। 31 साल की युवा भाजपा जिसका उदय भारतीय राजनीति में दक्षिणपंथ की ओर ऐतिहासिक मोड़ माना गया, जिसे पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी की जोड़ी ने करीब छह साल तक सत्ता के शिखर पर बैठाया आज उसके प्रौढ़ और बुजुर्ग नेताओं में इतना सामथ्र्य नहीं रहा की वे एक-दूसरे को एकता के बंधन में बांध सके और संघ की धार भी भोथर हो गई है। जिसका परिणाम यह हो रहा है कि नेता अपनी डफली अपना राग अलाप रहे हैं और पार्टी रसातल की ओर जा रही है।
लोकसभा चुनाव 2014 में होना है पर भाजपा के अंदर प्रधानमंत्री पद के लिए घमासान छिड़ गया है। यहां एक नहीं कई प्रधानमंत्री पद के दावेदार हैं। जिससे पूछो वही कह बैठता है मेरे में क्या कमी है। हालांकि कुछ वरिष्ठ नेता अपने को इस दौर से बाहर रखे हुए हैं पर कुछ ने खुलकर अपनी दावेदारी पेश कर दी है। पार्टी में कुछ माह पूर्व तक लोकसभा में विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज और राज्यसभा में विपक्ष के नेता अरुण जेटली के बीच ही प्रधानमंत्री पद को लेकर प्रतिस्पर्धा चल रही थी, मगर अब दावेदारों की लंबी फौज सामने आने लगी हैं। गुजरात में लगातार दो बार सरकार बनाने में कामयाब रहे नरेन्द्र मोदी ने गुजरात दंगों से जुड़े एक मामले में उच्चतम न्यायालय के निर्देश को अपनी जीत के रूप में प्रचारित कर अपनी छवि धोने की खातिर शांति और सद्भावना के लिए तीन दिवसीय उपवास किया। उसी दौरान अमेरिकी कांग्रेस की रिसर्च रिपोर्ट में उनकी तारीफ करते हुए ऐसा माहौल बना दिया कि अगले आम चुनाव में प्रधानमंत्री पद का मुकाबला मोदी और राहुल गांधी के बीच हो सकता है। इससे मोदी का हौंसला और बढ़ गया और शांति और साम्प्रदायिक सद्भाव के लिए तीन दिन के उपवास के माध्यम से राष्ट्रीय स्तर पर अपनी छवि बदल कर सर्वमान्य नेता बनने का प्रयास किया। जाहिर तौर पर इससे सुषमा स्वराज व जेटली को तकलीफ हुई होगी। वे ही क्यों पिछले चुनाव में प्रधानमंत्री पद के दावेदार के रूप में पेश किए गए आडवाणी तक को तकलीफ हुई और उन्होंने न केवल रथयात्रा की घोषणा की बल्कि अपने प्रिय नेता नरेन्द्र मोदी के कट्टर विरोधी बिहार के मुख्यमंत्री नितीश कुमार की अगुआई में जयप्रकाश नारायण की तथाकथित जन्मस्थली सिताब दियरा से अपनी रथ यात्रा भी शुरू कर दी है।
आडवाणी ने रथ यात्रा तो शुरू कर दी है लेकिन उस पर सवाल खड़े होने लगे हैं। सबसे पहला यह की आडवाणी अपनी यात्राओं को रथयात्रा ही नाम क्यों देते हैं? रथ आवाम से नहीं जोड़ता है। जनता से दूर ले जाता है। रथ सामंती प्रतीक है। हमारी परम्परा में रावण रथी है। और रघुवीर विरथ। रथ लोक से काटता है, फिर भी लालकृष्ण आडवाणी बिना घोड़ों के रथ पर सवार हैं। पार्टी, मित्रों और संघ परिवार की इच्छा के खिलाफ आडवाणी की रथयात्रा निकल चुकी है। आडवाणी 'आदि रथयात्रीÓ हैं। उनकी यात्रा के निहितार्थ सब जानते हैं। आखिर क्यों वे संघ और भाजपा के कई अपमानजनक शर्तों के बावजूद रथ पर सवार हो रहे हैं? कौन सी मजबूरी है कि प्रधानमंत्री पद की आमरण उम्मीदवारी छोडऩे को वे तैयार नहीं हैं? देश इक्कीसवीं सदी के उस मुकाम पर है। जहां से राजनीति के सूत्र युवाओं के हाथ जा रहे हैं। देश में 72 करोड़ 99 लाख मतदाताओं में से 50 प्रतिशत युवा हैं। राहुल गांधी मुकाबले में हैं। युवा आगे देख रहा है और रथ पीछे ले जाता है। इसलिए आडवाणी की रथयात्रा युवा वर्ग को लुभाती नहीं है। शायद इसी सोच से संघ और भाजपा अपना नेता बदलना चाहते हैं। वे दूसरी पीढ़ी को सत्ता सौंपना चाहते हैं। राजनीति के प्रतीक बदलना चाहते हैं। रथ, राम, अयोध्या और उग्र हिन्दुत्व से परे नए प्रतीक। ताकि भाजपा एक ऐसा उदार राजनैतिक दल बने जिसमें युवा वर्ग अपना भविष्य देख सके। ऐसे नए वैचारिक उपकरण बने जिससे युवा मतदाताओं के तार सीधे जुड़ सके। इसलिए संघ का जोर दूसरी पीढ़ी की ओर है, पर आडवाणी की प्रधानमंत्री पद की चाह रास्ते की अड़चन। आडवाणी की दुर्दशा देखिए। भाजपा के भीतर जो गडकरी, जेटली, वेंकैया, सुषमा स्वराज और नरेन्द्र मोदी इस रथयात्रा के खिलाफ खड़े थे, वे सब आडवाणी द्वारा गढ़े गए हैं। पार्टी में आडवाणी ने उन्हें बड़ा बनाया है। पर उस सवाल पर जंग खाए लौह पुरुष पार्टी में अकेला पड़ गया है।
दरअसल आडवाणी दो परिवारों के बीच पिस रहे हैं। एक-उनका अपना परिवार है। जो उन्हें प्रधानमंत्री देखना चाहता है। उसकी दलीलें हैं, कि मोरारजी भाई तो 83 की उम्र में प्रधानमंत्री बने थे। फिर दादा की सेहत अच्छी है। दिमाग दुरुस्त है। पार्टी में सबसे ज्यादा योगदान है। दूसरा है संघ परिवार। जो किसी भी कीमत पर आडवाणी को अब भाजपा की मुख्यधारा में रहने देना नहीं चाहता। वह जल्दी में है दूसरी पीढ़ी के लिए। इन दो परिवारों के बीच मुश्किल हैं। फिर क्या करें लौहपुरुष? एक सम्मानजनक रास्ता है। वे उस पर क्यों नहीं जाना चाहते? अगर आडवाणी गांधी, लोहिया, जयप्रकाश या अन्ना से नहीं सीख सकते, तो उन्हें कम से कम सोनिया गांधी से ही सीखना चाहिए। कैसे कुर्सी की दौड़ से अलग रह कर राजनीति में हस्तक्षेप किया जा सकता है। कांग्रेस अध्यक्षा सोनिया गांधी पार्टी को आगे बढ़ाने के लिए दिन-रात अथक परिश्रम कर रही हैं। क्या भाजपा के लिए आडवाणी के मन में ऐसी भावना नहीं जाग सकती?
पहले आरएसएस के संकेतों, इशारों और अब साफ-साफ कहने के बावजूद आडवाणी राजनीति से हटने को तैयार नहीं हैं। देश ने पिछले आम चुनावों में नेता के तौर पर उन्हें खारिज किया है। इसलिए संघ पिछले दो साल से आडवाणी के राजनैतिक सन्यास की घोषणा सुनना चाहता है। आडवाणी उस रास्ते जा भी रहे थे। पर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की हिलती कुर्सी देख। वे लौट आए। उनकी लालसा जगी। उन्हें लगा भाजपा में सामूहिक नेतृत्व पर बात नहीं बन रही है। वहां प्रधानमंत्री पद के लिए आधा दर्जन से ज्यादा उम्मीदवार हैं। ऐसे में रथयात्रा के जरिए वे दोबारा सत्ता में आने के लिए दावेदारी कर सकते हैं। पर उनकी इस योजना की हवा इस बार विपक्ष ने नहीं अपनों ने ही निकाल दी। यही वजह है 11 अक्टूबर से निकली उनकी रथयात्रा इस बार कोई माहौल पैदा नहीं कर पा रही है। पार्टी के बड़े नेताओं और मुख्यमंत्रियों ने हाथ खींच लिए थे। पार्टी का यह रुख देख आडवाणी ने रथयात्रा नितीश कुमार के हवाले कर दी। वरना हर कोई जानता है कि जयप्रकाश नारायण की जन्मस्थली सिताब दियारा बिहार में नहीं उत्तर प्रदेश के बलिया जिले में है। सिताब दियारा का जेपी का मकान स्मारक और कुटुम्ब के लोग आज भी उत्तर प्रदेश के बलिया जिले में रहते हैं। घाघरा के कटाव से गांव का सीमांत बिहार के सारण जिले में जरूर पड़ता है। पर सिताब दियारा रेवन्यू गांव यूपी का है। यूपी में फिजा नहीं बन सकती। इस दौरान यूपी में राजनाथ सिंह, कलराज मिश्र दोनों अपनी-अपनी यात्राएं लेकर यहां निकल रहे हैं, सो उत्तर प्रदेश में पार्टी ने हाथ खड़े किए। इसलिए रथयात्रा अब नितीश कुमार के हवाले हुई। इस शर्त के साथ कि यात्रा में लगने वाले नारे, पोस्टर में ऐसा कोई जिक्र और उल्लेख नहीं होगा जो रथयात्री को प्रधानमंत्री पद का दावेदार बताए।
लालकृष्ण आडवाणी ने निश्चिततौर पर भाजपा को सत्ता की राजनीति के सर्वश्रेष्ठ दिन दिखाए हैं। जनसंघ से भाजपा तक उनका योगदान बेजोड़ रहा है। उनकी पहली रथयात्रा ने पूरे देश में रामजन्मभूमि आंदोलन के लिए एक उफान पैदा किया था। उस लिहाज से वे पार्टी के केंद्र में रहे। आडवाणी की खुद की यात्रा भी कम रोचक नहीं है। पहले वे अटल बिहारी वाजपेयी के सहायक रहे। फिर उनके समकक्ष हुए। बाद में प्रतिद्वंदी बने। हालांकि पार्टी के भीतर उनकी कभी सर्वमान्य नेता की हैसियत नहीं रही। यह संयोग है कि अटल बिहारी वाजपेयी के प्रतिद्वंदी बनने के बावजूद आडवाणी तभी तक ताकतवर थे। जब तक वे अटल बिहारी वाजपेयी की छाया में थे। उससे निकलते ही वे न सिर्फ प्रभावहीन हुए। पार्टी के क्षत्रपों ने उनका विरोध शुरू कर दिया। उन्हे लगा कि प्रधानमंत्री बनने के लिए अटल जैसा उदार चेहरा चाहिए। अपने चेहरे को उदार बनाने के लिए उन्होंने जिन्ना का सहारा ले लिया। बस यहीं से शुरू हुई गड़बड़। जिन्ना प्रकरण के बाद संघ ने उनकी नाक में नकेल डाली। बीजेपी के नए नेतृत्व ने उन्हें लगभग धकिया कर नेतृत्व की दौड़ से बाहर किया। पर कमजोर होते मनमोहन सिंह और भ्रष्टाचार के आरोपों से साख खोती सरकार ने उनकी सारी उम्मीदें जगा दी। अब देखना यह है की आडवाणी की मंशा पर विपक्ष पानी फेरता है या अपने?
प्रधानमंत्री पद के एक अन्य दावेदार गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी का जनाधार अन्य नेताओं के मुकाबले अधिक है, लेकिन उन्हें कट्टरपंथी माना जाता है, इस कारण राजग के घटक दल उनके नाम पर सहमति नहीं देंगे। आज की तारीख में भाजपा में अगर कोई जन नेता है तो अटल बिहारी वाजपेयी के अलावा नरेंद्र मोदी का ही नाम लिया जा सकता है। वाजपेयी के अलावा मोदी की ही सभाओं में लाखों की भीड़ होती है और वे वाजपेयी की तरह सहज वक्ता नहीं हैं लेकिन भीड़ को बांध कर रखना उन्हें अच्छी तरह आता है। मुहावरे वे गढ़ लेते हैं, जहां जरूरत होती है, वहां वही भाषा बोलते हैं और अच्छे-अच्छे खलनायकों को हिट करने वाली और दर्शकों को मुग्ध करने वाली जो बात होती है, वह मोदी में भी है कि वे अपने किसी कर्म, अकर्म या कुकर्म पर शर्मिंदा नजर नहीं आते। नरेंद्र मोदी गोधरा के खलनायक हैं मगर संघ परिवार, भाजपा और कुल मिला कर हिंदुओं के बीच भले आदमी माने जाते हैं। लेकिन मोदी गोधरा कांड की काली छाया से अभी तक उबर नहीं पाए हैं।
पिछली चुनावी विफलताओं से भाजपा ने सबक सीखा है। सबक यह है कि अगले चुनाव में भाजपा की ओर से प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में किसी नेता को पेश नहीं किया जायेगा। प्रधानमंत्री पद के लिए नरेंद्र मोदी के नाम की चर्चा तो बुद्धि विलास या फिर एक खास वर्ग में डर पैदा करने की अनावश्यक कोशिश के अलावा और कुछ भी नहीं लगती है। नरेंद्र मोदी व्यक्तिश: प्रधानमंत्री पद के योग्य हैं या नहीं, इस सवाल को छोड़ भी दिया जाए तो भी सवाल यह उठता ही है कि उन्हें प्रधानमंत्री आखिर बना कौन रहा है? क्या उनकी पार्टी में आज इस सवाल पर एकमत कौन कहे, सर्वानुमति भी है? सबसे बड़ा सवाल यह भी है कि आरएसएस आखिर चाहता क्या है? यदि आरएसएस मोदी को प्रधानमंत्री पद पर देखना भी चाहे तो उसके लिए भाजपा को खुद अकेले अपने बल पर लोकसभा में बहुमत लाना होगा? आज के राजनीतिक माहौल को देखते हुए ऐसा बहुमत कहीं से संभव नहीं लगता है। यहां मान कर चला जा रहा है कि भाजपा के कतिपय सहयोगी दल नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री के पद पर देखना नहीं चाहेंगे। फिर भी इस पद को लेकर मोदी के नाम की चर्चा क्यों इतनी अधिक हो रही है, आश्चर्य होता है।
आडवाणी और मोदी की वनिस्वत सुषमा व जेटली अलबत्ता कुछ साफ-सुथरे हैं, मगर उनकी ताकत कुछ खास नहीं। सुषमा स्वराज फिलहाल चुप हैं, क्योंकि वे जानती हैं कि अकेले भाजपा के दम पर तो सरकार बनेगी नहीं, और अन्य दलों का सहयोग लेना ही होगा। ऐसे में मोदी की तुलना में उनको पसंद किया जाएगा। रहा सवाल जेटली का तो वे भी गुटबाजी को आधार बना कर मौका पडऩे पर यकायक आगे आने का फिराक में हैं। इसी प्रकार जहां तक राजनाथ सिंह के नाम का सवाल है तो यह उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों पर निर्भर करता है। यदि भाजपा का प्रदर्शन अच्छा रहा तो निश्चितरूप से उनकी दावेदारी मजबूत होगी। आडवाणी के अतिरिक्त पूर्व पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह भी उत्तर प्रदेश में रथयात्रा के माध्यम से आगे निकलने की कोशिश कर रहे हैं। इन सबके अतिरिक्त सुनने में यह भी आ रहा है कि पार्टी अध्यक्ष नितिन गडकरी भी गुपचुप तैयारी कर रहे हैं। वे लोकसभा चुनाव नागपुर से लडऩा चाहते हैं और मौका पडऩे पर खुलकर दावा पेश कर देंगे। हालांकि कुछ वरिष्ठ नेता अपने को इस दौर से बाहर रखे हुए हैं पर कुछ ने खुलकर अपनी दावेदारी पेश कर दी है इसमें झारखंड से सांसद और पूर्व वित्त मंत्री यशवंत सिन्हा का भी नाम शामिल हैं। भाजपा के वरिष्ठ नेता यशवंत सिन्हा ने कहा है कि पार्टी में उनके सहित कई नेता प्रधानमंत्री पद की उम्मीदवारी के योग्य हैं लेकिन लोकसभा चुनावों के करीब आने पर ही यह फैसला किया जाएगा कि प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार किसे बनाया जाए किसे नहीं। उन्होंने स्वयं को भी प्रधानमंत्री पद दावेदार बताते हुए कहा कि मेरी क्षमता पर किसी को संदेह नहीं होना चाहिए। सिन्हा ने भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी और गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी में से किसे प्रधानमंत्री बनाया जाएगा इस आशय की अटकलों और इन दोनों नेताओं के बीच मतभेद की रिपोर्टों को कम महत्व देने की कोशिश की। पूर्व केंद्रीय मंत्री ने कहा कि यह केवल मीडिया की देन है और भाजपा में कोई इस बारे में बात नहीं कर रहा है।
इन सबके इतर एक नेता जो दबे और सधे कदमों से प्रधानमंत्री की कुर्सी की ओर बढ़ रहा है वह हैं मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान। शिवराज संघ और भाजपा दोनों की आंखों के नूर हैं। भाजपा का केन्द्रीय नेतृत्व शिवराज को तराश कर उन्हें अगला अटल बिहारी बनाने में जुट गया है। केन्द्रीय नेतृत्व को यह बात भलीभांति मालूम है कि क्षेत्रीय नेताओं में शिवराज ही ऐसे नेता हैं जिन्होंने केन्द्र और राज्य में विभिन्न पदों पर लंबे समय तक काम किया है। शिवराज की अभी तक की सफल राजनीतिक यात्रा पर गौर करें तो हम पाते हैं कि उनमें एक कुशल राजनेता के सभी गुण हैं। शिवराज की इसी खूबी को भाजपा भुनाने की तैयारी कर रही है। संघ और भाजपा की मंशा भांपकर शिवराज सिंह चौहान ने भी यात्राओं के इस माहौल में बेटी बचाओ अभियान के तहत यात्राओं का दौर शुरू कर दिया है। शिवराज की कार्यप्रणाली को देखे तो हम पाते हैं की आम आदमी के दिल में पैठ बनाने की अदा उनसे अधिक किसी अन्य नेता में नहीं है। आम जनता की दुखती नस की पहचान उन्हें खूब है। संघ और भाजपा संगठन इस बात को भलीभांति जानता है और मौका मिला तो वह शिवराज की सेक्यूलर छवि को भुनाने का कोई अवसर नहीं छोड़ेगा। जानकारों की मानें तो यह सब दो साल बाद की राजनीतिक परिस्थितियों को ध्यान में रख किया जा रहा है। राष्ट्रीय फलक पर गौर करें तो भाजपा के पास ऐसे चेहरों की कमी दिखाई पड़ती है जो भीड़ खींचने का माद्दा रखते हों और जिनकी छवि भी अच्छी हो। न काहू से दोस्ती न काहू से बैर की नीति पर चलने वाले शिवराज इस कसौटी पर फिट बैठते हैं। उन्हें चुनौती गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी और हाल ही में पार्टी की सदस्य बनी उमा भारती से मिल सकती है। लेकिन दोनों हिंदूवादी चेहरे हैं जिनसे गठबंधन के इस दौर में कई सहयोगियों को दिक्कत हो सकती है,इसलिए शिवराज जैसे मध्यमार्गी नेता पार्टी के लिए फायदेमंद रह सकते हैं।
रामनामी ओढ़कर राजनीति के मैदान में उतरी भारतीय जनता पार्टी अपनी साम्प्रदायिक छवि से आजिज आ चुकी है इसलिए वह अब अपनी छवि बदलने में लगी हुई है लेकिन उसे दमदार सेक्युलर चेहरा नहीं मिल पा रहा है। भाजपा में लालकृष्ण आडवाणी, नितिन गडकरी, मुरली मनोहर जोशी, अरुण जेटली, सुषमा स्वराज, राजनाथ सिंह, नरेन्द्र मोदी आदि जितने कद्दावर नेता हैं इन सबकी साम्प्रदायिक छवि है। जब भाजपा हिन्दू पार्टी थी। जब हिंदुओं को भाजपा ने आंदोलित किया था। तब दलित, फारवर्ड, जाट, किसान आदि सभी जातियों या वर्गों ने अपनी पहचान हिन्दू मानी थी। तब जब आडवाणी ने राम रथयात्रा की थी। उस रियलिटी को भाजपा लीडरशिप ने आज इस दलील से खारिज किया हुआ है कि काठ की हांडी बार-बार नहीं चढ़ा करती। आज का समाज, आज का नौजवान और आज का हिन्दू अयोध्या पुराण से आगे बढ़ चुका है। इसलिए जरूरत आज वाजपेयी बनने की है। पार्टियों को पटाने की है और 2014 के लिए एलांयस के जुगाड़ की है। ऐसे में गठबंधन की मजबूरियां सामने आती हैं तो पार्टी मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को प्रधानमंत्री पद के लिए आगे कर सकती है।
अगर एनडीए गठबंधन की बात करें तो बिहार के मुख्यमंत्री नितीश कुमार का नाम प्रधानमंत्री के लिए सामने आता है। जिस नितीश कुमार के बारे में इस पद को लेकर आये दिन अटकलबाजी होती रहती है, उस मुख्यमंत्री ने हाल में यह साफ-साफ कह दिया कि बिहार की सेवा ही देश की सबसे बड़ी सेवा है। मैं प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार नहीं हूं। मैं ऐसी चर्चा करने वालों से हाथ जोड़ कर कहता हूं कि मुझ पर रहम कीजिए और मुझे बिहार की सेवा करने दीजिए जिसके लिए जनता ने मुझे आदेश दिया है।
भाजपा नेताओं की प्रधानमंत्री पद की इस दौड़ के परिपे्रक्ष्य में अगर हम देखें तो आज देश का जो राजनीतिक माहौल है,उसमें मोटे राजनीतिक तौर पर इस देश के मतदाता तीन हिस्सों में बंटे हुए हैं। मुख्यत: तीन राजनीतिक शक्तियां हैं-कांग्रेस गठबंधन, राजग और अन्ना-स्वामी रामदेव टीमें। यदि अन्ना-राम देव टीम के साथ राजग का कोई ढीला ढाला चुनावी तालमेल हुआ तो उस समूह की सीधी टक्कर कांग्रेस यानी यूपीए होगी। मान लिया कि ऐसा हो गया और राजग-अन्ना टीम को लोकसभा में बहुमत मिल गया। तो फिर क्या होगा?
अगले चुनाव में यदि अन्ना खेमे को सफलता मिलती है तो अभी यह भी अनिश्चित है कि उस खेमे की ओर से कौन नेता प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनेगा। यह भी तय नहीं है कि अन्ना-रामदेव खेमों का राजग से किस तरह का और कितना तालमेल हो पायेगा। कांग्रेस की ओर से चुनाव पूर्व प्रधानमंत्री या फिर अगले चुनाव के बाद प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार की बात तय करने में सबसे कम समय लगने वाला है। उस दल में किसी आंतरिक या बाह्य विवाद की कोई संभावना/गुंजाइश ही नहीं है। क्योंकि पार्टी पर सोनिया गांधी की पूरी पकड़ अभी भी बरकरार है।
यह बात भी मार्के की है कि कांग्रेस को छोड़कर किसी भी दल ने इस पद के लिए अपने उम्मीदवार की घोषणा अब तक तो नहीं की है, यहां तक कि कोई संकेत भी नहीं है। हां, प्रणव मुखर्जी ने हालिया बयान में राहुल गांधी की ओर इशारा जरूर किया है। पर वह तो एक मानी हुई बात रही है। दरअसल आज भ्रष्टाचार ही इस देश का सबसे बड़ा मुद्दा है। यदि अगले चुनाव से पहले इस बीच देश के जनजीवन में इससे भी बड़ी अन्य कोई घटना नहीं हो जाए या कोई अन्य मुद्दा नहीं उछल जाए तो अगला लोकसभा चुनाव इसी भ्रष्टाचार के मुद्दे के इर्द-गिर्द ही लड़ा जायेगा। भ्रष्टाचार विरोधी अभियान के नायक अन्ना हजारे खुद प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार हैं ही नहीं। वे तो चुनाव भी नहीं लड़ेंगे। हां, किसी न किसी रूप में अगले चुनाव को वह प्रभावित जरूर करेंगे जिस तरह जेपी ने 1977 में किया था। लेकिन देश की मुख्य विपक्षी पार्टी में जिस तरह प्रधानमंत्री पद को पाने को लेकर घमासान मचा हुआ है वह देश की राजनीति के लिए शुभ संकेत नहीं है। अगला प्रधान मंत्री कौन बनेगा? इस सवाल का जवाब बिलकुल भविष्य के गर्भ में है। क्योंकि तब जरूरी नहीं कि भाजपा का ही कोई नेता प्रधानमंत्री बने।

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